migration लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
migration लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 26 नवंबर 2015

स्लीपर डिब्बे की तरह झूलता बिहार

इस बार बिहार में नई सरकार के शपथ ग्रहण के साथ ही बिहार का मज़ाक बनना शुरू हो गया। ये हमारे भाग्य में लिखा हुआ है शायद। लालू का बेटा कुछ का कुछ पड़ गया और सोशल मीडिया पर हम जैसे लोग सही पकड़े हैंका डंक झेल रहे हैं। लालू के बेटे ने जो पढ़ा सो पढ़ा, एक और मंत्री ने अंत:करण की जगह अंतर्कलह पढ़ दिया। आगे-आगे देखिए होता है क्या।
छठ के वक्त ट्रेन से बिहार जाना और बिहार से लौटना पुराने जन्म के पाप भोगने जैसा हो गया है। हर साल सोचता हूं कि इस बार उड़कर पटना पहुंच जाऊंगा, इस बार चार महीने पहले ही एसी टिकट बुक करवा लूंगा, मगर सब फॉर्मूले बेकार हो जाते हैं। छठी मइया कहती हैं कि व्रत का कष्ट सिर्फ छठ करने वाला ही क्यों झेले। सब झेलो। अमृतसर, लुधियाना, अंबाला से डब्बा-डुब्बी, ट्रंक, बक्सा लादकर स्लीपर में जब लोग चढ़ते हैं तो मालगाड़ी में चढ़ने का सुख मिलता है। जब से होश संभाला, स्लीपर में जाने वाले लोग नहीं बदले। लगता है सबको एक-एक बार देख चुका हूं। बिहार का शायद ही कोई घर हो, जिसका एक बेटा बिहार-पंजाब में नौकरी नहीं करता हो। ये गर्व की बात नहीं, राज्य सरकार के लिए सोचने की बात है, शर्म की बात है। कुछ ऐसा होना चाहिए कि हम त्योहारों के लिए अपने गांव-घर लौटें तो हमारे हाथ में बढ़िया नौकरियों का सरकारी लिफाफा थमा दिया जाए। इस भरोसे के साथ कि बिहार में रहकर भी पूरी ज़िंदगी बिताई जा सकती है।
बिहार से लौटने के वक्त स्लीपर में मेरी सीट कन्फर्म थी। मगर आधी रात को जैसे ही नींद खुली, आंखों के ठीक सामने एक पैसेंजर चादर में झूल रहा था। पहले डर गया, फिर हंसी आई। ख़ुद पर, उस पर, बिहारी पैसेंजर होने के नसीब पर। स्लीपर बोगी में अक्सर लोग वेटिंग या जनरल टिकट लेकर घुसते हैं और कन्फर्म सीट वालों से रास्ते पर नौंकझोक चलती रहती है। ऐसे में एक सीट से दूसरी सीट तक मज़बूत चादर या गमछे का झूला बनाकर पूरी रात काट देना मजबूरी के नाम पर कमाल की खोज कही जा सकती है। बाबा रामदेव के स्वदेशी मैगी की तरह।
मुझे बाबा रामदेव पर गर्व है। उन्हें स्लीपर में यात्रा करने वालों से, रात भर बिना पेशाब-पखाने किए, चादर में झूलते रहने वाला योगासन सीखना चाहिए। क्या पता वो इस योगासन के बाद सीधा स्पाइडरमैन की शक्तियां पा जाएं। हमारा स्वदेशी मकड़मानव जो सिर्फ स्वदेशी नूडल्स खाता है।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

लिपटकर रोने की सख्त मनाही है...

रात में सियारों की हुंआ-हुंआ की तरह
सुनाई देती है मेट्रो की हल्की आवाज़
पेड़-पौधों की तरह दिखते हैं
दूर-दूर तक वीरान मकान...
शिकार के लिए ढूंढने नहीं पड़ते शिकार
बाइज्ज़त होम डिलीवरी की भी व्यवस्था है...
और मुझे ये सच कहने पर चालान मत कीजिए
कि हम एक जंगल को शहर समझने लगे हैं....
ऐसा नहीं कि पहली बार लिखा गया हो ये सब
मगर ये हर भाषा में बार-बार बताया जाना ज़रूरी है

जैसे बार-बार बनाई जानी होती है दाढ़ी
याद किए जाने होते हैं आखिरी विलाप
छूने होते हैं पांव, बेमन से....
घर लौटना होता है नियम और शर्तों के बिना
बीमार होने पर वही कड़वी दवाईयां बार-बार
जैसे बार-बार बदलते बेटों के लिए
नहीं बदलते मां के व्रत
और सुनिए इस शहर के चरित्र के खिलाफ
आपको दुर्लभ दिखने के लिए रोना हो बार-बार...
तो ठूंठ पेड़ बचाकर रखिए दो-चार...
किसी से लिपटकर रोने की सख्त मनाही है...

इस शहर में छपने वाले अमीर अखबारों के मुताबिक
निहायती ग़रीब, गंदे और बेरोज़गार गांवों से...
वेटिंग की टिकट लेने से पहले मुसाफिरों को... 
ख़रीदने होते हैं शहर के सम्मान में
अंग्रेज़ी के उपन्यास...
गोरा होने की क्रीम..
सूटकेस में तह लगे कपड़े...
और मीडियम साइज़ के जॉकी....
हालांकि लंगोट के खिलाफ नहीं है ये शहर..
और सभ्य साबित करने के लिए
अभी शुरु नहीं हुआ भीतर तक झांकने का चलन...

यहां हर दुकान में सौ रुपये की किताब मिलती है
जिसमें लिखे हैं सभ्य दिखने के सौ तरीके
जैसे सभ्य लोग सीटियां नहीं बजाते
या फिर उनके घरों में बुझ जाती हैं लाइट
दस बजते-बजते...
या जैसे मोहल्ले की पुरानी औरतें कहती हैं
अच्छे या सभ्य नहीं होते 47 वाले पंजाबी..

बात-बात पर आंदोलन के मूड में आ जाता है जो शहर...
हमारे उसी शहर में थूकने की आज़ादी है कहीं भी...
गालियां बकना नाश्ते से भी ज़रूरी है हर रोज़...
और लड़कियों के लिए यहां भी दुपट्टा डालना ज़रूरी है..
जहां न बिजली जाती है कभी और न डर।

जिनकी राजधानी होगी वो जानें..
किसी दिन तुम इस शहर आओ
और कह दो कि मुझे सफाई पसंद है..
तो पूरे होशोहवास में सच कहता हूं,
डाल आऊंगा...कूड़ेदान में सारा शहर...

निखिल आऩंद गिरि

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

दिल्ली एक उलझन है, एक वेटिंग रूम है...

मुझे कई बार लगता है कि मैं किसी दिल्ली-विल्ली में नहीं रहता। मैंने आज तक लालकिला नहीं देखा, कुतुबमीनार नहीं घूमा और न ही ट्रेड फेयर में टिकट कटाकर घूमने गया हूं। मैं तो सिर्फ दो-तीन घंटे रोज़ाना मेट्रो में रहता हूं, फिर एक दफ्तर में और फिर अपने कमरे में। बाकी कब, क्या, कौन-सी दिल्ली में होता है, मुझे नहीं पता। टीवी पर आग-वाग दिखती है तो हम दिल्ली के दफ्तर में ही बैठकर एक-दूसरे से पूछते हैं कि ये कहां का सीन है। तो कोई कहता है दिल्ली का है। आज दिल्ली बंद है ना, भारत भी बंद है आज ! मैं शर्मिंदा होता हूं और खुश भी कि मेरे रास्ते में ये दिल्ली नहीं आती। मेरे रास्ते में तो एक हवाई दिल्ली आती है। ज़मीन पर पांव रखूं तो सीढ़ियां आती हैं और फिर आधे आकाश में सफर कर सीधा रिक्शे वाले के पास जा पहुंचता हूं जो शर्तिया दिल्ली का नहीं होता।  ये दिल्ली रहती किधर है भाई, मुझे इस दिल्ली से मिला दो कोई।

एक बार घर में बैठे तो बिहार से पापा का फोन आया कि ठीक तो हो। मैंने कहा, हां....आप ही ठीक नहीं लग रहे। तो बोले, टीवी पर दिखा रहा है कि दिल्ली में ब्लास्ट हो गया है। फिर मैंने दिल्ली के अपने कमरे में इंटरनेट पर देखा तो पता चला सचमुच दिल्ली में ब्लास्ट हो गया है। फिर मैंने पापा से कहा कि पापा दिल्ली बहुत बड़ी है और जहां ब्लास्ट हुआ है, वो दिल्ली तो मुझसे बहुत दूर है।
पापा खुश हुए और बोले अच्छा है उस दिल्ली से दूर ही रहो।

हालांकि, मैं जिस दिल्ली के करीब हूं, उसे देखकर भी पापा खुश होंगे, कहना मुश्किल है। हवाई चप्पल में ही सवेरे-सवेरे उठकर सबसे सस्ती फिल्म देखने का जुगाड़ दिल्ली ने ही सिखाया।  क्या ज़रूरी है कि रॉकस्टार देखने के लिए आप वीकेंड की किसी गोधूलि वेला में किसी के साथ का इंतज़ार करें। क्यों न ब्रह्म मुहूर्त में उठें (दिल्ली में ब्रह्म मुहूर्त 7-8 बजे को मान सकते हैं) और चल पड़े पास के मॉलनुमा मंदिर में दर्शन करने नरगिस फाख़री का। या फिर साहिब, बीवी और गैंगस्टर वाली माही गिल का।  40-50 रुपये में प्यार, ज़िंदगी का तमाम दर्शन जिन गद्दीदार कुर्सियों पर मिलता है, मेरी दिल्ली वहीं है। जहां मैं ख़ुद को कभी रॉकस्टार तो कभी दबंग समझने लगता हूं। अगर प्यार उलझन के अलावा कुछ नहीं है तो हिंदुस्तान का हर प्रेमी एक  'रॉकस्टार' है।

एक वक्त और पक्के तौर पर लगता है कि हम दिल्ली में ही हैं। जब छुट्टियों के मौके पर तीन महीने पहले भी घर जाने को सारे टिकट फुल हो जाते हैं और ज़िंदगी अटक-सी गई लगती है। तब लगता है दिल्ली एक वेटिंग रूम है जहां हर किसी को यहां से बाहर जाने का इंतज़ार है।

''जब हम बड़े होते हैं,
हमारे साथ बड़ी होती है उम्र...
और धुंधली होती है याद..
बीत चुके उम्र की...
हमारे साथ बड़ा होता है खालीपन....
छूट चुके रिश्तों का...
और बड़ा होता है खारापन,
आंसूओं का...
चुप्पियां बड़ी होती हैं,
और उनमें छिपा दर्द भी..
ये तमाम शहर बड़े होते हैं हमारे साथ...
हमारे-तुम्हारे शहर...
शहरों की दूरियां घटती हैं,
रिश्तों की नहीं घटती...''
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 9 जुलाई 2011

मेट्रो में पिता

मेरे पिता जब मेट्रो में होते हैं...


तो उनकी नज़रें नीची होती हैं..


एक दुनिया जो छूटती जाती है मेट्रो से..

एक मीठी आवाज़, एक गंभीर आवाज़...

बताती है उन स्टेशनों के नाम....

‘अगला स्टेशन प्रगति मैदान’


पिता उन आवाज़ों से अनछुए..

निहारते हैं प्रगति मैदान के नीचे

एक गंदी बस्ती है शायद..

मुस्कुराते हैं पिता....

शायद याद आया हो गांव..

और बर्तन मांजती एक औरत...

शायद याद आए हों गांव के लोग....

जो नहीं दिखते कहीं मेट्रो में....


सब उदास लोग, सब अकेले...

और सबसे अकेले पिता..

जिनके मेट्रो में भी गांव है...

और शायद संतोष भी..

कि मेट्रो दिल्ली में ही है....

वरना गांव भी उदास हुआ करते...


निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी...

वहां हम छोड़ आए थे चिकनी परतें गालों की

वहीं कहीं ड्रेसिंग टेबल के आसपास

एक कंघी, एक ठुड्डी, एक मां...

गौर से ढूंढने पर मिल भी सकते हैं...

एक कटोरी हुआ करती थी,

जो कभी खत्म नहीं होती....

पीछे लिखा था लाल रंग का कोई नाम...

रंग मिट गया, साबुत रही कटोरी...


कूड़ेदानों पर कभी नहीं लिखी गई कविता

जिन्होंने कई बार समेटी मेरी उतरन

ये अपराधबोध नहीं, सहज होना है...


एक डलिया जिसमें हम बटोरते थे चोरी के फूल,

अड़हुल, कनैल और चमेली भी...

दीदी गूंथती थी बिना मुंह धोए..

और पिता चढ़ाते थे मूर्तियों पर....

और हमें आंखे मूंदे खड़े होना पड़ा....

भगवान होने में कितना बचपना था...


एक छत हुआ करती थी,

जहां से दिखते थे,

हरे-उजले रंग में पुते,

चारा घोटाले वाले मकान...

जहां घाम में बालों से

दीदी निकालती थी ढील....

जूं नहीं ढील,

धूप नहीं घाम....

और सूखता था कोने में पड़ा...

अचार का बोइयाम...


एक उम्र जिसे हम छोड़ आए,

ज़िल्द वाली किताबों में...

मुरझाए फूल की तरह सूख चुकी होगी...

और ट्रेन में चढ़ गए लेकर दूसरी उम्र....

छोड़कर कंघी, छोड़कर ठुड्डी, छोड़कर खुशबू,

छोड़कर मां और बूढ़े होते पिता...


आगे की कविता कही नहीं जा सकती.....

वो शहर की बेचैनी में भुला दी गई

और उसका रंग भी काला है...

इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी,

मगर पिता बूढ़े होने लगें,

तो प्रेमिकाओं को जाना होता है....


निखिल आनंद गिरि

Subscribe to आपबीती...

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

खैर, मां तो मां है ना...

आज बहुत दिनों बाद लौटा हूँ घर,

एक बीत चुके हादसे की तरह मालूम हुआ है

की मेरी बंद दराज की कुछ फालतू डायरियां

(ऐसा माँ कहती है, तुम्हे बुरा लगे तो कहना,

कविता से हटा दूंगा ये शब्द....)

बेच दी गयी हैं कबाडी वाले को....

मैं तलाश रहा हूँ खाली पड़ी दराज की धूल,

कुछ टुकड़े हैं कागज़ के,

जिनकी तारीख कुतर गए हैं चूहे,

कोइ नज़्म है शायद अधूरी-सी...

सांस चल रही है अब तक...


एक बोझिल-सी दोपहर में जो तुमने कहा था,

ये उसी का मजमून लगता है..

मेरे लबों पे हंसी दिखी है...

ज़ेहन में जब भी तुम आती हो,

होंठ छिपा नहीं पाते कुछ भी....

खैर, मेरे हंस भर देने से,

साँसे गिनती नज़्म के दिन नहीं फिरने वाले..

वक़्त के चूहे जो तारीखें कुतर गए हैं,

उनके गहरे निशाँ हैं मेरे सारे ज़हन पर..


क्या बतलाऊं,

जिस कागज़ की कतरन मेरे पास पड़ी है,

उस पर जो इक नज़्म है आधी...

उसमे बस इतना ही लिखा है,

"काश! कि कागज़ के इस पुल पर,

हम-तुम मिलते रोज़ शाम को...

बिना हिचक के, बिना किसी बंदिश के साथी...."


नज़्म यहीं तक लिखी हुई है,

मैं कितना भी रो लूं सर को पटक-पटक कर,

अब ना तो ये नदी बनेगी,

ना ये पुल जिस पर तुम आतीं...

माँ ने बेच दिया है अनजाने में,

तुम्हारे आंसू में लिपटा कागज़ का टुकडा...

पता है मैंने सोच रखा था,

इक दिन उस कागज़ के टुकड़े को निचोड़ कर....

तुम्हारे आंसू अपनी नदी में तैरा दूंगा,

मोती जैसे,

मछली जैसे,

कश्ती जैसे,

बल खाती-सी..


खैर, माँ तो माँ ही है ना..

बहुत दिनों के बाद जो लौटा हूँ तो इतनी,

सज़ा ज़रूरी-सी लगती है...

निखिल आनंद गिरि

Subscribe to आपबीती...

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

जाना

तुम गईं.. जैसे रेलवे के सफर में बिछड़ जाते हैं कुछ लोग कभी न मिलने के लिए   जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो जैसे नए परिंदों...

सबसे ज़्यादा पढ़ी गई पोस्ट