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गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

वक्त से जब वो भिड़ गया होगा...

गांव से दूर एक दरिया था,
गांव में प्यास बहुत थी लेकिन...
उनकी किस्मत में कोई पुल न हुआ।

वक्त क़ैद था मु्ट्ठी में जब,
चार फीट के दोस्त थे सब,
चार दिनों में शादी है अब !

अब तो रोना भी भूल बैठा हूं,
एक हंसी भी उधार ली मैंने
एक आदत सुधार ली मैंने ।

मेरी बस्ती में कौन आएगा,
हाल पूछेगा, चला जाएगा...
अजनबी अजनबी रह जाएगा...

पहले होती थी रुहानी बातें,
अबके क़ीमत में जिस्म सौंपा है...
आओ फिर से भरम का सौदा करें।

एक कमरे में ज़िंदगी काटी,
एक बित्ते में मौत आएगी...
ख्वाब क्यों आसमान भर देखें...

ये न पूछो कि क्या हुआ होगा,
ज़र्रा-ज़र्रा ही लुट गया होगा...
वक्त से जब वो भिड़ गया होगा ।

मेरी ख़ामोश हसरतों में रहे,
उम्र की सारी सिलवटों में रहे...
मर चुके ख़्वाब बड़े होते रहे ।

बंद कमरे में कोई वहशी था,
आईने का ही क़त्ल कर डाला...
लाल है रंग इस अंधेरे का ।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 24 जनवरी 2010

फूल-सी लड़की के लिए...

वो बचपन की पहेली,
हम जिसे अब तक नहीं समझे..
तुम्हारा मुंह चिढ़ाती है,
ज़रा तुम भी चिढ़ाओ ना..
उठो, जल्दी से आओ ना...

वो एक तस्वीर अलबम की,
जिसमें मैं खड़ा आधा-अधूरा सा,
तुम्हें फुर्सत नहीं अपनी शरारत से...
तुम्हें तस्वीर का हिस्सा बनाने में,
मैं खींचता तो हूं...
मगर तस्वीर थोड़ा और पहले
खिंच ही जाती है....
मैं फिर खड़ा हूं,
सब खड़े हैं, हंसते चेहरे...
तुम कहां हो....
हथेली को बढ़ाओ ना...
उठो जल्दी से आओ ना...

मैं कितनी देर तक हंसता रहा था...
गुलाबी फ्रॉक वाली एक लड़की
लाल घूंघट में...
शरम से लाल होकर छिप रही थी..
मुस्कुराती थी....
...............

अचानक...
कौन था...जिसने की चोरी
सांसों की गठरी..
मैं कुछ क्यों कर नहीं पाया....
अचानक..
चार कंधों पर....
ये लंबी नींद की चादर.....
मैं कुछ क्यों कर नहीं पाया....

अभी गहरी उदासी में...
तुम्हें तो मुस्कुराना था...
अभी तो उम्र की कई सीढ़ियों के
पार जाना था...

मैं रोना चाहता हूं,
उस नए मेहमान की खातिर,
जिसे भरनी थी किलकारी
सभी की गोदियां चढ़कर...
खिलौने, दूध की बोतल
पटक कर तोड़ देनी थीं...
सुनाए कौन अब वो तोतली बोली,
दिल कैसे बहल जाए, बताओ ना...
उठो जल्दी से आओ ना...

अभी तो इक महकती
फूल-सी लड़की को
सारी रात जगकर...
मेरी आंखों में तकना था....
हंसना था, महकना था..
ज़िद तारों की करनी थी...
मेरे कंधे पे चढ़कर
चांद की ठुड्डी पकड़नी थी...
......................
मैं अब भी बंद आंखों से,
तुम्हारी राह तकता हूं...
मैं सोया हूं बहाने से....
ज़रा चुपके, सिरहाने से....
मेरा तकिया हिलाओ ना....
मैं सोया हूं, जगाओ ना...
मेरी छोटी बहन पूजा,
मेरी अच्छी बहन पूजा,
उठो जल्दी से आओ ना...
...................................

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

देखना तुम...

ये बदहवासी से ठीक पहले के क्षण हैं,

मेरी पीठ पर पटके जा रहे हैं कोड़े

कि मेरी रीढ़ टूट जाए...

वो मुझे सांप बना देना चाहते हैं,

कि मैं रेंगता रहूं उम्र भर...

उनकी बजाई बीन पर...

ये बदहवासी से ठीक पहले की घड़ी है..

मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने वाला है...

इस एक पल को जीना चाहता हूं मैं...

करना चाहता हूं सौ तरह की बातें तुमसे...

खोलना चहता हूं मौन की मोटी गठरी..

तुम कहां हो??

मैं चीख रहा हूं ज़ोर-ज़ोर से...

शायद आवाज़ कहीं पहुंचेगी...

कोड़े खाने के फायदे हैं बहुत..

ये चीख मुझे गूंगा कर देगी देखना.....

मेरे पांवों में बांध रखी हैं,

समय ने कस कर बेड़ियां...

मैं भूलने लगा हूं

अपने बूढ़े पिता का चेहरा...

ये बदहवासी के पहले की आखिरी घड़ी है....

मां याद है मुझे,

पसीना पोंछती मां,

बेटों की डांट खाती मां...

तुम कहां हो,

तुम्हें छूना चाहता हूं एक बार..

हाथ भूल गए हैं स्पर्श का स्वाद...

मैं पीछे मुड़कर दबोच लेना चाहता हूं कोड़ा,

मगर ऐसा कर नहीं सकता..

मैं बदहवास होने लगा हूं अब...

मुझ पर और कोड़े बरसाए जाएं..

मुझे प्यास लग रही है,

मैं चखना चाहता हूं आंसू का स्वाद..

ये बदहवासी के आंसू हैं...

रोप दिए जाएं सौ करोड़ लोगों की छाती में..

कि झुकने न पाए उनकी रीढ़

बीन बजाते संपेरों के आगे...

कहां-कहां ढूंढोगे मुझे..

मैं हर सीने में हूं..

दुआ करो कि खाद-पानी मिले मेरे आंसूओ को,

याद रखना संपेरों,

मेरे आंसू उग आए

तो निर्मूल हो जाओगे तुम....

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