उसके पास उम्र के तीन हिस्से थे। एक हिस्सा थोड़ा छोटा था, मगर उसे बेहद पसंद था। जैसे घर के छोटे बेटे अमूमन सबको बहुत पसंद होते हैं। ये बस घर में ही मुमकिन है कि कोई छोटा हो और फिर भी बहुत पसंद हो। ज़रा घर से बाहर की दुनिया में निकलिए तो पता चले कि छोटे आदमी की औकात क्या होती है। मज़े की बात ये है कि यहां कोई ख़ुद को छोटा मानने को तैयार ही नहीं होता। सबको बड़ा बनना है। बहुत बड़ा। दुनिया बड़े लोगों की कद्र करती है। ज़रा सोचिए, जिस बड़ी-सी दुनिया में हमारा छोटा-सा घर है, उसके बाहर की दुनिया कितनी अलग है। मुझे आप बेवकूफ कह सकते हैं मगर मैं छोटे-से घर के लिए इस बड़ी दुनिया को कौड़ियों के दाम बेच देना चाहूंगा।
ख़ैर, उसके पास उम्र के तीन हिस्से थे। उस छोटे से हिस्से में दुनिया बिल्कुल नहीं थी, शायद इसीलिए उसे वो हिस्सा बेहद पसंद था। उसमें एक आईना था। एक रात थी, एक तारीख भी। उस रात को वो सिरहाने के नीचे रखकर सोता था। उस तारीख को वो हर दिन रात के माथे पर टांक देता और देर तक निहारता रहता। फिर आईने के सामने खड़े होकर वो घंटो रोता था। वो तब तक रोता जब तक तारीख धुंधली न पड़ जाती। उन धुंधली आंखों से उसे उम्र का दूसरा हिस्सा दिखाई पड़ता जहां आसमान एक वीरान खंडहर की तरह नज़र आता। रात उसे किसी काले चेहरे की तरह नज़र आती और चांद उस पर सफेद दाग़ की तरह। इन्हीं नज़रों से उसने दुनिया देखनी शुरू की थी।
दुनिया को देखकर कभी-कभी लगता है कि अब बनाने वाले से भी उसकी दुनिया संभाले नहीं संभलती। मुझे ये दुनिया उसकी उम्र का तीसरा हिस्सा लगती है। पहला हिस्सा संभल-संभल कर गुज़ार लिया, दूसरे तक आते-आते दम फूलने लगा तो तीसरे हिस्से को छोड़ गया किसी तरह गुज़र जाने के लिए। मुझे अचानक एक रिश्ता याद आ रहा है जिसमें ठीक ऐसे ही तीन हिस्से थे। रिश्ते का तीसरा हिस्सा किसी तरह गुज़र जाने के लिए बेताब है, बेबस है। ठीक उतना ही बेबस जितना दुनिया को बनाने वाला।
निखिल आनंद गिरि
ख़ैर, उसके पास उम्र के तीन हिस्से थे। उस छोटे से हिस्से में दुनिया बिल्कुल नहीं थी, शायद इसीलिए उसे वो हिस्सा बेहद पसंद था। उसमें एक आईना था। एक रात थी, एक तारीख भी। उस रात को वो सिरहाने के नीचे रखकर सोता था। उस तारीख को वो हर दिन रात के माथे पर टांक देता और देर तक निहारता रहता। फिर आईने के सामने खड़े होकर वो घंटो रोता था। वो तब तक रोता जब तक तारीख धुंधली न पड़ जाती। उन धुंधली आंखों से उसे उम्र का दूसरा हिस्सा दिखाई पड़ता जहां आसमान एक वीरान खंडहर की तरह नज़र आता। रात उसे किसी काले चेहरे की तरह नज़र आती और चांद उस पर सफेद दाग़ की तरह। इन्हीं नज़रों से उसने दुनिया देखनी शुरू की थी।
दुनिया को देखकर कभी-कभी लगता है कि अब बनाने वाले से भी उसकी दुनिया संभाले नहीं संभलती। मुझे ये दुनिया उसकी उम्र का तीसरा हिस्सा लगती है। पहला हिस्सा संभल-संभल कर गुज़ार लिया, दूसरे तक आते-आते दम फूलने लगा तो तीसरे हिस्से को छोड़ गया किसी तरह गुज़र जाने के लिए। मुझे अचानक एक रिश्ता याद आ रहा है जिसमें ठीक ऐसे ही तीन हिस्से थे। रिश्ते का तीसरा हिस्सा किसी तरह गुज़र जाने के लिए बेताब है, बेबस है। ठीक उतना ही बेबस जितना दुनिया को बनाने वाला।
निखिल आनंद गिरि
दुनिया को देखकर कभी-कभी लगता है कि अब बनाने वाले से भी उसकी दुनिया संभाले नहीं संभलती।...बहुत अच्छी बात कही है ... मुझे भी यही लग रहा
जवाब देंहटाएंबेहद गहन मगर सत्य से भी मिलवा रही है।
जवाब देंहटाएंमुझे ये दुनिया उसकी उम्र का तीसरा हिस्सा लगती है। पहला हिस्सा संभल-संभल कर गुज़ार लिया, दूसरे तक आते-आते दम फूलने लगा तो तीसरे हिस्से को छोड़ गया किसी तरह गुज़र जाने के लिए...bahut khubsurat dhang se kah gaye aap...
जवाब देंहटाएंगहन बात कह दी है .. मनन करने योग्य
जवाब देंहटाएंबेहतरीन.........
जवाब देंहटाएंउस छोटे से हिस्से में दुनिया बिल्कुल नहीं थी, शायद इसीलिए उसे वो हिस्सा बेहद पसंद था।
बहुत गहरी बात..
सादर.
bahut khoob
जवाब देंहटाएंSandeep Kumar
Amritsar
"उस तारीख को वो हर दिन रात के माथे पर टांक देता और देर तक निहारता रहता। फिर आईने के सामने खड़े होकर वो घंटो रोता था। वो तब तक रोता जब तक तारीख धुंधली न पड़ जाती।"
जवाब देंहटाएंनिखिल जी, काफी गहराई है इस लाइन में.. मेरी सहानुभुति आपके साथ है..
सोहैल साहब...
जवाब देंहटाएं''क्या करूं संवेदना लेकर तुम्हारी,
क्या करूं...?'
सोहैल साहब...
जवाब देंहटाएं''क्या करूं संवेदना लेकर तुम्हारी,
क्या करूं...?'