सोमवार, 19 दिसंबर 2016

बेचारा

सड़क नौ फीट चौड़ी थी। तीन फीट की नाली थी जिसमें पानी के सिवा सब कुछ था। चिप्स, कुरकुरे की थैलियां, बैन हो चुके प्लास्टिक, सड़ी-गली सब्ज़ियां, कांडम के पैकेट और क्विंटल भर बदबू। मोहल्ला आठ बजे सोकर उठता था, इसीलिए नाली-वाली ठीक कराने की फुर्सत किसी को नहीं थी। यानी सिर्फ छह फीट की गली थी सड़क के नाम पर। और एक बजबजाती हुई नाली। सुबह नौ से ग्यारह के बीच ऑफिस जाने का समय होता तो ये मामूली गली ट्रैफिक जाम के मामले में किसी मुख्य सड़क से बीस पड़ती थी। गाड़ियों की पों-पों, तू-तू, मैं-मैं, गाली-गलौज के बीच जैसे-तैसे गाड़ियां और वक्त सरकते थे।
ये देश की राजधानी दिल्ली का जनकपुरी इलाका था जहां तीन मंज़िलों वाले ज़्यादातर घरों के मालिक प्रॉपर्टी डीलर थे और किराएदार किसी कॉल सेंटर या एमएनसी में शिफ्ट के हिसाब से खटने वाले कर्मचारी। इसी गली का सबसे बड़ा मकान चरणजीत बावा का था। नब्बे गज़ की इस तीन मंज़िला इमारत की कीमत लोग करोड़ों में बताते थे। हालांकि बिल्डिंग के भीतर हर फ्लोर पर दीवीरें झड़ने लगी थी और दरवाज़े बंद होने पर बहुत डरावनी आवाज़ें निकालते थे। भूकंप आता तो बावा की बिल्डिंग के सभी लोग पार्क में सबसे पहले भाग आते। चुनाव प्रचारों में अच्छे दिनों के नारे सबसे ज़्यादा लगते मगर प्रॉपर्टी डीलरों के लिए ये सबसे बुरे दिन थे। इतने बुरे दिन थे कि अगर ग्राउंड फ्लोर के ऊपर दो-दो फ्लोर खड़े होते तो इन अपढ़, बदमिज़ाज डीलरों को दिल्ली धक्के मारकर बाहर निकाल देती।
बावा के किराएदारों में से एक था टुन्नू। पढ़ा-लिखा, दुबला, गोरा रंग। एसी कंपनी में बतौर मैनेजर काम करने वाले टुन्नू का असली नाम था तुषार शर्मा। मगर बावा उसे अधिकार से टुन्नू ही बुलाता था। जनकपुरी से बाहर की दिल्ली या दुनिया का पता बावा को टुन्नू से ही मिलता था। बावा के घर में हर फ्लोर पर एसी टुन्नू की बदौलत ही था। मार्केट रेट से काफी कम में टुन्नू ने ये एसी दिलवाए थे। इसके अलावा बावा के बिजली का बिल, टेलीफोन का बिल सब घर बैठे टुन्नू के स्मार्टफोन से जमा हो जाया करता। कभी-कभी मार्केट से दूध, ब्रेड, दवाइयां लाने की ज़िम्मेदारी भी टुन्नू के जिम्मे ही थी। वो बावा के लिए था तो ओए बिहारीही मगर घर का हिस्सा ही था। बदले में किराए में किसी रियायत की उम्मीद टुन्नू को थी, मिली। ग्राउंड फ्लोर के अपने कमरे से कभी टुन्नू थर्ड फ्लोर तक भी नहीं गया, जहां बावा एंड फैमिली रहते थे। हां, कभी-कभी बावा की बीवी नीचे उतरकर दरवाज़ा खटखटा कर परौंठेदे जाती थी। उसके कमरे में अक्सर बिस्तर से लेकर कुर्सी तक कपड़े सूख रहे होते और गीलेपन की ऐसी बदबू आती जैसे जनकपुरी के सी-ब्लॉक की नाली उसके कमरे से होकर गुज़रती हो। ऐसे में जब बावा की बीवी, जिसे टुन्नू आंटी कहता, नाक सिंकोड़कर कहती, बेटा, वैसे तो थैंकयू। लेकिन तेरे कमरे से बदबू क्यूं आती है इतनी। बेटा, बुरा मत मानना लेकिन तुम बिहारियों ने ठीक से रहना नहीं सीखा दिल्ली आकर। इतना सुनकर टुन्नू के हाथ में परौंठे कूड़ा लगने लगते मगर थक-हारकर ऑफिस से लौटकर आने के बाद मुफ्त में मिले परौंठे का स्वाद उसे बेवकूफ आंटी की बातों को निगल जाने में मदद करता। आंटी की लानतें सुनने के बावजूद टुन्नू की इनायतें बावा परिवार पर कम हुईँ और आंटी के परौंठे।
ऐसे ही एक रोज़ बावा की बीवी टुन्नू से मिन्नत करने आई थी कि ऑफिस से लौटकर उनकी बेटी चिन्नी को थोड़ा पढ़ा दिया करे। बदले में रात का खाना उसे बावा की रसोई से मिलता रहेगा। चिन्नी की मां बोली, ‘’बेटा, चिन्नी के इम्तिहान करीब हैं और बारहवीं पास करने का ये आखिरी मौका है। तेरे बावा अंकल ने जहां भी चिन्नी के रिश्ते की बात की, बारहवीं फेल बताने में बहुत बुरा लगता है। तू कोई बाहर का आदमी थोड़े ही है। थोड़ा टैम निकाल कर पढ़ा दिया कर। एक-दो महीने की बात ही तो है। और फिर चिन्नी तेरी छोटी बहन ही तो है।‘’ शुक्र था कि चिन्नी अपनी मां के साथ नीचे नहीं आई थी। वरना टुन्नू को आंटी की ये छोटी बहन वाली बात बड़े सदमे की तरह लगती। जैसे-तैसे उसने कहा, जी आंटी, मैं कोशिश करता हूं। कल से भेज दीजिए
टुन्नू जब शाम की शिफ्ट के बाद थका-हारा लौटता तो बावा नशे में होता। टुन्नू का दरवाज़ा खुलने के साथ आवाज़ें करता तो बावा की आवाज़ ऊपर के फ्लोर से ही आने लगती। ओये टुन्नू, ये अच्छे दिन की सरकार कितने दिन रहेगी, हमारी नाली तो बनती नहीं। ये एजुकेशन मिनिस्ट्री टीवी एक्ट्रेस को दे दी। फिर तेरे जैसे पढ़े-लिखे लोग क्या करेंगे। ओय हमारा बिजली का बिल इस बार ज़्यादा क्यों आया है, एक कम्प्लेन ठोंक डाल बावा के नाम से।
ये रोज़ का राग अनसुना कर टुन्नू अपना खाना बनाने की तैयारी कर रहा होता तो दरवाज़े पर परौंठे की महक जाती। फटाफट दरवाज़े के बाहर से भीतर दिख सकने भर की जगह को लात से ठीक करते टुन्नू ने आंटी की कड़वी बातों को पचाने का हौसला जुटाकर दरवाज़ा खोला तो देखा कोई लड़की खड़ी है। ये बावा की लड़की चिन्नी थी। आंखें मटर जैसी गोल थीं और शरीर की चिकनाई भी किसी कश्मीरी झील जैसी थी। उसके सामने हाफ पैंट और बनियान में खड़ा टुन्नू फटाफट दरवाज़े के भीतर टंगी शर्ट टांगता हुआ बोला, सॉरी, मुझे लगा आंटी हैँ। चिन्नी बोली, भैया, ये परौंठे मैंने बनाए हैं। मम्मीजी आज भंडारे में गई हैं। पापा भी एक घंटे में लौटेंगे। तो मैंने सोचा परौंठे दे आऊं।‘’ चिन्नी की आवाज़ सूरत से बिल्कुल मेल नहीं खाती थी। बोलने का अंदाज़ भी ऐसा जैसे बिहार की ट्रेनों में बेटिकट सफर करने वालों से मगरूर टीटी बात करते हों। फिर भी थक-हार कर लौटे टुन्नू के दरवाज़े पर आया नया मेहमान सीधा उसके दिल के दरवाज़े तक गया था।
तीन साल से बावा के ग्राउंड फ्लोर पर रह रहे टुन्नू ने चिन्नी के बारे में बस सुना ही था। देखा कभी नहीं था। आवाज़ भी सुनी नहीं थी कभी। पूरे मोहल्ला जानता था कि चिन्नी बारहवीं में थी और पिछले दो साल से बारहवीं में ही थी। उसकी आंखें बहुत कम पलकें झपकाती थीं। बावा ने अपनी इकलौती बेटी को ग्यारहवीं के बाद घर से बाहर निकलने ही नहीं दिया था। चिन्नी के लिए घर का मतलब उसका आठ बाई दस का कमरा था। एक बार उसके कमरे की खिड़की पर किसी ने दस रुपये का नोट पत्थर में लपेटकर फेंका था, जिस पर अंग्रेज़ी में लिखा हुआ था, तू मेरी फ्रेंड रिक्वेस्ट क्यूं नहीं एक्सेप्ट करती स्वीटी?’ ग़लती से दुनिया का ये सबसे छोटा प्रेमपत्र चिन्नी के बजाय बावा को लग गया था। बावा ने ये चिट्ठी टुन्नू से ही पढ़वाई थी और उस रोज़ पूरे मोहल्ले के जवान होते लड़कों को पानी पी-पीकर कोसा था।  चिन्नी इसके बाद आज पहली बार अपने कमरे से नीचे उतरी थी।
टुन्नू ने कहा, आप कमरे के बाहर क्यूं खड़ी हैं, भीतर आइए न। चिन्नी ने कहा, नहीं, पापा डांटेंगे। उन्होंने कहा है कि ज़्यादा चेंप नहीं होना किसी से। मैं कल आऊंगी। थोड़ी स्टडी करा देना। बारहवी के पेपर हैं। थैंकयू। आवाज़ में ज़रा भी सलीका नहीं था, मगर कल आने की बात टुन्नू को भीतर तक झकझोर गई। दिल्ली के बाहर से आकर बसे लड़कों के लिए इतने मीठे संवाद भर में प्यार हो जाना आम बात थी।
अगले दिन टुन्नू का कमरा देखने लायक था। सारे सामान सही जगह पर थे। चिन्नी ठीक सात बजे नीचे आई और दरवाज़े पर दस्तक दी। टुन्नू ने नज़र नीची कर इस डर से दरवाज़ा खोला कि कहीं आंटी भी साथ हों। चिन्नी अकेली थी। एक हाथ में किताबें थी और दूसरे में परौंठे। ऊपर से बावा की आवाज़ आई, ओए, टुन्नू, ज़रा देख ले इस चिन्नी को। इस बार पेपर ख़राब हुए तो तेरा बावा जान दे देगा।
टुन्नू ने फटाफट उसे घर के भीतर बिठाया। चाय बनाई और ख़ुद भी बैठ गया। पूछा, क्या पढ़ना है आपको। चिन्नी चुपचाप बैठी रही। टुन्नू की तरफ किताब आगे बढा दी। किताब ऐसी नई थी जैसे कभी पलटी ही नहीं गई हो। टुन्नू ने पहला चैप्टर खोला और पढ़ाने को हुआ। चिन्नी ने उसका हाथ पकड़ लिया और रोने लगी। टुन्नू ने दरवाज़े की तरफ देखा और उसे बंद देखकर तसल्ली की।
क्या हुआ आपको। सॉरी हम कुछ गलत तो नहीं बोले ना
चिन्नी बोली, आप एक लव लैटर लिख दोगे, इंग्लिश में..भैया।
टुन्नू को लगा उसके दिल पर जहां बीती शाम दस्तक हुई थी, वहीं किसी ने हथौड़ा मार दिया है। अपनी तमाम संभावनाओं को स्थगित करता हुआ उसने चिन्नी के लिए एक लव लेटर लिखा जो रजौरी गार्डन के किसी पंजाबी शोरूम मालिक को भेजा जाना था। चिन्नी को दो रातों के लिए शिमला भागना था मगर उसका प्रेमी कई दिन से फोन नहीं उठा रहा था। चिन्नी ने उसे अनुरोध किया कि ये लेटर वो ख़ुद ही रजौरी वाले शोरूम पर देता आए। बदले में उसने टुन्नू को तीन हज़ार रुपये भी दिए। टुन्नू ने अपनी हद तक इनकार किया, मगर चिन्नी की आंखें गीली होती देख उसने रुपये रख लिए।
अगले दिन बावा ने कोहराम मचाया हुआ था। बिहारियों के लिए तमाम तरीके की गालियों से बावा ने पूरा मोहल्ला गुंजायमान कर रखा था। चिन्नी अपने कमरे से गायब थी। सारा शक टुन्नू पर जा रहा था क्योंकि रात से उसके कमरे पर भी ताला लगा था। कमरा तोड़ने पर अंदर एक फोल्डिंग की खटिया और एक घड़ा ही बचे थे। कमरे की दीवार पर लिखा था तेरी बेटी चालू है।
बावा ने कसम ली कि अब चाहे प्रॉपर्टी डीलिंग से मिट्टी फांकनी पड़ जाए, बिहारियों को कमरे नहीं देगा।

निखिल आनंद गिरि
(ये कहानी वेबसाइट लल्लनटॉप और 'यथावत' मैगज़ीन में प्रकाशित है)

शनिवार, 17 दिसंबर 2016

‘कड़क चाय’ ही नहीं, ‘कड़क लौंडे’ भी हमें कंगाल कर देंगे

विविध भारती के ज़माने से रेडियो सुनता आ रहा हूं। अब तो ख़ैर विविध भारती भी एफएम पर दिल्ली में सुनाई दे जाती है। मगर दिल्ली में एफएम के तौर पर मिर्ची, रेड या गोल्ड ही मशहूर हैं। रौनक यहां बउआहै तो नावेद यहां मुर्गा बनाता है। सारे चैनल दिल्ली वालों की बैंडबजाते हैं और यही दिल्ली के रेडियो का आधार कार्ड यानी पहचान है। दिल्ली के मशहूर 93.5 ‘RED FM’ के दो कड़क लौंडे (रेडियो जॉकी) आशीष और किसना के साथ एक शाम गुज़ारने का मौक़ा मिला। उनके शो अगला शो तेरी कार सेमें उन्हें दिल्ली की सबसे भरोसेमंद कार के तौर पर दिल्ली मेट्रो में रिकॉर्डिंग करनी थी और मैं उनके साथ था। रेडियो कितना बदल गया है, ये एहसास उन तीन घंटों में मुझे ख़ूब होता रहा।     

युनूस ख़ान (विविध भारती वाले) मेरे साथी हैं और जब भी उनसे फोन पर बात होती है, उनकी गहरी आवाज़ ये बताती है कि रेडियो की पुरानी ब्रांड पहचान के तौर पर इस तरह की आवाज़ों का वो आखिरी दौर हैं। 2016 में विविध भारती के साठ साल पूरे होने पर भी उनके कार्यक्रमों में पुराने लोगों से बातचीत, रिसर्च किए हुए प्रोग्राम और ठहरी हुई आवाज़ों के सिलसिले थे। इधर RED FM उसका एकदम विलोम था। उसके दोनों एंकर (कड़क लौंडे) किसी जमूरे की तरह कूद-कूद कर दो घंटे का शो तैयार कर रहे थे। अगर मैं युनूस ख़ान को कड़क लौंडा जैसा कुछ बोल कर इंप्रेसकरने की कोशिश करूं तो मुझे नहीं लगता वो ज़्यादा दिन मेरे दोस्त रहना पसंद करेंगे। मगर दिल्ली अपने एफएम रेडियो के प्रेज़ेंटर का सम्मान ऐसे ही करना चाहती है। वो चाहती है कि रेडियो उनकी बजाता रहे। ऐसा रेडियो वालों को लगता है।

दो घंटे का शो बनाने के लिए इन दो लौंडो के पास आधे घंटे का मेट्रो सफर था। यानी बाक़ी डेढ़ घंटे में ठूंस-ठूंस कर गाने और विज्ञापन भरे जाने थे। इस आधे घंटे की स्क्रिप्ट (जो एक पेज पर दस प्वाइंट्स का प्रिंट आउट) में सिर्फ ये लिखा था कि इन्हें किसके साथ प्रैंक(बेवकूफ बनाकर मज़े लेना) करना था और किससे डीएमआरसीका फुल फॉर्म पूछ कर इनाम देना है। दोनों एंकर्स सचमुच बहुत फुर्ती के साथ सब कुछ मैनेजकर रहे थे। कैमरे के आगे पोल डांसकरना, लोगों से बात-बात में मज़े लेना, दोड़-दौड़ कर इस कोच से उस कोच तक लोगोंको पकड़ना वगैरह वगैरह। तो रेडियो के दो घंटे का मसाला ऐसे तैयार होता है कि इसमें सैंकड़ों ग़लतियों, गालियों और बेवकूफियों की भरपूर गुंजाइश होती है।
दिल्ली के दो कड़क लौंडे

मुझे आकाशवाणी में एक बार युववाणीमें अपनी कविताएं पढ़ने के लिए बुलाया गया था। सिर्फ एक बनियाशब्द पर पूरी कविता बदलने की सलाह दे दी गई। कार्यक्रम तक नहीं रिकॉर्ड हुआ। ये एक सरकारी रेडियो की ज़िम्मेदारी का पैरामीटर है जहां प्राइवेट रेडियो कुछ भी चला सकता है। उसके पास इसकी न तो फुर्सत है, न सलाहियत कि इन फालतू बातों पर सोच पाए।

ये सब कहते हुए मैं उन दोनों एंकर्स की तारीफ करना चाहता हूं जो अपनी तरफ से शरीफ रहने की हर कोशिश करते हैं, मगर उनका चैनल उन्हें बदतमीज़बनाकर पैसा वसूल शो चाहता है। अकेले में बातचीत पर पता चला कि आशीष (कड़क लौंडा) को पुराने गाने पसंद थे, मेरी आवाज़ में कोई रेट्रो शो सुनने की इच्छा थी, मगर ख़ुद रेडियो के सामने वो ऐसे प्रेज़ेंट हो रहे थे जैसे उनकी ट्रेन छूट रही हो और उनके पास WhatsApp के ज़माने में भी कोई सबसे नया या गंभीर चुटकुला हंसाने को बचा हो। उनकी ज़िंदगी रेडियो पर किसी सेलेब्रिटी जैसी होगी, मगर एक शो करने के लिए उन्हें बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। एक शो की भागमभाग रिकॉर्डिंग के बाद उनके चैनल की गाड़ी तक उनके पास टाइम से नहीं पहुंचती और उन्हें आज़ादपुर सब्ज़ी मंडी के किनारे भूखे-प्यासे घंटो इंतज़ार करना पड़ता है। आप मानेंगे ही नहीं।

इस तरह का रेडियो मुझे बहुत सुकून नहीं देता। बिना शक इस तरह के चैनल, जॉकी भी जल्दी ही मशहूर, फिर महान हो जाएंगे। मगर सच कहता हूं ये जो भी मेहनत करते हैं, उनकी वैल्यू गोलगप्पे के खट्टे पानी जितनी ही है। एक बार अंदर गया फिर फ्लश में बाहर। इस देश को न सिर्फ बेहतर मतदाता चाहिए, बल्कि बेहतर श्रोता भी चाहिए।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 7 दिसंबर 2016

पहले क़दम से पहले

पहली बार चलना सीख रही है मेरी बच्ची
फिर गिरेगी, उठना सीखेगी
लड़की को चलना सीखना ही पड़ता है
इस तरह दुनिया का शुक्रिया।

उस तरफ चलना मेरी बच्ची
जिधर सूरज सबके लिए बांहें फैलाए खड़ा हो
उस भीड़ का हिस्सा कभी मत बनना
जहां आग लगाकर चल रहे हैं लोग
उधर नहीं जहां चलने से पहले देखने पड़े ख़तरे
जो भटक गए हैं चलकर, उन्हें थामना
चलना सबको साथ लेकर।

इस तरह चलना
कि क़दमों की आहट से डरे न कोई
ऐसे जैसे चलकर आती है सुबह की पहली किरण
या कोई मीठी याद चुपके से सपनों में
जो बहुत तेज़ चल रहे घबराना नहीं उनसे
ठंडी ओस की तरह छूना ज़मीन को
बुलडोज़र की तरह नहीं मेरी बच्ची।

जहां सबसे अधिक जाम था सड़कों पर
पैदल चलने वाले ही पहुंचे सबसे पहले मंज़िल पर।
दुनिया जो बहुत तेज़ चल रही है
उससे कोई गिला नहीं रखना
चलते-चलते कोई नहीं उड़ सका आज तक
इसीलिए चलना चलने की तरह।
थक कर सुस्ताना किसी नरम घास पर।

दुनिया के सब रहनुमाओं
सब योद्धाओं, मसीहाओं से प्रार्थना है मेरी
जो चल रहे हैं किसी का घर जलाने
किसी से लड़ने बीच सड़क पर
गालियां बकने किसी के मोहल्ले में
या बिना बात कई खेमों में बंटने
मार काट करने
कुछ देर आराम कर लें
शोर न करें अपनी आहट से।

मेरी बच्ची ने अपना पहला क़दम
चलना सीखा है

और अब थक कर सोना चाहती है। 

निखिल आनंद गिरि
('तद्भव' में प्रकाशित)

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

जाना

तुम गईं.. जैसे रेलवे के सफर में बिछड़ जाते हैं कुछ लोग कभी न मिलने के लिए   जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो जैसे नए परिंदों...

सबसे ज़्यादा पढ़ी गई पोस्ट