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बुधवार, 4 मई 2016

एक डायरी बिहार और मालदा से लौटकर

किसी भी शहर या इलाके को समझने के लिए गूगल के बजाय गलियों में घूमना मुझे हमेशा ज़्यादा बेहतर लगा है।  कई शहरों या लोगों को एक साथ समझना हो तो हिन्दुस्तान में दो और विकल्प हो सकते हैं। एक तो ट्रेन का सफर और दूसरा शादियों के फंक्शन। इस अप्रैल के महीने में मुझे दोनों ही मौके मिले।

समसी(मालदा) में शादी की तैयारी : चौका-रसोई संभालती महिलाएं

सीज़न हो ऑफ-सीज़न, ट्रेन का सफर बिहार के किसी मुसाफिर के लिए हमेशा कैटल क्लासका सफर ही होता है। मेरा अनुभव थोड़ा लंबा है तो अब लंबी ट्रेन यात्राओं के लिए जुगाड़ ढूंढना सीख गया हूं। एसी बोगी के अटेंडेंट को कुछ पैसे देकर ऐसी जगह पर रात काटी जा सकती है जहां टीटी आपको ढूंढते रह जाएंगे।  जैसे-तैसे बिहार पहुंचकर एक रिसेप्शन में पहुंचा तो देखा अब वहां भी टेबल-कुर्सी के बजाय बफे सिस्टम’ (buffet) ही चल रहा है। अगर आपको बफे सिस्टम में भी खाने को सब कुछ मिले और चम्मच न मिले तो यकीन मानिए आप बिहार में हैं।

इसके बाद बिहार और बंगाल की सीमा पर दूसरी शादी में जाने का मौका मिला। किसी भी राज्य का विकास देखना-समझना हो तो उसके सुदूर बॉर्डर (सीमांत) इलाकों को देखना चाहिए। कटिहार और मालदा के बीच का इलाका, जहां मुझे दो दिन गुज़ारने थे, इतने पिछड़े हैं कि अब भी वहां बड़ी गाड़ियां देखकर बच्चे पीछे भागते हैं और धूल भरी सड़कों में आपका चेहरा सन जाता है। यहां न ओला चलती है, न ऊबर। न ऑड है, न ईवन। सिर्फ एक पैसेंजर ट्रेन है जो दिन में तीन बार मालदा तक जाती है।

बंगाल की शादियों में एक बात ग़ौर करने लायक थी कि खाने-पीने (हलवाई) का सारा ज़िम्मा पुरुषों की बजाय महिलाओं के हाथ में था। चार महिलाओं की टीम ने शाम होते-होते कई स्वादिष्ट सब्ज़ियां और पकवान तैयार कर डाला। समसी (मालदा का एक क़स्बा) में मुस्लिम आबादी ज़्यादा है, मगर एक मस्जिद के ठीक सामने हिंदू शादी में ऑर्केस्ट्रा लगा था और पूरी रात बेरोकटोक सबने मस्ती की। ये बात तब की है, जब पूरे बंगाल में चुनाव चल रहे हैं। मालदा वही इलाका है जहां हाल ही में सांप्रदायिक हिंसा की ख़बरों से मीडिया की नज़र पहली बार उधर गई थी। मगर उनकी नज़र ऐसी ज़रूरी चीज़ों पर भी जानी चाहिए जो शोर कम मीठा सुकून ज़्यादा देती हैं, बिल्कुल मालदा के मशहूर आमों की तरह।


निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 26 नवंबर 2015

स्लीपर डिब्बे की तरह झूलता बिहार

इस बार बिहार में नई सरकार के शपथ ग्रहण के साथ ही बिहार का मज़ाक बनना शुरू हो गया। ये हमारे भाग्य में लिखा हुआ है शायद। लालू का बेटा कुछ का कुछ पड़ गया और सोशल मीडिया पर हम जैसे लोग सही पकड़े हैंका डंक झेल रहे हैं। लालू के बेटे ने जो पढ़ा सो पढ़ा, एक और मंत्री ने अंत:करण की जगह अंतर्कलह पढ़ दिया। आगे-आगे देखिए होता है क्या।
छठ के वक्त ट्रेन से बिहार जाना और बिहार से लौटना पुराने जन्म के पाप भोगने जैसा हो गया है। हर साल सोचता हूं कि इस बार उड़कर पटना पहुंच जाऊंगा, इस बार चार महीने पहले ही एसी टिकट बुक करवा लूंगा, मगर सब फॉर्मूले बेकार हो जाते हैं। छठी मइया कहती हैं कि व्रत का कष्ट सिर्फ छठ करने वाला ही क्यों झेले। सब झेलो। अमृतसर, लुधियाना, अंबाला से डब्बा-डुब्बी, ट्रंक, बक्सा लादकर स्लीपर में जब लोग चढ़ते हैं तो मालगाड़ी में चढ़ने का सुख मिलता है। जब से होश संभाला, स्लीपर में जाने वाले लोग नहीं बदले। लगता है सबको एक-एक बार देख चुका हूं। बिहार का शायद ही कोई घर हो, जिसका एक बेटा बिहार-पंजाब में नौकरी नहीं करता हो। ये गर्व की बात नहीं, राज्य सरकार के लिए सोचने की बात है, शर्म की बात है। कुछ ऐसा होना चाहिए कि हम त्योहारों के लिए अपने गांव-घर लौटें तो हमारे हाथ में बढ़िया नौकरियों का सरकारी लिफाफा थमा दिया जाए। इस भरोसे के साथ कि बिहार में रहकर भी पूरी ज़िंदगी बिताई जा सकती है।
बिहार से लौटने के वक्त स्लीपर में मेरी सीट कन्फर्म थी। मगर आधी रात को जैसे ही नींद खुली, आंखों के ठीक सामने एक पैसेंजर चादर में झूल रहा था। पहले डर गया, फिर हंसी आई। ख़ुद पर, उस पर, बिहारी पैसेंजर होने के नसीब पर। स्लीपर बोगी में अक्सर लोग वेटिंग या जनरल टिकट लेकर घुसते हैं और कन्फर्म सीट वालों से रास्ते पर नौंकझोक चलती रहती है। ऐसे में एक सीट से दूसरी सीट तक मज़बूत चादर या गमछे का झूला बनाकर पूरी रात काट देना मजबूरी के नाम पर कमाल की खोज कही जा सकती है। बाबा रामदेव के स्वदेशी मैगी की तरह।
मुझे बाबा रामदेव पर गर्व है। उन्हें स्लीपर में यात्रा करने वालों से, रात भर बिना पेशाब-पखाने किए, चादर में झूलते रहने वाला योगासन सीखना चाहिए। क्या पता वो इस योगासन के बाद सीधा स्पाइडरमैन की शक्तियां पा जाएं। हमारा स्वदेशी मकड़मानव जो सिर्फ स्वदेशी नूडल्स खाता है।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

पान की पीक से पॉपकॉर्न तक...सिनेमा ही सिनेमा

फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर सिर्फ जहाज में ही नहीं जाते...
मेरा बचपन बिहार (और झारखण्ड) के अलग-अलग कस्बों में बीता। पिताजी पुलिस अधिकारी रहे हैं तो अलग-अलग थानों में तबादले होते रहे और हम उनके साथ घूमते रहे। इन्हीं में से किसी इलाके में पहली फिल्म देखी होगी, मगर मुझे ठीक से याद नहीं। हाँ, फिल्म देखने जाने के कई खट्टे-मीठे अनुभव याद हैं, जिन्हें बताना पहला अनुभव जानने से कम ज़रूरी नहीं। क्योंकि सिनेमा के सौ साल का सफर उन्हीं सिनेमाघरों में हम और आप जैसे तमाम दर्शकों के होते हुए गुज़रा है।


मैं शायद छह या सात साल का रहा होऊंगा जब पिताजी के किसी 'इलाके' में 'सूरज' फिल्म लगी थी। हमारे परिवार के लिए फिल्म देखने का मतलब ये होता था कि टिकट पिताजी से लें। मतलब, एक सादी पर्ची (पान के साथ चूना दिये जाने जैसी) पर पिता जी कुछ लिख भर देते थे और हम आराम से हॉल में जाते और हॉल का मैनेजर पर्ची देखते ही पूरे 'सम्मान' से सीट देकर हमें फिल्म देखने देता। मैं तब न तो फिल्म समझता था, न फिल्म देखने के लिए फिल्म देखने जाता था। घर में सबसे छोटा था, तो जो सब करते वही करना ही होता था। ऐसे ही पर्चियों वाली हमने कई फिल्में देखीं। गाइड, मर्दों वाली बात, गंगा-जमुना, गंगा किनारे मोरा गाँव और फिर बाद में मोहरा तक। ये सब वैसे ही पर्ची लिखा-लिखा कर सीधा हॉल में प्रवेश करने वाली फिल्में थीं। हमारी तरफ भोजपुरी फिल्में ख़ूब लगती थीं, और उन फिल्मों के बारे में जानने के लिए हमें किसी ब्लॉग, रिसर्च पेपर या समीक्षा नहीं देखनी पड़ती थी। गाँव भर की बुआ, चाची, दीदी को हर फिल्म में नाम के साथ सब कुछ याद रहता था। भोजपुरी स्टार कुणाल सिंह हमारे बचपन के महानायक थे। वो जितेंद्र से मिलते-जुलते लगते थे तो मुझे जितेंद्र की फिल्में भी अच्छी लगती थीं। लखीसराय का अनुभव सबसे यादगार था, जहाँ एक बार पिक्चर शुरू हो गई और हम बाहर से एक बेंच लाए और फिर पिक्चर देखने बैठे।

तब हमारे घर टीवी नहीं हुआ करता था। रविवार को चार बजे शाम में फिल्म आती थी और हम देखने के लिए पड़ोस में जाते थे। ऐसे देखी गई पहली फिल्मों में से थी 'एक चादर मैली सी', 'एक दिन अचानक' और 'पार्टी'। आप समझ सकते हैं कि 'गंगा किनारे मोरा गाँव' तक से 'पार्टी' तक एक ही बचपन में देखने से सिनेमा कितनी गहराई से भीतर घुस रहा था।

जब राँची में स्कूल के दोस्तों के साथ पहली बार टिकट के पैसे चुकाकर फिल्म देखनी पड़ी तो लगा जैसे कोई गुनाह कर रहे हैं। तब तक 'पुलिसिया पहचान के नाम पर फिल्म देखना बुरा है', समझ आने लगा था। तब शायद पहली देखी फिल्म 'गॉडजिला' थी। बाद में एनाकान्डा, मोहब्बतें, गदर वगैरह-वगैरह। फिर जमशेदपुर गए तो वहाँ बैचलर लाइफ शुरु हुई। एक दोस्त ने पहली बार सुबह वाला 'शो' दिखाया। फिर तो सिनेमा आदत बन गया। हर नई रिलीज़ देखना ही देखना था। जमशेदपुर के बसन्त टॉकीज़ (जो अब नहीं रहा) में पाँच रुपये और ग्यारह रुपये के टिकट हुआ करते थे। पाँच रुपये की टिकट के हिसाब से साल में सौ शो देखने के भी लगभग पाँच सौ रुपये ही खर्च होते थे। इसीलिए सभी 'तरह' की फिल्में अफॉर्ड हो जाती थीं। कला के लिए जागरुक शहर जमशेदपुर में फिल्म महोत्सवों का चस्का लगा, जो अब तक कायम है।

फिर, दिल्ली आए तो पहली फिल्म देखी 'ओंकारा'। जामिया से नेहरु प्लेस तक पैदल चलकर तीस रुपये की टिकट पर। फिर एक महिला-मित्र के साथ मॉल गए, कोई फालतू सी फिल्म देखने। इतना महँगा पड़ा कि साथ देखने से जी भर गया। जमशेदपुर और बचपन बहुत याद आया। फिर देखा कि उन्हीं फिल्मों के 12 बजे से पहले वाले शो सस्ते होते हैं। तो आज तक दिल्ली में सुबह जल्दी उठने का सिर्फ यही मकसद होता है। कभी-कभी जान-बूझ कर देर से उठता हूँ, जब किसी ख़ास के साथ पिक्चर हॉल जाना हो और पॉपकॉर्न खाते हुए पिक्चर देखनी हो।

(ये लेख रेडियोप्लेबैक इंडिया वेब पोर्टल के लिए लिखा गया था..वहां जाकर भी पढ़ सकते हैं..इस पोस्ट के साथ लगाई गई दो तस्वीरें मेरे कैमरे से ली गई हैं..)

शनिवार, 12 नवंबर 2011

पटना..सॉरी..दिल्ली...सॉरी अमेरिका...बिहार की राजधानी है !!

मैथिली का आइटम लोकगीत (गाम के अधिकारी हमर बड़का भइया हो)
छठ पर इस बार बिहार जाकर ऐसा लगा कि हमारे गांव-कस्बों से सभी मर्द बिहार छोड़कर दिल्ली-मुंबई-पंजाब चले गए हैं और सिर्फ पर्व-त्योहारों पर मुंह दिखाने के लिए ही वापस लौटते हैं....इस आधार पर कहीं ऐसा न हो कि बिहार जाने के लिए आने वाले वक्त में हमें बिहार जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़े। और कहीं आने वाले वक्त में किताबों में कहीं हम ये न पढ़ें कि दिल्ली बिहार की राजधानी है (या फिर मुंबई)। मुझे हर घर का एक न एक आदमी बाहर ही नौकरी करता नज़र आता है। पहले भी ऐसा होता रहा है मगर फर्क ये आया है कि पहले मजदूरी के लिए लोग जाते थे और अब मजदूरों के बॉस बनकर भी जाते हैं।
'सामा-चकवा' की मूर्ति
दिल्ली में कल एक अलग तरह के कार्यक्रम में जाना हुआ। (मेरा पहला अनुभव था)। मंडी हाउस के पास त्रिवेणी ऑडिटोरियम में 'सामा चकेवा' कार्यक्रम का आयोजन था। दावे के साथ कहता हूं बहुत से बिहारियों को भी नहीं पता होगा कि इस नाम का कोई पर्व बिहार से ताल्लुक रखता है। नाम सुना भी होगा तो बाकी और कुछ भी नहीं पता होगा। छठ के बाद मिथिला के पूरे इलाके में भाई-बहनों का ये ख़ास पर्व कई दिनों तक 'खेला' जाता है। बचपन में गांव की बहनों को अक्सर सामा-चकवा की मूर्तियों के साथ गीत गाते देखा-सुना है मगर इस बार बिहार में भी सामा-चकेवा की उतनी धूम नहीं दिखी। दिल्ली आकर दिखी तो मन गदगद हो गया। वहां वरिष्ठ साहित्यकार और लोककर्मी मृदुला सिन्हा ने अपने किसी बरसों पुराने लेख का ज़िक्र किया जो उन्होंने बिहार से पलायन की स्थिति पर लिखा था। उस लेख का शीर्षक था...'दिल्ली बिहार की राजधानी है..'। मुझे लगा यही तो हम आज भी सोच रहे हैं और देख रहे हैं। कम से कम बिहार के मर्दों की राजधानी तो दिल्ली हो ही गई है। हां, बिहार की लड़कियों को दिल्ली भेजने में अभी भी दो-चार बार सोचा जाता है क्योंकि यहां का 'माहौल' अच्छा नहीं है।

ख़ैर, पर्व से खेल और अब खेल से भव्य समारोह तक का सफर करने वाले सामा चकवा (चकेवा, चकवा, चकबा सब एक ही हैं..) का दिल्ली में भव्य आयोजन देखकर सबसे अच्छा ये लगा कि आयोजन करने वाले लोग एकदम नई उम्र के थे। 25 से 30 साल वाले दर्जन भर बिहारी नौजवान। आधे लोगों से मेरा परिचय था और आधे से वहीं हुआ। युवाओं के हाथ में आयोजन का असर भी बड़ा ख़ूबसूरत दिखा। घर में पर्दे के पीछे या अकेले में औरतों के गाए जाने वाले मिथिला के लोकगीत दिल्ली के इस ऑडिटोरियम में ऐसे पेश किए जा रहे थे जैसे मुंबई या दिल्ली के चकाचौंध भरे माहौल में सुनिधि चौहान ''शीला की जवानी....'' या ''जलेबीबाई...'' गा रही हों।  सच कहूं तो मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। ये वही दिल्ली है जहां मेटालिका (कितने लोग इस बैंड से वाकिफ हैं, मुझे नहीं पता) का एक कन्सर्ट 2700 की टिकट पर आप देखने जाते हैं मगर हुड़दंग के डर से शो रद्द हो जाता है। लेडी गागा आती हैं तो धुएं वाली रातों को दिखा-दिखाकर टीवी वाले ऐसा समां बांधते हैं कि जैसे बस यही सुनकर हिंदुस्तानी संगीत को मोक्ष मिलना तय था। सामा चकेवा के 'आइटम लोकगीत' सुनकर न तो कोई शोर होता है और न ही इसका टिकट एक भी रुपये का है। फिर भी लोगों की भीड़ है, और समय पर तालियां बजती हैं। एक बार उन लोगों को भी त्रिवेणी का मुफ्त रुख ज़रूर करना चाहिए जिनके मन में बिहार का मतलब हिंदी और भोजपुरी फिल्मों में अक्सर बाज़ारू साज़िश के तौर पर फिल्माया जाने वाला एक फूहड़, निहायती बुद्धू (जिसकी बोली और लहजा देखकर सिर्फ हंसा या दुत्कारा जा सके), अधपका शहरी किरदार ही बैठा हुआ है। मैंने देखा कि दिल्ली की सभ्य सड़कों पर 'सामा चकवा' के गीत गाती महिलाएं चल रही थीं तो कारवाले रुककर फोटो खींच रहे थे, 'बिहारी' कहकर हंस नहीं रहे थे।   

क्या पता बिहार से निकलकर दिल्ली-मुंबई तक पलायन कर कब्ज़ा कर चुके लोग अमेरिका या लंदन के किसी शहर में भी इसी तादाद में नज़र आएं और वहां हमारा कलुआ (भोजपुरी लोकगीतों का नया रॉकस्टार, ज़्यादा जानने के लिए यूट्यूब की मदद ले सकतें हैं) ''कलुआ कन्सर्ट'' में इतनी भीड़ जुटाए कि हज़ारों डॉलर ब्लैक में टिकट बिकें।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 31 अक्तूबर 2010

अथ मुई लिपस्टिक कथा...

प्यार कर लिया तो क्या, प्यार है ख़ता नहीं...
(यहां क्लिक करें तो यूट्यूब पर वीडियो भी उपलब्ध है..)

प्रथम अध्याय

आईआईटी रूड़की में एक कार्यक्रम के दौरान इंजीनियरिंग के कुछ छात्रों ने अचानक अनोखी प्रतियोगिता रख दी। लड़कों को अपने होठों में लिपस्टिक दबाकर लड़कियों के होठों पर मलनी थी। लड़कों ने ऐसा किया, लड़कियों ने भी भरपूर साथ दिया...मगर लिपस्टिक मलने से मीडिया वाले लाल हो गए। उनके पास कैमरे थे तो वीडियो भी आ गया। वीडियो आया तो टीवी चैनल्स पर ख़बर चलने लगी। किसी चैनल ने कहा कि ये अनोखी प्रतियोगिता थी तो किसी ने होठों से छू लो तुम जैसे आकर्षक टाइटल के साथ तस्वीरें दिखानी जारी रखी। कुछ चैनल्स ऐसे थे जिन्हें लड़कों के लिपस्टिक लगाने से भारतीय संस्कृति को ख़तरा महसूस होने लगा। उन्हें हर दिन भारतीय संस्कृति घोर ख़तरे में नज़र आती है।

दूसरा अध्याय

उन्होंने भारतीय संस्कृति को बचाने का अभियान छेड़ दिया। एक से बढ़कर एक संत-महात्मा-मौलवियों को जुटाकर विमर्श शुरू हो गया कि भई, ये तो घोर पाप है। ये कौन-सी इंजीनियरिंग है। मतलब, ये तो सरासर शिक्षा जगत को शर्मसार कर देने वाली घटना है। इन छात्रों पर कार्रवाई अब तक क्यूं नहीं हुई। इनके मां-बाप को बुलाया जाए। उनसे पूछा जाए कि क्या संस्कार दिए अपनी औलादों को। भई, लिपस्टिक मलना इंजीनियरिंग के कोर्स का हिस्सा तो है नहीं, फिर क्यूं हुआ ये सब? इंजीनियरिंग वाले ‘बच्चे’ तो दिन-रात एक कर पढ़ाई करते हैं और तब जाकर आईआईटी में एडमिशन पाते हैं। उन्हें लड़कियों के होठों पर लिपस्टिक मलना किसने सिखा दिया। ये तो कोर्स करीकुलम के बाहर की बात है। इस पर तो संस्थान के निदेशक को सस्पेंड कर देना चाहिए। उन्हें शो कॉज़ दीजिए कि आईआईटी में लिपस्टिक आई तो आई कैसे। क्या ये सरकारी फंड का दुरुपयोग नहीं है।

तीसरा अध्याय

लिपस्टिक कांड पर देश-दुनिया के बुद्धिजीवी एक-दूसरे से मुंहलगी में व्यस्त हो गए हैं। डिबेट्स, सेमिनार आयोजित हो रहे हैं। लिपस्टिक को राष्ट्रीय आपदा घोषित किए जाने की पैरवी की जा रही है। जहां कहीं लिपस्टिक दिखाई दे रही है, माननीय बुद्धूजीवी (बुद्धू बक्से के बुद्धिजीवी) लोगों से मुंह ढंककर बच निकलने की अपील कर रहे हैं। होठों से जुड़े तमाम गानों पर तत्काल प्रभाव से प्रतिबंध लगा दिया गया है ताकि युवा पीढ़ी इनके उकसावे में ना आए। महान भारतीय परंपरा का निर्वहन करते हुए सरकार ने एक जांच कमेटी गठित कर दी है जो ये पता लगाएगी कि आखिर 19-20 साल के बच्चों में लिपस्टिक लगाने का शौक कैसे पनपा। इस कमेटी में उन माननीय बुद्धूजीवियों को विशेष तौर पर शामिल किया जा रहा जो सेक्स विषयों पर डेस्क से ही बेहतरीन कार्यक्रम बनाने में सिद्धहस्त हैं। इसके अलावा महिला संगठनों को भी इस कमेटी से दूर ही रखा गया है क्योंकि उन्हें लिपस्टिक से विशेष लगाव है और सरकार को डर है कि जांच के दौरान आईआईटी के लड़के कुछ भी कर सकते हैं।

चौथा अध्याय

बिहार और झारखंड के कई ज़िलों में सरकार ने भोजपुरी गीतों पर बैन लगाना शुरू कर दिया है। सरकार की शिकायत है कि वहां के भोजपुरी गानों में होंठ लाली, लिपस्टिक, और शरीर के बाक़ी अंगों पर बहुत कुछ लिखा-सुना जा रहा है। जैसे ये गाना देखिए-

जब लगावे लू लिपस्टिक, त हिले सारा आरा डिस्टिक (डिस्ट्रिक्ट यानी ज़िला)
कमरिया करे लपालप, लॉलीपप लागे लू....

ऐसे गाने सुन-सुनकर आईआईटी के छात्रों के दिमाग में फिज़िक्स के सूत्र की जगह लिपस्टिक लगाने की उत्कंठा घर करने लगी है। माता-पिता परेशान हैं कि सदियों से चली आ रही डॉक्टरी-इंजीनियरी में भेजने की प्रथा पर रोक कैसे लगाएं। उनके बच्चों के तो डीएनए में इंजीनियरिंग की तैयारी घुसी हुई है। ऐसे में उन्होंने जाना तो इन्हीं संस्थानों में है, जहां साल के आखिर में लिपस्टिक मलकर इंजीनियर बनने का सबूत देना पड़ता है। वैसे, लिपस्टिक कांड पर मीडिया की कृपालु नज़र से कई कोचिंग संस्थानों का फायदा भी होने लगा है। कई गलियों में कोचिंग सेंटर खुलने लगे हैं। यहां आईआईटी के लिए क्रैश कोर्स में लिपस्टिक वाला पैकेज मुफ्त है। लड़की, लिपस्टिक सबकी सुविधा मुफ्त। एक दूसरे कोचिंग संस्थान ने प्रीलिमिनरी राउंड में ऐसे ही कांपटीशन से छात्रों का दाखिला लेने का फैसला किया है। मतलब, आप इंजीनियरिंग की पढाई करना चाहते हैं तो लिपस्टिक लगाना ज़रूर सीख कर आएं। लिपस्टिक इंजीनियरों की पहचान बन गया है। स्टेटस सिंबल बन गया है। अब हर लड़के के पास एक हाथ में इरोडोव की किताब और दूसरे में लिपस्टिक दिखने लगी है। आह! क्या क्रांतिकारी दृश्य है। इंजीनियरिंग का ‘लिपस्टिक काल’, इधर-उधर सब कुछ लाल।

पांचवा अध्याय

मीडिया का असर तो होता ही है। सरकारी तंत्र और मीडिया रिश्ते में मौसेरे भाई लगते हैं। एक नींद में चिल्लाता है तो दूसरा नींद में चलने लगता है। आईआईटी रुड़की में लिपस्टिक ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। संस्थान ने वहां लड़कियों के मिनी स्कर्ट पहनने पर बैन लगा दिया गया है। पहले ये काम सिर्फ फतवा जारी करने वाले मुल्ला किया करते थे। अब ग्लोबलाइज़ेशन अपना असर छोड़ रहा है। हालांकि, कॉलेज की लड़कियां खुश हैं क्योंकि अब तक सिर्फ बड़ी हस्तियों की मिनी स्कर्ट पर ही बैन लगा करता था। और उनकी शादी भी विदेश में होती थी। लड़कियों को इस बैन से संभावनाएं दिखने लगी हैं। एक अदनी सी लिपस्टिक ने उन्हें हस्ती बना दिया है। मगर, मुझे एक बात समझ नहीं आई कि लिपस्टिक होठों पर लगी तो बैन मिनी स्कर्ट पहनने पर क्यों लगा। लिपस्टिक और स्कर्ट का क्या संबंध हो सकता है। ये तो बड़े वैज्ञानिकों के शोध का विषय हो सकता है। शायद आईआईटी से ही इस पर कोई कामयाब रिसर्च निकले। फिलहाल, ये भोजपुरी गाना सुनिए जो आईआईटी वाले जमकर बजा रहे हैं – हाय रे होंठ लाली, हाय रे कजरा....जान मारे तहरो टूपीस घघरा (घघरा यानी मिनी स्कर्ट !!)...

इतिश्री...

निखिल आनंद गिरि
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ये पोस्ट कुछ ख़ास है

जाना

तुम गईं.. जैसे रेलवे के सफर में बिछड़ जाते हैं कुछ लोग कभी न मिलने के लिए   जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो जैसे नए परिंदों...

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