शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2025

बसंत का शोकगीत

हर बसंत
जब पत्ते खुश दिखते हैं
पेड़ खुश दिखते हैं
हवा संगीत बनकर कानों तक पहुंचती है
पुरवा पछुआ एक साथ दोनों कानों से
आत्मा के तार को छूते हैं 
मैं तुम्हारी यादों के साथ बसंत को उदास करता हूं

किसी को उदास करना ठीक नहीं 
जानता हूं मगर
इस दुनिया ने ठीक वही किया मेरे साथ
उस बसंत जब एक पीली साड़ी वाली लड़की
मेरा मौसम बदलने आई थी
और उसने कहा था हम हर बसंत इसी तरह खिलखिलाएंगे

जैसे दो बच्चे आपस में हंसते हैं
जैसे चिड़िया चावल के दाने पाकर चहचहाती है
जैसे मेरी बूढ़ी दादी, जो बीड़ी को, खुराकी कहती थी
मेरी डांट के साथ बीड़ी का बंडल पा चहक उठती थी

मेरे जीवन का बसंत अब सूना है
मेरी हंसी के पत्ते 
अस्पतालों के चक्कर खा कर बिखर गए
मेरी उम्मीदों के पेड़ की जड़ें
जिसके नीचे 
दो प्राणी गरम जिलेबी खाकर मिलते थे
कीमो की दवाओं से नष्ट हो गईं।

वह लड़की जो पीली साड़ी में मेरे साथ
मेट्रो की सीढ़ियों पर भी चढ़ने से कतराती थी
अकेले बहुत दूर जा चुकी है
कुछ दूर कंधों पर
फिर ढुलमुल करते ट्रैक्टर पर
फिर ज़मीन पर लकड़ियों की एक गाड़ी
जिसमें आग लगी
फिर पानी की गाड़ी पर अनंत यात्रा

यह दुनिया जिसने हमें आशीष दिया था 
उसी ने लकड़ियों से धकेल कर 
उसे स्त्री से राख बना डाला 

पुरवा हवाओं से भरी दुनिया में 
जीना तो चाहता हूं 
दुनिया से नज़रें मिलाना नहीं चाहता

निखिल आनंद गिरि

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