शनिवार, 20 सितंबर 2014

एडहॉक ज़िंदगी के एडहॉक किस्से

कांट्रैक्ट, एडहॉक, टेंपररी एक ऐसा शब्द है जो इंसान अपने जन्म के साथ ही जीने लगता है। जैसे स्कूटर की स्टेपनी, घर की बालकनी या फिर आदमी की पैंट में चोर पॉकेट। यूं किसी काम के नहीं मगर इनके बिना किसी का काम ही नहीं चल सकता। जैैसे अंग्रेज़ी के फैशन वाले देश में हिंदी एडहॉक की ज़िंदगी काट रही है। जैसे बचपन ज़िंदगी की एडहॉक अवस्था है। जिस किसी का मूड ख़राब हुआ, किसी बच्चे को दो-चीन झापड़ रसीद कर दिए। जैसे देश की हर यूनिवर्सिटी में परमानेंट स्टाफ चौड़ा होकर घूमता है, मीटिंग-वीटिंग करता है और ऐडहॉक गदहे की तरह सारे काम करता है। देश का भविष्य एडहॉक लोग बना रहे हैं और क्रेडिट परमानेंट लोग ले जा रहे हैं।

दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसी देश की सबसे बड़ी दो मीडिया संस्थाएं टेंपररी और कांट्रैक्ट कर्मचारियों के भरोसे ही चलती आ रही हैं। ये बात मीडिया के सारे लोग जानते भी हैं और मानते भी हैं। मगर कभी कोई छोटी-मोटी गलती हो जाए तो कांट्रैक्ट वाले, एडहॉक वाले की एक ही सज़ा होती है। सीधा नौकरी से निकाला। दूरदर्शन की उस टेंपररी न्यूज़रीडर ने भी इतनी भर ही गुस्ताखी की थी। चीन के राष्ट्रपति के नाम के आगे 'ग्यारह' जैसा शुभ विशेषण लगा दिया। सोचा अतिथि आए हैं, पीएम के जन्मदिन के दिन आए हैं, ग्यारह की भेंट चढ़ाना तो ज़रूरी है। तो सी या ज़ी (XI) ज़िनपिंग या शिनपिंग की जगह ग्यारह कह दिया। बस नौकरी चली गई।

ये चीन सचमुच में बहुत चालाक देश है। देश का नाम ऐसा है कि हम रोगी होने की हद तक पिएं और डायबिटीज़ हो जाए और राष्ट्रपति का नाम ऐसा कि हमारा पीएम तो क्या पीएम का बाप भी नाम लेने के बजाय 'सर' 'सर' करने लगे। अब समय आ गया है कि भारत की विदेश नीति में पड़ोसी देशों के नेताओं से सिंपल निकनेम रखने का दबाव डाला जाए। चिंटू, मिंटू, सोनू, मोनू, पिंकू टाइप। हमारे यहां के टीवी एंकर कम से कम अपनी नौकरी तो बचा सकेंगे। पहले ही बात-बात पर नौकरी जाने का ख़तरा बना रहता है। एक एंकर की नौकरी तो सिर्फ इसीलिए चली गई थी कि उसने बॉस की पसंद का लिपस्टिक नहीं लगाया था। एक एंकर ने राष्ट्रपति के संबोधन पर अपनी टिप्पणी करते हुए पढ़ दिया कि राष्ट्रपति महोदय ने सफलता का 'मलमूत्र' दिया।

देश दस सालों तक एडहॉक पीएम के भरोसे चलता रहा। बीजेपी भी आरएसएस की एडहॉक पार्टी ही है। मीडिया भी कॉरपोरेट घराने के लिए एडहॉक की तरह है। एक शादीशुदा आदमी एक परमानेंट संबंध जीता है और कई एडहॉक संबंध छिपाता रहता है। ज़िंदगी में हर कोई किसी दूसरे के लिए एडहॉक की भूमिका ही निभा रहा है ।  उफ्फ!!

निखिल आनंद गिरि


शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

ख़ुद से ख़ुद तक सफर है इन दिनों

मोहल्ले के कई बच्चे ट्यूशन के लिए अचानक घर पर आने लगे हैं। पता नहीं उनके स्कूलों में पढ़ाई होती भी है या नहीं। मेरे पास फुर्सत होती नहीं फिर भी उनके साथ बैठना-बतियाना अच्छा लगता है। उनके समय को समझने में बहुत मदद मिलती है। उनकी बातों के आईने में अपने स्कूल के दिनों को भी चुपके से देख लेता हूं। कुछ ख़ास बदलता हुआ नहीं दिखता। सिवाय अपनी उम्र के। सिवाय मोबाइल और इंटरनेट के। उनकी पढ़ाई के बीच में अचानक से मोबाइल और इंटरनेट आते रहते हैं। ऐसे जैसे कभी इनके बिना पढ़ाई होती ही नहीं हो।

मैंने इंटरनेट स्कूल के दिनों में ही सीखा। लगभग पंद्रह साल पुरानी ईमेल आईडी ही आज भी चल रही है। इस तरह से सोचता हूं तो लगता है काफी बड़ा हो गया हूं। मेरे बाद की एक पूरी पीढ़ी तैयार हो गई। दिल मानता ही नहीं इस बात को। मेरे ख़याल से ऐसा सबके साथ होता होगा। एक लंबे समय तक पापा हमेशा एक ही उम्र के लगते रहे हैं। मैं भी एक ख़ास उम्र में फ्रीज होकर रह जाना चाहता हूं। उसके बाद की उम्र के साथ बहुत सी दुश्वारियां भी हैं।

बात इंटरनेट की चल रही थी। हाल ही में एक बार फेसबुक पर किसी अनजान लड़की के नाम से फ्रेंड रिक्वेस्ट आई। बहुत बातचीत के बाद भी वो बताने को तैयार नहीं थी कि कौन है, कैसे जानती है। अचानक चैट में उसने मेरा फेवरेट सिंगर पूछा और मैंने झट से कहा –मुकेश । उधर से जवाब आया मुकेश कौन?  मैं समझ गया कि लड़की (या लड़का) मेरी उम्र से काफी छोटा है। इसके बाद उस अनजान लड़की का कोई मेसैज वगैरह आज तक नहीं आया। मुझए उसकी याद आती है। उसे बताने का मन करता है कि मुकेश एक गायक रहे हैं और उन जैसा गाना कोई हंसी-मज़ाक नहीं है।

पिछले कुछ दिनों से अपने साथ एक एक्सपेरिमेंट कर रहा था। ख़ुद को फेसबुक, ब्लॉगिंग से दूर रखने की कोशिश चल रही थी। करीब डेढ महीने से फेसबुक पर कोई पोस्ट नहीं डाली। अगस्त के महीने में सिर्फ एक पोस्ट डाली, वो भी अपने बर्थडे पर। सोचा था कि जो लोग लाइक-कमेंट वगैरह करते हैं, मेरे सोशल मीडिया की दूरी को महसूस करेंगे, हाल-चाल पूछेंगे। महसूस हुआ कि मेरे सोशल मीडिया पर रहने-ना रहने का किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा। हां, एकाध लोग हैं जो सचमुच मुझे सोशल मीडिया पर मिस करते हैं।

अखिलेंद्र उनमें सबसे ख़ास है। मेरी कई कविताएं, कई ब्लॉग-पोस्ट उसे ठीक-ठीक याद हैं। उससे बात करके इतना अपनापन महसूस होता है जैसे हम सोशल मीडिया पर नहीं मोहल्ले की छत पर मिल रहे हों। मेरी शादी में सिर्फ 16 मेहमान बाराती थे। उनमें से एक अखिलेंद्र भी था। उसकी और हमारी पहचान सिर्फ इतनी थी कि सोशल मीडिया पर एक-दूसरे को हम जानते थे। उसने सीधा आज़मगढ़ से ट्रेन पकड़ी और समस्तीपुर चला आया। बिना किसी कार्ड-न्योते के। ब्लॉगिंग और सोशल मीडिया से हो रहे मेरे मोहभंग को भी अखिलेंद्र ने ही तोड़ा। रात के ग्यारह बजे अचानक मेरी ढाई साल पुरानी एक पोस्ट को याद करते हुए फोन कर दिया तो मुझे लगा कि ब्लॉगिंग करते रहना चाहिए। ऐसा वो कई बार कर चुका है। आज उसका जन्मदिन है तो ये ब्लॉग पोस्ट उसके लिए। और भी कई दोस्तों के लिए जिनसे मिला ही नहीं, मगर लगता है कि कई-कई बार मिला हूं। शायद मिलता तो किसी न किसी बात को लेकर खटास आ जाती। वो मेरा 'ब्लॉगभाई' है, जैसे गुरुभाई या असली भाई होता है।



हैप्पी बर्थडे अखिलेंद्र
अखिलेंद्र के बहाने उन सबका शुक्रिया जो इस नई दुनिया से मेरी दुनिया का हिस्सा बने। किसी एक का नाम लेना ठीक नहीं। हमने एक-दूसरे को देखा नहीं है। मगर उन्होंने कई बार हथेली थामकर मुश्किलों में रास्ता पार कराया है और मुड़ गए। हम शुक्रिया नहीं कह पाए। ये पोस्ट उन्हीं के लिए, इस भरोसे के साथ कि लाख नाउम्मीदी के बीच नये अनजान रास्तों पर चलने का हौसला बचा है, बना रहेगा। बचपन में एक ख़ास दोस्त ने डायरी में कुछ लिखा था, अचानक याद आ गया -
'हैं कुछ ऐसी बातें,
हैं कुछ ऐसी यादें,
जो धुंधली न होंगी,
न होंगी पुरानी
हंसायेगी हमको, रुलायेगी हमको
कहीं बीच में जो रुकी है कहानी.
 
निखिल आनंद गिरि  

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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नंगे, दबे पाँव, धीरे से आई तेरी रहगुज़र में मैं ...उस डिबिया में बंद मैली कुचैली सी पड़ी थी मैं जब बिटिया ने मुझे प्यार से उठाया, सजाया खुद ...