साल 2016 में मेरे सिनेमा देखने की शुरुआत एक ऐसी फिल्म
से हुई जिसका पहला शो देखने लगभग पांच-छह लोग आए थे। ये फिल्म थी ‘चौरंगा’ जिसे मेरे कॉलेज के डबल सीनियर (जमशेदपुर और जामिया) बिकास
रंजन मिश्रा ने बनाई थी। फिल्म में नाम बड़ा नहीं था, इसीलिए एक बेहतरीन कहानी भी एकाध शो बाद ही भुला दी गई।
समाज की लगभग हर समस्या का कॉपीबुक ट्रीटमेंट थी ‘चौरंगा’ जैसे आप कोई फीचर फिल्म
नहीं, किसी फिल्म स्कूल के
स्टूडेंट की डिप्लोमा फिल्म देख रहे हों। फिल्म के शुरुआती क्रेडिट्स में ये बताया
जाना कि ये एक हिंदी नहीं खोरठा फिल्म है, मेरे लिए पहला अनुभव था।
‘
वज़ीर’
अमिताभ बच्चन के लिए एक और शानदार फिल्म रही।
कोरियन फिल्म ‘
मोंटाज’
मैं देख चुका था इसीलिए इसकी हिंदुस्तानी नकल
में मेरी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी। फिर भी महिला मित्र के साथ हॉल जाने का सुख
मैं कभी मिस नहीं करता।
‘साला खड़ूस’ और ‘मस्तीज़ादे’ एक ही भाषा में
अच्छी-वाहियात फिल्मों के विलोम की तरह एक ही हफ्ते में रिलीज़ हुए। मैंने दोनों
देखी और अपना विश्वास मज़बूत किया कि राजनीति से लेकर ‘नई हिंदी’ के लेखक हों या हिंदी
फिल्में, सनसनी हो तो दर्शक, पाठक
या मतदाता सब जेब में होते हैं। ‘फितूर’ एक ओवररेटेड फिल्म साबित हुई और अगर ये 1990’s
के दौर में आती तो कुमार सानू जैसा कोई सिंगर
इसे हिट करा सकता था। ‘नीरजा’ एक शहीद एयर होस्टेस की सच्ची घटना पर आधारित
फिल्म थी और ठीकठाक बनी थी।
हंसल मेहता की ‘अलीगढ़’ साल की सबसे अलग फिल्म रही मगर दर्शक इसे भी नहीं मिले। ऐसी
फिल्मों से बॉलीवुड का क़द पता चलता है। ‘की एंड का’ मुझे एक मैच्योर फिल्म
लगी और मुझे फिर लगा कि मल्टीप्लेक्स का दर्शक ही आने वाले वक्त का सिनेमा तय करता
रहेगा। शाहरूख की ‘फैन’ एक अलग कोशिश तो थी मगर अंत तक आते-आते आप
शाहरुख के फैन होने की बजाय किसी पंखे से लटक जाना पसंद करेंगे।
अश्विनी तिवारी की ‘नील बट्टे सन्नाटा’ ने इस साल सबसे अधिक चौंकाया। एक मां और बेटी एक ही स्कूल
की एक ही क्लास में पढ़ने जाते हैं। ये सोच कर ही फिल्म देखने का मन कर जाएगा। एक
शानदार फिल्म को बार-बार देखा जाना चाहिए। ऐसी गंभीर फिल्म उसी वक्त में हिट होती
है जब सनी लियोनी की ‘वन नाइट स्टैंड’ को भी ठीकठाक दर्शक मिलते हैं। इमरान हाशमी ‘अज़हर’ में कॉलर तो सही उठाते रहे मगर फिल्म मीठा-मीठा सच का जाल बनाती रही और उलझ कर
रह गई। एक और भारतीय कप्तान ‘धोनी’ भी इसी साल पर्दे पर उतारे गए और अज़हर से
ज़्यादा इमानदारी से उतारे गए।
‘धनक’ नागेश कुकनूर स्टाइल की एक और बेहतरीन फिल्म
थी। हालांकि मैं अपने परिवार के जिन बच्चों के साथ फिल्म देखने गया था उन्हें
बजरंगी भाईजान भी बच्चों की ही फिल्म लगती है, इसीलिए इस फिल्म का पसंद न आना लाज़मी था। ‘तीन’, ‘रमन राघव-2’ एक्टिंग पर आधारित
फिल्में रहीं जिन्हें देखने में पैसे बर्बाद नहीं हुए।
इन सबसे अलग 2016 को याद रखा जाना चाहिए ‘उड़ता पंजाब’ के लिए। भविष्य में हम किस तरह का सिनेमा चाहते हैं, ये फिल्म उस का एक बयान समझा जाना चाहिए। फिल्म की बहादुरी
इसी में समझ आनी चाहिए कि सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म पर तलवार जितनी कैंची चलाई,
एक दिन पहले फिल्म लीक भी कर दी गई और फिर भी
लोग सिनेमा हॉल तक देखने पहुंचे।
आशुतोष गोवारिकर की ‘मोहनजोदड़ो’ उनके फिल्मी करियर का बड़ा रिस्क थी। एक तरह की चेतावनी भी
कि हर बार एक ही फॉर्मूला लगाने से ‘लगान’ नहीं बनती। फिल्म में
ग्लैमर ज़्यादा था और इतिहास कम इसीलिए वर्तमान के दर्शक उसे ज़्यादा पचा नहीं
पाए। मुदस्सर अज़ीज़ की फिल्म ‘हैप्पी भाग जाएगी’ एक नई तरह की कॉमेडी थी। लड़की अपनी शादी से
भागकर जिस ट्रक में कूदती है, उसे सीधा पाकिस्तान पहुंचना होता है। इस तरह
पाकिस्तान से रिश्ते तीन घंटे मीठा बनाए रखने के लिए फिल्म का योगदान नहीं भुलाया
जा सकता।
साल 2016 के सितंबर का
महीना बॉलीवुड के लिए सबसे अच्छा रहा जब ‘पिंक’ और ‘पार्च्ड’ जैसी दो साहसी फिल्में पर्दे पर आईं।आने वाले समय में इन
फिल्मों को पूरे दशक की सबसे अच्छी फिल्मों में भी गिना जाए तो मुझे ताज्जुब नहीं
होगा।
‘डियर ज़िंदगी’ इस साल की उपलब्धि कही जा सकती है। सिर्फ
इसीलिए नहीं कि फिल्म अच्छी है, मगर इसीलिए भी भी कि शाहरूख अपनी उम्र के हिसाब से
रोल करने लगे हैं। आप आलिया भट्ट की तारीफ में इस फिल्म पर बहुत कुछ पढ़ चुके हैं।
मगर ये कहानी अकेलेपन के डॉक्टर जहांगीर खान की भी थी। जिनके पास दुनिया को ठीक
करने की दवा तो होती है, उनकी अपनी दुनिया बहुत
बीमार होती है। क्या हम सब ऐसे ही नहीं होते जा रहे। अकेले लोगों का ऐसा समाज
जिनका इलाज किसी छप्पन इंच के डॉक्टर के पास नहीं।
‘दंगल’ इस साल की आखिरी बड़ी हिट थी। हिट नहीं भी
होती तो भी इस फिल्म का चर्चा में आना तय था। ये फिल्म हमें आश्वस्त करती है कि ‘16 दिसंबर’ वाली भयानक राजधानी दिल्ली के बहुत पास लड़कियां समाज के
अखाड़े में ख़ुद को बारीकी से तैयार भी कर रही हैं। इसीलिए समाज को थोड़ा विनम्र
और महिलाओं के प्रति थोड़ा भावुक हो जाना चाहिए।
निखिल आनंद गिरि