short stories लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
short stories लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

गुदगुदी



एक पेड़ था। पेड़ का एक अतीत था। हरे-भरे पत्ते, फूल, फल, शाखाएं, लंबी-लंबी जड़ें, धूप-छांव, कई तरह की चिड़िया और बहुत कुछ। एक गिलहरी थी। गिलहरी नयी थी। जब पेड़ पर अचानक आयी तो उसे सिर्फ ठूंठ मिला। वो फिर भी उसके चारों ओर फुदकती रही। पेड़ को गिलहरी की गुदगुदी अच्छी लगती थी। गिलहरी को इतने विशाल पेड़ का ठूंठ भी बहुत विशाल लगता था। उसे फल, फूल, पत्ते नहीं मालूम थे। अगर कोई दूसरा हरा-भरा पेड़ उसे गुदगुदी करने को कहता तो शायद गिलहरी डर जाती। उसे पेड़ का मतलब ठूंठ पता था।
पेड़ को गिलहरी के भोलेपन पर हंसी आती थी। अपनी मजबूरी पर दुख होता था। उसे अपना अतीत याद आता था। पुराने पत्ते याद आते थे, तरह-तरह की चिड़िया याद आती थी। मगर अचानक गिलहरी की गुदगुदी में उसे सब कुछ भूल जाने का मन होता था। गिलहरी को यह सब नहीं पता था। पेड़ रोज़ देखता कि गिलहरी कहीं से आती और दिन भर उसके चारों तरफ लिपट-लिपट कर खुश रहती। पेड़ को लगता कि अगर ऐसे ही गिलहरी आती रही तो शायद कुछ हरे पत्ते फिर से लौट आएं। पेड़ भी खुश होने की कोशिश करता।
एक दिन कुछ लकड़हारे आए। थके-मांदे, पसीने से लथपथ। पेड़ के नीचे बैठ गए। सुस्ताने लगे। अचानक धूप तेज़ हो आई। पेड़ पर एक भी पत्ता नहीं था। गिलहरी भी नहीं थी। धूप सीधा उनके चेहरों पर पड़ी। वो बहुत तिलमिलाए। उन्हें गुस्सा आया। वो पेड़ पर कुल्हाड़ी चलाने लगे। पेड़ को कट जाने का दुख नहीं था। वो पेड़ था और लकड़हारों से एक पेड़ का यही रिश्ता बनता था। उसे गिलहरी के नहीं होने का दुख था। पेड़ दुख के मारे गिर पड़ा।
लकड़हारे खुश होकर लकड़ियां समेटकर चलते बने। गिलहरी जब तक आई, वहां पेड़ नहीं था। कुछ टूटी लकड़ियां थीं। गिलहरी ने चारों तरफ पेड़ को ढूंढा। लकड़ियों को गुदगुदी करके देखा। गिलहरी पेड़ हो जाना चाहती थी। लकड़ियां गिलहरी नहीं हो सकती थीं क्योंकि वो पेड़ नहीं थीं। पेड़ एक अतीत हो चुका था।
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

खुले बालों वाली लड़की...

एक ही टेबल पर कॉफी पीते हुए दोनों दो अलग-अलग ग्रहों के बारे में सोच रहे थे....लड़का सोच रहा था कि वो चांद पर ज़मीन ले पाया तो सबसे पहले कॉफी की खेती शुरू करेगा... उसने अचानक लड़की को बताया कि पिछली रात कार्तिक की पूर्णिमा को उसने खुले आकाश के नीचे मीठी खीर रख छोड़ी थी... लड़की सोच रही थी कि कॉफी गर्म नहीं होती तो वो इस बोरिंग लड़के के बजाय मेट्रो की सीट पर बैठी होती, जहां एक सीट उसके लिए आरक्षित होती है.....टेबल के सामने एक यूनिफॉर्म में वेटर खड़ा था और इस ऊबाऊ प्रेम कहानी के अंत का इंतज़ार कर रहा था क्योंकि उसे दुकान समय से बंद करनी थी और यहां उसे किसी टिप की उम्मीद भी नहीं थी...लड़की ने जैसे-तैसे कॉफी खत्म की और टिशू पेपर से अपना मुंह साफ किया....टिशू पेपर पर लिपस्टिक के निशान उग आए थे....वेटर ने झट से लिपस्टिक वाले टिशू पेपर के साथ कॉफी से खाली गिलास ट्रे में रख लिया....लड़के ने लपककर टिशू पेपर उठा लिया और वेटर को घूरते हुए शॉप से बाहर निकल आए...लड़की ने किसे घूरा, ये बताने की ज़रूरत नहीं है...लड़के की इच्छा हुई कि वो थोड़ी देर और बैठे, इधर-उधर की बातें करे और हो सके तो लड़की का माथा भी चूम ले...उसने लड़की से पहली इच्छा जताई तो लड़की ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई...उसका मूड शायद खराब था क्योंकि उसे घर पहुंचने में देर हो रही थी....लड़के की बाक़ी दो इच्छाएं किसी काम की नहीं रहीं....लड़के ने सोचा कि ज़रूर आकाश में रखी खीर बिल्ली ने जूठी कर दी होगी...उसे बिल्ली और खीर पर बहुत गुस्सा आया....


‘हम कल फिल्म देखने चलें....’ लड़की ने अचानक पूछा...

लड़के ने कहा, ‘नहीं, कल नहीं....परसों चलते हैं..’। उसे लगा लड़की उसे कल के लिए ज़िद करेगी तो वो हां करेगा....मगर,लड़की ने परसों वाला प्रस्ताव भी टाल दिया और आगे कोई बात नहीं की....लड़के को ही कहना पड़ा...’कल कितने बजे का शो देखेंगे’

लड़की ने कहा, ‘अब रहने दो’

लड़के ने कहा, ‘क्यूं..?’

‘क्यूं मेरा सर...’

‘प्लीज़ कल ही चलते हैं...प्लीज़’

लड़की मान गई और लड़के से शर्त रखी कि वो कोई नीली कमीज़ पहनकर आए। लड़के ने तुरंत मान लिया और ये भी नहीं सोचा कि हॉल के अंधेरे में सभी रंग एक जैसे होते हैं....

लड़की ने पूछा, ‘तुम्हारे पास कैमरा है?’

‘नहीं...क्यों?’
'क्यों, मेरा सर...
लड़की थोड़ी जल्दी में थी क्योंकि वो लड़की थी और उसे शाम के बाद घर से बाहर रहना मना था....
वो फिर भी बोली,
''अच्छा सुनो, कल हम थोड़ी देर धूप में बैठेंगे.....'
''और चावल भी खाएंगे, फ्राइड राइस....''

लड़के ने कहा, ''ठीक है, मगर तुम अपने खुले बालों के साथ आना.....''
लड़की मुस्कुराई और पूछा, ''क्यूं...''
''ऐसे ही''
लड़की बोली ''तुम्हारी कमीज़ में दो जेबें क्यूं हैं....''
लड़का कुछ समझा नहीं कि क्या जवाब दे....बोला, ''एक में आसमान है, और एक में सारी दुनिया...''
लड़की बोली, ''और मैं....''

लड़की चली गई....लड़का कुछ देर खड़ा रहा...उसने लिपस्टिक वाला टिशू पेपर निकाला और वापस अपनी जेब में रखकर दूसरी ओर चला गया...उसने सोच लिया था कि कुछ भी हो कल वो नीली कमीज़ नहीं पहनेगा....

निखिल आनंद गिरि
Subscribe to आपबीती...

सोमवार, 12 मार्च 2012

मुस्कुराइए कि आप स्टूडियो में हैं...

ये उन दिनों की बात नहीं है जब घरों की छत पर एंटीना हिलाकर टीवी ठीक कर देना बुद्धिमान होने का सबूत दिया करता था। लड़कों को ज़्यादा दूध और लड़कियों को होशियार कहकर पुचकार दिया जाता था ताकि वो आगे भी इसी तरह एंटीने के साथ दोस्ती बढ़ाकर स्वेटर बुनती मांओं के लिए टीवी का बेहतरीन इंतज़ाम करते रहें। उसी दौर में कुछ होशियार लड़कियां टीवी देखकर बदमाश ख्वाब भी बुना करती थीं कि एक दिन वो भी टीवी पर दिखेंगी और लोग उन्हें देखने के लिए एंटीने हिलाया करेंगे। शुक्र है कि अब टीवी एंटीने से नहीं चलता और न ही मांएं स्वेटर बुनती हैं मगर उनमें से कुछ लड़कियों ने अपने ख्वाब पूरे कर लिए थे।


वो जब कैमरे के सामने आती तो उसे लगता कि सारी दुनिया उसे ही देखने के लिए टीवी खोलती है। उसकी आंखे बहुत खूबसूरत थी और इतना काफी था कि उससे हर बड़ी खबर पढ़वाई जाए। राघवेंद्र मिश्रा का सख्त आदेश था कि जब भी वो टीवी खोले तो पर्दे पर दीपाली ही दिखनी चाहिए। कभी दीपाली ऑफिस में नहीं होती और मिश्रा के केबिन का टीवी ऑन होता तो आउटपुट हेड श्यामल किशोर जानबूझकर दीपाली का रिकॉर्डेड प्रोग्राम चलवा देता। 21 साल की नौकरी में उसका सीधा उसूल था कि कुर्सी पर कोई भी गधा बैठा हो, हुक्म की तामील हमेशा की जानी चाहिए। यही वजह थी कि पिछले आठ साल में उसने अब तक 12 चैनल देख लिए थे मगर उसकी कुर्सी आउटपुट हेड की ही रही थी। न ऊपर, न नीचे। न्यूज़रूम में सबको लगता कि उसे किसी और योनि में पैदा होना चाहिए था, मगर वो गलती से आउटपुड हेड बन गया था। राघवेंद्र मिश्रा इस चैनल का एडिटर था जिसने अपने करियर में इतना पैसा कमा लिया था कि बिहार से लेकर दिल्ली तक के हर बड़े शहर में उसका एक घर था। दिल्ली में तो उसके तीन-तीन घर थे और किसी की कीमत तीन करोड़ से कम की नहीं थी। उसने रिपोर्टिंग के दम पर इतनी पहचान बना ली थी कि उसके बेटे को नौकरी के लिए सिफारिश या बायोडाटा की ज़रूरत नहीं थी। राघवेंद्र मिश्रा को लड़कियों का शौक था और वो हर तीसरे हफ्ते में एक नई एंकर ज़रूर ले आता था। मगर, फिर भी दीपाली उसकी पहली पसंद थी। दीपाली की उम्र उतनी ही होगी जितना राघवेंद्र मिश्रा के बेटे की। मगर, राघवेंद्र और दीपाली अक्सर साथ-साथ ही कॉफी पीते। कभी-कभी केबिन में भी, एक ही पाइप से।

दफ्तर जिसे न्यूज़रूम भी कहते हैं, वहां कैमरे के सामने जब रिपोर्टर कभी-कभी अंग्रेज़ी में धड़ाधड़ लाइव बोल रही होती तो सबकी नज़रें उसे ही देखतीं। कुर्सियों पर बैठे हुए लोगों के आसपास खड़े उस(उन) स्टाफ के पास भी तब काफी समय होता कि वो सब कामधाम छोड़कर उसे ही एकटक देख रहे होते। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि उस वक्त उनके दिमाग में क्या चलता होगा। क्या उन्हें डर नहीं लगता कि आज वक्त पर मिश्रा के कमरे में चाय नहीं पहुंची तो उनकी नौकरी जा सकती है। क्या नहीं समझ आने वाली उस बोली को सुनना उनके लिए इतना ज़रूरी है। क्या लड़की कोई चुंबक है जहां उनके भीतर का कोई लोहा चिपक जाता है। क्या ये लोहा हर मर्द के भीतर होता है। अगर हां तो फिर मिश्रा के भीतर भी यही लोहा था, जो उम्र के साथ घिसता नहीं था?

मोहित दीपाली से बहुत चिढ़ता था। उसे लगता कि एक दिन जब दीपाली कैमरे के सामने खड़ी होगी, वो टेलीप्रांप्टर से सारे अक्षर गायब कर देगा। उसे लगता जब कैमरे के आगे कुछ लिखा नहीं होगा, तो दीपाली टीवी पर वही दिखेगी जैसा उसे दिखना चाहिए, एकदम भद्दी और बेवकूफ। फिर देखेगा कि राघवेंद्र मिश्रा दीपाली का मुंह नोंचता है कि चूमता है। वो जब भी दीपाली को मेकअप के साथ न्यूज़रूम में चलते देखता, उसे लगता जैसे जेमिनी सर्कस की कोई लड़की दर्शक दीर्घा में फ्लाइंग किस लिए मुस्कुराते घूम रही है और लोग उसे स्माइल पास कर रहे हैं। उसे लगता कि लिपस्टिक लगाने वाली लड़कियां सिर्फ नफरत के काबिल होती हैं। उसका मन होता कि राघवेंद्र मिश्रा के सारे बाल झड़ जाएं और उसके गंजे सिर को देखकर दीपाली पागलों की तरह हंसे। फिर पूरा न्यूज़रूम हंसे और मिश्रा झुंझलाहट में पागल हो जाए। दीपाली मोहित से कम ही बोलती थी मगर जब भी बोलती, मोहित की बोर्ड पर ज़ोर-ज़ोर से उंगलियां फिराने लगता।

मोहित पिछले दो साल से एक ही शिफ्ट में ऑफिस पहुंचता था। उसने दो सालों में दिल्ली की कोई शाम नहीं देखी थी। हफ्ते में जिस दिन छुट्टी होती, वो शाम को सोना पसंद करता। उसे लगता दुनिया का हर आदमी नौकरी करने के बाद अपनी सुबह या शाम खो देता है। शाम का रंग कैसा होता है, शाम को लोग क्या पहनते हैं, खाते क्या हैं, वो जानना चाहता था। उसके कंप्यूटर पर गूगल खुलता था मगर शाम की कोई तस्वीर वहां उपलब्ध नहीं थी। उसे ऐसी शामों को और गुस्सा आता जब वो भाग-भागकर सात बजे का बुलेटिन तैयार करता और अचानक उसे मालूम पड़ता कि दीपाली इसे पढ़ेगी। वो जानबूझकर एकाध गलतियां छोड़ देता था ताकि दीपाली अटके, झुंझलाए और बुलेटिन के बाद मिश्रा के केबिन में मुस्कुराती हुई न घुसे। उसे शायद जेमिनी सर्कस से चिढ रही होगी। दीपाली पढ़ती –

‘’इससे पहले कि पुलिस वहां आ पाती, लुटेरे फरा...री हो चुके थे। माफ कीजिएगा, फरार हो चुके थे। ‘’

बढ़ते हैं अगली ख़बर की ओर...

‘’गोरखपुर में इं..से..फ्लाटी....माफ कीजिएगी....इफ्लेसाइटिस...सॉरी....इंसेफटाइसिस...फिर दीपाली संभलती और जैसे तैसे कहती कि गोरखपुर में एक बीमारी ने कहर बरपा रखा है....फिर वो हड़बड़ी में मुस्कुराकर ब्रेक लेती।‘’

अभी एक छोटा-सा ब्रेक लेते हैं, कहीं मत जाइएगा...

दीपाली चिल्लाती – मोहित, व्हाट रब्बिश....कांट यू राइट ए सिंपल वन....दिस इज़ कंपलीट शिट...

मोहित कहता, मुझे क्या पता तुम्हारी अंग्रेज़ी इतनी बुरी है। चलो, दिमागी बुखार कह लो।

दीपाली और झुंझलाई कि मेरी अंग्रेज़ी ख़राब नहीं, तुम्हारा दिमाग खराब है। फिर, तकरार और बढ़ती ब्रेक खत्म हो गया और दीपाली पर्दे पर मुस्कुराने लगती। फिर, मोहित भी मुस्कुराता। हालांकि, उसे पता था कि मिश्रा दीपाली की खुन्नस में उसकी जमकर क्लास लेने वाला है कि वो जानबूझकर चैनल को सबोटाज कर रहा है। फिर मोहित चुपचाप केबिन में खड़ा होगा और मिश्रा आंयबांय बकता रहेगा।

‘तुम हमको नहीं जानते कि हम कौन हैं....अभी सैक करा देंगे स्साले...जानबूझकर टफ बुलेटिन बनाते हो कि दीपाली को प्रॉब्लम हो...’

‘नहीं सर, हमको तो पता ही नहीं था कि दीपाली पढ़ने वाली है, नहीं तो हम दिमागी बुखार ही लिखते सर..’

‘देखो, जादा राजनीति मत पादो....हम सब जानते हैं स्साले.....जादा ही गरम खून है तुम्हारा, कंट्रोल में रहा करो, समझा..’

‘जी सर...’

.........

कभी-कभी टीवी के बारे में सोचता हूं तो बहुत कुछ सोचने का मन करता है। ज़रा सोचिए, टीवी पर दिखने वाले चेहरे कहां-कहां किस-किस मूड में देखे जाते होंगे। कहीं पान की दुकान में 14 इंच के छोटे ब्लैक एंड व्हाइट पोर्टेबल टीवी और उसमें दिखने वाले ख़ूबसूरत चेहरों से न जाने कितनों के दिन और दिल बहलाते होंगे। हां, ब्लैक एंड व्हाइट को किसी कलर टीवी के आगे शर्म ज़रूर आती होगी कि वो लाख चाहकर भी ख़बर की ख़ूबसूरती नहीं बढ़ा सकता। फिर कहीं टीवी पर गलत-सलत पढ़ रही एंकर को सही-सही समझकर सामान्य ज्ञान बढ़ा रही एक आबादी भी होगी जो एक बार, बस एक बार इस चेहरे से मिलना चाहती होगी। वो इसी भरम में जीते रहना चाहते होंगे कि उनके इस 14 या 16 या 21 इंच के टीवी के भीतर के चेहरे किसी देवलोक का हिस्सा हैं जहां सिर्फ दूध-घी की नदियां बहती होंगी और इन चेहरों की तनख़्वाह और रसूख इतना ज़्यादा होगा कि अंदाज़ा लगा पाना भी मुश्किल है। जबकि, असलियत ये थी कि इन टीवी के भीतर दिखने वाले चेहरों से मेकअप उतरता तो जो असली दुनिया इनके सामने होती वहां लार टपकाते कुछ लोग होते, सौ-दो सौ की इन्क्रीमेंट के लिए साथी को वेश्या घोषित करने वाली ज़ुबानें होतीं और चकाचौंध के भ्रमजाल के बीच चारों तरफ मौत जितना अंधेरा और अकेलापन।

(साहित्य की मैगज़ीन 'पाखी' के मार्च अंक में प्रकाशित)
(कहानी का बाक़ी हिस्सा  यहां पढें  मुस्कुराइए कि आप स्टूडियो में हैं-2)

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 3 मई 2011

एक उदास मौत और ख़ूबसूरत सपना...

सफेद पन्नों पर उसने ख़ून से कुछ लिखा और मर गया। पुलिस के पास जब ये ख़बर पहुंची तो उन्होंने मौत से दुखी हुए बिना अपनी ड्यूटी निभाई और लड़के के मां-बाप से मोटी रकम वसूल की ताकि बाहर बदनामी न हो। उसकी प्रेमिका(ओं) के पास जब ये ख़बर पहुंची तो उन्हें इस बेवकूफी पर कुछ समझ नहीं आया कि कैसे रिएक्ट करें। लिहाज़ा, उन्होंने शादी कर ली। कुल मिलाकर एक उदास मौत ने कई घरों को उजड़ने से बचा लिया। अवसाद एक ऐसा शब्द है जिसे इन मौकों पर ढाल की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। अवसाद कहीं भी किसी को हो सकता है। अगर कोई 50 साल की राजनीति के बाद भी प्रधानमंत्री न बन सके तो गहरा अवसाद लाज़िमी है। अगर किसी को सत्ता का स्वाद पहली बार चखने का मौका मिले और वो हर सड़क पर अपनी मूर्तियां ही लगवा बैठे तो इसे भी अवसाद की श्रेणी में रखा जा सकता है। किताबें पढ़पढ़कर क्रांति के नारे बुलंद करने वाले अचानक क्रांति के नाम पर किताबें बेचने लगें तो अवसाद घातक भी हो सकता है। दुनिया में जितनी क्रांतियां रोटी के लिए हुई, हो सकता है उससे कहीं ज़्यादा कांडम के लिए हों।
डिक्शनरी में तीन-चार शब्दों के एक ही मतलब होते हैं। ज़िंदगी में भी यही होता है। वक्त का मतलब सिर्फ गुज़र जाना ही नहीं होता है। वक्त का मतलब एक मजबूरी भी हो सकती है। रात के बारह बजे का वक्त हो तो ज़रूरी नहीं कि पूरा शहर एक दूसरे से प्यार ही कर रहा हो। किसी के पेट में दर्द हो सकता है और किसी को नींद नहीं आने की बीमारी में रोने का मन भी हो सकता है।
उस ख़ास वक्त  में वो भी सोया नहीं था। एक फोन आया तो उसने साफ-साफ एक नंबर देखा कि फोन आया है। बाद में एक मेसैज भी आया कि वेबकैम पर आओ। सच कहूं, तो उसे आने का बहुत मन था मगर ठीक उसी वक्त रोने का वक्त हुआ था। वो रोती आंखों के साथ ज़िंदगी का सबसे ख़ूबसूरत सपना नहीं देख सकता था।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 22 मार्च 2011

उसे मर जाना सबसे अच्छा लगा...

जब तक जिस्म मिलते रहे, दिल भी मिलते रहे। प्यार के इतने तरीकों में ये तरीका दुनिया भर में सबसे प्रचलित रहा। जब तक दुनिया चली, चांद उगता रहा। किसी बादशाह की तरह। इंसान को लगा कि वो एक दिन लिफ्ट से चढ़कर अपनी सबसे ऊंची इमारत की छत से चांद को छू लेगा। मगर, चांद पूरे आसमान में एक भ्रम की तरह फैला रहा। इंसान भ्रम में जीते रहे और मोहब्बत करते रहे। उसके नाखून में अभी तक रंग अटके पड़े थे। उसके दिमाग में वो रंग चढ़ गया था। उसने दांतों से नाखून कुतरने शुरु कर दिए। उसे लगा कि इस वक्त को कुतरकर वो सभी रंगों से छुटकारा पा लेगा। मगर इस रंग से उसे मोहब्बत हो गई थी। उसे वक्त से कोई मोहब्बत नहीं थी, मगर वक्त उसके बस में नहीं था। वक्त एक फुटबॉल की तरह इधर से उधर लुढ़कता रहता और इंसानों का भ्रम बना रहा कि वो दुनिया के सबसे अच्छे खिलाड़ी हैं।
उसने कमरे की सभी बत्तियां बुझा दी थीं। उसे लगा कि सारी दुनिया सो गई है और अगर वो ज़ोर से चीखे तो शायद ये आवाज़ चांद तक चली जाएगी। इस चांद के रास्ते में उसका घर भी आता था। उसने सोचा कि सोते में किसी को जगाना अच्छी बात नहीं। उसने चीखने का विचार छोड़ दिया। उसकी आंखों में नींद नहीं थी। उसे शायद रोना था, मगर वो रोना भूल गया था। उसे जागने की आदत थी, मगर आज वो सो जाना चाहता था। चांद की रोशनी खिड़की से भीतर आ रही थी। उसे लगा कि चांद ने दुनिया भर की नींद चुरा ली है। उसे चांदनी में नींद नज़र आई और यही वो वक्त था जब उसे मर जाना सबसे अच्छा लगा।   सुबह चांद कहीं नहीं था और दुनिया को भरम हुआ कि रात किसी ने चाय पीने के बहाने उसे ज़हर देकर मार दिया है।

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

जाना

तुम गईं.. जैसे रेलवे के सफर में बिछड़ जाते हैं कुछ लोग कभी न मिलने के लिए   जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो जैसे नए परिंदों...

सबसे ज़्यादा पढ़ी गई पोस्ट