शनिवार, 2 जून 2012

मैं एक कूटभाषा में लड़ना चाहता हूं...

मुझे रह-रह कर अपना बचपन याद आ रहा है। एक स्कूल जहां रिक्शा घंटी बजाता आता तो हम पीछे वाले डिब्बे में बैठ जाते। रिक्शेवाला दरवाज़े की कुंडी लगा देता और हम चुपचाप शोर मचाते स्कूल पहुंच जाते। कोई हाय-हल्लो या हैंडशेक नहीं। सीधे-सीधे आंखो वाली पहचान। हम रिक्शे में बैठे होते और रास्ते के किनारे एक टूटी-सी कंटेसा कार खड़ी होती। हम रोज़ उसे देखा करते। वो कार आज कहीं नहीं दिखती, मगर वो है कहीं न कहीं। ऐसे फॉर्म (आकार) में नहीं कि उसे छू सकें, देख सकें, मगर एकदम आसपास है। ये कोड लैंग्वेज (कूटभाषा) बचपन की विरासत है हमारे साथ जो हर अच्छे-बुरे वक्त में काम आती है।

मेट्रो में एक चेहरे को देखकर मेरी निगाहें रुक गई हैं। उसके चेहरे में मेरी पहचान का कोई पुराना चेहरा नज़र आ रहा है। वो मुझसे कई क़दम के फासले पर है। मैं उसकी आवाज़ नहीं सुन सकता। मगर, वो चेहरा कुछ कह रहा है। मैं उसे एकटक देख रहा हूं। सामने एक आदमी आकर खड़ा हो गया है। हालांकि, उससे मेरी कोई पहचान नहीं है। मगर, उससे मुझे चिढ हो गई है। फिर कई सारे आदमी सामने आ गए हैं। मैं सबसे चिढ़ने लगा हूं। एक रिश्ते को ढंक दिया है इन सारे अनजान आदमियों ने, जिनसे दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं। मैं अगर लड़ना भी चाहूं तो किससे लड़ूं। किस कूटभाषा में लड़ूं। क्या लड़ाईयों की कूटभाषा नहीं होती।

स्कूल की एसेंबली में एक लड़की याद आती है। मुझसे बहुत लंबी। दरअसल, मैं ही क्लास में सबसे छोटा। क्लास की लाइन में मेरा हाथ पकड़कर सबसे आगे करती हुई। फिर चुपचाप लाइन में सबसे पीछे जाकर खड़ी होती। उसके सीने पर दाहिनी ओर मॉनिटर लिखा  हुआ। प्रार्थना शुरू होती तो मैं सबकी आंखे देखता, जो मुंदी हुई होतीं। मेरी आंखें लाइन में पीछे मुड़तीं। सबसे पीछे तक। वो लड़की अपने हाथ जोड़े, मगर आंखें खुली हुई। हम एक कूटभाषा में आज भी बात करते हैं, पता नहीं वो समझ पाती है कि नहीं।

मैं अब भी वो कूटभाषा सीख रहा हूं जब कीबोर्ड की दो बूंदों वाला एक बटन किसी ब्रैकेट वाले दूसरे बटन के साथ जुगलबंदी कर ले तो हम मुस्कुराने (स्माइली) लगते हैं या फिर उदास दिखने लगते हैं।  क्या ज़िंदगी में ऐसा नहीं हो सकता। हम जिन्हें चाहते हैं, वो दिखें, न दिखें। मिलें, न मिलें। बात करें, न करें। बस इतना कि ज़िंदगी में उनकी मौजूदगी का एहसास बना रहे। किसी भी आकार में। सॉलिड में न सही, लिक्विड या गैस में ही सही।

निखिल आनंद गिरि

10 टिप्‍पणियां:

  1. एहसास तो बना रहता है .बस महसूस करने की जरूरत है .जैसे आपने अभी इस में लिख कर किया ..:)

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  2. ये एहसास हमेशा साथ रहता है ...

    हम जिन्हें चाहते हैं, वो दिखें, न दिखें। मिलें, न मिलें। बात करें, न करें।

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  3. आप जब अच्छा लिखते हैं तो अच्छा लिखते हैं। और यह काम आप बार-बार करते हैं।
    आपकी विशेषताओं का दूसरों पर प्रभाव पड़ता है, अत: इनका प्रयोग जिस सर्वोत्‍तम विधि से आप कर सकते हों, कीजिए।

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  4. वो होते हैं आस पास ही कहीं ... बस इस एहसास की जर्रोरत है ..

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  5. बहुत सुलझे शब्दों में कहता हूँ कि आपका एक प्रशंसक हूँ. आप बहुत ही सरल लिखते हैं पर हर एक कृति कुछ नए सुगंधों को समेटे आती है और मैं सुगन्धित हो उठता हूँ. सच मानिए साहित्य के गिरते स्तर से कई बार डर सा लगता है. लोग धरल्ले से कथा, कविता, आलोचना, समालोचना लिखे जा रहे हैं. आपको देखकर एक सुकून मिलता है. मैं जनता हूँ कि मेरी भाषा ऐसी हो गयी है मानो मैं आपसे वरिष्ठ हूँ, ऐसा न वय और न साहित्य कि दृष्टि से ही हूँ यह मात्र एक सचेत पाठक का मनोभाव है

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  6. तुम मेरे पास होते हो गोया,
    जब कोई दूसरा नहीं होता :)

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  7. शुक्रिया आदित्य जी..यूं ही सचेत पाठक बने रहिए...लिखने वालों के पास और ख़ज़ाना होता क्या है...
    मनोज जी,
    मेरे पास तो ब्लॉग के ज़रिए अपनी बात कहने और 'प्रभाव डालने' का ही सबसे बेहतर विकल्प है, सो करता हूं...बाक़ी आप
    दूसरे प्रयोगों का रास्ता दिखा सकते हैं..

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  8. निखिल मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर है:
    हम वहां हैं जहाँ से हम को भी
    कुछ हमारी खबर नहीं आती.

    जब जब वह अहसास मेरे पास होता है, मैं भी वहीं होता हूँ, जहाँ से मुझे भी मेरी कोई खबर नहीं आती. मेरी आँखें प्रायः इसी कारण एक कूट तरीके से डबडबाई रहती हैं, पता नहीं, कैसे जी रहा हूँ मैं. शायद जीने का भी मेरा एक कूट अंदाज़ है! कुछ भी हो, ऐसी मार्मिक बातें कह कर मुझे मार ना देना किसी दिन!...

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