यह सवाल बार-बार उठता रहा है कि महाभारत जैसे बड़े युद्ध से राधा ख़ुद को कैसे तटस्थ रख सकती है. कवि की कल्पन है कि राधा कृष्ण से मिलने कुरूक्षेत्र पहुँचे और प्रेम, युद्ध, जीवन और मृत्यु से जुड़े प्रश्न पूछे.
इसी कविता के कुछ छंदः
राधा, कुरूक्षेत्र में
सखी अलग हो स्थिर बैठी,
तब मुसका बोली,‘‘मन में उठते रहे प्रश्न बीसियों निरंतर.
बस दो का ही उत्तर, हे कृष्ण, मुझे दे-क्या तू युद्ध रोक सकता है? क्यों न रोकता?’’
‘‘राधा का करतल कर में ले कोमल स्वर मेंकहा कृष्ण ने,
’’राधा! यह सामर्थ्य न मुझमें.
विधि भी कहाँ रोकने आती वक्र अहं को;मानव नैसर्गिक सीमाओं में स्वतंत्र है.
चले अहं के द्वंद्वों से या शिव विवेकसेयाकि वासनाओं से, वह स्वछंद स्वयं है.पथ के कंटक-कुसुम झेलने उसे पड़ेंगे;क्षण आने पर फल भी वह अनिवार्य चखेगा.
कोई समझा नहीं सका दुर्द्धर्ष अहं को.
हर भय लगता क्षुद्र, न आतंकित कर पाता;
विजयी दीखती अटल, पराजय सदा अकल्पित;दुर्योधन ने मेरी बात नहीं मानी है.
क्यों, कैसे मैं विवश करूं पीछे हटने को
आहत, त्रस्त अहं को दीन पांडवों के ही?
क्या चुप रहने का दायित्व द्रोपदी का ही?
दुर्योधन का अहं गले अनिवार्य नहीं क्यों?
‘‘अन्य उपाय नहीं, जो नर-संहार रुक सके?
‘‘है; यदि मैं एकाकी दुर्योधन-वध कर दूँ.
तब दुःशासन-शकुनि-कर्ण का भी वध होगा;
भीष्म द्रोण भी तब न स्यात् बचना चाहेंगे.
पर अनीति यह होगी, मेरे शुत्र नहीं ये;
कुछ भी कभी किसी ने नहीं बिगाड़ा मेरा.
हनन कौरवों का कर्त्तव्य पांडवों का है;
वह उनसे छीनना अन्याय उनके प्रति भी तो.
अंधे थे धृतराष्ट्र, न गद्दी उन्हें दी गई;
छला नियति ने उन्हें, छला फिर पूज्य भीष्म ने.
राजा पांडु बने, पांडव ही राजा होगा-
धृतराष्ट्र को सहज नीति यह पची न पल को.
उसका अहं नाग बन कर फुफकारा,
उसने चाहा छल-बल, कपट ध्रूत से नियति पलटना.
शकुनि, कर्ण, दुःशासन ने घृत दिया अग्नि में;
भीष्म-द्रोण चुप रहे, बीज विष-वृक्ष बन गया.
शायद भीष्म स्वयं को अपराधी गुन बैठे;
वे तटस्थ रह पाते, तो युद्ध न होता.
नर-संहार न हो, दायित्व कौरवों पर है;
पांडव आत्म-हनन कर लें, यह नीति-विपर्यय.
इंद्रप्रस्थ दे पांडु-सुतों को वृद्ध भीष्म ने
गुत्थी सुलझा दी थी; पर तब दुर्योधन ने
कपट द्यूत का जाल बुना; पूरा पा लेनेके भ्रम में,
लो, धर्मराज आ फंसे स्वयं ही.
पराभूत पांडव विगलित थे आत्म-ग्लानि से;
राज्य उन्हें लौटा यश, विजय सुयोधन पाता.
पर वह चला द्रौपदी को निर्वस्त्र नचाने;
भरी सभा में, सभी वृद्ध दृग मूंद चुप रहे.
मोहग्रस्त धृतराष्ट्र रहे, पर भीष्म-द्रोण भी
तो संकीर्ण मूढ़ सत्यों से रहे प्रवंचित.
क्यों न कहा, अब राज्य धृतराष्ट्रों का हो गया
फिर पांडव ही उसके नैतिक अधिकारी?
दया पांडवों को, थपकी दी दुर्योधन को;
छला स्वयं को राजभक्ति के अटल तर्क से.
बृहद् सत्य का पक्ष ग्रहण कर अब भी हों
ये विलग, विनत होगा दुर्योधन ; युद्ध न होगा.
पर, यह होता तो हो लेता पूर्व ही.
तब ये गुरुजन कभी न सहते कपट द्यूत को;
भरी सभा में दीन द्रौपदी की दुर्गति को.
आज पितामह सेनापति हैं दुर्योधन के !
या यह हो सकता है, राधे, पांडु-सुतों को
मैं मंझधार छोड़कर संग तुम्हारे चल दूं.
कट-मर पांडव जाएं या तज कुरूक्षेत्र को
लौटे सघन वनों में रह-रह सिर धुनने को.’’
कृष्ण चुप हुए; और अधिक कहते भी क्या वे
राधा ने समझा, फिर भी कह उठी,‘‘समर की
रक्त-कीच में धंस डूबेगा युग का यौवन;
बदल सकेगा क्या न ज्ञान तेरा कुरू-मन को?’’
**********************************
वीरेंद्र कुमार गुप्त
रविवार, 18 मार्च 2007
रविवार, 11 मार्च 2007
वन-वन अगर न छानते, राम न बनते राम..........
जागा लाखों करवटें, भीगा अश्क हज़ार
तब जाकर मैंने किए, काग़ज काले चार.
*
छोटा हूँ तो क्या हुआ, जैसे आँसू एक
सागर जैसा स्वाद है, तू चखकर तो देख.
*
मैं खुश हूँ औज़ार बन, तू ही बन हथियार
वक़्त करेगा फ़ैसला, कौन हुआ बेकार.
*
तू पत्थर की ऐंठ है, मैं पानी की लोच
तेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी सोच.
*
मैं ही मैं का आर है, मैं ही मैं का पार
मैं को पाना है अगर, तो इस मैं को मार.
*ख़ुद में ही जब है ख़ुदा, यहाँ-वहाँ क्यों जाऊँ
अपनी पत्तल छोड़ कर, मैं जूठन क्यों खाउँ.
*
पाप न धोने जाऊँगा, मैं गंगा के तीर
मजहब अगर लकीर है, मैं क्यों बनूँ फ़क़ीर.
*
सब-सा दिखना छोड़कर, ख़ुद-सा दिखना सीख
संभव है सब हों ग़लत, बस तू ही हो ठीक.
*
ख़ाक जिया तू ज़िंदगी, अगर न छानी ख़ाक
काँटे बिना गुलाब की, क्या शेखी क्या धाक.
*
बुझा-बुझा सीना लिए, जीना है बेकार
लोहा केवल भार है, अगर नहीं है धार.
*
सोने-चाँदी से मढ़ी, रख अपनी ठकुरात
मेरे देवी-देवता, काग़ज-क़लम-दवात.
*
अपनी-अपनी पीर का, अपना-अपना पीर
तुलसी की अपनी जगह, अपनी जगह कबीर.
वो निखरा जिसने सहा, पत्थर-पानी-घाम
वन-वन अगर न छानते, राम न बनते राम.
*
पिंजरे से लड़ते हुए, टूटे हैं जो पंख
यही बनेंगे एक दिन, आज़ादी के शंख.
*
जुगनू बोला चाँद से, उलझ न यूँ बेकार
मैंने अपनी रौशनी, पाई नहीं उधार.
*
बस मौला ज़्यादा नहीं, कर इतनी औक़ात
सर ऊँचा कर कह सकूँ, मैं मानुष की ज़ात.
*
पानी में उतरें चलो, हो जाएगी माप
किस मिट्टी के हम बने, किस मिट्टी के आप.
*
अपने को ज़िंदा रखो, कुछ पानी कुछ आग
बिन पानी बिन आग के, क्या जीवन में राग.
*
शबरी जैसी आस रख, शबरी जैसी प्यास
चल कर आएगा कुआँ, ख़ुद ही तेरे पास.
*
जो निकला परवाज़ पर, उस पर तनी गुलेल
यही जगत का क़ायदा, यही जगत का खेल.
*
कटे हुए हर पेड़ से, चीखा एक कबीर
मूरख कल को आज की, आरी से मत चीर.
*
भूखी-नंगी झोंपड़ी, मन ही मन हैरान
पिछवाड़े किसने लिखा, मेरा देश महान.
*
हर झंडा कपड़ा फ़क़त, हर नारा इक शोर
जिसको भी परखा वही, औना-पौना चोर.
*
सब कुछ पलड़े पर चढ़ा, क्या नाता क्या प्यार
घर का आँगन भी लगे, अब तो इक बाज़ार.
*
हम भी औरों की तरह, अगर रहेंगे मौन
जलते प्रश्नों के कहो, उत्तर देगा कौन.
*
भोगा उसको भूल जा, होगा उसे विचार
गया-गया क्या रोय है, ढूँढ नया आधार.
*
लौ से लौ को जोड़कर, लौ को बना मशाल
क्या होता है देख फिर, अंधियारों का हाल.
*********************
नरेश शांडिल्यए-5, मनसाराम पार्क,संडे बाज़ार रोडउत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
तब जाकर मैंने किए, काग़ज काले चार.
*
छोटा हूँ तो क्या हुआ, जैसे आँसू एक
सागर जैसा स्वाद है, तू चखकर तो देख.
*
मैं खुश हूँ औज़ार बन, तू ही बन हथियार
वक़्त करेगा फ़ैसला, कौन हुआ बेकार.
*
तू पत्थर की ऐंठ है, मैं पानी की लोच
तेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी सोच.
*
मैं ही मैं का आर है, मैं ही मैं का पार
मैं को पाना है अगर, तो इस मैं को मार.
*ख़ुद में ही जब है ख़ुदा, यहाँ-वहाँ क्यों जाऊँ
अपनी पत्तल छोड़ कर, मैं जूठन क्यों खाउँ.
*
पाप न धोने जाऊँगा, मैं गंगा के तीर
मजहब अगर लकीर है, मैं क्यों बनूँ फ़क़ीर.
*
सब-सा दिखना छोड़कर, ख़ुद-सा दिखना सीख
संभव है सब हों ग़लत, बस तू ही हो ठीक.
*
ख़ाक जिया तू ज़िंदगी, अगर न छानी ख़ाक
काँटे बिना गुलाब की, क्या शेखी क्या धाक.
*
बुझा-बुझा सीना लिए, जीना है बेकार
लोहा केवल भार है, अगर नहीं है धार.
*
सोने-चाँदी से मढ़ी, रख अपनी ठकुरात
मेरे देवी-देवता, काग़ज-क़लम-दवात.
*
अपनी-अपनी पीर का, अपना-अपना पीर
तुलसी की अपनी जगह, अपनी जगह कबीर.
वो निखरा जिसने सहा, पत्थर-पानी-घाम
वन-वन अगर न छानते, राम न बनते राम.
*
पिंजरे से लड़ते हुए, टूटे हैं जो पंख
यही बनेंगे एक दिन, आज़ादी के शंख.
*
जुगनू बोला चाँद से, उलझ न यूँ बेकार
मैंने अपनी रौशनी, पाई नहीं उधार.
*
बस मौला ज़्यादा नहीं, कर इतनी औक़ात
सर ऊँचा कर कह सकूँ, मैं मानुष की ज़ात.
*
पानी में उतरें चलो, हो जाएगी माप
किस मिट्टी के हम बने, किस मिट्टी के आप.
*
अपने को ज़िंदा रखो, कुछ पानी कुछ आग
बिन पानी बिन आग के, क्या जीवन में राग.
*
शबरी जैसी आस रख, शबरी जैसी प्यास
चल कर आएगा कुआँ, ख़ुद ही तेरे पास.
*
जो निकला परवाज़ पर, उस पर तनी गुलेल
यही जगत का क़ायदा, यही जगत का खेल.
*
कटे हुए हर पेड़ से, चीखा एक कबीर
मूरख कल को आज की, आरी से मत चीर.
*
भूखी-नंगी झोंपड़ी, मन ही मन हैरान
पिछवाड़े किसने लिखा, मेरा देश महान.
*
हर झंडा कपड़ा फ़क़त, हर नारा इक शोर
जिसको भी परखा वही, औना-पौना चोर.
*
सब कुछ पलड़े पर चढ़ा, क्या नाता क्या प्यार
घर का आँगन भी लगे, अब तो इक बाज़ार.
*
हम भी औरों की तरह, अगर रहेंगे मौन
जलते प्रश्नों के कहो, उत्तर देगा कौन.
*
भोगा उसको भूल जा, होगा उसे विचार
गया-गया क्या रोय है, ढूँढ नया आधार.
*
लौ से लौ को जोड़कर, लौ को बना मशाल
क्या होता है देख फिर, अंधियारों का हाल.
*********************
नरेश शांडिल्यए-5, मनसाराम पार्क,संडे बाज़ार रोडउत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
मंगलवार, 27 फ़रवरी 2007
वो मौत माँगता हो, मगर मौत भी न हो.....................
न जाने चाँद पूनम का, ये क्या जादू चलाता है,
कि पागल हो रही लहरें, समुंदर कसमसाता है.
हमारी हर कहानी में, तुम्हारा नाम आता है.
ये सबको कैसे समझाएँ कि तुमसे कैसा नाता है.
ज़रा सी परवरिश भी चाहिए, हर एक रिश्ते को,
अगर सींचा नहीं जाए तो पौधा सूख जाता है.
ये मेरे ग़म के बीच में क़िस्सा है बरसों से
मै उसको आज़माता हूँ, वो मुझको आज़माता है.
जिसे चींटी से लेकर चाँद सूरज सब सिखाया था,
वही बेटा बड़ा होकर, सबक़ मुझको पढ़ाता है.
नहीं है बेइमानी गर ये बादल की तो फिर क्या है,
मरूस्थल छोड़कर, जाने कहाँ पानी गिराता है.
पता अनजान के किरदार का भी पल में चलता है,
कि लहजा गुफ्तगू का भेद सारे खोल जाता है.
ख़ुदा का खेल ये अब तक नहीं समझे कि वो हमको
बनाकर क्यों मिटाता है, मिटाकर क्यूँ बनाता है.
वो बरसों बाद आकर कह गया फिर जल्दी आने को
पता माँ-बाप को भी है, वो कितनी जल्दी आता है.
*******************************************
खिड़कियाँ, सिर्फ़, न कमरों के दरमियां रखना
अपने ज़ेहनों में भी, थोड़ी सी खिड़कियाँ रखना
पुराने वक़्तों की मीठी कहानियों के लिए
कुछ, बुजुर्गों की भी, घर पे निशानियाँ रखना
ज़ियादा ख़ुशियाँ भी मगरूर बना सकती हैं
साथ ख़ुशियों के ज़रा सी उदासियाँ रखना.
बहुत मिठाई में कीड़ों का डर भी रहता है
फ़ासला थोड़ा सा रिश्तों के दरमियां रखना
अजीब शौक़ है जो क़त्ल से भी बदतर है
तुम किताबों में दबाकर न तितलियाँ रखना
बादलो, पानी ही प्यासों के लिए रखना तुम
तुम न लोगों को डराने को बिजलियाँ रखना
बोलो मीठा ही मगर, वक़्त ज़रूरत के लिए
अपने इस लहजे में थोड़ी सी तल्ख़ियाँ रखना
मशविरा है, ये, शहीदों का नौजवानों को
देश के वास्ते अपनी जवानियाँ रखना
ये सियासत की ज़रूरत है कुर्सियों के लिए
हरेक शहर में कुछ गंदी बस्तियाँ रखना
*******************************************
इतनी किसी की ज़िंदगी ग़म से भरी न हो.
वो मौत माँगता हो, मगर मौत भी न हो.
ख़ंजर के बदले फूल लिए आज वो मिला,
डरता हूँ कहीं चाल ये उसकी नई न हो.
बच्चों को मुफ़लिसी में, ज़हर माँ ने दे दिया,
अख़बार में अब ऐसी ख़बर फिर छपी न हो.
ऐसी शमा जलाने का क्या फ़ायदा मिला
जो जल रही हो और कहीं रोशनी न हो.
हर पल, ये सोच-सोच के नेकी किए रहो,
जो साँस ले रहो हो, कहीं आख़िरी न हो.
क्यूँ ज़िंदगी को ग़र्क़ किए हो जुनून में
रख्खो जुनून उतना कि वो खुदकुशी न हो.
ऐसे में क्या समुद्र के तट का मज़ा रहा,
हो रात, साथ वो हों, मगर चाँदनी न हो.
एहसास जो मरते गए, दुनिया में यूँ न हो,
दो पाँव के सब जानवर हों, आदमी न हो.
इस बार जब भी धरती पे आना ऐ कृष्ण जी,
दो चक्र ले के आना, भले बांसुरी न हो.
लक्ष्मीशंकर वाजपेयी
कि पागल हो रही लहरें, समुंदर कसमसाता है.
हमारी हर कहानी में, तुम्हारा नाम आता है.
ये सबको कैसे समझाएँ कि तुमसे कैसा नाता है.
ज़रा सी परवरिश भी चाहिए, हर एक रिश्ते को,
अगर सींचा नहीं जाए तो पौधा सूख जाता है.
ये मेरे ग़म के बीच में क़िस्सा है बरसों से
मै उसको आज़माता हूँ, वो मुझको आज़माता है.
जिसे चींटी से लेकर चाँद सूरज सब सिखाया था,
वही बेटा बड़ा होकर, सबक़ मुझको पढ़ाता है.
नहीं है बेइमानी गर ये बादल की तो फिर क्या है,
मरूस्थल छोड़कर, जाने कहाँ पानी गिराता है.
पता अनजान के किरदार का भी पल में चलता है,
कि लहजा गुफ्तगू का भेद सारे खोल जाता है.
ख़ुदा का खेल ये अब तक नहीं समझे कि वो हमको
बनाकर क्यों मिटाता है, मिटाकर क्यूँ बनाता है.
वो बरसों बाद आकर कह गया फिर जल्दी आने को
पता माँ-बाप को भी है, वो कितनी जल्दी आता है.
*******************************************
खिड़कियाँ, सिर्फ़, न कमरों के दरमियां रखना
अपने ज़ेहनों में भी, थोड़ी सी खिड़कियाँ रखना
पुराने वक़्तों की मीठी कहानियों के लिए
कुछ, बुजुर्गों की भी, घर पे निशानियाँ रखना
ज़ियादा ख़ुशियाँ भी मगरूर बना सकती हैं
साथ ख़ुशियों के ज़रा सी उदासियाँ रखना.
बहुत मिठाई में कीड़ों का डर भी रहता है
फ़ासला थोड़ा सा रिश्तों के दरमियां रखना
अजीब शौक़ है जो क़त्ल से भी बदतर है
तुम किताबों में दबाकर न तितलियाँ रखना
बादलो, पानी ही प्यासों के लिए रखना तुम
तुम न लोगों को डराने को बिजलियाँ रखना
बोलो मीठा ही मगर, वक़्त ज़रूरत के लिए
अपने इस लहजे में थोड़ी सी तल्ख़ियाँ रखना
मशविरा है, ये, शहीदों का नौजवानों को
देश के वास्ते अपनी जवानियाँ रखना
ये सियासत की ज़रूरत है कुर्सियों के लिए
हरेक शहर में कुछ गंदी बस्तियाँ रखना
*******************************************
इतनी किसी की ज़िंदगी ग़म से भरी न हो.
वो मौत माँगता हो, मगर मौत भी न हो.
ख़ंजर के बदले फूल लिए आज वो मिला,
डरता हूँ कहीं चाल ये उसकी नई न हो.
बच्चों को मुफ़लिसी में, ज़हर माँ ने दे दिया,
अख़बार में अब ऐसी ख़बर फिर छपी न हो.
ऐसी शमा जलाने का क्या फ़ायदा मिला
जो जल रही हो और कहीं रोशनी न हो.
हर पल, ये सोच-सोच के नेकी किए रहो,
जो साँस ले रहो हो, कहीं आख़िरी न हो.
क्यूँ ज़िंदगी को ग़र्क़ किए हो जुनून में
रख्खो जुनून उतना कि वो खुदकुशी न हो.
ऐसे में क्या समुद्र के तट का मज़ा रहा,
हो रात, साथ वो हों, मगर चाँदनी न हो.
एहसास जो मरते गए, दुनिया में यूँ न हो,
दो पाँव के सब जानवर हों, आदमी न हो.
इस बार जब भी धरती पे आना ऐ कृष्ण जी,
दो चक्र ले के आना, भले बांसुरी न हो.
लक्ष्मीशंकर वाजपेयी
शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2007
प्रेम
प्रेम!!
प्रेमी सोचता है
किउसकी आँखों की भाषा सिर्फ वही पढ़ रही है
उसके संकेतों को सिर्फ़ वही समझ रही है
इस तरह का भ्रम प्रेमिका को भी होता है
भ्रम न रहे तो बताइए प्रेम कैसे हो!
प्रेमी सोचता है
किउसकी आँखों की भाषा सिर्फ वही पढ़ रही है
उसके संकेतों को सिर्फ़ वही समझ रही है
इस तरह का भ्रम प्रेमिका को भी होता है
भ्रम न रहे तो बताइए प्रेम कैसे हो!
सोमवार, 19 फ़रवरी 2007
चन्द गज़ले
तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था
पता नहीं वो दीए क्यूँ बुझा के रखता था
बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लक्कें भर लीं,
मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था
वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों-
इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था
न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा,
कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था
हमेशा बात वो करता था घर बनाने की
मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था
मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद,
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था
***********************
बुरे दिनों का आना-जाना लगा रहेगा
सुख-दुख का ये ताना-बाना लगा रहेगा
मैं कहता हूँ मेरा कुछ अपराध नहीं है
मुंसिफ़ कहता है जुर्माना लगा रहेगा
लाख नए कपड़े पहनूँ लेकिन ये सच है,
मेरे पीछे दर्द पुराना लगा रहेगा
मेरे हाथ परीशां होकर पूछ रहे हैं-
कब तक लोहे का दस्ताना लगा रहेगा
महानगर ने इतना तन्हा कर डाला है
सबके पीछे इक वीराना लगा रहेगा
युद्ध हुआ तो खाने वाले नहीं बचेंगे-
होटल की मेज़ों पे खाना लगा रहेगा
***********************
तेरा शो-केस भी क्या खूब ठसक रखता था
इसमें मिट्टी का खिलौना भी चमक रखता था
आपने गाड़ दिया मील के पत्थर-सा मुझे-
मेरी पूछो तो मैं चलने की ललक रखता था
वो शिकायत नहीं करता था मदारी से मगर-
अपने सीने में जमूरा भी कसक रखता था
मुझको इक बार तो पत्थर पे गिराया होता-
मैं भी आवाज़ में ताबिंदा खनक रखता था
ज़िंदगी! हमने तेरे दर्द को ऐसे रक्खा-
प्यार से जिस तरह सीता को, जनक रखता था
मर गया आज वो मेरे ही किसी पत्थर से
जो परिंदा मेरे आंगन में चहक रखता था
साभार : बीबीसी वेबसाईट
पता नहीं वो दीए क्यूँ बुझा के रखता था
बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लक्कें भर लीं,
मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था
वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों-
इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था
न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा,
कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था
हमेशा बात वो करता था घर बनाने की
मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था
मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद,
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था
***********************
बुरे दिनों का आना-जाना लगा रहेगा
सुख-दुख का ये ताना-बाना लगा रहेगा
मैं कहता हूँ मेरा कुछ अपराध नहीं है
मुंसिफ़ कहता है जुर्माना लगा रहेगा
लाख नए कपड़े पहनूँ लेकिन ये सच है,
मेरे पीछे दर्द पुराना लगा रहेगा
मेरे हाथ परीशां होकर पूछ रहे हैं-
कब तक लोहे का दस्ताना लगा रहेगा
महानगर ने इतना तन्हा कर डाला है
सबके पीछे इक वीराना लगा रहेगा
युद्ध हुआ तो खाने वाले नहीं बचेंगे-
होटल की मेज़ों पे खाना लगा रहेगा
***********************
तेरा शो-केस भी क्या खूब ठसक रखता था
इसमें मिट्टी का खिलौना भी चमक रखता था
आपने गाड़ दिया मील के पत्थर-सा मुझे-
मेरी पूछो तो मैं चलने की ललक रखता था
वो शिकायत नहीं करता था मदारी से मगर-
अपने सीने में जमूरा भी कसक रखता था
मुझको इक बार तो पत्थर पे गिराया होता-
मैं भी आवाज़ में ताबिंदा खनक रखता था
ज़िंदगी! हमने तेरे दर्द को ऐसे रक्खा-
प्यार से जिस तरह सीता को, जनक रखता था
मर गया आज वो मेरे ही किसी पत्थर से
जो परिंदा मेरे आंगन में चहक रखता था
साभार : बीबीसी वेबसाईट
.....काश....
दुख का झूला,सुख का झूला
ज़िन्दगी देखे है मैने ख्वाब अक्सर
दायरे से पार जाकर
एक बचपन बेलिबास,
सुस्त चाल, पस्त उसका हौसला है,
और दूजा बान्ध फ़ीते स्कूल जाने को चला है,
इधर नन्ही-सी कली आन्चल मे गुमसुम मुस्कुराती है,
उधर सुख का हाथ थामे ज़िन्दगी स्कूल जाती है,
मा की गोदी से निकलकर खो गया बचपन
बडॆ होकर हमने सीखा-
कभी पत्ते फ़ेकना और कभी पन्क्चर बनाना,
हो न पाया मा के साथ रिक्शे मे कभी स्कूल जाना
काश! अपने भी नसीबा मे हुई होती किताबे, दोस्त, सखी-सहेली,
खैर!!! अपनी भी दुनिया अलबेली,
काश! कोई रास्ता गुलशन भरा हो,
अपने धुन्धले ख्वाब का भी rang बदले,
सुख का पौधा फ़िर हरा हो,
रास्ता खुशियो भरा हो
और किस्मत मुस्कुराकर हाथ अपने एक दिन आगे badhaaye,
काश! दुख भरा बचपन कभी स्कूल जाये.....
काश!! ज़िन्दगी एक ही झूले पे दोनो गीत गाये,
सुख भरे भी, दुख भरे भी..........
काश.....................
निखिल आनन्द गिरि
ज़िन्दगी देखे है मैने ख्वाब अक्सर
दायरे से पार जाकर
एक बचपन बेलिबास,
सुस्त चाल, पस्त उसका हौसला है,
और दूजा बान्ध फ़ीते स्कूल जाने को चला है,
इधर नन्ही-सी कली आन्चल मे गुमसुम मुस्कुराती है,
उधर सुख का हाथ थामे ज़िन्दगी स्कूल जाती है,
मा की गोदी से निकलकर खो गया बचपन
बडॆ होकर हमने सीखा-
कभी पत्ते फ़ेकना और कभी पन्क्चर बनाना,
हो न पाया मा के साथ रिक्शे मे कभी स्कूल जाना
काश! अपने भी नसीबा मे हुई होती किताबे, दोस्त, सखी-सहेली,
खैर!!! अपनी भी दुनिया अलबेली,
काश! कोई रास्ता गुलशन भरा हो,
अपने धुन्धले ख्वाब का भी rang बदले,
सुख का पौधा फ़िर हरा हो,
रास्ता खुशियो भरा हो
और किस्मत मुस्कुराकर हाथ अपने एक दिन आगे badhaaye,
काश! दुख भरा बचपन कभी स्कूल जाये.....
काश!! ज़िन्दगी एक ही झूले पे दोनो गीत गाये,
सुख भरे भी, दुख भरे भी..........
काश.....................
निखिल आनन्द गिरि
गुरुवार, 15 फ़रवरी 2007
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So now lets make the World very SMALL..
Yours'
Nikhil n Sohail
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तुम गईं.. जैसे रेलवे के सफर में बिछड़ जाते हैं कुछ लोग कभी न मिलने के लिए जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो जैसे नए परिंदों...
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छ ठ के मौके पर बिहार के समस्तीपुर से दिल्ली लौटते वक्त इस बार जयपुर वाली ट्रेन में रिज़र्वेशन मिली जो दिल्ली होकर गुज़रती है। मालूम पड़...
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कौ न कहता है कि बालेश्वर यादव गुज़र गए....बलेसर अब जाके ज़िंदा हुए हैं....इतना ज़िंदा कभी नहीं थे मन में जितना अब हैं....मन करता है रोज़ ...
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दिल्ली में कई बार ऐसा हुआ कि मैं और मेरे मुसलमान साथी किराए के लिए कमरा ढूंढने निकले हों और मकान मालिक ने सब कुछ तय हो जाने के बाद हमें क...
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जहां से शुरू होती है सड़क, शरीफ लोगों की मोहल्ला शरीफ लोगों का उसी के भीतर एक हवादार पार्क में एक काटे जा चुके पेड़ की सूख चुकी डाली प...
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विविध भारती के ज़माने से रेडियो सुनता आ रहा हूं। अब तो ख़ैर विविध भारती भी एफएम पर दिल्ली में सुनाई दे जाती है। मगर दिल्ली में एफएम के तौर...
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65 साल के हैं डॉ प्रेमचंद सहजवाला...दिल्ली में मेरे सबसे बुज़ुर्ग मित्र....दिल्ली बेली देखने का मन मेरा भी था, उनका भी...हालांकि, चेतावनी थ...
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दिल्ली की सड़कों पर कत्लेआम है, अच्छा है अच्छे दिन में मरने का आराम है, अच्छा है। छप्पन इंची सीने का क्या काम है सरहद पर, मच्छर तक ...
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शादियों को लेकर मुझे सिर्फ इस बात से उम्मीद जगती है कि इस दुनिया में जितने भी सफल पति दिखते हैं वो कभी न कभी एक असफल प्रेमी भी ज़रूर रहे हों...
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मुझे रह-रह कर अपना बचपन याद आ रहा है। एक स्कूल जहां रिक्शा घंटी बजाता आता तो हम पीछे वाले डिब्बे में बैठ जाते। रिक्शेवाला दरवाज़े की कुंडी ...
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मुझे याद है, जब मेरी ठुड्डी पर थोडी-सी क्रीम लगाकर, तुम दुलारते थे मुझे, एक उम्मीद भी रहती होगी तुम्हारे अन्दर, कि कब हम बड़े हों, ...