बुधवार, 24 अप्रैल 2024

जाना

तुम गईं..

जैसे रेलवे के सफर में

बिछड़ जाते हैं कुछ लोग

कभी न मिलने के लिए

 

जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो

जैसे नए परिंदों से घोंसले

जैसे लोग जाते रहे

अपने-अपने समय में

अपनी-अपनी माटी से

और कहलाते रहे रिफ्यूजी

 

जैसे चला जाता है समय

दीवार पर अटकी घड़ी से

जैसे चली जाती है हंसी

बेटियों की विदाई के बाद 

पिता के चेहरे से


तुम गईं

जैसे होली के रोज़ दादी

नए साल के रोज़ बाबा

जैसे कोई अपना छोड़ जाता है

अपनी जगह 

आंखों में आंसू


निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 13 अप्रैल 2024

नदी तुम धीमे बहते जाना

नदी तुम धीमे बहती जाना 
मीत अकेला, बहता जाए
देस बड़ा वीराना रे
नदी तुम..

बिना बताए, इक दिन उसने
बीच भंवर में छोड़ दिया
सात जनम सांसों का रिश्ता
एक झटके में तोड़ दिया
एक नदी भरकर आंखों में
फिरता हूं दीवाना रे
नदी तुम.. 

वही पुरानी गलियां सारी
वही शहर के रस्ते हैं
वही फूल जो तुमने रोपे
मुझे देखकर हंसते हैं
किसे दिखाएं जीते जीते
घुट घुट कर मर जाना रे
नदी तुम..

उफनती लहरों से बचकर
मछलियों लेना उसको धर
बड़ा भोला है वो दिलबर
नदी तुम रहना मां बनकर
नदी वो लंबी नींद में होगी
उसको हौले से सुलाना रे
नदी तुम धीमे बहती जाना रे..



निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

प्रेतशिला

प्रिय जो छोड़ गया शरीर 
उसे जलाने के बाद
धूप में तपती सीढियां चढ़कर 
जलाने होते हैं तलवे
उसकी याद को छोड़ आना होता है 
सात सौ सीढ़ियों के उस पार
....
....
तब जाकर मुक्ति देती है प्रेतशिला

प्रेतशिला मुक्ति का द्वार है 
एक बार मुड़े तो
पीछे मुड़कर देखना तक मना है
छोड़नी होती हैं
मिलने की तमाम अधूरी इच्छाएं
रोते रोते छोड़नी होती हैं
हंसी खुशी बिताई तमाम स्मृतियां

अब उसे कितना बुखार?
किस मौसम में कैसा व्यवहार
कितने कपड़ों को साफ किया उसने
कितने बर्तन धोए जले जले
कितनी रातें तन्हा चांद तले!
सब कुछ छूट जायेगा

उतरती सीढियों में टकराती हैं निगाहें
ऊपर चढ़ते बिलखते नए चेहरों से
उनको हौसला भरकर झूठ कहना होता है
"बस कुछ सीढियां और"
कितनी सीढियां, कितने बिछोह!
किस किस से पूछा जाए
किसने कैसे साथ छोड़ा, ओह!

किसी की पत्नी जलकर मरी
किसी की डूबकर नदी में
किसी की पत्नी को लील गई
कम उम्र में ही बीमारी
सब सीढ़ियों पर रोएंगे

हर साल हर महीने हर हफ्ते हर घड़ी
कोई न कोई आएगा प्रेतशिला
अपने-अपने प्रिय प्रेतों के लिए 
नए कपड़े लेकर
प्रिय पकवान, कोई फोटो या कोई हंसती तस्वीर
रोते रोते लाएगा, छोड़ जायेगा
सशरीर

यह प्रेतशिला नहीं
आंसुओं का टीला है
जहां आंसुओ के आरपार
जीवन और मृत्यु के धागे उघड़ रहे हैं।

(प्रेतशिला गया के पास एक जगह है जहां अपने प्रिय की मृत्यु के बाद मुक्ति के लिए आने का रिवाज है)

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2024

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं
जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह 
लटकी थी देह
उधर लुढ़क गई।
मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने
एक शरीर की मृत्यु को।

रोते हुए सगे संबंधियों के बीच
मैंने देखा वो एक चेहरा 
जिसके पास रोने को कोई उपयुक्त वजह नहीं थी।
वह उस औरत का दुधमुंहा शिशु था
जिसे दूध पिलाकर शरीर छूट गया मां का।

वह शिशु अब दूध के लिए रोता नहीं
उसने मृत्यु को समझा आठ महीने में
अब जीवन को समझेगा
निर्बाध।

वह अपनी बड़ी बहन को देखेगा तो मां याद आयेगी
बड़ी बहन उसे देखेगी तो मां याद आयेगी
दोनों पिता को देखेंगे तो मां याद आयेगी
पिता रोने की उपयुक्त जगह ढूंढकर
रोएंगे तो सब याद आएगा ।

कोई बस ख़ाली सी
कोई मंदिर सूना सा
कोई किताब चेहरे जितनी 
कोई पर्दा अकेला सा
कोई गली अनजानी सी
कोई समय अनमना सा
क्यों नहीं मिलता 
हंसते मज़बूत दिखते पिताओं को

पिताओं के पास रोने की जगह क्यूं नहीं होती 
दुनिया में?

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 25 जनवरी 2024

चालीस की ओर

मैंने एक डायरी खरीदी
कविताएं लिखने के लिए
फिर उसमें रोज़ का खर्चा लिखने लगा
मोटी डायरी थी
और खर्च करने को पैसे नहीं थे
प्रेम था थोड़ा बहुत
कविताएं उससे भी कम।

समय हमारी इच्छाओं से चलता हुआ घोड़ा नहीं
समय केले का छिलका है
फिसल रहे हैं हम सब
दुनिया प्रेमिका की तरह है
एक दिन भुला देगी।

पहले पिता फिसलेंगे या मां
यह डर इतना बड़ा है कि
सोचते सोचते मेरे पांव भी अब छिलके पर हैं
बच्चे सुरक्षित हैं फिलहाल
लेकिन बस मेरे खयालों में ही।

बच्चों के लिए क्या है दुनिया
सिवाय प्लेस्कूल के
शोर बहुत है और उसी से सीखना है।

चालीस की तरफ़ आते आते लगता है
जीवन में कोई ईशान कोण नहीं
सब दिशाओं में वास्तु का दोष है

जब दाढ़ी नहीं उगती थी
तो दाढ़ी उगना आख़िरी इच्छा की तरह थी 
अब दाढ़ी बनाने में 
सुबह का सबसे कीमती समय ज़ाया होता है।

तानाशाह की दाढ़ी सिर्फ बच्चा खींच सकता है
चालीस की ओर का कोई आदमी 
सिर्फ गोली खा सकता है
गोली या तो डॉक्टर लिखेगा
या विद्रोह में शामिल होने पर
कोई हमउम्र पुलिस अफ़सर

इस उम्र पर बहुत कुछ लिखा गया
मगर लिख देने से क्या होता है
मेरी प्रेमिका ये उम्र नहीं देख सकी

जब लगा मर जायेगी
बच गई
जब लगा बच जाएगी 
मर गई


निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 18 जनवरी 2024

दुख का रुमाल

इस सर्दी में कंबल ज़रा-सा सरका
तो सुन्न पड़ गया अंगूठा
हवा के साथ सुर्र से घुस आई
तुम्हारी याद दुख बनकर
कोई सुख ओढ़ाने नहीं आया।

लू वाली गर्मियों में
हाथ वाले पंखे की खड़-खड़ बन
बारिश के मौसम में
चप्पलों की छप छप बन
ऐसे ही आती रहेगी याद।

टिफिन में मीठे अचार का टुकड़ा बनकर भी 
याद आ सकती है
या अजनबी दिल्ली में पहली बार
ग़लत बस में चढ़ने की डांट बनकर

तुम्हारा जाना बड़ा दुख है
इससे बड़ा दुख है
तिल-तिल याद का आना

ज़िंदगी एक दुख भरे गाने की तरह है
जिसके रियाज़ में आते हैं आंसू
आ जाती है तुम्हारी याद भी
आंसू पोंछते हुए रुमाल की तरह

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 31 दिसंबर 2023

अब विदा लेता हूं


काश हमें अपनी आख़िरी मुलाकातों का पता हो 
तो हम कितना बेहतर बना देते अपनी मुलाकातें
शिकायतों से नहीं मिलते
अगली बार मिलने की इच्छा लिए भी नहीं
गले लगते तो देर तक रोते नहीं
पीछे मुड़ मुड़ कर नहीं देखते लौटते हुए

कोई रोता तो पोंछते आंसू
और समझाते
बिछड़ना ही सच है मेरे साथी
कोई मुलाकात नहीं ऐसी कि बिछड़ना न हो जिसमें
फिर रोना क्यूं
मुस्कुराकर मिलें आखिरी मिलना भी

हम याद करते अपनी पिछली मुलाकातों की हसीन गलतियां
कैसे झूले पर बैठने से पहले लड़े हम
कैसे गिरी चम्मच से खाने की कोशिश में 
नई कमीज़ पर चटनी
फिर मेरा गुस्सा तो तुम जानती ही हो

कैसे एक मुलाक़ात में 
हमने एक दूसरे का रोल प्ले किया था
तुमने दवा की दुकान पर जब मांगी थी एक गोली
कि दुकानदार देर तक पोछता रहा पसीना

कैसे मुड़ते ही बेटी के
तुमने चूम लिया था पहली बार मेरा माथा
और चूमना एक नया आविष्कार था हमारे लिए

आज मैं याद करता हूं एक मुलाकात को
जिसमें तुमने मरने का अभिनय किया था
देर तक लेटी रहीं मेरी गोद में
मैं रोने का अभिनय करता रहा
कि अब उठोगी
अब उठो.. गी
अब!!

एक पल नहीं
एक दिन नहीं
एक महीना नहीं
एक जीवन भी नहीं
पर्याप्त
उस विदा को भूलने में

यह साल का आख़िरी दिन है
और मैं इस साल से वो दृश्य अपने साथ लेकर
कई सालों तक थामूंगा
कभी तो उठोगी 
या फिर मैं ही लेट जाऊंगा 
जीवन का अभिनय करते करते
मेरी ज़िद तो तुम जानती ही हो।

अब विदा लेता हूं।


निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मैं लौटता हूं

 प्रिय दुनिया, बहुत दिनों तक भुलाए रखने का शुक्रिया! मैं इतने दिन कहां रहा कैसे बचा रहा यह बताना ज़रूरी नहीं मगर सब कुछ बचाते बचाते खुद न बच...