रविवार, 1 जनवरी 2017

तीस की उम्र


चांद तक जाती हुई एक सीढी
टूट जाती है शायद
टूट जाते हैं सब संवाद
चांद जैसी धवल प्रेमिकाओं से
तीस की उम्र तक आते-आते।

अकेले कमरे में सिर्फ सिगरेट ही नहीं जलती
पुरानी उम्र जलती है कमरे में
भूख जलती है पेट में,
बिस्तर पर
यादें जलती हैं
ज़िंदगी जलकर सोना हो जाती है
तीस की उम्र तक आते-आते।

समय इतनी तेज़ी से घूमता है
इस उम्र में
कि सब कुछ थम-सा जाता है
आंखें नाचती हैं केवल।
बहुत-सी सांसे भरकर
रोकना होता है भीतर का ज्वार
बहुत तो नहीं रुक पाता फिर भी।

कंधे पर एक तरफ होता है
तमाम ज़िम्मेदारियों का बोझ
बेटी जागती है रात भर
तो प्रेमगीत लोरियां बनते हैं।
पिता पहली बार लगते हैं बूढे
मां किसी खोई हुई चाबी का उदास छल्ला।
दूसरे कंधे पर झूलता है ऐसे में
सूखी पत्तियों की तरह हरा प्रेम।

दुनिया में सब कुछ हो रहा होता है पूर्ववत
कुछ भी नया नहीं
सड़क पर लुटते रहते हैं मोबाइल
बहकते रहते हैं नए लौंडे
कानून तब भी अंधा
एक ही तराज़ू पर तोलता रहा है
उम्र और जुर्म के बटखरे।

सिर्फ नया होता है
एक उम्र का दूसरी उम्र में प्रवेश
अपनी-अपनी बालकनी में खड़े सब भाई-बंधु
युद्ध के मैदान में अचानक जैसे।
तीस की उम्र का रथ होता है एक
कोई सारथी नहीं
जिसके पहिए घिसने लगते हैं पहली बार।

('तद्भव' पत्रिका में प्रकाशित)

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

‘डियर 2016’ के ‘दंगल’ में ‘उड़ता’ बॉलीवुड

साल 2016 में मेरे सिनेमा देखने की शुरुआत एक ऐसी फिल्म से हुई जिसका पहला शो देखने लगभग पांच-छह लोग आए थे। ये फिल्म थी चौरंगाजिसे मेरे कॉलेज के डबल सीनियर (जमशेदपुर और जामिया) बिकास रंजन मिश्रा ने बनाई थी। फिल्म में नाम बड़ा नहीं था, इसीलिए एक बेहतरीन कहानी भी एकाध शो बाद ही भुला दी गई। समाज की लगभग हर समस्या का कॉपीबुक ट्रीटमेंट थी चौरंगाजैसे आप कोई फीचर फिल्म नहीं, किसी फिल्म स्कूल के स्टूडेंट की डिप्लोमा फिल्म देख रहे हों। फिल्म के शुरुआती क्रेडिट्स में ये बताया जाना कि ये एक हिंदी नहीं खोरठा फिल्म है, मेरे लिए पहला अनुभव था।
वज़ीरअमिताभ बच्चन के लिए एक और शानदार फिल्म रही। कोरियन फिल्म मोंटाजमैं देख चुका था इसीलिए इसकी हिंदुस्तानी नकल में मेरी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी। फिर भी महिला मित्र के साथ हॉल जाने का सुख मैं कभी मिस नहीं करता।
साला खड़ूसऔर मस्तीज़ादेएक ही भाषा में अच्छी-वाहियात फिल्मों के विलोम की तरह एक ही हफ्ते में रिलीज़ हुए। मैंने दोनों देखी और अपना विश्वास मज़बूत किया कि राजनीति से लेकर नई हिंदीके लेखक हों या हिंदी फिल्में, सनसनी हो तो दर्शक, पाठक या मतदाता सब जेब में होते हैं। फितूरएक ओवररेटेड फिल्म साबित हुई और अगर ये 1990’s के दौर में आती तो कुमार सानू जैसा कोई सिंगर इसे हिट करा सकता था। नीरजाएक शहीद एयर होस्टेस की सच्ची घटना पर आधारित फिल्म थी और ठीकठाक बनी थी।
हंसल मेहता की अलीगढ़साल की सबसे अलग फिल्म रही मगर दर्शक इसे भी नहीं मिले। ऐसी फिल्मों से बॉलीवुड का क़द पता चलता है। की एंड कामुझे एक मैच्योर फिल्म लगी और मुझे फिर लगा कि मल्टीप्लेक्स का दर्शक ही आने वाले वक्त का सिनेमा तय करता रहेगा। शाहरूख की फैनएक अलग कोशिश तो थी मगर अंत तक आते-आते आप शाहरुख के फैन होने की बजाय किसी पंखे से लटक जाना पसंद करेंगे।
अश्विनी तिवारी की नील बट्टे सन्नाटाने इस साल सबसे अधिक चौंकाया। एक मां और बेटी एक ही स्कूल की एक ही क्लास में पढ़ने जाते हैं। ये सोच कर ही फिल्म देखने का मन कर जाएगा। एक शानदार फिल्म को बार-बार देखा जाना चाहिए। ऐसी गंभीर फिल्म उसी वक्त में हिट होती है जब सनी लियोनी की वन नाइट स्टैंडको भी ठीकठाक दर्शक मिलते हैं। इमरान हाशमी अज़हरमें कॉलर तो सही उठाते रहे मगर फिल्म मीठा-मीठा सच का जाल बनाती रही और उलझ कर रह गई। एक और भारतीय कप्तान धोनीभी इसी साल पर्दे पर उतारे गए और अज़हर से ज़्यादा इमानदारी से उतारे गए।   
धनकनागेश कुकनूर स्टाइल की एक और बेहतरीन फिल्म थी। हालांकि मैं अपने परिवार के जिन बच्चों के साथ फिल्म देखने गया था उन्हें बजरंगी भाईजान भी बच्चों की ही फिल्म लगती है, इसीलिए इस फिल्म का पसंद न आना लाज़मी था। तीन’, ‘रमन राघव-2’ एक्टिंग पर आधारित फिल्में रहीं जिन्हें देखने में पैसे बर्बाद नहीं हुए।
इन सबसे अलग 2016 को याद रखा जाना चाहिए उड़ता पंजाबके लिए। भविष्य में हम किस तरह का सिनेमा चाहते हैं, ये फिल्म उस का एक बयान समझा जाना चाहिए। फिल्म की बहादुरी इसी में समझ आनी चाहिए कि सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म पर तलवार जितनी कैंची चलाई, एक दिन पहले फिल्म लीक भी कर दी गई और फिर भी लोग सिनेमा हॉल तक देखने पहुंचे।
आशुतोष गोवारिकर की मोहनजोदड़ोउनके फिल्मी करियर का बड़ा रिस्क थी। एक तरह की चेतावनी भी कि हर बार एक ही फॉर्मूला लगाने से लगाननहीं बनती। फिल्म में ग्लैमर ज़्यादा था और इतिहास कम इसीलिए वर्तमान के दर्शक उसे ज़्यादा पचा नहीं पाए। मुदस्सर अज़ीज़ की फिल्म हैप्पी भाग जाएगीएक नई तरह की कॉमेडी थी। लड़की अपनी शादी से भागकर जिस ट्रक में कूदती है, उसे सीधा पाकिस्तान पहुंचना होता है। इस तरह पाकिस्तान से रिश्ते तीन घंटे मीठा बनाए रखने के लिए फिल्म का योगदान नहीं भुलाया जा सकता।
साल 2016 के सितंबर का महीना बॉलीवुड के लिए सबसे अच्छा रहा जब पिंक और पार्च्ड जैसी दो साहसी फिल्में पर्दे पर आईं।आने वाले समय में इन फिल्मों को पूरे दशक की सबसे अच्छी फिल्मों में भी गिना जाए तो मुझे ताज्जुब नहीं होगा।
डियर ज़िंदगीइस साल की उपलब्धि कही जा सकती है। सिर्फ इसीलिए नहीं कि फिल्म अच्छी है, मगर इसीलिए भी भी कि शाहरूख अपनी उम्र के हिसाब से रोल करने लगे हैं। आप आलिया भट्ट की तारीफ में इस फिल्म पर बहुत कुछ पढ़ चुके हैं। मगर ये कहानी अकेलेपन के डॉक्टर जहांगीर खान की भी थी। जिनके पास दुनिया को ठीक करने की दवा तो होती है, उनकी अपनी दुनिया बहुत बीमार होती है। क्या हम सब ऐसे ही नहीं होते जा रहे। अकेले लोगों का ऐसा समाज जिनका इलाज किसी छप्पन इंच के डॉक्टर के पास नहीं।

दंगल इस साल की आखिरी बड़ी हिट थी। हिट नहीं भी होती तो भी इस फिल्म का चर्चा में आना तय था। ये फिल्म हमें आश्वस्त करती है कि 16 दिसंबर वाली भयानक राजधानी दिल्ली के बहुत पास लड़कियां समाज के अखाड़े में ख़ुद को बारीकी से तैयार भी कर रही हैं। इसीलिए समाज को थोड़ा विनम्र और महिलाओं के प्रति थोड़ा भावुक हो जाना चाहिए। 

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 25 दिसंबर 2016

सरकारी खेल एकेडमियों को कान पकड़कर 'दंगल' देखनी चाहिए

ये 'अंबा सिनेमा' है, कोई ATM नहीं!! 
दिल्ली के घंटाघर इलाके का अंबा सिनेमा दिल्ली से विलुप्त होते सिंगल स्क्रीन थियेटर की आखिरी निशानी की तरह ज़िंदा है। और इसे ज़िंदा रखने के लिए मजबूरी में किसी गंदी भोजपुरी फिल्म या कांति शाह का सहारा नहीं लेना पड़ता। यहां आमिर खान की दंगल लगती है और वो भी हाउसफुल। दंगल के प्रोमो वाले पोस्टर पर जिस तरह म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के?’ लिखा पढ़ता था तो लगता था एक ऐसी कहानी जिसे एक लाइन में समझा जा सकता है, उसके लिए पैसे क्यूं खर्च करने। फिर भी आमिर खान के बहकावेमें आ गया और फिल्म देखने के लिए अंबाजैसी मज़ेदार जगह ढूंढी।
कैशलेस के ज़माने में फ्रंट, रियर और बाल्कनी के लिए टिकट खिड़कियों में लाइन लगकर नोट लहराते लोगों के बीच में मैंने जब जानबूझकर पूछा कि दंगल देखने के लिए इतनी भीड़ क्यूं है तो एक ही जवाब आया आमिर खान। हॉल इतना हाउसफुल था कि भीड़ को संभालने के लिए पुलिस लगानी पड़ी। अंधेरे में सीट ढूंढते हुए जैसे-तैसे टॉर्च वाले भाई तक फ्रंट वाली टिकट लेकर पहुंचा तो राष्ट्रगान शुरू हो गया और जो जहां था, वहीं रुक गया। फिर मेरे राष्ट्रगान से प्रभावितहोकर टिकट चेक करने वाले भाई ने मुझे चुपके से पीछे की तरफ भेज दिया जहां के टिकट की क़ीमत दोगुनी थी।


दंगल विशुद्ध रूप से भारतीय फिल्म है। किसी विदेशी दर्शक को आप ये फिल्म दिखाएंगे जहां लिंग जांच की अनुमति है, तो वो समझ ही नहीं पाएगा कि एक बाप लगातार लड़की पैदा होने से इतना दुखी क्यूं हो जाता है। मगर ये लड़कियां कॉमनवेल्थ 2010 की हीरो रही कुश्ती चैंपियन गीता कुमारी फोगाट और उनकी बहन बबीता फोगाट हैं और उनके जन्म पर मायूस होने वाले उनके पिता महावीर फोगाट जिनके लिए बेटे का मतलब देश के लिए एक गोल्ड मेडल जीतने वाला पहलवान है। फिल्म का पहला हाफ इतना बेहतरीन है कि आप अपनी सीट पर बैठ ही नहीं पाते। अंबा सिनेमाका हर दर्शक गीता फोगाट के साथ रोहतक का पहला दंगल लड़ रहा होता है जहां वो पहली बार लड़कों से पहलवानी करती है। हर दांव पर उछल-उछल कर सीटियां बजा रहा होता है जहां वो लड़कों से जीत रही होती है और बचे हुए मर्द पहलवान गीता की कुश्ती देखकर दुआएं कर रहे होते हैं कि अच्छा हुआ बच गए वरना थैली में भरकर घर जाते। उम्मीद है दिल्ली और हरियाणा और तमाम देश ऐसी फिल्मों की कुछ सीटियां बचाकर अपने परिवारों में भी लाएगा जहां बेटियों को बेटियां समझकर ही सम्मान दिया जाए।
फिल्म का दूसरा हाफ थोड़ा बोरिंग है। बहुत नाटकीय भी। पूरी-पूरी कुश्ती का सीधा प्रसारण है। गीता जब कॉमनवेल्थ का फाइनल खेल रही होती है, तो उसके पिता को एक कमरे में बंद कर दिया जाता है। फिर जहां से उसकी आवाज़ बिल्कुल बाहर नहीं जाती, राष्ट्रगान की आवाज़ अंदर आती है और वो समझजाते हैं कि अंबा सिनेमाका दर्शक गोल्ड मेडल जीतने वाली गीता के सम्मान में खड़ा हो गया होगा। बहरहाल, भारतीय कुश्ती संघ को इस फिल्म को ध्यान से देखना चाहिए और सोचना चाहिए कि उसके कोच क्या सचमुच इतने बेकार रहे हैं। अगर हमारे सभी स्कूल, कॉलेज, ट्रेनिंग संस्थानों के कोच या टीचर सिर्फ नाम भर के हैं तो देश के रहनुमाओं को गंभीरता से समझना चाहिए कि करोड़ों की आबादी गुमराह हो रही है।
फिल्म में अमिताभ भट्टाचार्य के गीत बहुत प्यारे हैं। फिल्म का सेंस ऑफ ह्यूमर और भी अच्छा है। नेशनल स्पोर्ट्स एकेडमी की पहलवान लड़कियां शाहरुख की फिल्म देखने के लिए जुटने लगती हैं और गीता नहीं जाती तो उसकी दोस्त कहती है –शाहरूख को ना नहीं कहते, पाप लगता है। फिर सब मिलकर ‘DDLJ’ देखती हैं कि कैसे शाहरूख एक लड़की के पलटने पर प्यार होने का सही गेस मारता है। इस तरह आमिर खान अपनी फिल्मों में साफ कर देते हैं कि क्यूं उनके कुत्ते का नाम शाहरूखहै।

दंगल की रिलीज़ से ठीक पहले आमिर ख़ान को मजबूरी में नोटबंदी की तारीफ तक करनी पड़ी। अगर इतना करने भर से उन्होंने एक अच्छी फिल्म की रिलीज़ के सारे ख़तरे टाल दिए, तो उन्हें एक ही गोल्डन शब्द कहना चाहिए साब्बाश

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 21 दिसंबर 2016

नोटबंदी पर कुछ नोट्स - YearEnder

दिल्ली मेट्रो के दफ्तर के पास एक बैंक अपनी नोटों की गाड़ी लेकर आया था ताकि कर्मचारियों को नोटबंदी से राहत मिल सके। मैं तीन घंटे की लंबी लाइन के बाद जब सबसे आगे पहुंचा तो बिल्कुल हीरो की तरह अपना कार्ड आगे किया। वो एटीएम कार्ड नहीं, मेरा मेट्रो स्मार्ट कार्ड था। डेबिट कार्ड पता नहीं कहां छूट गया था। पीछे की लंबी लाइन देखकर आगे से हटने की हिम्मत नहीं हो रही थी। सारी जेबों में लाइट की स्पीड से ढूंढने पर एटीएम कार्ड मिला तो लगा किसी जानलेवा दुर्घटना से बच गया। ऐसी भूल लाइन में लगा हुआ हर भारतीय कर सकता है। लाइन में लगना शायद ही किसी नागरिक की प्राथमिकता हो। वो या तो अपना ऑफिस छोड़ कर आया है, या किसी बेहद ज़रूरी काम को टालकर या फिर अपने मालिक का कार्ड लेकर लाइन में खड़ा है।

नोटबंदी पर तमाम तरह के  अच्छे-बुरे ओपिनियन सुनता रहता हूं। हो सकता है किसी छोटे शहर में स्थिति कम बुरी भी हो, मगर मानने का मन नहीं करता। रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया से पैदल की दूरी पर है कनॉट प्लेस। यहां भी एटीएम में पैसे नहीं हैं। जहां है वहां इतनी लंबी लाइन है कि बिहार से आए हम जैसे मामूली लोगों का दम फूलने लगता है। हमने बचपन से इतनी लाइनें देखी हैं कि कहीं सिर्फ चार-पांच लोग ही एटीएम की लाइन में खड़े हों तो भरोसा ही नहीं होता कि वहां पैसे होंगे। ये उस एटीएम के खिलाफ नहीं, इस सरकार के खिलाफ विश्वास समझा जाए।

तमाम मीडिया चैनल्स, अखबार आजकल टॉप टेन, टॉप 50 जैसे इयर-एंडर में लगे होंगे। मेरा दावा है कि नोटबंदी की लाइनों के भी टॉप टेन किस्से ज़रूर शामिल किए जाएं। हर किस्से के बाद राष्ट्रगान चलाया जाए। भयानक टीआरपी आएगी। जितनी लाइनें हैं, उतने किस्से हैं।

बाराखंभा रोड पर सौ लोगों की लाइन से आगे पहुंचते-पहुंचते एक सज्जन जब एटीएम के मुंह तक पहुंचे तो कार्ड का पिन नंबर ही भूल गए। अब वहीं अपनी पत्नी से पूछने लगे। पत्नी कोई डायरी खोजने लगी। फिर उनके घर कोई कूरियर वाला आ गया। और यहां लाइन में पीछे लोग राष्ट्रगान’ गाने लगे। समझ गए ना..
एक माली अपने दूसरे रिक्शेवाले भाई के साथ लाइन में सौवें नंबर पर खड़ा था। अचानक पर्स खोला तो उसका एटीएम कार्ड ज़रा-सा टूटा हुआ था। उसने रिक्शेवाले भाई से इस कार्ड के चलने-न चलने पर एक्सपर्ट ओपिनियन मांगी। दूसरे वाले भाई ने भी आरबीआई गभर्नर की तरह बढ़िया सुझाव दिया कि किस तरह से अंदर घुसाने पर काम कर जाएगा।  

कभी-कभी सोचता हूं कि कवियों, शायरों का इस नोटबंदी में क्या हाल होगा। क्या उनके लिए कविताओं में एटीएम की मशीन चांद का टुकड़ा नज़र आता होगा। क्या नोट की भूख अब पेट की भूख से ज़्यादा बड़ा सवाल होने लगी होगी। फटाफट प्रेम के ज़माने में नोटबंदी ने हम सबको ठहर कर सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। हम एक-दूसरे को समय देना भूल गए हैं। तो सरकार इस तरह से एक अच्छे गुण को दोबारा हमारे भीतर रोपना चाहती है। इन दिनों कई घंटे लेट चल रही ट्रेनें भी हमसे हमारा ख़ूब समय मांगती हैं। इसके लिए सरकार की जितनी तारीफ की जाए कम है। बाक़ी जो है, सो तो हइये है।


चलते-चलते - एक आदमी एटीएम की कतार में तीन घंटे खड़ा होकर अपने आगे खड़े आदमी को बोलकर गया कि भाई थोड़ी देर में लौटता हूं। फिर पास ही पीवीआर में पिक्चर देखने चला गया और जैसे ही आराम से बैठने को हुआ, वहां राष्ट्रगान शुरु हो गया। आप बताइए उसे खड़ा होना चाहिए या अपने हिस्से की देशभक्ति का दैनिक कोटा वो पूरा कर चुका है।

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

स्त्री 2 - सरकटे से डर नहीं लगता साहब, फ़ालतू कॉमेडी से लगता है

हिंदी सिनेमा में आखिरी बार आपने कटा हुआ सिर हाथ में लेकर डराने वाला विलेन कब देखा था। मेरा जवाब है "कभी नहीं"। ये 2024 है, जहां दे...