बुधवार, 11 मई 2022

सत्य ही 'शिव' है, शिव ही 'संतूर' है

जिन्हें शास्त्रीय संगीत से वास्ता है या फिर फिल्म संगीत को थोड़ा करीब से जानते हैं, उन्हें शिव कुमार शर्मा के निधन की खबर ने ज़रूर दुखी किया होगा। एक-एक करके हमारे जमाने की सभी महान हस्तियाँ हमें छोडकर जा रहीं हैं। ख़ुशकिस्मती से हमने वो वक़्त देखा है जब हर क्षेत्र के साधक शीर्ष पर पहुँचे थे। जब बिस्मिल्लाह ख़ान शहनाई का पर्याय हो गए थे, अमजद अली ख़ान सरोद का, पंडित रविशंकर सितार का, उस्ताद ज़ाकिर हुसैन तबले का, पंडित हरिप्रसाद चौरसिया बांसुरी का और पंडित शिवकुमार शर्मा संतूर का। 

पंडित शिवकुमार शर्मा ने संतूर को पहचान दिलाई ये कहना गलत नहीं होगा। ये वाद्य कश्मीर तक सीमित था, पंडितजी ने इसे विश्व प्रसिद्ध कर दिया। अद्भुत बात है कि जगह से ही नहीं साज से भी जगह की पहचान हो जाती है। संतूर की आवाज़ आप सुने तो उस आवाज़ में ही खूबसूरत वादियाँ, पहाड़, झरने बसे हुए हैं। उस पर वादन शिवकुमार शर्मा का हो तो आप आँखें बंद करके ही वहाँ घूम कर आ सकते हैं। ये सभी महान हस्तियाँ कभी फिल्म संगीत में अपने-अपने साज बजाया करती थीं। पंडित शिवकुमार शर्मा ने भी एस डी बर्मन, मदन मोहन, आर डी बर्मन जैसे सभी संगीतकारों के साथ काम किया था। साथ ही अपनी शास्त्रीय संगीत की यात्रा भी उन्होने जारी रखी। धीरे-धीरे शास्त्रीय संगीत में उनका नाम शीर्ष पर पहुँच गया। यश चोपड़ा की सभी फिल्मों में हरिप्रसाद चौरसिया और शिवकुमार शर्मा अपने साज बजाते रहे थे। यश चोपड़ा दोनों से बहुत प्रभावित थे, वे इन्हें कहते रहते थे कि आप दोनों फिल्मों में संगीत देना शुरू करिए। ये बात बस बात ही रह जाती थी क्योंकि धीरे-धीरे दोनों के मंचीय कार्यक्रम इतने होने लगे थे कि उन्हें फुरसत ही नहीं थी। दोनों की मंच पर जुगलबंदी बहुत मशहूर थी। उनका एल्बम "कॉल ऑफ द वैली" बहुत मशहूर हुआ था। 

यश चोपड़ा कभी-कभी के बाद “सिलसिला” की योजना बना रहे थे। “कभी-कभी” में खय्याम ने बहुत ही अच्छा संगीत दिया था जो पॉपुलर भी हुआ था। एक बार फिर यश चोपड़ा उन्हीं के पास पहुँचे लेकिन अप्रत्याशित रूप से खय्याम ने ये फिल्म करने से इंकार कर दिया। यश जी को इससे आघात तो पहुँचा क्योंकि उन्होने ही खय्याम के करियर को फिर से ऊपर पहुंचाया था। खय्याम के इंकार की वजह फिल्म की कहानी थी जो एक्स्ट्रा मेरिटल अफेयर के बारे में थी। खय्याम को उस पर आपत्ति थी। ख़ैर, यश चोपड़ा हरिप्रसाद चौरसिया और शिवकुमार शर्मा के पास पहुँचे और कहा अब आपको ये फिल्म करनी ही पड़ेगी। आप टीम बनाकर संगीत दीजिये। दोनों के पास समय की तो काफ़ी कमी थी लेकिन यशजी के साथ कई बरसों से काम कर रहे थे सो हामी भर दी। फिल्म इंडस्ट्री में चर्चा थी कि यशजी ने गलती कर ली है, क्लासिकल म्यूजिक के लोगों को फिल्म विधा की जानकारी नहीं होती। इस विधा में जनता की नब्ज पकडनी होती है। इसी फिल्म से जावेद अख्तर ने बतौर गीतकार अपना करियर शुरू किया। फिल्म पिट गई लेकिन गीत बहुत हिट हुए। “देखा एक ख्वाब” आज भी रोमांटिक गीतों की लिस्ट में सबसे ऊपर होता है, “ये कहाँ आ गए हम” उस समय का अनोखा प्रयोग था जिसमें गीत के बीच-बीच में अमिताभ बच्चन की कविता है, “नीला आसमान सो गया” के दो वर्शन थे और दोनों ही दिल की गहराइयों तक असर करते हैं, “रंग बरसे” आज भी होली पर सबसे ज़्यादा बजने वाला गीत है, इतने बरसों में भी इस गीत को कोई और गीत रिप्लेस नहीं कर पाया है। शिव-हरि ने जनता की नब्ज बखूबी पकड़ी, इसका कारण ये था कि वे फिल्म संगीत में अनेक संगीतकारों के साथ काम कर चुके थे। साथ ही शास्त्रीय संगीत के धुरंधर होने के कारण लयकारी का उन्हें अच्छा ज्ञान था, किस तरह रंजकता के साथ धुनों को पेश किया जा सकता है इसका उन्हें पूरा ज्ञान था। 
इसके चार साल बाद एक बार फिर यश चोपड़ा की फिल्म “फासले” के लिए संगीत तैयार किया। इस फिल्म में सुनील दत्त, रेखा, फारुख शेख, दीप्ति नवल के साथ नई जोड़ी महेंद्र कपूर के पुत्र रोहन कपूर और फरहा थे। फिल्म तो नहीं चली साथ ही संगीत भी लोकप्रिय नहीं हो पाया हालांकि गीत अच्छे ही थे। 
1988 में एक बार फिर यश चोपड़ा ने अपनी मल्टीस्टारर फिल्म विजय (अनिल कपूर, ऋषि कपूर) के लिए याद किया। इस फिल्म का एक ही गीत मुझे अच्छा लगता है, “बादल पे चल के आ”। 1989 में आई “चाँदनी” ने अंततः इन्हें इंडस्ट्री में स्थापित संगीतकर बना दिया। इस फिल्म के सभी गीत बेहद लोकप्रिय हुए। “मेरे हाथों में नौ नौ  चूड़ियाँ” अगर किसी शादी में न बजे तो वो शादी ही अधूरी थी। आज भी दुखी प्रेमियों के लिए “लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है” anthem की तरह है। 

“लम्हे (1991)” इस जोड़ी का सर्वश्रेष्ठ काम है। इसका हर एक गीत हीरा है। शिव-हरि ने इस फिल्म में ऑर्केस्ट्रा के साथ बहुत प्रयोग किए। फिल्म की कहानी के साथ संगीत और उसमें बजने वाले साज भी बदलते हैं। राजस्थान के लोकगीतों में सारंगी, रावणहत्था, ढोलक के उपयोग से फिर “कभी मैं कहूँ” में ट्रंपेट, सेक्सोफोन, पियानो, ड्रम्स का बेहतरीन उपयोग। “मोरनी बागां मा बोले” पर आज भी लड़कियां डांस तैयार करती हैं। मुझे “मोहे छेड़ो ना नन्द के लाला” बहुत पसंद है। 
1993 में यश चोपड़ा ने आमिर ख़ान, सैफ अली ख़ान, सुनील दत्त, विनोद खन्ना को लेकर फिल्म परंपरा बनाई थी। इसमें भी संगीत शिव-हरि का ही था। हालांकि इस बार वो लम्हे वाली बात नहीं थी। मुझे एक ही गीत “फूलों के इस शहर में” अच्छा लगता है। “डर” का गीत “जादू तेरी नज़र” सबसे ज़्यादा चलने वाला गीत था लेकिन मुझे इस फिल्म का संगीत बहुत कमजोर लगा था। यश जी ने दिल तो पागल है की जब योजना बनाई तो इस बार इस जोड़ी ने ना कह दिया। वे अब और फिल्म संगीत करना नहीं चाहते थे। उन्हें शास्त्रीय संगीत पर ही पूरा ध्यान देना था। उनके बहुत से concerts हो रहे थे। इनके बीच समय निकालना बहुत मुश्किल होता था। 

उन्होने कुल 8 फिल्में कीं जिनमें से 7 यश चोपड़ा की हैं। आठवीं फिल्म “साहिबाँ” यश चोपड़ा के सहायक “रमेश तलवार” की फिल्म थी। कुल मिलाकर उनका संगीत हमेशा उम्दा ही रहा। राग पहाड़ी का उन्होने सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया है क्योंकि यश चोपड़ा का वो स्टाइल ही हो गया था कश्मीर की वादियों में फिल्म बनाना। इस राग से पहाड़ों का आभास होता है। आप सुनिए चाँदनी का “तेरे मेरे होठों पे”, आपको पहाड़ महसूस होते हैं। 

अगर वे और कुछ समय निकाल पाते तो शायद ये खजाना और समृद्ध होता। 

आलेख-अनिरुद्ध शर्मा

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

रिश्तों का सच

अपने बहुत क़रीबी, बहुत सुंदर रिश्तों में जब हम अपने साथ छोटी- छोटी,  ग़ैर ज़रूरी बातों में चालाकियां होते देखते हैं तो मन सहम जाता है क्योंकि मन भलीभांति जानता है कि अब कुछ भी सामान्य नहीं हो पायेगा ....

 मन  रिश्ते पर दुनियावी हिसाबों की सेंध लगाए जाने का अभ्यस्त है ... मन दोबारा छले जाने से ख़ौफ़जदा नहीं है.... मन को डर इस बात का है अब भरोसा कैसे करेगा किसी पर....  छले जाने का ये भयावह अनुभव किसी सच्चे इंसान का भरोसा भी नहीं करने देगा जल्दी .... 

मन अपने अनमनपन का ये ठौर भी दरकते देखता है....बेचैनी से...

आप चीखना चाहते हैं --" मत करो ऐसे...  खेलो मत यार...  मत ख़राब करो उसे जो बहुत सुन्दर है..और सुन्दरतम होने की असीम संभावनाए लिए हुए है ...कुछ हासिल नहीं होगा.. दोनों ही टूटेंगे ..जड़ से उखड़ने पर दोबारा पनपने की गुंजाइश हर बार नहीं होती न!!
उनको मालूम है आप नए धोखे अफ़ोर्ड नहीं कर सकते!

  "मुझे खोकर तुम एक ऐसा साथी खो दोगे जो तुम्हारे बारे में तुमसे ज़्यादा सोचता है  ...मैं तो टूटूंगा ही ..तुम भी साबुत कहां रह जाओगे ..."

पर आप ख़ामोशी से उस व्यक्ति को दूर होते हुए देखते हैं बस ... 

आप रिश्ते में दरिया हुए जाते हैं पर सामने वाले की सारी क़वायद आपसे किसी भी तरह एक कतरा हासिल करने की होती हैं  ...

रिश्ता ख़त्म हो जाता है ...आप अपने टुकड़े समेटने की कोशिश करते हैं  ... पर आपने अपने जिन भावों को उस प्यारे रिश्ते के इर्द-गिर्द सहेज दिया था वो भाव आपसे सवाल करते हैं---
'अब'?

और इस सवाल का कोई जवाब आपके पास नहीं होता....

(फेसबुक पर भूमिका पांडे की पोस्ट से साभार) 


रविवार, 23 जनवरी 2022

तुम्हारे साथ इक लम्हा बहुत है

एक उम्र होती है कि बेसबब भटकने को भी दिन बिताना कहते हैं। वो उम्र कभी-कभी याद बनकर आंखों में उतर आती है। एक दोस्त जैसे चेहरे के साथ घंटो पैदल चलना क्योंकि जेब में पैसे उतने ही होते थे कि जब थककर रुकें तो थोड़ी मूंगफली या एक-एक रसगुल्ला खा सकें। लड़की को अक्सर एक सपना आता था कि दिल्ली की बस में लड़के के साथ एक पूरा दिन सफर करे। मेट्रो भी एक विकल्प है, मगर वहां बहुत सी आंखें हैं जो लगातार घूरती रहती हैं। 

लड़के का सपना था कि कभी कार चलाना सीख सके। लड़का साइकिल चलाना भी ठीक से सीख नहीं पाया। लड़के ने एक दिन सपना देखा कि यूं ही बेसबब अपनी कार लेकर सड़क के किनारे कहीं खड़ा है। अचानक दोस्त जैसा कोई चेहरा लिए वही लड़की बाएं दरवाज़े पर आकर दस्तक देती है। वो दरवाज़ा खोलता है। वो बैठ जाती है। उसे शायद सीट बेल्ट नहीं मिल रही। लड़का उसकी छुअन बचाते हुए सीटबेल्ट ढूंढता है, पूरी शराफत से लगाता है। फिर अपनी सीटबेल्ट दुरुस्त करता है और धीमे से गाड़ी बढ़ जाती है। 

लड़की रास्ते भर खुश है। लड़का जैसे-तैसे स्टीयरिंग संभाले हुआ है। लड़की ने हौले से अपनी हथेली पर दो छोटी टॉफियां रखी हैं। एक लड़के को दिया है। शायद लड़की बताना नहीं चाहती कि लड़के के मुंह से बू आ रही है। लड़की जैसे सपने के भीतर कोई सपना पूरा कर रही है। न कोई बस है, न मेट्रो। सिर्फ दो जोड़ी आंखे हैं पूरी कार में। लड़का रफ्तार में है। लड़की शायद प्यार में है। वो कहती है कि गाड़ी धीमी चलाए। वो कहती है कि गाड़ी बाएं रखे, दाएं रखे। लड़का बस मुस्कुरा देता है। ये उसके सपने में पहली बार हुआ है कि मुस्कुराहट इतनी आसानी से आई है। दिल्ली शहर सपने में इतना बुरा भी नहीं है। 

लड़की ने ऊंघने की शक्ल में अपनी आंखें बंद कर ली हैं। उसके कंधे लड़के की तरफ झुकने लगे हैं। उसके बाल थोड़ा-थोड़ा लड़के की कमीज़ छू रहे हैं। लड़का रेड लाइट पर लड़की को भरपूर देखता है। उसका मन करता है कि थोड़ा और क़रीब जाए। मगर उसका ध्यान स्टीयरिंग पर है। उसे ड्राइविंग का एक उसूल अच्छे से पता है। ड्राइवर के साथ वाली सीट पर जो बैठा है, उसे नींद आने लगे तो जगाकर रखा जाए। 

लड़का बात करने की कोशिश करता है। घर, पढ़ाई, शौक के बारे में पूछता है। फिर लड़की भी लड़के से पूछती है। शौक, रंग, शहर आदि। लड़के को फिरोज़ी रंग पसंद है। दोनों के जीवन में दुख से तार जुड़ते दिखते हैं। दोनों अपना दुख बांटते हुए मुस्कुराते हैं। लड़की अब उतरने को होती है। वो खुश है। उसकी आंखों में शुक्रिया है लड़के के लिए। लड़का उदास है। लेकिन मुस्कुरा रहा है। 

अब वो रोज़ अपनी कार लेकर सड़क पर इंतज़ार करता है। अपना मुंह चेक करता है कि बू तो नहीं आ रही। दो टॉफियां ख़रीदकर खा भी लेता है। कहीं कोई उसके दरवाज़े तक आता नहीं दिखता। सपने रोज़ ख़ुद को नहीं दुहराते। फिरोज़ी रंग के सपने तो कभी भी नहीं। 

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

मौन अकेली इक भाषा है, जिसके लुप्त होने का कोई ख़तरा नहीं!


''दुनिया की सबसे छोटी कविता लिखनी हो

तो लिखा जाना चाहिए – पृथ्वी’’

ज्योतिकृष्ण वर्मा जी के कविता संग्रह मीठे पानी की मटकियांमें इस तरह की कई छोटी और प्रभावी कविताएं हैं। कविताओं से अधिक क्षणिकाएं कहना बेहतर रहेगा। पूरे संग्रह में क़रीब 70 कविताएं होंगी, जिनका आकार इसी तरह का है। संपादित, साफ-सुथरी, शांत, गंभीर, छोटी-छोटी कविताएं। कहीं कोई अतिरिक्त शब्द नहीं। कविताएं लिखने का मेरा अनुभव और मिज़ाज इस संग्रह से थोड़ा अलग है, इसीलिए पूरा पढ़ने का आकर्षण बना रहा। 

प्रकृति के कई रंग- जैसे नदी, मौसम, पहाड़, नारियल से लेकर शहर के तमाम रंग इस किताब में मौजूद हैं। कवि के शब्दों में ही कहें तो –

इस किताब को खोलते समय

सिर्फ पन्ने ही नहीं खुलते इसके

खुल जाती हैं

ज्योतिकृष्ण वर्मा जी का कविता संग्रह

नदियां, आकाश, समंदर...

दिख जाते हैं

ऊंची उड़ान भरते पंछी

लहलहाते खेत, पेड़ों पर लौटता वसंत

गुलाब की टहनी पर चटखती कलियां

आंगन में खिली धूप

चूल्हे पर रखी हांडी

स्कूल जाते बच्चे

घर संवारती औरत... (कविता – सिरहाने)

 

इस कविता संग्रह में कई पंक्तियां हैं, जिनमें भरपूर चित्रात्मकता है। ये कवि की सबसे बड़ी ख़ूबी है, जो पूरी कविता में बार-बार उभर कर सामने आती है। जैसे संग्रह की पहली कविता पेड़ से ये पंक्तियां

काश! कोई दिव्य बालक

छिपा देता कुल्हाड़ी कहीं दूर

मनुष्य की पहुंच से।

यहां मनुष्य और दिव्य बालक अलग हो गए हैं। मेरे ज़ेहन में कोई आदिवासी बालक आता है जिसके हाथ में कुल्हाड़ी है और पेड़ों के लिए आदर।

ऐसे ही एक कविता का चित्र देखिए

मेरे शहर में आ जाए

चहचहाती गौरेया

मैं हटा दूंगा

गेट पर टंगा बोर्ड

किराये के लिए मकान खाली है (कविता-रंग)

इस संग्रह को इसीलिए पढ़ना चाहिए कि सीखा जाए कि कम शब्दों में असर कैसे बनाए रखा जाता है। बिना किसी विशेष अलंकार या तामझाम के। आशियाना, कभी-कभार, निवेदन जैसी कविताएं कुल 15-20 शब्दों की हैं, मगर काफी समय तक याद रहने वाली हैं

उसने कोर्ट में अर्ज़ी दी है

अपनी पत्नी से तलाक के लिए

 उसके बारे में

अन्य जानकारी के

कॉलम में

उसने लिखवाया था एक जगह –

होम मेकर (कविता - निवेदन)

किसी भी कविता संग्रह की तरह इसमें मां पर कुछ अच्छी क्षणिकाएं भी हैं। एक भावुक कविता पिता पर भी है जो आम तौर पर कम पढ़ने को मिलती हैं।

बोधि प्रकाशन से आई ये कविता पढ़ने और सहेजने लायक है। आज की कविताओं को जो स्वर है, उनसे अलग। छोटी कविताएं हैं तो युवाओं और मोबाइल पर शायरी फॉरवर्ड करने वालों के लिए भी ये बेहतर विकल्प है जहां कुछ पंक्तियों में ही आपका संदेश आगे जा सकता है। अष्टभुजा शुक्ल के शब्दों में कहें तो- मीठे पानी की मटकियां की ये कविताएं निश्चय ही पाठकों के हलक को तर और तृप्त करेंगी।'

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 30 दिसंबर 2021

गूगल पीढ़ी के बच्चे

इस साल की आखिरी पोस्ट एक बाल कविता जो लोई के स्कूल में सुनाने के लिए लिखी थी।

हम गूगल पीढी के बच्चे हैं

डिजिटल जेनेरेशन के बच्चे। 

बागों में कभी फूल न देखा
असली वाला स्कूल न देखा
होमवर्क पर सॉफ्टी मिलती
टीचर इतनी कूल न देखा
हम गूगल पीढ़ी के....

व्हाट्सऐप पर होमवर्क करते
गूगल मीट पर क्लास
हैंड रेज़ कर परमिशन लेते
सूसू लगे या प्यास
हम गूगल पीढ़ी...

गूगल अंकल क्लोज़ रिलेटिव
यूट्यूब है पहचान
टैब हमारे कुलदेवता
चार्जर में बसे प्राण
हम गूगल पीढ़ी..

Mute लगाकर मैम हमारी
कब तक क्लास लगायेंगी
PTM में पापा मम्मी को
सामने कब बिठाएंगी? 
Online को mute लगा कर
Offline जब स्कूल जाएंगे
अपनी मैम को साथ में लेकर
खूब धमा चौकड़ी मचाएंगे। 

हम गूगल पीढी के बच्चे हैं, 
डिजिटल जेनरेशन के बच्चे।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 27 मई 2021

साइकिल पर प्रेमिका

1) इस कमरे की तस्वीरों का
उस कमरे की तस्वीरों से
अबोला है।
इस कमरे से उस कमरे तक
मैं पूरी दुनिया का फ़ासला तय कर लेता हूँ।
2) तुम्हारा प्रेम किसी पुलिसवाले की तरह
मंडराता है मेरे वजूद पर
मैं लाख बचूँ फिर भी
ढूंढ लेता है मुझे
पसीने से तर ब तर कर देता है।
3) मुझे किसी ने नहीं मारा
एक सपने में मुझे प्यास लगी
मैं कुएँ के पास पहुँचा
और वहीं डूब गया
मेरी शिनाख्त भी हो सकती थी
मगर नींद बिखर चुकी है अब तक।
4) मैं उन मर्दों की जमात में नहीं होना चाहता था
जो अपनी औरतों के किस्से उड़ाते
शराब में डूबकर दुनिया को
चुटकी में तबाह कर देते
मगर हुआ।
उन मर्दों से भी बचता रहा मैं
जो जादूगर होने का भ्रम रखते थे
वो अपने रूमाल में कुंठाओं को समेटकर
कबूतर निकालने का भ्रम रचते
और सिवाय टूटे पंखों के कुछ हासिल नहीं होता
मुझे भी नहीं।
मैं अपनी बारी की प्रतीक्षा में खड़े
उस आदमी सा होना चाहता था
जो लंबी भीड़ और पसीने में भी
दुनिया के बारे में बेहतर सोचता रहा।
साइकिल पर बिठाकर अपनी प्रेमिका को
दुनिया की सैर करवाने का
ख़याल जैसे।


निखिल आनंद गिरि

रविवार, 23 मई 2021

हल्लो मच्छर!


मच्छर तेरे कितने घर

दादा दादी, नाना नानी
हर घर में तेरी शैतानी
पापा भी कल लेकर आए
पिंक कलर की मच्छरदानी

रात को मेरे कानों में तू
क्यूँ करता है बकर बकर
मच्छर तेरे कितने घर.. 


क्या तू पूरे दिन सोता है
छुट्टी का दिन कब होता है? 
ये सब बिल्कुल नहीं चलेगा
चल मेरे स्कूल चलेगा, 

मेरी मैम बहुत अच्छी हैं, 
देख तू उनसे बिल्कुल मत डर
मच्छर तेरे कितने घर..

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

याद का आखिरी पत्ता

विजय छल पर निश्छल की कोलाहल पर शांति की युद्ध पर विराम की अनेक पर एक की हंसी पर आंसू की  मृत्यु एक उपलब्धि है जिस पर गर्व करना मुश्किल है तु...