विविध भारती के ज़माने से
रेडियो सुनता आ रहा हूं। अब तो ख़ैर विविध भारती भी एफएम पर दिल्ली में सुनाई दे
जाती है। मगर दिल्ली में एफएम के तौर पर मिर्ची, रेड या गोल्ड ही मशहूर हैं। रौनक
यहां ‘बउआ’ है तो नावेद यहां मुर्गा बनाता है। सारे चैनल
दिल्ली वालों की ‘बैंड’ बजाते हैं और यही दिल्ली के रेडियो का ‘आधार कार्ड’ यानी पहचान है। दिल्ली के मशहूर 93.5 ‘RED FM’ के दो कड़क लौंडे (रेडियो
जॉकी) आशीष और किसना के साथ एक शाम गुज़ारने का मौक़ा मिला। उनके शो ‘अगला शो तेरी कार से’
में उन्हें दिल्ली की सबसे भरोसेमंद कार के तौर
पर दिल्ली मेट्रो में रिकॉर्डिंग करनी थी और मैं उनके साथ था। रेडियो कितना बदल
गया है, ये एहसास उन तीन घंटों में मुझे ख़ूब होता रहा।
युनूस ख़ान (विविध भारती
वाले) मेरे साथी हैं और जब भी उनसे फोन पर बात होती है, उनकी गहरी आवाज़ ये बताती
है कि रेडियो की पुरानी ब्रांड पहचान के तौर पर इस तरह की आवाज़ों का वो आखिरी दौर
हैं। 2016 में विविध भारती के साठ साल पूरे होने पर भी उनके कार्यक्रमों में
पुराने लोगों से बातचीत, रिसर्च किए हुए प्रोग्राम और ठहरी हुई आवाज़ों के सिलसिले
थे। इधर RED FM उसका एकदम विलोम था। उसके दोनों एंकर (कड़क लौंडे) किसी
जमूरे की तरह कूद-कूद कर दो घंटे का शो तैयार कर रहे थे। अगर मैं युनूस ख़ान को
कड़क लौंडा जैसा कुछ बोल कर ‘इंप्रेस’ करने की कोशिश करूं तो
मुझे नहीं लगता वो ज़्यादा दिन मेरे दोस्त रहना पसंद करेंगे। मगर दिल्ली अपने एफएम
रेडियो के प्रेज़ेंटर का सम्मान ऐसे ही करना चाहती है। वो चाहती है कि रेडियो उनकी
‘बजाता रहे’। ऐसा रेडियो वालों को लगता है।
दो घंटे का शो बनाने के लिए
इन दो लौंडो के पास आधे घंटे का मेट्रो सफर था। यानी बाक़ी डेढ़ घंटे में
ठूंस-ठूंस कर गाने और विज्ञापन भरे जाने थे। इस आधे घंटे की स्क्रिप्ट (जो एक पेज
पर दस प्वाइंट्स का प्रिंट आउट) में सिर्फ ये लिखा था कि इन्हें किसके साथ ‘प्रैंक’(बेवकूफ बनाकर मज़े लेना) करना था और किससे ‘डीएमआरसी’ का फुल फॉर्म पूछ कर इनाम देना है। दोनों
एंकर्स सचमुच बहुत फुर्ती के साथ सब कुछ ‘मैनेज’ कर रहे थे। कैमरे के आगे ‘पोल डांस’ करना, लोगों से बात-बात में मज़े लेना,
दोड़-दौड़ कर इस कोच से उस कोच तक ‘लोगों’ को पकड़ना वगैरह वगैरह।
तो रेडियो के दो घंटे का मसाला ऐसे तैयार होता है कि इसमें सैंकड़ों ग़लतियों,
गालियों और बेवकूफियों की भरपूर गुंजाइश होती है।
दिल्ली के दो कड़क लौंडे |
मुझे आकाशवाणी में एक बार
‘युववाणी’ में अपनी कविताएं पढ़ने के लिए बुलाया गया था।
सिर्फ एक ‘बनिया’ शब्द पर पूरी कविता बदलने की सलाह दे दी गई।
कार्यक्रम तक नहीं रिकॉर्ड हुआ। ये एक सरकारी रेडियो की ज़िम्मेदारी का पैरामीटर
है जहां प्राइवेट रेडियो कुछ भी चला सकता है। उसके पास इसकी न तो फुर्सत है, न
सलाहियत कि इन फालतू बातों पर सोच पाए।
ये सब कहते हुए मैं उन
दोनों एंकर्स की तारीफ करना चाहता हूं जो अपनी तरफ से शरीफ रहने की हर कोशिश करते
हैं, मगर उनका चैनल उन्हें ‘बदतमीज़’ बनाकर पैसा वसूल शो चाहता
है। अकेले में बातचीत पर पता चला कि आशीष (कड़क लौंडा) को पुराने गाने पसंद थे,
मेरी आवाज़ में कोई रेट्रो शो सुनने की इच्छा थी, मगर ख़ुद रेडियो के सामने वो ऐसे
प्रेज़ेंट हो रहे थे जैसे उनकी ट्रेन छूट रही हो और उनके पास WhatsApp के ज़माने में भी कोई सबसे नया या गंभीर चुटकुला हंसाने को बचा हो। उनकी
ज़िंदगी रेडियो पर किसी सेलेब्रिटी जैसी होगी, मगर एक शो करने के लिए उन्हें बहुत
पापड़ बेलने पड़ते हैं। एक शो की भागमभाग रिकॉर्डिंग के बाद उनके चैनल की गाड़ी तक
उनके पास टाइम से नहीं पहुंचती और उन्हें आज़ादपुर सब्ज़ी मंडी के किनारे
भूखे-प्यासे घंटो इंतज़ार करना पड़ता है। आप मानेंगे ही नहीं।
इस तरह का रेडियो मुझे बहुत सुकून नहीं देता। बिना शक इस तरह के चैनल, जॉकी भी जल्दी ही मशहूर, फिर महान हो जाएंगे। मगर सच कहता हूं ये जो भी मेहनत करते हैं, उनकी वैल्यू गोलगप्पे के खट्टे पानी जितनी ही है। एक बार अंदर गया फिर फ्लश में बाहर। इस देश को न सिर्फ बेहतर मतदाता चाहिए, बल्कि बेहतर श्रोता भी चाहिए।
निखिल आनंद गिरि