मंगलवार, 8 नवंबर 2022

मेट्रो से दुनिया

एक बांह सटे-सटे
हिचकोले खाते चली बोटैनिकल गार्डन से
बिछड़ी मंडी हाउस के आसपास शायद।

एक कंधा सटे-सटे 
बिन देखे बातें करता 
चलता रहा नोएडा से 
मुस्कुरा कर बिछड़ा शादीपुर में।

कई कपड़े सूखते रहे मेट्रो के उस पार
बालकनियों में, छज्जों पर
मन हुआ चिल्ला कर कह दूं
उड़ रहा है एक कपड़ा
क्लिप लगा दो।
 
गिरने-गिरने को है कोई ढंका हुआ बनियान 
निचले तल्ले पर
झट आकर लड़ पड़ेगी नीचे वाली मैडम
एक गुस्से को फूटता हुआ देख नहीं सकूंगा
रफ्तार भरी मेट्रो से।

एक भली-सी दिखती लड़की
बुरे नेटवर्क में मोबाइल लेकर बैठी है छज्जे पर
एक चश्मे वाले सज्जन अख़बार में घुसे हुए हैं
पूरा शहर धुएं में हैं, शोर में है
पानी की टंकी भर गई है
कोई देखने वाला नहीं।
मेट्रो के उस पार जैसे कोई फिल्म चल रही है
बिना टिकट। 

एक गंदे बालों वाला युवक
थूकने की जगह ढूंढता रहा प्लैटफॉर्म पर
फिर चोरी से ढूंढ ली एक साफ जगह।
मैं अपना गुस्सा दबाए बढ़ता जा रहा हूं 
ऐसे कई किस्सों को आधा-अधूरा छोड़कर।

एक बूढ़ा होता आदमी
झांकता ही जाता है एक लड़की के मोबाइल में
दो लड़के और झांकते हैं इधर-उधर
मेट्रो में सब झांकते बढ़े जाते हैं 
अपनी मंज़िल की ओर।

एक बच्चा उलट रहा है इधर-उधर
एक बच्चा प्यास से बिलट रहा है
उसकी चीख से टूट रहा है पूरे डिब्बे का सब्र
अच्छे-भले, संजे-संवरे दिखते लोग
अचानक बंजर होकर घूरने लगे हैं

बच्चा निडर रोए जा रहा है
मेट्रो इन सबको ढोती चलती ही जा रही है।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 22 सितंबर 2022

'इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी' - सी भास्कर राव की समीक्षा

जाने-माने साहित्यकार सी. भास्कर राव सर जमशेदपुर में मेरे टीचर रहे हैं। बेहद सौम्य, शालीन और मृदुभाषी। उन्हें अपनी कविताओं की किताब भेजी तो बदले में उन्होंने ये मेल भेजकर और कर्ज़दार कर दिया। ऐसे भी कोई लिखता है क्या। आज उनका जन्मदिन है तो सोचा अपने ब्लॉग पर यह समीक्षा लगाकर अपने गुरु को थोड़ा सम्मान दिया जाए।

प्रियवर निखिल,स्नेह|

मैंने आपके प्रथम कविता संग्रह की सारी कविताएं मनोयोग से पढ़ीं|

आशीष सहित मैं इस बात के लिए ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ कि आपने अपनी श्रेष्ठ कविताएं पढ़ने का एक दुर्लभ अवसर मुझे प्रदान किया|

सुप्रसिद्ध साहित्यकार सी. भास्कर राव
सच तो यह है कि मैं बहुत कम कविता संग्रह ही पढ़ पाया हूँ,शायद इसलिए भी कि मैं मूलत: एक गद्य लेखक हूँ और गद्य रचनाएं ही अधिक पढ़ने का अवसर मिलता रहा है| किसी युवा कवि के प्रथम कविता संग्रह पढ़ने का अवसर भी बहुत कम मिला है,लेकिन पूरी ईमानदारी से कह सकता हूँ कि इससे पूर्व किसी युवा कवि का इतना प्रखर और प्रभावशाली संग्रह कभी पढ़ने को नहीं मिला|

सारी कविताएं पढने के बाद यह अनुभव किया कि ये ऐसी कविताएं नहीं हैं,जिन्हें एक बार पढ़ लेने मात्र से उनकी गहराई और गंभीरता को पूरी तरह अनुभव किया जा सके,बल्कि उन्हें कई-कई बार पढ़ने की आवश्यकता है ताकि उनकी परतों और तहों को समझा जा सके|

समस्त कविताएं मुझे अत्यंत संवेदनशील,सार्थक,सघन और नितांत सामायिक प्रतीत हुईं|

इन कविताओं में जो तेवर है,तल्खी है,तीव्रता है,वह किसी भी संवेदनशील पाठक को झकझोरने में समर्थ है|

कथ्य और शिल्प की दृष्टि से सभी कविताएं,चाहे वे छोटी हों या किंचित लम्बी,अपने आप में परिपक्व और प्रौढ़ हैं| कोई भी कविता किसी जागरूक मन को बिना स्पर्श किए रह जाए,यह कतई संभव नहीं है|

ये सारी कविताएं आज के समय और समाज की परतों को उघेड़ने में जितनी सक्षम हैं,उन्हें सीधे छेदने और भेदने में भी उतनी ही सामर्थ्यवान तथा संभावनापूर्ण हैं|

आज के समाज के छल-छद्म की जो चीर-फाड़ इन कविताओं में हुई है,वह अपनी नंगी आँखों से किसी लाश के निर्मम पोस्टमार्टम को देखते हुए भीतर से छलनी होने जैसा है|

सच तो यह है कि हर कविता अपने आप में एक मिसाइल की तरह है,जिसकी अपनी-अपनी मारक क्षमता है,जिससे कोई बचना चाहकर भी नहीं बच सकता है|

कई कविताएं हमें अपने बौनेपन,नंगेपन और नपुंसकता का तीखा एहसास कराती हैं| साथ ही अपनी असमर्थता,असहायता,अवशता का भी| ये कविताएं हमें अपनी बेबसी और अपनी बेचारगी  से रूबरू कराती हैं|

कविताएं जिस हद तक पाठकों के मन पर अपना प्रभाव डालती हैं,उसी हद तक उनके मस्तिष्क पर प्रहार भी करती हैं| हर कविता का हर भाव किसी न किसी वैचारिक चेतना को अभिव्यक्त करने में समर्थ है| कथ्य और शिल्प का तथा भाव और विचार का जो सामंजस्य इन कविताओं में मिलता है,वह उनके समग्र प्रभाव को कई गुना बढ़ा देता है|

खासकर कविताओं का विचार पक्ष,जो अपनी पूरी बौद्धिक क्षमता के साथ मौजूद है,पढ़ने वाले को बेचैन करता है और भीतर तक हिला कर रख देता है,जिससे मन विचलित और आंदोलित हो उठता है|

व्यक्तिगत जीवन प्रसंगों से लेकर सामाजिक और राजनैतिक प्रसंगों तक तथा उससे भी आगे जाकर सार्वजनीन प्रसंगों तक इनमें जो गहरी विवेचना और सघन विश्लेषण मिलता है,वह अचंभित कर देता है कि क्या सचमुच ये कविताएं किसी युवा कवि के प्रथम कविता संग्रह की है!

प्रियवर इन सारी कविताओं को पढ़ने के बाद यही महसूस किया कि कविताओं में जो गंभीरता और गहराई है,उस पर टिप्पणी करने  की अर्हता सचमुच मुझमें नहीं है|

सचाई यह है कि मैं पिछले लगभग पचास वर्षों से लिख छप रहा हूँ,लेकिन कन्फेस करता हूँ कि अपने आज तक के समस्त लेखन-प्रकाशन पर आपकी यह कविता संग्रह बहुत-बहुत भारी पड़ता है|

मेरे एक दिवंगत पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि कोई गुरु जब अपने शिष्य से हार जाए,तो समझो कि वह गुरु की सबसे बड़ी जीत है| आपकी कविताओं को पढ़ने के बाद आज मैं शिद्दत से महसूस करता हूँ कि मैं अपने पुत्रवत शिष्य निखिल आनन्द गिरि से हार कर स्वयं को विजयी और गौरान्वित अनुभव कर रहा हूँ,जिसका प्रमाण है- आपका यह प्रथम कविता संग्रह “ इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी “

पुन: एक बार हार्दिक बधाई,असीम शुभकामनाएं एवं अशेष आशीष| इसलिए कि इन्हें पढ़कर मैं धन्य-धन्य हुआ| यह संग्रह नहीं पढ़ पाता तो निश्चय ही समकालीन जीवन के खुरदुरे यथार्थ और बेरहम सचाई के साक्षात्कार से वंचित रह जाता|

सी.भास्कर राव.

बुधवार, 29 जून 2022

दीवारें

हरा बतियाता है केसरिया रंग से
काला सबसे सुंदर लगता है सफ़ेदी पर
लाल सबकी जगह बनाता हुआ थोड़े में ही खुश है
नीला रंग कमरे में आसमान उतार लाया है
दीवार रंगे हैं लोई के सतरंगी प्रयोगों से। 

उसे डराता हूँ तो नहीं करती दीवारों को गंदा कुछ क्षण के लिए, 
मगर चूंकि उसका मन साफ है
फिर-फिर उभर आती है कोई पवित्र तस्वीर उसके भीतर। 
और फिर दीवारें भी तो इंतज़ार करती होंगी
एक कोमल स्पर्श का। 

वो चोरी-चुपके रंगती जाती है कोना-कोना
जैसे कोई महान चित्रकार अपना कैनवस रंगता है। 
जैसे किसी ने रंग दिये हैं तमाम धरती के कोने
पेड़, समुद्र और पहाडों से
कोई ईश्वर बैठा है लोई के भीतर 
जो सिर्फ रचना जानता है
डरना नहीं। 

सहम जाती है कभी-कभी 
पिता का मान रखने के लिए
मगर जानती है पिघल जायेंगे पिता
जब देखेंगे दीवारों पर
उसकी रची एक नई भाषा को। 

ठीक है कि मेहमान घर को विस्मय से देखते हैं
क्लास टीचर भी ताना मारती हैं दीवारें देखकर
ऑनलाइन पीटीएम में 
ढूँढने पर भी नहीं मिलता कोई साफ कोना
गिटिर पिटिर करते ही होंगे पड़ोसी। 

बहरहाल 
वो जानती है
क्यूँ भरा मिलता है 
कलर पेंसिल का डिब्बा अक्सर?

रात जब सो जाती है लोई
कौन भरता है चुपके से दीवारों में छूट चुके रंग
और डांट से उपजा उसके भीतर का खालीपन भी।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 9 जून 2022

सीमित संभावनाओं वाले कवि की असीमित इच्छाओं का कोलाज



अपना नंबर मिलाने पर सभी लाइनें व्यस्त आती है। अचानक ध्यानाकर्षित करता कोई गीत व्यस्तम दिनचर्या के बावजूद खुद से मिलने का बहाना बन जाता है। थोड़ी देर के लिए सब pause हो
नाज़िश ने जो लिखा, उसे 'जनसंंदेश टाइम्स' अख़बार
ने ख़ूबसूरती से छापा भी है

जाता है।
निखिल की इस किताब में आने वाली प्रेमिका को ऐसे ही किसी pause की तरह देखा जाना चाहिए। ऐसे किसी गीत की तरह लिया जाना चाहिए जो उदासी में पीठ पर थपथपाहट की तरह रहे। कहे, तुम अकेले नहीं हो दोस्त! हमारा दुख साझा है।
इन कविताओं में विद्वता का वो भाव नहीं है जो आपकी भावनाओं को बौना घोषित कर दे। एक से दूसरी कविता तक पहुँचते हुए बहुत से अदृश्य डेशेज़ के बीच भी अनकही कविताओं की भरमार है। शर्त है आप के दिल की बीनाई बाक़ी हो। और तब कवि की इच्छाओं का कोरस सार्वजनिक दुखों का कोरस बन जाता है।
मुझे नहीं पता निखिल आनंद गिरी की "प्रेमिका" हिंदी कविताओं की दुनिया में अपने लिए कितनी जगह घेरेगी। हाँ मगर, लंबे सफ़र पर बजती फेवरेट प्लेलिस्ट जो सुकून देती है बस वही काम रोज़ रात कम से कम एकबार पढ़ ली जाने वाली इन कविताओं से भी लिया जा सकता है। जिसे पढ़कर वाह से ज़्यादा आह निकलती है।
इसके अलावा दिल्ली में विस्थापित शहरी का बारहा गाँव याद करना, प्रेमिका को चूमते हुए समाज शास्त्र का याद आना, पिता को शक्ति पुंज की तरह देखना, माँ को बिना शर्त मुहब्बत से सोचना, लिपटकर रोने की सख्त मनाही होना, कुतुबमीनार से कूदकर सच का ख़ुदकुशी करना, हंसना, रोना, लौटना, लड़कियों का बारिश और लड़कों का सिर्फ जंगली होना•• इस तरह अंत हीन लिस्ट का होना। एक सीमित संभावनाओं वाले कवि की असीमित इच्छाओं का कोलाज देखिये-
मेरे हाथ इतने लंबे हों कि
बुझा सकूँ सूरज पल भर के लिए
और मां जिस कोने में रखती थी अचार
वहां पहुंचे, स्वाद हो जाए
गर्म तवे पर रोटियों की जगह पके
महान होते बुद्धिजीवियों से सामना होने का डर
जलता रहे, जल जाए समय
हम बेवकूफ घोषित हो जाएं
एक मौसम खुले बाहों में
और छोड़ जाएं इंद्रधनुष
दर्द के सात रंग
नज़्म हो जाएं
लड़कियां बारिश हो जाएं
चांद गुलकंद हो जाएं
नर्म अल्फ़ाज़ हो जाएं
और मीठे सपने
लड़के सिर्फ जंगली
निखिल की कविताओं में जितना मर्म है उतना ही व्यवस्था में फंसे होने की मध्यवर्गीय छटपटाहट के बावजूद तटस्थता, जिजीविषा, जीवटता और अंततः प्रेम की विजयी देखने की चाह। कवि मूल रूप से यही है और हर बार बड़ी मासूमियत से यह अपनी नैसर्गिकता बचा ले जाते हैं।
पहली किताब के लिए
बधाई
। दूसरी जल्द आए। शुभकामनाएं।
इस शहर में छपने वाले अमीर अखबारों के मुताबिक़
निहायती ग़रीब, गंदे और बेरोजगार गाँवों से
वेटिंग की टिकट खरीदने से पहले मुसाफिरों को
खरीदने होते हैं शहर के सम्मान में
अंग्रेज़ी के उपन्यास
गोरा होने की क्रीम
सूटकेस में तह लगे कपड़े
और मीडियम साइज के जॉकी
हालांकि लंगोट के खिलाफ़ नहीं है यह शहर
और सभ्य साबित करने के लिए अभी शुरू नहीं हुआ भीतर तक झांकने का चलन
यहाँ हर दुकान में सौ रुपये की किताब मिलती है
जिसमें लिखे हैं सभ्य दिखने के सौ तरीक़े
जैसे सभ्य लोग सीटियां नहीं बजाते
या फिर उनके घरों में बुझ जाती है लाइट
दस बजते बजते
बात बात आंदोलन के मूड में आ जाता है जो शहर
हमारे उसी शहर में थूकने की आज़ादी है कहीं भी
गालियाँ बकना नाशते से भी ज़्यादा ज़रूरी है हर रोज़
और लड़कियों के लिए यहाँ भी दुपट्टा डालना ज़रूरी है
जहाँ न बिजली जाती है कभी और न डर
जिनकी राजधानी होगी वो जाने
किसी दिन तुम इस शहर आओ
और कह दो मुझे सफ़ाई पसंद है
तो पूरे होशोहवास में सच कहता हूँ
डाल आऊँगा, कूड़ेदान में सारा शहर।

नाज़िश अंसारी की फेसबुक पोस्ट से साभार 
May be an image of book and text that says "प्रेमिका इस कवितामें भी आनी थी निखिल आनंद गिरि Infinix HOT 11S"

शुक्रवार, 27 मई 2022

बेटी का स्कूल

कल स्कूल खुलेंगे कई दिन बाद 
क़ैद से निकलेंगी बच्चियाँ
नए पुराने दोस्तों से मिलेंगी

फरहाना के साथ लंच शेयर करेगी 
जेनिस के साथ खूब बातें करेगी
रवनीत बनेगी बेंच पार्टनर

फरहाना बताएगी वॉटर पार्क के क़िस्से
छपछप करती है वो अक्सर जाकर

जेनिस बताएगी कैसे मुर्गे की आवाज़ निकालकर
खिड़की के बाहर आता है रोज़ 
गुब्बारे वाला

रवनीत बताएगी 
गुरुद्वारे जाकर दुखभंजनी साहब गाती है वो 
हर बुधवार

मेरी बच्ची भी बताएगी 
नई जगहों के बार में 
जहाँ मम्मी ले जाती है उसे, 

बताएगी कोर्ट गयी थी घूमने 
पिछले मंगलवार
कोर्ट एक मस्त जगह है
जहाँ मम्मी-पापा बिल्कुल नहीं लड़ते
सिर्फ़ प्यार करते हैं मुझसे। 

बताएगी फरहाना को
वॉटरपार्क से बुरा नहीं है थाने जाना
पुलिस वाले अंकल देते हैं खूब सारी टौफियाँ
और पापा से काफी देर बातें करते हैं। 

जेनिस को बताएगी
घर पर आती रहती है पुलिस
जैसे उसके यहाँ आता है गुब्बारे वाला। 

अगली बार आई पुलिस तो वो रवनीत से सीखकर 
गाएगी दुखभंजनी साहेब

और रोएगी बिल्कुल नहीं।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 14 मई 2022

पति-पत्नी

पति-पत्नी अलग रहने की अर्ज़ी लिए एक साथ कोर्ट जाते हैं। 
पति लंबी लाइन में आधार कार्ड लिए खड़ा हो जाता है। 
पत्नी फुर्र से बच्ची को दिखाकर घुस जाती है भीतर। 

श्वेत श्याम झगड़ों का अदभुत रेला है कोर्ट
चालाकियों की दुर्गंध हर तरफ़
सब अपने युद्ध के मैदान में जैसे। 

अब वो पति-पत्नी नहीं हैं
अपने वकीलों के पास ज़ुबान गिरवी रख गूँगे दुश्मन सिर्फ
सामने हैं जज
बीच में है बच्ची। 

कभी माँ को देखती है कि लौटेगी यहाँ से तो फेवरेट मैगी बनायेगी
फिर देखती है पिता को
और चुपके माँ के बैग से निकालकर देती है पानी की बोतल
धीरे से कहती है कान में-
"पी लीजिए, सीधा ऑफिस जाना है आपको"

माँ लगाती है तीन चांटे बड़बड़ाते हुए-
'बड़ा प्यार दिखा रही है यहाँ पर'
और खींचकर हाथ चल देती है।


बुधवार, 11 मई 2022

सत्य ही 'शिव' है, शिव ही 'संतूर' है

जिन्हें शास्त्रीय संगीत से वास्ता है या फिर फिल्म संगीत को थोड़ा करीब से जानते हैं, उन्हें शिव कुमार शर्मा के निधन की खबर ने ज़रूर दुखी किया होगा। एक-एक करके हमारे जमाने की सभी महान हस्तियाँ हमें छोडकर जा रहीं हैं। ख़ुशकिस्मती से हमने वो वक़्त देखा है जब हर क्षेत्र के साधक शीर्ष पर पहुँचे थे। जब बिस्मिल्लाह ख़ान शहनाई का पर्याय हो गए थे, अमजद अली ख़ान सरोद का, पंडित रविशंकर सितार का, उस्ताद ज़ाकिर हुसैन तबले का, पंडित हरिप्रसाद चौरसिया बांसुरी का और पंडित शिवकुमार शर्मा संतूर का। 

पंडित शिवकुमार शर्मा ने संतूर को पहचान दिलाई ये कहना गलत नहीं होगा। ये वाद्य कश्मीर तक सीमित था, पंडितजी ने इसे विश्व प्रसिद्ध कर दिया। अद्भुत बात है कि जगह से ही नहीं साज से भी जगह की पहचान हो जाती है। संतूर की आवाज़ आप सुने तो उस आवाज़ में ही खूबसूरत वादियाँ, पहाड़, झरने बसे हुए हैं। उस पर वादन शिवकुमार शर्मा का हो तो आप आँखें बंद करके ही वहाँ घूम कर आ सकते हैं। ये सभी महान हस्तियाँ कभी फिल्म संगीत में अपने-अपने साज बजाया करती थीं। पंडित शिवकुमार शर्मा ने भी एस डी बर्मन, मदन मोहन, आर डी बर्मन जैसे सभी संगीतकारों के साथ काम किया था। साथ ही अपनी शास्त्रीय संगीत की यात्रा भी उन्होने जारी रखी। धीरे-धीरे शास्त्रीय संगीत में उनका नाम शीर्ष पर पहुँच गया। यश चोपड़ा की सभी फिल्मों में हरिप्रसाद चौरसिया और शिवकुमार शर्मा अपने साज बजाते रहे थे। यश चोपड़ा दोनों से बहुत प्रभावित थे, वे इन्हें कहते रहते थे कि आप दोनों फिल्मों में संगीत देना शुरू करिए। ये बात बस बात ही रह जाती थी क्योंकि धीरे-धीरे दोनों के मंचीय कार्यक्रम इतने होने लगे थे कि उन्हें फुरसत ही नहीं थी। दोनों की मंच पर जुगलबंदी बहुत मशहूर थी। उनका एल्बम "कॉल ऑफ द वैली" बहुत मशहूर हुआ था। 

यश चोपड़ा कभी-कभी के बाद “सिलसिला” की योजना बना रहे थे। “कभी-कभी” में खय्याम ने बहुत ही अच्छा संगीत दिया था जो पॉपुलर भी हुआ था। एक बार फिर यश चोपड़ा उन्हीं के पास पहुँचे लेकिन अप्रत्याशित रूप से खय्याम ने ये फिल्म करने से इंकार कर दिया। यश जी को इससे आघात तो पहुँचा क्योंकि उन्होने ही खय्याम के करियर को फिर से ऊपर पहुंचाया था। खय्याम के इंकार की वजह फिल्म की कहानी थी जो एक्स्ट्रा मेरिटल अफेयर के बारे में थी। खय्याम को उस पर आपत्ति थी। ख़ैर, यश चोपड़ा हरिप्रसाद चौरसिया और शिवकुमार शर्मा के पास पहुँचे और कहा अब आपको ये फिल्म करनी ही पड़ेगी। आप टीम बनाकर संगीत दीजिये। दोनों के पास समय की तो काफ़ी कमी थी लेकिन यशजी के साथ कई बरसों से काम कर रहे थे सो हामी भर दी। फिल्म इंडस्ट्री में चर्चा थी कि यशजी ने गलती कर ली है, क्लासिकल म्यूजिक के लोगों को फिल्म विधा की जानकारी नहीं होती। इस विधा में जनता की नब्ज पकडनी होती है। इसी फिल्म से जावेद अख्तर ने बतौर गीतकार अपना करियर शुरू किया। फिल्म पिट गई लेकिन गीत बहुत हिट हुए। “देखा एक ख्वाब” आज भी रोमांटिक गीतों की लिस्ट में सबसे ऊपर होता है, “ये कहाँ आ गए हम” उस समय का अनोखा प्रयोग था जिसमें गीत के बीच-बीच में अमिताभ बच्चन की कविता है, “नीला आसमान सो गया” के दो वर्शन थे और दोनों ही दिल की गहराइयों तक असर करते हैं, “रंग बरसे” आज भी होली पर सबसे ज़्यादा बजने वाला गीत है, इतने बरसों में भी इस गीत को कोई और गीत रिप्लेस नहीं कर पाया है। शिव-हरि ने जनता की नब्ज बखूबी पकड़ी, इसका कारण ये था कि वे फिल्म संगीत में अनेक संगीतकारों के साथ काम कर चुके थे। साथ ही शास्त्रीय संगीत के धुरंधर होने के कारण लयकारी का उन्हें अच्छा ज्ञान था, किस तरह रंजकता के साथ धुनों को पेश किया जा सकता है इसका उन्हें पूरा ज्ञान था। 
इसके चार साल बाद एक बार फिर यश चोपड़ा की फिल्म “फासले” के लिए संगीत तैयार किया। इस फिल्म में सुनील दत्त, रेखा, फारुख शेख, दीप्ति नवल के साथ नई जोड़ी महेंद्र कपूर के पुत्र रोहन कपूर और फरहा थे। फिल्म तो नहीं चली साथ ही संगीत भी लोकप्रिय नहीं हो पाया हालांकि गीत अच्छे ही थे। 
1988 में एक बार फिर यश चोपड़ा ने अपनी मल्टीस्टारर फिल्म विजय (अनिल कपूर, ऋषि कपूर) के लिए याद किया। इस फिल्म का एक ही गीत मुझे अच्छा लगता है, “बादल पे चल के आ”। 1989 में आई “चाँदनी” ने अंततः इन्हें इंडस्ट्री में स्थापित संगीतकर बना दिया। इस फिल्म के सभी गीत बेहद लोकप्रिय हुए। “मेरे हाथों में नौ नौ  चूड़ियाँ” अगर किसी शादी में न बजे तो वो शादी ही अधूरी थी। आज भी दुखी प्रेमियों के लिए “लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है” anthem की तरह है। 

“लम्हे (1991)” इस जोड़ी का सर्वश्रेष्ठ काम है। इसका हर एक गीत हीरा है। शिव-हरि ने इस फिल्म में ऑर्केस्ट्रा के साथ बहुत प्रयोग किए। फिल्म की कहानी के साथ संगीत और उसमें बजने वाले साज भी बदलते हैं। राजस्थान के लोकगीतों में सारंगी, रावणहत्था, ढोलक के उपयोग से फिर “कभी मैं कहूँ” में ट्रंपेट, सेक्सोफोन, पियानो, ड्रम्स का बेहतरीन उपयोग। “मोरनी बागां मा बोले” पर आज भी लड़कियां डांस तैयार करती हैं। मुझे “मोहे छेड़ो ना नन्द के लाला” बहुत पसंद है। 
1993 में यश चोपड़ा ने आमिर ख़ान, सैफ अली ख़ान, सुनील दत्त, विनोद खन्ना को लेकर फिल्म परंपरा बनाई थी। इसमें भी संगीत शिव-हरि का ही था। हालांकि इस बार वो लम्हे वाली बात नहीं थी। मुझे एक ही गीत “फूलों के इस शहर में” अच्छा लगता है। “डर” का गीत “जादू तेरी नज़र” सबसे ज़्यादा चलने वाला गीत था लेकिन मुझे इस फिल्म का संगीत बहुत कमजोर लगा था। यश जी ने दिल तो पागल है की जब योजना बनाई तो इस बार इस जोड़ी ने ना कह दिया। वे अब और फिल्म संगीत करना नहीं चाहते थे। उन्हें शास्त्रीय संगीत पर ही पूरा ध्यान देना था। उनके बहुत से concerts हो रहे थे। इनके बीच समय निकालना बहुत मुश्किल होता था। 

उन्होने कुल 8 फिल्में कीं जिनमें से 7 यश चोपड़ा की हैं। आठवीं फिल्म “साहिबाँ” यश चोपड़ा के सहायक “रमेश तलवार” की फिल्म थी। कुल मिलाकर उनका संगीत हमेशा उम्दा ही रहा। राग पहाड़ी का उन्होने सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया है क्योंकि यश चोपड़ा का वो स्टाइल ही हो गया था कश्मीर की वादियों में फिल्म बनाना। इस राग से पहाड़ों का आभास होता है। आप सुनिए चाँदनी का “तेरे मेरे होठों पे”, आपको पहाड़ महसूस होते हैं। 

अगर वे और कुछ समय निकाल पाते तो शायद ये खजाना और समृद्ध होता। 

आलेख-अनिरुद्ध शर्मा

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मैं लौटता हूं

 प्रिय दुनिया, बहुत दिनों तक भुलाए रखने का शुक्रिया! मैं इतने दिन कहां रहा कैसे बचा रहा यह बताना ज़रूरी नहीं मगर सब कुछ बचाते बचाते खुद न बच...