गुरुवार, 4 दिसंबर 2025

चार दिसंबर की चिट्ठी

जनवरी को नहीं होना था ऐसा

कि ठंड में एम्स की पर्ची कटानी पड़े

कोहरा सिर्फ शहर में ही नहीं

जीवन में प्रवेश कर जाए।


फरवरी में डॉक्टर बताए कि

नहीं बची है उम्मीद साल पूरा कर पाने की

बसन्त की आहट से लगे डर

और मार्च की एक दोपहर


हम तय कर रहे हों कि

कीमो के लिए सरकारी बेहतर या प्राइवेट

अप्रैल में जब शुरू हो इलाज

क़र्ज़ या मदद तो छोड़िए

मिलने जुलने से भी कतराने लगे परिवार समाज

दवाई की कड़वाहट और हर तरफ़ अवसाद


मई में भी नहीं किसी अच्छे दिन की याद

जून में सिर्फ शरीर रह गया सूख कर

आत्मा इलाज में निचोड़ दी गई


जुलाई अगस्त तक याद हो गई दिनचर्या

पहले कीमो चढ़ेगा

फिर बारिश आयेगी

फिर बुखार आयेगा

फिर सांत्वना के लिए लोग

फिर कड़वी दवाएं

और यही अंतहीन चक्र चलता रहेगा


सितंबर तक सीख चुकी बेटी

बिना खाए हंसना

और बिना रोए जीना


अक्टूबर में छूट गई नवंबर की तैयारी

वेटिंग की टिकट और गांव लौटने की मारामारी

अब तो यह भी याद नहीं

कि आखिरी बार किस नवंबर माथा टेका था

खरना में हमने एक साथ।

कब लड़े थे कि कितने बजे ठेकुआ प्रसाद बनना शुरू होगा


हमारे दिसंबर में एक दिन मुस्कुराता था

तब भी और अब भी

यह उसी तारीख का एक ख़त है तुम्हारे नाम


ये अभिशप्त चिट्ठी ख़ुद ही लिखनी है

और ख़ुद ही पढ़नी है सैंकड़ों बार


काश इस चिट्ठी को उम्मीद के साथ ख़त्म किया जा सकता था -

विशेष मिलने पर।



निखिल आनंद गिरि

1 टिप्पणी:

  1. आप परिस्थिति के किनारे खड़े हो कर मुश्किल घड़ियों को भी बखूबी अभिव्यक्त कर पायें हैं ।

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