शनिवार, 12 नवंबर 2016

बनस्थली विद्यापीठ उर्फ लड़कियों का जेलखाना

ठ के मौके पर बिहार के समस्तीपुर से दिल्ली लौटते वक्त इस बार जयपुर वाली ट्रेन में रिज़र्वेशन मिली जो 
दिल्ली होकर गुज़रती है। मालूम पड़ा कि दिल्ली से कहीं ज़्यादा बिहार का ठेकुआ जयपुर को जाता है। उससे भी आगे। राजस्थान के टोंक ज़िले की बनस्थली विद्यापीठ (यूनिवर्सिटी) में कम से कम हज़ारों बिहार की लड़कियां हैं जो छठ में किसी तरह घर को आती हैं और फिर वापस फटाफट भागती हैं। वो दिल्ली के लड़कों की तरह छठ के बाद जैसे-तैसे वापस नहीं भाग सकतीं। उन्हें अपने पिताओं के साथ जयपुर आना पड़ता है। वेटिंग की टिकट के सहारे। टीटी के साथ पिता सीट की सेटिंग करते हैं और टीटी के चेहरे में बेटियों को वनस्थली की वॉर्डन मैम का भावशून्य चेहरा दिखने लगता है। इस छठ के बाद उन्हें घर (बिहार) लौटने का अगला मौका अप्रैल-मई में मिलेगा।
रास्ते भर उनसे हुई बातचीत में जितना बनस्थली विद्यापीठ को जान पाया, उससे ज़्यादा पहले से इतना ही जानता हूं कि मेरी एक-दो अच्छी दोस्त वहीं से पढ़ी हैं। इस लेख को लिखने के लिए बनस्थली की वेबसाइट को गूगल किया तो वहां पंडित नेहरू के मन की बातलिखी मिली किअगर मैं लड़की होता, तो अपनी पढ़ाई के लिए बनस्थली को ही चुनता काश! पंडित नेहरू मेरे साथ जलपाईगुड़ी-उदयपुर एक्सप्रेस की स्लीपर बोगी में होते जहां लड़कियां अपनी बातों में यही दुख जताती रहीं कि वो लड़कियां हैं और वो भी बिहार की। वो बिहार जहां कॉलेज की पढ़ाई के सबसे बुरे विकल्प मौजूद हैं। जहां लड़कियों की पढ़ाई से ज़्यादा उनके पिता इस बात के लिए ज़्यादा चिंतित रहते हैं कि शादी की उम्र तक किसी तरहलड़की बिगड़नेसे बच जाए। और ऐसे में सिर्फ लड़कियों के लिए बनी बनस्थली यूनिवर्सिटी उन्हें कमाल की जगह लगती है। जहां उनकी सुरक्षा में 850 एकड़ दूर तक का वीरान कैंपस है और हर फ्लोर पर एक वॉर्डन जो उन्हें आठ बजे के बाथ बिना परमिशन के बाथरूम तक नहीं जाने देतीं। जहां लड़के दूर-दूर तक परनहीं मार सकते।
ट्रेन में सवार लड़कियां बनस्थली से बीटेक और बीबीए जैसे बड़े कोर्सकर रही थीं। पता चला कि आईटी (इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी) जैसे कोर्स के लिए भी उन्हें लैपटॉप या मोबाइल या इंटरनेट चलाने की आज़ादी नहीं है। टीचर (जिन्हें वहां शायद जीजीबुलाते हैं) उन्हें रोज़ पीपीटी बनाने को कहती हैं मगर कैंपस में हज़ार लड़की पर एक कंप्यूटर है! इंटरनेट के बिना उनकी ज़िंदगी ऐसी है कि अगर घर से कोई चिट्ठी आती है तो पहले वॉर्डन मैडम उसे खोलकर पूरा पढ़ती है और फिर लड़की को देती हैं। कैंपस सिर्फ लड़कियों का है मगर उन्हें सिर्फ खादी के कपड़े पहनने की ही इजाज़त है। कमरे में आयरन तक नहीं रख सकते। हॉस्टल से क्लासरूम की दूरी कम से कम पैदल बीस मिनट की है जिसके लिए सिर्फ एक बस चलती है। अगर बस समय से नहीं पकड़ पाए तो पैदल जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं। अगर तबीयत बिगड़ी तो चालीस रुपये देकर एंबुलेंस सेवा ली जा सकती है। ऐसे में सहेली का साथ होना ज़रूरी है।
मगर बनस्थली की उन लड़कियों ने तो अपनी सीनियर्स का मुंह देखा है और ही उन्हें दूसरे डिपार्टमेंट की टीचर्स से मिलने या बात करने की इजाज़त है। पिता के अलावा कोई भी मिलने नहीं सकता। अगर पिता भी छुट्टी में बेटी को घर ले जाना चाहते हैं तो ये ससुराल से बिटिया को मायके लायने से ज़्यादा मुश्किल है। बिहार के गांव से आपको एक चिट्ठी बनस्थली डाक से या फैक्स से भेजनी पड़ेगी। उस चिट्ठी में आने-जाने की तारीख और पिता के सिग्नेचर ज़रूर होने चाहिए। फिर पिता लेने आएंगे। सिग्नेचर मिलाए जाएंगे। मिले तो ठीक वरना बड़ी मुश्किल। आने-जाने की तारीख से लौटे तो ठीक वरना बड़ी मुश्किल। हर अपराधके लिए बहुत जुर्माना है। पिता खुश होते हैं कि लड़कियां इतने अनुशासन में हैं मगर लड़कियां ऐसे में क्या सोचती हैं, कोई नहीं पूछता।
मेरे पास इसका कोई आंकड़ा नहीं कि बनस्थली में अब तक कितनी लड़कियां सुसाइड कर चुकी हैं। यूनिवर्सिटी से ऐसे आंकड़े जल्दी बाहर भी नहीं आते। मगर जिन पिताओं या रिश्तेदारों को ये लेख पढ़कर बनस्थली की अपनी बेटियों की चिंता हो रही हो, उन्हें राहत की एक बात बता दूं। यूनिवर्सिटी की तरफ से सुसाइड रोकने के लिए हॉस्टल के कमरों में छोटे वाले टेबल फैन लग गए हैं। तीन लड़कियों के कमरों में अगर इससे गर्मी बढ़ती है तो बिहार से पापा हज़ार रुपये की टिकट लेकर बनस्थली सकते हैं और पांच सौ का अलग टेबल फैन खरीदकर अपनी बिटिया को दे सकते हैं।
मैं बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओके इस शानदार नमूने विश्वविद्यालय के लिए फिलहाल आलोक धन्वा की कुछ पंक्तियां पढ़ना चाहता हूं और चाहता हूं कि ये चिट्ठी भी वहां की वार्डन मैम पहले पढ़ें
‘’ तुम्हारे उस टैंक जैसे बंद और मजबूत
घर से बाहर
लड़कियां काफी बदल चुकी हैं
मैं तुम्हें यह इजाजत नहीं दूंगा
कि तुम उसकी सम्भावना की भी तस्करी करो
वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह खुद शामिल होगी सब में
गलतियां भी खुद ही करेगी
सब कुछ देखेगी शुरू से अंत तक
अपना अंत भी देखती हुई जाएगी
किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी

कितनी-कितनी लड़कियां
भागती हैं मन ही मन
अपने रतजगे अपनी डायरी में
सचमुच की भागी लड़कियों से
उनकी आबादी बहुत बड़ी है’’

(ये लेख कुछ बनस्थली में पढ़ने वाली कुछ लड़कियों से बातचीत पर आधारित है जिनकी आंखों में सच्चाई दिखती है)

डिस्कलेमर : 'YOUTH KI AAWAZ' वेब पोर्टल के लिए लिखी इस पोस्ट पर इतनी गालियां पड़ी हैं कि समझ नहीं आया कि अपने ब्लॉग पर पब्लिश करूं या रहने दूं। फिर सोचा पब्लिश ही करता हूं। दरअसल जो गालियां दे रही हैं वो वनस्थली विद्यापीठ की पुरानी छात्राएं रह चुकी हैं। कुछ नई-कुछ बहुत पुरानी। उन्हें शायद अपनी 'प्यारी' यूनिवर्सिटी के बारे में कुछ भी बुरा सुनना अच्छा नहीं लग रहा। कुछ इनबॉक्स में धमकियां दे रही हैं, कुछ फेसबुक पर गालियां बक रही हैं वगैरह वगैरह। मेरा बस इतना कहना है कि ट्रेन में कुछ लड़कियों से हुई बातचीत को जब मैंने लेख का शक्ल देना चाहा तो ऐसा बन पड़ा कि कुछ लोग बुरा मान गए। ये न तो किसी अखबार के लिए की गई रिपोर्ट है, न नाम 'कमाने' का स्टंट। मेरा ब्लॉग है और मेरी आपबीती। किसी का दिल दुखता है तो मेरी पूरी सहानुभूति है। 

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

हम सब ‘मिर्ज़्या’ हैं, जिनके पास बिना पिस्तौल वाला एक बचपन है

पंजाब की मिट्टी में सैंकड़ों प्रेम कहानियां दफ्न हैं। मिर्ज़ा-साहिबा की प्रेम कहानी उन्हीं में से एक है। फिल्म में पुरानी लोककथा का इक्कीसवीं सदी में रुपांतर करने की कोशिश की गई है। घुड़सवार की जगह घोड़े की देखभाल करने वाला प्रेमी है। तरकश में तीर की जगह पिस्टल की गोलियां हैं। लड़का-लड़की हैं, बचपन का जवान हो चुका प्रेम है जिसमें घोड़ों के तबेले में बहुत सारे चुम्मे हैं और एक विलेन लड़की का बाप।
मुझे ऐसा क्यूं लगने लगा है कि आजकल जो भी फिल्म देखता हूं उसके बारे में यही राय बनती है कि उसे किसी और दौर में बनना था। मुझे ऐसा क्यूं लगता है कि मिर्ज़ाकी लोककथा का सहारा लिए बगैर भी फिल्म बनती तो ज़्यादा चल पाती। ऐसा इसीलिए क्योंकि हॉल में जब असलीमिर्ज़ा की कहानी का ट्रांज़िशन चलता है तो हॉल के मुट्ठी भर दर्शक जम्हाई लेते हैं क्योंकि उन्हें सिर्फ लैला-मजनूं पता है। फिल्म में नई-पुरानी कहानियों का मिक्स एक बढ़िया प्रयोग है मगर हिंदुस्तान में हिट होने के लिए इसके अलावा भी बहुत कुछ होना चाहिए था।
हिंदी साहित्य की शुरुआती प्रेम कहानियां उसने कहा थाकी तर्ज़ पर लिखी गईं। जिसमें कच्ची उम्र का लड़का लड़की को ठीक से देखकर ही मीठे प्यार से भर उठता है। आज का बच्चा जो गोवर्धन पब्लिक स्कूल जाता है, अपनी सुचित्रासे इतना प्यार करता है कि उसे छड़ी से सज़ा देने वाले टीचर को गोली मार देता है। ये प्रेम कहानियों में एक बड़ी छलांग है। इस शुरुआती मोड़ पर फिल्म अचानक आपको बांध लेती है। लेकिन फिर मिर्ज़्या एक कभी न ख़त्म होने वाली ऐसी प्रेम कहानी के तौर पर आगे चलती है जिसका अंजाम सौ में से निन्यान्बे दर्शकों को पता होता है।
लोककथा का मुखौटा पहनकर बनी 2016 की इस प्रेम कहानी में लोककथा कहीं खर्राटे भर रही होती है। सब कुछ आज के ज़माने का है। टीचर को गोली मारकर फरार हुआ लड़का जब दोबारा लड़की से मिलता है तो उसे किसी और की बाहों में झूलता हुआ देखता है। अपना प्यार भुलाने के लिए लोहे की छड़ से अपनी पीठ पर गुदवाया टैटू मिटवाता है। फिर इतना प्यार करता है, इतना प्यार करता है कि शेर से लड़ाई करनी पड़ती है। गुलज़ार की लिखी हुई फिल्म में सारे गीत अच्छे हैं, संगीत अच्छा है मगर बार-बार दो-चार पात्रों के बीच ही घूमती कहानी अच्छा असर करने के बजाय बोरियत पैदा कर देती है।
निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा रंग दे बसंतीजैसी कोशिश हर बार करते हैं। एक कहानी में कई कहानियां गूंथने की। फिल्म बनाने से पहले अपना होमवर्क भी अच्छे से करते हैं। मगर जो मल्टीप्लेक्स का दर्शक है, उसे कहानियों में इतनी माथापच्ची करने की आदत नहीं। वो कोई होमवर्क करके फिल्म देखने नहीं आता। उसे एक आसान प्रेम कहानी चाहिए जिसे वो मकई के दानों (पॉपकॉर्न) के साथ पचा सके। ऐसा कर पाने में फिल्म सफल नहीं हो पाती। फिर एक्टर भी कोई सलमान खान नहीं। अनिल कपूर के सुपुत्र को अभी फिल्मी अभिनय सीखने के लिए दो-चार दर्जन प्रेम कहानियों में और काम करना पड़ेगा। क्योंकि यहां डिंग डांग डिंग करती माधुरी की जगह एक मॉडर्न कन्या है जिसे पीरियड फिल्म की नायिका के रूप में पर्दे पर उतारना एक जानलेवा रिस्क से कम कुछ भी नहीं।
बचपन के प्यार पर बनी कहानियां मुझे निजी तौर पर बहुत पसंद हैं। आप उसमें अपनी कोई मीठी-सी याद ढूंढने लगते हैं। कोई लड़की जो तिल के लड्डू शेयर करती होगी, कोई लड़की जो टीचर से आपके लिए झूठ बोलती होगी, कोई लड़की जो अचानक एक दिन बिछड़ जाती होगी। फिर वक्त कभी दोबारा मिलने का मौका देता भी है तो रिश्ता करवट ले चुका होता है। सबके साथ ही ऐसा होता होगा। हम सब किसी न किसी लोककथा के नायक हैं। हमारा बचपन ही हमारी लोककथा है। मगर इस कहानी पर कोई फिल्म बने तो मासूमियत बची रहनी चाहिए, इस बात का हर निर्देशक को ख़याल रखना पड़ेगा।
इस फिल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी यही है कि इसने एक कड़वा सच कहने का साहस दिखाया है। निर्देशक चाहते हैं कि हम ये सच स्वीकार करें। हमारी बचपन वाली प्रेमिका मजबूर तो हो सकती हैं, मगर खलनायिका होना हमें स्वीकार नहीं है।
निखिल आनंद गिरि

रविवार, 16 अक्तूबर 2016

कुछ त्रिवेणी

1) दुख छिपाता है ये मेरे तुझसे
या कि मुझसे ही छिप रहा है तू
कौन जाने कि कैसा कोहरा है...

2) जब वो कहता है प्यार कुछ भी नहीं
झुक-सी जाती हैं निगाहें उसकी
वो भी खुद को कहां समझता है

3) है मेरी रुह में किसका चेहरा?
नाम कई बार सुना लगता है
फिर क्यों अजनबी-सा लगता है..

4) सब हवा में उछाल देते हैं...
और मैं खामखा गुमान में हूं..
खोटा सिक्का हूं, चल नहीं सकता

5) ये भी क्या ख़ाक कोई दिन है भला
न कुछ सलाम, कुछ दुआ ही नहीं
आज कोई हादसा हुआ ही नहीं

6) हम भी बासी थे और उदासी भी
तो उसने दे दिए हमको ये सितम भी नए
हरेक उम्र की बात नई, ग़म भी नए

7) फिर किसी ने मुझे उम्मीद भर के देखा है
एक पत्थर से सांस की उम्मीद...
फिर मैं अपनी नज़र से गिरता हूं...

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

जाना

तुम गईं.. जैसे रेलवे के सफर में बिछड़ जाते हैं कुछ लोग कभी न मिलने के लिए   जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो जैसे नए परिंदों...

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