गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

साल 2018 की सबसे अच्छी फिल्म है 'बागली टॉकीज़'

जब हम साल 2018 को याद करेंगे तो बेशक पद्मावत, संजू, राज़ी, अंधाधुन, स्त्री और केदारनाथ का नाम सबसे अच्छी फिल्मों के तौर पर याद आएगा, मगर मेरे लिए इस साल की सबसे अच्छी और दिल के क़रीब फिल्म है बागली टॉकीज़

ये फिल्म मध्यप्रदेश के ही बागली क़स्बे में रहने वाले अनिरुद्ध शर्मा ने बनाई है। ये फिल्म महज़ 15 मिनट की है, मगर अच्छी फिल्मों का लंबा होना ज़रूरी है, ये कहां लिखा है। फिल्म लंबी भी हो सकती थी, मगर अनिरुद्ध ने कम बजट में बागली के सिंगल स्क्रीन थियेटर के ज़रिए पूरे देश के सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों का जो दुख सामने रखा है, वो लाजवाब है। अनिरुद्ध की फिल्म इस मायने में बहुत ख़ास है कि वो इस फिल्म के लिए न मुंबई-दिल्ली गए, न ही कोई बड़ा स्टारकास्ट किया। फिल्म के लिए जितने पैसे जुटे, उसके हिसाब से बागली में रहते हुए ही पूरी फिल्म बनाई। इंदौर में मशहूर फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे को बुलाकर पहली स्क्रीनिंग रखी और अब कई फिल्म फेस्टिवल में फिल्म पहुंच ही रही है।
अनिरुद्ध ने एक साथ दो शॉर्ट फिल्में रिलीज़ की हैं। दूसरी फिल्म का नाम है इबादत। ये फिल्म भी अपने कंटेंट के लिहाज़ से कई बड़ी फिल्मों पर भारी पड़ती है। देश में धर्म किस तरह सियासी धंधा बन चुका है और उसका हर आम नागरिक पर किस तरह असर पड़ने वाला है, उसे पर्दे पर उतारने की अनिरुद्ध की कोशिश कमाल की है।
फिल्म समीक्षाओं में फिल्म की कहानियां बताना ठीक नहीं। उम्मीद है कि अनिरुद्ध का सिनेमा देश-दुनिया में पहुंचे और आप भी सिर्फ अनिरुद्ध को बधाई देने के अलावा अपने आसपास के सिंगल स्क्रीन थियेटर को बचाए रखने के लिए वहां फिल्में ज़रूर देखें। अनिरुद्ध जैसे नए फिल्मकारों को इससे बहुत हौसला मिलेगा, जो बड़ी फिल्में बनाने का हौसला रखते हैं, मगर ऐंठ बिल्कुल नहीं। ठीक किसी सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर की तरह।
इसी बहाने मैंने अपने सिंगल स्क्रीन सिनेमा के कुछ अनुभव भी लिखे हैं। इसे भी पढ़िए और आप भी लिखिए ।
सिनेमा को लेकर मेरी जो भी समझ बनी है, उसमें सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों का बहुत बड़ा योगदान है। पापा बिहार-झारखंड के जिन-जिन कस्बों में रहे, वहां के सिनेमाघरों में नागिन से लेकर सूरज से लेकर मोहरा तक की फिल्में देखने का जो अनुभव है, वो शब्दों में बयान नहीं कर सकता। लखीसराय में एक बार पिक्चर देखने गया तो सीट फुल हो गई थी। सिनेमा हॉल का सुपरवाइज़र एक लकड़ी की बेंच उठाकर ले आया और हमने पिक्चर देखी। अगल-बगल बैठे लोग जब पान मसाला थूकते तो पहले ही बता देते, फिर हमें पैर ऊपर करके बैठना पड़ता। रांची में उपहार सिनेमा में कंधे पर चढ़कर कई बार टिकट लेकर फिल्म देखी।
जमशेदपुर के बसंत टॉकीज़ का अनुभव बड़ा यादगार है। हॉल के ठीक सामने एक आदर्श हिंदू भोजनालय हुआ करता था। वहां सात रुपये में भात-सब्ज़ी मिल जाती थी (साल 2003-2005)। हमारे एक मित्र रोज़ वहीं खाना खिलाने ले जाते थे। हमारे खाने की टाइमिंग कुछ ऐसी थी कि जैसे ही खाना ख़त्म होता, बसंत टॉकीज़ में दोपहर के शो का इंटरवल होता। हॉल का दरवाज़ा थोड़ी देर के लिए खुलता। हम खाना ख़त्म करके दौड़ते हुए इंटरवल के बाद वापस फिल्म देखने के लिए लौट रही भीड़ के साथ चिपक लेते। जैसे-तैसे हॉल के भीतर घुस जाते और जो भी फिल्म लगी होती, उसे इंटरवल के बाद देख लेते। अक्षय कुमार की अंदाज़ऐसे में कम से कम चार-पांच बार देखी थी। जमशेदपुर के स्टार टॉकीज़ में बाग़बानलगी थी तो अमिताभ भक्त हॉल मालिक ने सभी दर्शकों को लड्डू भी बांटे थे।
समस्तीपुर के भोला टॉकीज़ में एक बार लुटेरादेखने गया तो लोग बहुत कम थे। बातों-बातों में प्रोजेक्टर चलाने वाले को बताया कि इस फिल्म के डायरेक्शन में मेरा एक दोस्त भी है तो उसने खुशी-खुशी पूरी फिल्म अपने साथ ही बिठाकर दिखाई।
फिर जब दिल्ली आए तो देखा हमारे महीने भर की फिल्म का ख़र्च पॉपकॉर्न पर लोग ख़र्च कर देते हैं। बड़ी मुश्किल से दिल्ली के सिंगल स्क्रीन हॉल ढूंढे और आज भी कई फिल्में वहीं देखता हूं। जामिया से पैदल चलकर नेहरू प्लेस के पारस में दिल्ली की पहली फिल्म ओंकारादेखी। हाल के कुछ दिनों में नॉर्थ दिल्ली के अंबा टॉकीज़की आदत लगी। फिर एक दिन देखा कि अंबा पर कोई फिल्म नहीं लगी है। उनके ऑफिस में लगातार कॉल किया लेकिन कोई जवाब नहीं। फिर देखा कि अंबाका फेसबुक पेज भी है। उन्हें फेसबुक पर इनबॉक्स मैसेज भेजा तो तुरंत जवाब आ गया कि जल्दी ही वापस अंबा में फिल्में लगेंगी, कुछ दिनों से मरम्मत का काम चल रहा है। बड़ी खुशी हुई कि सिंगल स्क्रीन थियेटर भी ख़ुद को अपडेट किए हुए हैं।

हम सब जिन्होंने सिंगल स्क्रीन में फिल्में देखी हैं, उन्हें आज सिंगल स्क्रीन के ख़त्म होने का अफसोस ज़रूर होता होगा। मल्टीप्लेक्स बढ़िया है, मगर सिंगल स्क्रीन की क़ीमत पर बने, ये ठीक नहीं।  

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 15 नवंबर 2018

तुम्हारे पास पटाखे हैं, धुंआ है। हमारे पास छठ है, ठेकुआ है

छठ में बिहार आकर लगता है कि समय आज भी 20 साल पीछे ही रुका हुआ है। छठ के तीन दिनों में बिहार अपने मूल रूप में लौटता है। पढ़ने-लिखने, कमाने बिहार से बाहर गए बेटे-बेटियां लौटते हैं और दौरा-सूप उठाने लगते हैं। थोड़ा बदलाव ये हुआ है कि नदियों, तालाबों के घाटों के बराबर ही मकान की छतों पर 'घाट' सजने लगे हैं। (अमित शाह या आदित्यनाथ बिहारी होता तो इस पर्व का नाम बदलकर 'छत पर्व' रख चुका होता।) । अर्घ्य से पहले सेल्फी के लिए समय बचाया जाने लगा है। ठीक है।

ख़ैर, अभी तक सूप या दौरे की जगह 'बास्केट' ने नहीं ली है। केले का 'घौद' ही होता है, ठेकुआ भी 'स्वीट बिस्किट' जैसा कुछ नहीं बन पाया आज तक। अग्रेज़ी छोड़िए, मैंने शायद ही छठ पर कोई हिंदी गीत आज तक सुना हो। अपनी जड़ों, लोकभाषाओं से जुड़े रहने का संदेश और किस पर्व में इस गहराई से देखने को मिलता है। मौसम के हिसाब से उपलब्ध कौन-सा फल नहीं जो इस पर्व का हिस्सा नहीं। क्या इस पर्व से प्यार करने को इतनी वजह काफ़ी नहीं।

कुछ बुद्धिजीवी लोग इस छठ का पूरी तरह विरोध करते हैं।  हमें डर उनसे नहीं है। हमें डर लाउडस्पीकर पर बजने वाले नए छठ गीतों से है। प्रकृति पूजा के पर्व छठ में खेसारी लाल यादव, मनोज तिवारी के गीत ध्वनि प्रदूषण की तरह हैं। एक दिन ये हमारी जड़ों को खा जाएंगे। विरोध कीजिये इन फूहड़ संगीत प्रेमियों का। विरोध कीजिये इस 36 घन्टे लंबे निर्जला व्रत का, इसे छोटा करने का प्रयास होना चाहिए। हठ या डर के नाम पर बीमार या बूढ़ी होती औरतें इस व्रत को नहीं छोड़ पाती, इसके लिए व्यापक जागरूकता अभियान चलाना चाहिए मगर छठ के मूल स्वभाव में कोई गड़बड़ी नहीं है। बिहार में इतनी व्यवस्था, साफ-सफाई और किसी सरकार के बस की बात नहीं है।

इस तीन दिन के पर्व के बाद वापस अपनी ट्रेन पकड़कर, बहुत सारा ठेकुआ लेकर बिहारी फिर से न्यू इंडिया का हिस्सा हो जाता है। ठेकुआ इस सनातन बिहार र न्यू इंडिया के बीच का पुल है। 

आप बिहार के सबसे 'पॉश' शहर से ही क्यूँ न लौटें, दिल्ली वाला कहेगा कि 'गांव' से लौटा है। कोई बात नहीं दिल्ली शहर, तुम्हारे पास मॉल है, मेट्रो है, फ्लाईओवर है, बुद्धिजीवी हैं, हमारे पास छठ है, ठेकुआ है। 
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 20 अक्तूबर 2018

डायरी फिर से

ज़िंदगी में एक अफसोस कुछ न कर पाने का होता है। लेकिन ज़्यादा बड़ा अफसोस होता है बहुत-सी अधूरी चीजें करने का। उम्र हमे वापस वो अधूरापन भरने का मौक़ा ही नहीं देती।
शादी हुई थी मेरी तो उसके ठीक बाद झूठ-सच बोलकर सबसे पहले तुम्हें अपने घर लाया था। उस एक घटना से कितना तूफान रहा, बता नहीं सकता। मगर कभी अफसोस नहीं रहा अपने किये का।
आज लगता है तुम कोसों दूर चली गयी हो। पता नहीं कहां हो। कहां हम मीलों साथ चलते थे, बिना थके, कहां बिल्कुल अकेले डूबता जाता हूँ रोज़...
शादी प्रेमिकाओं का सबसे ज़्यादा नुकसान करती हैं।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

चिरईं का दाना

चिरईं ने बहुत ही मशक्कत और मेहनत के बाद पाया था
दाल का एक दाना
वह दाना भी जा गिरा था
दुर्भाग्य से
एक खूँटे की दरार में
उसने दाना को दुबारा पाने के लिए
की पहले ख़ूब आरजू -मिन्नत
खूँटे से ही
पर जैसा कि अक्सर होता है
वह खूँटा भी
बेईमान निकला
चिरईं पाने के लिए इंसाफ़
बढ़ी आगे और एक बढ़ई से कहा कि
खूँटे को दंडित करो
ताकि मिले मेरी मेहनत का दाना
जो अपने धारदार वसूले से
काट रहा था
गुट्ठल -गिरहदार लकड़ी
बढ़ई भी गया मुकर
फिर क्या था चिरईं ने
बिना देर किए
राजा के दरबार में लगाई गुहार
राजा ने भी बढ़ई को
बक़्श दिया
उसे दंडित करने की बात तो
बहुत दूर की बात थी
चिरईं राजा की फ़रियाद लेकर
रानी के पास गई
रानी भी चुप रहीं
राजा के नाम पर
चिरईं बहुत आक्रोश में थी
वह पहुँच गई फन काढ़े
गेहुँअन साँप के पास
कहा कि रानी ने इंसाफ़ नहीं किया
पूरा सुनाया पिछला क़िस्सा
कहा उससे कि रानी को डँसो
ताक़ि खुले राजा की
आँखों की पट्टी
मिले मेरा इंसाफ़
साँप भी सच में दोमुँहा ही हुआ
साबित
अनसुनी कर दी
चिरईं की बात
चिरईं अब पहुँची डंडे के पास
कहा उससे पिछला हाल
डंडे को कहा कि
मेरे साथ आओ
इंसाफ़ पाने की मुहिम में
हो जाओ शामिल
चलकर पीटो
फन काढ़े गेहुँअन साँप को
डंडा भी डरा हुआ था
बेबस था
था लाचार
किसी ताक़तवर या दबंग के इशारे पर ही
चलता था
करता था किसी पर
वार पर वार
इतने के बाद भी चिरईं
न रुकी
न विचलित हुई
न तनिक निराश
इंसाफ़ पाने की उसकी इच्छा
होती गयी बलवती
वह आगे
आग के पास गयी
और पूरा वृतांत सुनाकर
डंडे को भस्मीभूत कराना चाहा
पर आग में शेष नहीं बची थी
आग
आग के ख़िलाफ
चिरईं गयी समुद्र के पास
समुद्र चुप रहा
दिखा तटस्थ
चिरईं के पास राजा राम की तरह
तीर-धनुष नहीं था
कि वह डरता
चिरईं ने बिना विश्राम के
जारी रखा
अपना सफ़र इंसाफ़ का
वह विशालकाय श्यामवर्ण हाथी के पास
जाकर बोली
कि चलो सोख लो
बेईमान और जड़बुद्धि समुद्र को
जैसा कि चलन था
उस दौर में
किसी बेबस...
ग़रीब के लिए पाना इंसाफ़
था बेहद मुश्किल
हाथी भी भाग खड़ा हुआ ... तो
चिरईं गयी जाल के पास
जाल भी पड़ा रहा
निश्चेष्ट ...
अंत में थक -हारकर चिरईं गयी
एक निबल चूहे के पास
चूहा सहर्ष तैयार हो गया
बिना वक़्त गँवाये
कहा चलकर काटेंगे
जाल को
गुदरी -गुदरी बना डालेंगे
कमबख़्त को...
उसकी बता देंगे
औकात
फिर तो चूहे से डरकर
जाल ने कहा कि
छानेंगे विशालकाय श्यामवर्ण हाथी को
हाथी तैयार हुआ जब डरकर जाल से
सोखने को समुद्र
तो समुद्र ने कहा भयभीत होकर कि
चलो चिरईं चलकर बुझाते हैं
दुष्ट आग को
आग तैयार हुआ डरकर
जब डंडे को जलाने के लिए
तो डंडा तत्पर होकर निकल पड़ा
पीटने के लिए
गेहुँअन साँप को
गेहुँअन साँप ने डरकर पहले तो
प्रणाम किया
डंडे को
और निकल पड़ा
रनिवास की तरफ़
रानी को डँसने
रानी ने चीखकर साँप को
ठहरने के लिए कहा
और चिरईं को दिलाने इंसाफ़
पहुँची राजदरबार में
राजा ने कहा कि जब बात
इतनी संगीन है और
रानी को अचानक आना पड़ा
दरबार में तो वे ज़रूर बढ़ई को कहेंगे कि
जाकर अपने धारदार वसूले से
फाड़ दो खूँटा बाँस का
जिसमें फँसा है
चिरईं की मेहनत का दाना
दाल का
बढ़ई को देखते ही
भय से खूँटा तैयार हो गया
ख़ुद से फटने के लिए ...
इस तरह चिरईं ने पाया
अपना दाना मेहनत का
पाया इंसाफ़ ...
और फुर्र होकर निकल पड़ी
अपने घोंसले की तरफ़
जहाँ उसके चूजे दाने के इंतज़ार में थे
भूख से व्याकुल होकर !

( भोजपुरी अंचल की एक बहुश्रुत और प्रसिद्ध लोककथा से प्रेरित कविता। चंद्रेश्वर जी की फेसबुक पोस्ट से साभार )


गुरुवार, 23 अगस्त 2018

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम साहित्यकार प्रभु जोशी का खुला ख़त

माननीय प्रधानमंत्री जी,
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित विश्व कवि पाब्लो नेरूदा, जब सुबह-सुबह रेडियो से पांच मिनट के लिए बोला करते थे तो उनका पूरा देश कान लगा कर धैर्य से उनको सुना करता था। वह इस उत्कण्ठा से सुनता था कि वे कितने सुन्दर और समर्थ मुहावरे में अपनी बात रखते हैं कि जिससे ‘विचार’ और ‘भाषा’ दोनों ही सम्पन्न हो उठते हैं। कहना न होगा, आप स्वयम् जानते होंगे कि इन दिनों स्पेनिश भाषा का आकर्षण अमेरिका में इतना अधिक बढ़ा हुआ है कि अंग्रेज़ी, जो कि दुनिया भर में अपने साम्राज्यवादी संकल्प से, तमाम देशों की भाषाओं को विस्थापित करने में लगी है, ‘स्पेंग्लिश’ न बन जाये।
मैंने पिछले दिनों आपके ‘मन की बात’ कार्यक्रम का प्रसारण सुना तो यह लगा कि आप अपने समूचे सोच और दृष्टि में, मूलतः एक राजनीतिक व्यक्ति हैं, नतीज़तन, आपके लिए ‘भाषा’ प्राथमिक नहीं है, बल्कि केवल ‘सम्प्रेषण’ ही आपका अन्तिम अभीष्ट है। राजनीति के साथ यही है कि भाषा को वह इसी इकहरी भूमिका से भिन्न नहीं देखती है। कहना न होगा कि आपके बोलने से आपके कार्यक्रम के श्रोताओं के लिए एक बहुत स्पष्ट सूचना यह जाती है कि आपकी दृष्टि में हिन्दी, एक असमर्थ और अपर्याप्त भाषा है, और उसमें अंग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट नहीं की गई तो वह अपाहिज भाषा रहेगी, जो चलकर ‘आज के युवाओं’ तक नहीं पहुँच सकेगी।
शायद, इसी सोच के चलते आप अपने प्रसारण के दौरान हिन्दी में अधिक से अधिक अंग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट की जरूरत को बिलकुल नहीं भूलते। मसलन, अगर आप अपनी मन की बात में, भारत सरकार के किसी भी मंत्रालय या विभाग का उल्लेख करते हैं तो आप इरादतन उसके लिए, पिछले सात दशकों से प्रचलित रहे हिन्दी के शब्द को हटाकर, उसकी जगह अंग्रेज़ी के शब्द का ही प्रयोग करते हैं। जैसे, ‘आयकर’ शब्द बोलना हो तो आप निश्चय ही ‘इनकम टैक्स’ शब्द का प्रयोग करना ज़रूरी समझेंगे।
माननीय प्रधानमंत्रीजी, आपकी ‘मन की बात’ के प्रसारण की इस भाषा का एक त्वरित प्रभाव यह हुआ कि आपके सरकारी अमले ने तुरन्त मंत्रालयों और भारत-सरकार के तमाम विभागों के नामों को अंग्रेज़ी में ही लिखना और व्यवहार करना शुरू कर दिया है। जैसे, अब आगे से हिन्दी के शब्दों के उपयोग की ज़रूरत नहीं रहनी है।
यह बहुत स्वाभाविक बात है कि जब वे देखते हैं कि उनके देश के प्रधानमंत्री ही ‘बहुत अच्छी हिन्दी बोलने जानने के बावजूद’, जब हिन्दी की शब्दावली को अपने प्रसारण में इरादतन छोड़ कर, अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं तो उनके लिए यह खुली छूट है या कहें कि एक साफ-साफ संकेत है कि वे निर्भीक होकर ज़ल्दी से ज़ल्दी से हिन्दी की शब्दावली छोड़कर, उसकी जगह अंग्रेजी के शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करें।
आप को शायद यह पता न हो कि आज स्थिति यह है कि भारत-सरकार के तमाम सरकारी कार्यक्रमों और नीतियों के प्रचार-प्रसार संबंधी, रेडियो और टेलीविजन या कि अखबारों में, जो विज्ञापन आते हैं, उनसे हिन्दी के शब्दों को खदेड़ कर बाहर कर दिया गया है। नौकरशाही की प्रवृत्ति को आप बेहतर जानते होंगे। हमारी मालवी बोली में एक कहावत है, ‘चाय से ज्यादा केतली गर्म होती है।’ सरकार से ज़्यादा उस की नौकरशाही उतावली होती है। याद रखिये, श्रीमती इंदिरा गांधी को आपातकाल में यदि सबसे बड़े भ्रम में रखा था और वे अन्त में हार गई थीं-तो इसमें उनकी नौकरशाही की बहुत बड़ी भूमिका थी। मुझे सन्देह नहीं कि आपकी नौकरशाही अपने इस इतिहास को भूली नहीं होगी।
निस्सन्देह आप देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जो लगभग पूरी दुनिया की परिक्रमा लगा चुके हैं और इस ऐतिहासिक लेकिन सबसे कटु और धूर्त-सत्य को साम्राज्यवादी कूटनीतियों के ज़रिए, आप अभी तक बहुत अच्छे-से जान चुके होंगे कि अफ्रीकी महाद्वीप की तमाम भाषाओं को, ब्रिटिश कौंसिल द्वारा तैयार की गई कूटनीति से किस तरह ख़त्म किया गया। वे कहते हैं, बीसवीं सदी में हमारा ध्यान केवल अफ्रीकी महाद्वीप पर था, अब हमारा ध्यान भारत पर है।
अगर आप जानते हैं तो अच्छा ही है, फिर भी मैं उस कूटनीति को संक्षिप्त में यहाँ ज़रूर ही बताना चाहूँगा। दरअसल, अफ्रीकी महाद्वीप की भाषाओं के संहार की धूर्त कूटनीति थी, वहां की तमाम प्रचलित और जीवित भाषाओं को नष्ट कर के उन्हें ‘बोली’ में बदल दो। इसे कहते है, ‘ग्रेजुअल-क्रियोलाइजेशन ऑफ लैंग्विज़’। इस कूटनीति के तहत यह योजना बनाई जाती है कि जिस देश की भाषा को विस्थापित करना हो उस देश की भाषा में, धीरे-धीरे, अंग्रेज़ी शब्दों की मिलावट की जाये- और, इस मिलावट को एक धूर्त-युक्ति से यह भ्रम फैलाया और प्रचारित किया जाये कि यह ‘रिलिग्विफिकेशन’ है। यह तो आपकी भाषा का ‘पुनसृजन’ है और अंग्रेज़़ी के शब्दो को मिलाने के बाद यह भाषा, अधिकतम लोगों तक अधिकतम संप्रेषण करेगी। इसलिए, उन्होंने अफ्रीकी भाषाओं में सबसे पहले एफ.एम. रेडियो के माध्यम से, उनमें अंग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट करना शुरू की।
पहले उन्होंने यह भ्रम निर्मित किया कि रेडियो की भाषा में यह जो मिलावट की जा रही है वह युवाओं के केवल ‘मनोरंजन के लिए’ ही है, और धीरे-धीरे अफ्रीका की पूरी पीढ़ी को मनोरंजन की भाषा, जिसमें अंग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट थी, में पूरी तरह डुबो दिया। यह कूटनीति थी ‘कीलिंग विथ इण्टरटेण्मेण्ट, अर्थात्’ मनोरंजन से भाषा और युवा पीढ़ी, दोनों को ही मारना। नील  पोस्टमैन ने इसे कहा है, ‘आनन्दवाद ज़रिये भाषा के दमन की सिध्दान्तिकी।’
हमारे यहां भारत में भी, सबसे पहिले एफ.एम. रेडियो के ज़रिए हिन्दी में अंग्रेज़ी शब्दों को मनोरंजन की आड़ में, बेधड़क ढंग से मिलाकर, प्रसारण करने का काम रेडियो-मिर्ची ने किया। वैसे, यह एम.एफ. टेक्नोलॉजी की अघोषित नीति थी। क्योंकि, इसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश था- और उसकी एक अघोषित शर्त ही होती है, आपको वहां की देशज-भाषा का ‘विस्थापन’-‘ लैंग्विज़-शिफ्ट’ करना है। और, याद होगा आपको कि किसी भी ‘संस्कृति और समाज को गुलाम बनाना है तो पहले उसकी भाषा को नष्ट करो। उसे ‘विचार की भाषा’ के स्थान से हटाओ। केवल बोल-चाल की बना कर रख दो। वह ‘डायलैक्ट’ बन जाये। यह लार्ड मैकाले के समय की नीति थी। लेकिन आज के नव साम्राज्यवाद का तो अब घोषित रूप से कहना ही यही है कि We dont enter a country with Gun boats rather with language and culture बाद इसके तो हम पाते हैं कि वे तो खुद ही हमारे गुलाम बनने के लिए बेताब हैं। और सत्ताओं को अपनी मुट्ठी में करना तो और भी आसान है। यह सच आप से अधिक और कौन जानता होगा।
इसलिए माननीय प्रधानमंत्रीजी, अब वे अपनी ‘संस्कृति’ और ‘भाषा’ के अचूक हथियारों से किसी देश मे घुसते हैं और भारत जैसे बरसों तक गुलाम रहे देश में तो उनके द्वारा, ‘सांस्कृतिक विनिमय’ की आड़ में, ‘सांस्कृतिक-अपहरण’ हो चुका है। ‘भाषा और भूषा’, संस्कृति के आधार हैं-निश्चय ही उसमें ‘भोजन’ भी शामिल है, और ये तीनों ही घटक अब लगभग विदा कर दिये जाने के कगार पर हैं। भाषा, भूषा और भोजन की बिदाई के बाद तो आप नाम-मात्र को भारतीय रह जायेंगें। हमारे मध्य-प्रदेश में तो प्राथमिक कक्षा से अंग्रेज़ी शुरू कर दी है। और अब विद्यालयों में बच्चियों के लिये भी दुपट्टा और सलवार-कमीज़ के हटाकर, उसकी जगह, लैगिंग्स जैसा ‘हॉट-वीयर’ पहनना अनिवार्य कर दिया गया है।
बहरहाल, प्रधामंत्री जी, मैं आपसे ‘भाषा के विस्थापन’ के संदर्भ में ‘ग्रेजुअल क्रियोलाइजेशन’ जैसे सामासिक पद का उल्लेख कर रहा था।   हकी़क़तन, इस कूटनीति के अंतरगत होता यह है कि धीरे-धीरे स्थानीय भाषाओं में अंग्रेजी की शब्दावली को बढ़ाते हुए उसे ‘सत्तर प्रतिशत’ कर दीजिये। कोई आपत्ति उठाये तो कहो- ‘भाई ये तो महज ‘शेयर्ड वक्युब्लरी’ है। शामिल शब्दावली। यह ‘बोलचाल’ की आसानी के लिए है।’ इस तरह एक सुनियोजित रूप से भाषा, ‘बोली’ में बदल दी जाती है।
व्याकरण, भाषा की मांस-पेशियाँ और अस्थियों के समान होती है। नतीज़तन, सबसे पहले उस भाषा की व्याकरण के हाथ-पैर तोड़ दो। इसके बाद उनका उस भाषा के खात्मे का अन्तिम चरण कहा जाता है, जिसे वे अंग्रेज़ी में कहते हैं- ‘फाइनल असाल्ट ऑन लैंग्विज’। यानी कि उस देश की भाषा पर ‘अन्तिम प्रहार’, जो उसका हमेशा के लिए ख़ात्मा कर देगा।
यह चरण है, सत्तर प्रतिशत अंग्रेजी के शब्दों को घुसेड़ कर बना दी गई वह भाषा, जिसे हम ‘हिंग्लिश’ कह-बोल रहे है। उस हिंग्लिश भाषा की लिपि बदल देना। इसे रोमन-लिपि में लिखना शुरू कर दीजिये- वह भाषा मर जायेगी। गेल ओमवत जैसी अमेरिकी प्रोफेसर, उस कूटनीति के भारत में प्रचार में सबसे पहले आगे आयीं। उन्होंने ही हमारे यहां के कुछ दलित विचारकों को इतना प्रभावित कर दिया कि वे ये कहने लगे कि दलित भाइयो, जब आपके घर में बच्चा जन्म ले तो उसके कानों में हिन्दी नहीं, ‘अंग्रेजी माता’ के शब्द फूंकों।
आज दलित विचारकों द्वारा यह प्रचार जारी है कि हिन्दी सीखना हमें सवर्णों का गुलाम बनाये रखेगा, इसलिए अंग्रेजी सीखो।
कहने की ज़रूरत नहीं कि प्रधानमंत्रीजी आप अपने ‘मन की बात’ नामक कार्यक्रम से पूरे देश को यह सूचना और संकेत दे रहे हैं कि भारतीय भाषाएं असमर्थ और अपर्याप्त भाषाएं है, इनकी बिदाई ज़रूरी है। क्योंकि आप हिन्दी के बजाय ‘हिंग्लिश’ बोल रहे हैं। एक स्वयभूं ‘राष्ट्र राज्य’ के शिखर पुरूष के द्वारा ‘हिंग्लिश को’ प्रामाणिक और बहुत भरोसे की भाषा की तरह उपयोग करना, एक राष्ट्र के लिए, एक बड़े ऐतिहासिक अनिष्ट की सूचना है।
माननीय प्रधानमंत्री जी, आपको यह स्मरण करा दूँ कि डेविड क्रिस्टल, एक चर्चित भाषाविद् और लेखक हैं, जिनकी पुस्तक है, ‘डेथ ऑफ लैंग्विज़’ है। वे पिछले वर्षों में भारत आये थे, उन्होंने ‘हिंग्लिश’ के बारे में, जो टिप्पणी की वह आँख खोलने के लिए पर्याप्त है। उन्होंने बार-बार हिन्दी को ‘हिंग्लिश’ बनाये जाने की बात पर लोगों का लगभग लताड़ कर कहा- ‘ जिसे आप ‘हिंग्लिश-हिंग्लिश’ कह रहे हैं, वह आपकी भाषा है नहीं हैं, वह हमारी भाषा है, क्योंकि इसे अंग्रेजी ने पैदा किया है। वह अंग्रेजी की एक नई ‘डायलेक्ट’ है। इस पर निश्चय ही अंग्रेज़ी की मिल्कियत है। हिन्दी की नहीं। फिर उसमें सत्तर प्रतिशत हैं, हमारी अंग्रेज़ी के शब्द।
इसलिए, उनके इस वक्तव्य की रौशनी में देखा जाये तो आप हिन्दी में प्रसारण नहीं कर रहे हैं-बल्कि अंग्रेजी की एक ‘डायलेक्ट’ में देश को संबोधित कर रहे हैं और आप उस पर अपनी हिन्दी होने का भ्रम न पालें, और ना ही यह भ्रम फैलायें कि ‘आप हिन्दी में देश से सम्वाद कर रहे है।’ हां यह भी बता दूं कि साथ ही इस कार्यक्रम के अन्त में एक उद्घोषणा आती है कि प्रधानमंत्रीजी का यह प्रसारण अन्य भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में अनूदित होकर प्रसारित होगा। इसका अर्थ यह कि आपने, जो भी अंग्रेजी के शब्द इस्तेमाल किये हैं, वे ‘जस के तस’ बांग्ला या तमिल अनुवाद में जायेंगे।
इस तरह आप बांग्ला को ‘बंग्लिश’ और तमिल को ‘तमलिश’ बनाने में मदद कर रहे हैं। आकाशवाणी में ‘नौकरशाह’ तो इस प्रसारण में कोई व्यवधान न आ जाये, इससे वे इतने डरे रहते हैं कि अंग्रेज़ी का शब्द हटा नहीं पायेंगे। वे ‘तमलिश’ और ‘बंग्लिश’ बना कर रहेगें।
माननीय प्रधानमंत्रीजी, अंग्रेजी की, सामाज्यवादी कूटनीति का कहना है कि अगर, किसी देश की भाषा का विस्थापन करना है तो केवल इसे एक ही ‘युवा पीढ़ी’ के जीवन में ही बदल दीजिए। इसलिए, यह प्रचार सारे भारतीय (!) मीडिया में होता है कि आज के भारतीय और, इस भ्रम को सत्य की तरह उन्हें स्वीकारने के लिए राजी कर लिया है। और वे सफल हो गये हैं आज जो ‘युवा’ आधुनिक होना चाहता है, वह हिन्दी बोलने-लिखने से सख़्त एतराज करता है। ‘युवा’ की भाषा अंग्रेजी और जीवन शैली पश्चिम की हो तो ही वह ‘युवा’ है।
इसलिए अभी तक देश हिन्दू-मुसलमान में बंटा हुआ था, अंग्रेजी मीडिया, उसे ‘मुस्लिम इंडिया’ कहते हैं। यही विभाजनकारी भाषा, अब ‘यंग इंडिया’ कहती है- जैसे, इण्डिया में एक दूसरा इंडिया है- ‘यंग इंडिया’। इस ‘यंग इंडिया’ के धोखादेह निर्माण में, हिन्दी के अखबारों में ‘लाइफ स्टाइल जर्नलिज्म’ के चार रंगीन पन्ने निकाले जाते हैं, जिसकी भाषा के बारे में मालिकों का स्पष्ट आदेश होता है कि इसमें सत्तर प्रतिशत अंग्रेजी के शब्दों की मिलावट की जाये। और अगर, ऐसा करने में किसी कर्मचारी को एतराज हो तो वह यह तय कर ले कि उसे हिन्दी प्यारी है या अपनी नौकरी।
दरअसल जबसे हिन्दी के अखबारों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश शुरू हुआ है, वे हिन्दी के अखबार होकर हिन्दी को विदा करने की सुपारी ले चुके हैं। हिन्दी ने अपना ‘जीवन’ हिन्दी पत्रकारिता से पाया था, आज दुर्भाग्यवश सबसे बड़ा धोखा भी वह इसी हिन्दी पत्रकारिता से ही खा रही है। आपको, उदाहरण दे रहा हूं-
‘यूनिवर्सिटी कैम्पस में मार्क्सशीट के डिले होने पर, स्टूडेण्ट्स ने, वाइस चान्सलर के आफिस के सामने प्रोटेस्ट किया, वाइस-चान्सलर ने उन्हें एश्योर किया है कि इस वीक के लास्ट तक प्राब्लम साल्व हो जायेगी।’
अब अखबारों में, माता-पिता, छात्र-छात्रा, विश्वविद्यालय, चौराहा, कार्यालय, सोमवार, मंगलवार, बाज़ार, भाई-बहन कहे कि हर शब्द, अंग्रेज़ी का ही छापा जाता है।
ये भाषा, अख़बार के युवा के लिये लिखी-छापी जा रही है। और आप भी युवाओं को ऐसी ही भाषा में बात करने की दिशा मे ही बढ़ रहे हैं।
माननीय प्रधानमंत्रीजी, आप जब इसरायल की यात्रा पर गये थे तो मुझे लगा था कि आप जब वहाँ से लौटेंगे तो इस देश के लिए जन-जन के लिये एक बड़ी सच्ची, ज्ञान और ‘राष्ट्र-गौरव’ की बात लेकर लौटेंगे कि इसरायल जिसकी भाषा ढाई हज़ार साल पहले मृत हो चुकी, उस हिब्रू भाषा को उन्होंने पुनर्जीवित कर के, उसे राजकाज और शिक्षा की भाषा बना दिया और आज इसरायल के पास सत्रह नोबेल पुरस्कार है। वह इसलिए कि बीसवीं सदी का सारा ज्ञान-विज्ञान, उसने अपनी उसी दो हज़ार साल पहले मृत हो चुकी भाषा में ही विकसित कर लिया।
जापान के बारे में तो आपको यह पता है कि वह हमारे छत्तीसगढ़ के बस्तर ज़िले के भूगोल के बराबर ही है। प्रसिद्ध अमेरिकी विचारक थामस फ्रीडमेन ने लिखा था, ‘लिंच पिन ऑफ इकोनॉमी एण्ड टेक्नॉलाजी हेज शिफ्टेड फ्रॉम अमेरिका टू जापान।’ जब जापान और उसके पड़ोसी वाहन बनाने के उद्योग -ऑटो-मोबाइल्स- में उतरे तो दुनिया भर के देशों की सड़कों पर जो कारें दौड़ती हैं, इन्हीं देशों की है-क्योंकि, उनके यहाँ शिक्षा की भाषा, वही अपनी भाषा है। जिसमें लगभग दो हजार चिन्ह हैं। जब हिन्दी की बारहखड़ी में तो ‘अ से क्षत्रज्ञ’ तक केवल इतने ही शब्द है और इन शब्दों में संसार की सभी भाषाओं की ध्वनियां, उच्चरित हो सकती हैं।
दुर्भाग्यवश, जाने किस मूढ़ता में भारतीय भाषा को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर ही खत्म कर दिया जा रहा है।
मेरे बेटे ने पन्द्रह साल अमेरिका में पढ़ाई की और नैनो-टेक्नोलॉजी में पी.एच.डी की डिग्री हासिल की। वह कहता है अमेरिका में, जब जापान का युवक पढ़ाई के लिए आता है, तो वह सौ प्रतिशत जापानी हो जाता है, जबकि चीनी छात्र पढ़ने आता है तो वह एक सौ दस प्रतिशत चीनी हो जाता है- जबकि, भारत का युवा अमेरिका आता है तो वह अस्सी प्रतिशत अमेरिकी हो जाता है। दरअसल, भारत, अब इस एक ध्रुवीय संसार में अमेरिकाना हो रहा है। निश्चय ही वह उसकी नकल करेगा तो भी वह एक घटिया दर्जे की अनुकृति ही बनेगा और बन ही रहा है।
प्रधानमंत्रीजी आप से निवेदन है कि आप भाषा के साथ, केवल सम्प्रेषण का माध्यम भर की तरह व्यवहार न करें। चूंकि भाषा सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतन-प्रक्रिया का भी आधार है। इस भाषा में दुनिया के गहनतम विषय पर भी विचार व्यक्त किया जा सकता है और चिन्तन सम्भव है। गांधी से लेकर जयप्रकाश तक इसमें सोचते विचारते थे और आप भी हिन्दी ही में सोचते और बोलते हैं। लेकिन, अब तो टेलिविज़न विज्ञापन आता है, जिसमें कहा जाता है, हिन्दी नहीं, अंग्रेज़ी ही सोचने की भाषा है।
प्रधानमंत्री महोदय, मैं आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि ज्ञान आयोग के श्री सैम पित्रौदा हुआ करते थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय को एक पत्र लिखकर कहा था कि भारत के केवल एक प्रतिशत लोग ही अंग्रेज़ी लिख-बोल सकते हैं, अतः हमें निन्यानवे प्रतिशत आबादी को अंग्रेज़ी सिखाना है, जिसके लिए, प्राथमिक कक्षाओं से ही अंग्रेज़ी सीखने को अनिवार्य कर दिया जाना चाहिये। दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि उनके इस कथन पर किसी सांसद और हिन्दी के पत्रकार, लेखक या भाषा-भाषी ने उनसे ये नहीं पूछा कि पैसठ वर्षों में आप उस ‘एक प्रतिशत’ भारतीय को हिन्दी नहीं सिखा पाये तो निन्यानवे प्रतिशत भारतीयों को अंग्रेजी कितने वर्षों में सिखा पायेंगे और उस भाषा प्रचार-प्रसार और सिखाने-पढाने के धंधे- ‘लैंग्विज इकोनोमिक्स-’ का आकार क्या होगा।
आज अंग्रेजी का सिखाने पढ़ाने का व्यवसाय अरबों में कमाई कर रहा है। जब भारत में एक अरब बीस करोड़ को अंग्रेजी सिखाई जाने का कारोबार चलेगा तो अंग्रेज़ी-भाषा कितना धन कमायेगी।
अन्त में माननीय प्रधानमंत्रीजी आप से मेरा यही कहना है कि हम अहिन्दी-भाषी पूर्व प्रधानमंत्रियों के प्रति शिकायत रखते थे कि वे देश के लोगों से हिन्दी में नहीं बात कर रहे हैं। यह हिन्दी का नुकसान है लेकिन उन्होंने हिन्दी का उतना अहित नहीं किया, जितना अहित हिंग्लिश बोलकर तो आप कर रहे हैं। आप पूरे देश को ‘भाषा-विस्थापन’ का संकेत कर रहे हैं।
आप का दल और आप तो ‘सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद’ की बात करते रहते हैं। क्या ये भाषा को नष्ट करने के बाद, बचा रहेगा। हो सकता है, ‘मंदिर-मस्जिद’ के बहाने धर्म का हो-हल्ला मचता रहे लेकिन आपके-हमारे उस धर्म की किताबें, एक दिन ‘अपाठ्य-लिपि’ में लिखी-छपी मानी जायेगी। क्योंकि हिन्दी के रोमन लिपि में लिखे जाने के बाद, करोड़ों किताबें कचरे में बदल जायेगी। आप से निवेदन है कि जब आपने अच्छी हिन्दी में देश के कोने-कोने में जाकर अपने दल को विजय दिलाई है। लेकिन आप दल और राजनीतिक से ऊपर उठकर, भाषा के बारे में चिंतन करें और देश में हिन्दी को विदाई करने के अभियान को स्थगित करें।
आपकी सरकार का राज-भाषा विभाग इस समय अपनी अन्तिम सांसें गिन रहा है। लोग उस विभाग की इरादतन भर्त्सना करते हैं, लेकिन उस विभाग के कारण सरकारी दफ़्तरों में हिन्दी थोड़ी-थोड़ी बची हुई थी।
याद कीजिए और संदर्भ दिखवा लीजिए, जब हिन्दी को सरल बनाने के बहाने उसको ‘विस्थापित’ करने के षडयंत्र का एक चरण, भारत-सरकार के गृह-मंत्रालय के राज-भाषा विभाग द्वारा एक परिपत्र जारी करके किया गया था- तब हिन्दी की ‘धोखा देह’ पत्रकारिता ने खुशी में झूमकर खबरें, छापी थी- ‘अब हिन्दी बोलने-समझने लायक भाषा बन जायेगी। उस परिपत्र में बताया गया था कि ‘भोजन’ शब्द कठिन है, इसलिये उसकी जगह ‘लंच’ शब्द प्रयोग मे लाया जाये।
लेकिन, अंग्रेज़ जानते हैं कि इन गुलामों को कभी अक़्ल नहीं आयेगी। वहां के अख़बारों ने हिन्दी में अंग्रेज़ी के शब्दों की मिलावट के, इस सरकारी ‘परिपत्र’ के संकेत पढ़ लिये थे। वहां के अख़बारों की ‘हेडलाइन्स’ यानि कि सुर्खियां थीं- ‘क्वीन्स लैंग्विज विंन्स इंडिया’। क्योंकि, यह परिपत्र, संविधान में सेंध का काम कर रहा था और उन्हें ये भरोसा है कि अगर दरार भी बन गई, वे उसे दरवाज़ा बना देगें। क्योंकि, जो केवल व्यवसाय के लिये आये उन्होंने पूरा देश हड़प लिया था।
दरअसल, अंग्रेज़ी को भारत की अन्य किसी भाषा से भय नहीं हैं। वे केवल हिन्दी से डरते हैं। क्योंकि, यह दुनिया की दूसरी सबसे वड़ी बोली जाने वाली भाषा है। और वे इसकी मृत्यु का पुख़्ता इंतज़ाम कर चुके हैं। क्योंकि, उन्होंने भारत में, हिन्दी की ‘बोलियों’ को ही हिन्दी के खिलाफ़ भिड़ा दिया है। यह रणनीति ब्रिटिश कौंसिल के जोशुआ फिशमैन की बुध्दि की उपज थी कि ‘ लैंग्विज़ वर्सेस डायलैक्ट’ का द्वन्द्व खड़ा कर के ही हिन्दी को कमज़ोर किया जा सकता है। दूसरी बात ये कि वे हिन्दी को ‘हिंग्लिश’ बनाकर रहेंगे और इस पर एतराज उठाने वाले को मुँह तोड़ जवाब देंगे-‘मूर्खो..! तुम्हारे देश का प्रधानमंत्री स्वयम् हमारी अंग्रेज़ी की ही ‘डायलेक्ट’ , हिंग्लिश ’ बोल रहा बोल रहा है।
उम्मीद है, मेरा यह पत्र पढ़ने का आप समय निकालेंगे। वर्ना तो आपकी नौकरशाही, जब इस पत्र का सारांश तैयार कर के आप को बतायेंगे तो निश्चय ही यह पूरा पत्र उनकी निगाह में एक बकवास होगा। लेकिन, यह बकवास नहीं, हिन्दी की आख़िरी हिचकी है। आप के कान इस हिचकी को, भारतीय महाद्वीप के प्रधानमंत्री की तरह सुन पा रहे हैं कि नहीं…..?
(साहित्यकार, चित्रकार, पत्रकार प्रभु जोशी हमारे समय में हमारी भाषा की शानदार हस्ती हैं। हिंदी में जिस तरह का कादो-कीचड़ फेंटकर इसे मुश्किल बताकर आसान बनाने की साज़िश में 'नई वाली हिंदी', 'जनता की मांग के हिसाब से हिंदी', 'स्मार्ट हिंदी' जैसे जुमले गढ़े जा रहे हैं, प्रभु जोशी उनकी पोल कई बरसों से खोलते रहे हैं। ये लेख सौतुक से साभार कॉपी किया गया है। )


रविवार, 17 जून 2018

ज़ी न्यूज़ ने बीजेपी को देश समझ लिया है

असली कविता वही है जो सरकारी चुनाव प्रचार के काम आ जाये। ज़ी न्यूज़ ने अभी से ही 'कवि युद्ध-2019' शुरू कर दिया है। फ को 'फ़' बोलने वाली अंतराष्ट्रीय कवियत्री अनामिका अम्बर जब नरेंद्र मोदी को फूल कहती हैं तो समझ ही नहीं आता कि तारीफ कर रही हैं या विरोध। सुदीप भोला ने कविता के नाम पर अमित शाह को 'शहंशाह' बनाकर फ़िल्मी पैरोडी पेश की है - 'एक मसीहा निकलता है, जिसे लोग अमित शाह कहते हैं'। पीछे कुछ प्रमुख पार्टियों के नेताओं के कट आउट्स खड़े हैं। सिर्फ बीजेपी के दो नेताओं (मोदी-शाह) को जगह मिली है, बाक़ी पार्टियों के एक नेता हैं। बल्कि बीजेपी का मनोज तिवारी तो 'शेरा' बनियान पहनकर 'कवि युद्ध' के ग्राफ़िक्स के सहारे बाहर से भी नम्बर बढ़ा रहा है।इन सबके बाद एक कविता में तो ये कवि 'बुद्धिजीवी' होने का भी मज़ाक बना रहे हैं। 

हे ईश्वर! इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं।

धूमिल, आप ठीक कहते थे -
'वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिये हैं
वे वकील हैं,वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं, नेता हैं, दार्शनिक हैं
लेखक हैं, कवि हैं, कलाकार हैं।
यानी कि- कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।'

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 27 जनवरी 2018

जब चित्तौड़ जल रहा था, एक ब्राह्मण बंसी बजा रहा था


जी हां। और बंसी पर बज रहा था ‘राग यमन। और वो ब्राह्मण था चित्तौड़ का पुरोहित राघव चेतन। राजपूतों ‘की, के लिए और द्वारा’ प्रचारित, पोषित, तोड़ित-फोड़ित इस फिल्म में मुझे इस ब्राह्मण का रोल सबसे ज़्यादा वज़नदार दिखा। आश्चर्य कि करणी सेना की जगह किसी ‘ब्राह्मण सेना’ का उदय फिल्म से पहले संजय लीला भंसाली नहीं जुगाड़ पाए। शायद इसीलिए क्योंकि करणी सेना के पास बचाने को दीपिका पादुकोण थी और ब्राह्मण सेना (जो पूरी तरह से काल्पनिक है) के पास एक निहायत कम पॉपुलर एक्टर।


इससे पहले कि फिल्म के कुछ मुद्दों पर कुछ कहूं, राजपूतों पर मेरा फ़िल्मी सामान्य ज्ञान ज़ाहिर करने का वक्त आ गया है। राजपूत (मर्द) दो प्रकार के होते हैं एक ‘भंसाली सेना’ के राजपूत और दूसरे ‘करणी सेना’ के राजपूत। भंसाली सेना के राजपूत बहुत अच्छे, मज़बूत उसूलों वाले होते हैं। वो एक बार दूसरी शादी कर लेते हैं, फिर अपनी पहली पत्नी से पूरी फिल्म के दौरान बात तक नहीं करते। अपनी औरतों को जौहर (सती) की परमिशन देकर युद्ध में लड़ने जाते हैं। जब भी युद्ध जैसी कुछ गंभीर परिस्थिति आती है वो लंबे-लंबे गाने गाते हैं और 'राजपूत ये-राजपूत वो' करते रहते हैं। करणी सेना के राजपूत को हम डिजीटल इंडिया में देख ही रहे हैं। वो जी डी गोयनका स्कूल की बस के शीशे तक तोड़ देते हैं। उनके डर से स्कूली बच्चे, महिलाएं दुबक कर बैठ जाती हैं। वो अर्नब गोस्वामी के शो में अंग्रेज़ी में बात करते हैं। और अपनी गुंडागर्दी का सही फिल्मांकन नहीं होने पर संजय लीला भंसाली को थप्पड़ भी मारते हैं। 

फिल्म के बारे मेंआप सब फिल्म की रिलीज़ से काफी पहले से हीसब कुछ सुन चुके हैं। इसीलिए मेरे पास बताने को कुछ भी नया नहीं है। हांकरणी सेना को मेरा ये लेख पढ़कर थोड़ा दुख और पहुंचेगा क्योंकि मैं चश्मदीद गवाह हूं कि लाख कोशिशों की बावजूद वो अपनी ‘आनबान और शान’ पद्मावती (दीपिका पादुकोण) को अंबा टॉकीज़ में घूमड़ नाचने से नहीं रोक सके। पद्मावती’ को देखने के लिए 2 D और 3 D ऑप्शन भी उपलब्ध थे। मगर मैंने 13वीं सदी का विकल्प चुना। पुलिस की पीसीआर वैन की निगरानी मेंलंबी लाइन मेंटिकट के लिए घंटो इंतज़ार वाला तरीका। मैं चाहता था कि महारानी पद्मावती का नाच मैं अंबा सिनेमा की फ्रंट लाइन में बैठकर देखूं ताकि करणी सेना के ज़ख्मों पर बोरी भर नमक और पहुंचे। 
रानी पद्मावती पर सब्ज़ी मंडी इलाके की हर जाति के दर्शकों ने तालियां बजाईंसीटियां बजाईहोली में उन्हें राजा रतन सिंह के साथ बहुत अंतरंग होते देखा। फिर भी करणी सेना सब्ज़ी मंडी थाने के पुलिसिया डंडे के डर से चूं तक नहीं बोलने आई। धिक्कार है ऐसे बहादुरों पर।
संजय लीला भंसाली की इस पौने तीन घंटे की फिल्म में ‘राजपूत’ शब्द हर दूसरे मिनट पर एक बार बोल दिया गया है। आज की तारीख में इससे मिलता-जुलता शब्द ‘विकास’ हैजो भक्त किस्म के लोग हर सांस के साथ बोलने के आदी हैं। 
फिल्म इतनी बुरी नहीं जितनी कुछ बुद्धिजीवी बता रहे हैं। और इतनी अच्छी तो बिल्कुल ही नहीं कि बार-बार देखी जाए। भंसाली की इस फिल्म में जहां खिलजी के ग़ुलाम या बेगम मेहरुन्निसा तक को बेहतर स्पेस मिला है, अमीर खुसरो को बेहद नालायक रोल मिला है। खिलजी के किरदार में रणबीर सिंह अच्छे तो हैं, मगर कभी-कभी वो क्रूरता की ओवरएक्टिंग में एक अय्याश जोकर जैसे लगने लगते हैं। जिस ‘पद्मावती’ के लिए पूरी कहानी रची गई, उसने फिल्म में बताया कि  रूप या गुण देखने वालों की आंखों में होता है। तो ‘रानी सा’ के मुताबिक अपनी नज़र से मैं अगर दीपिका पादुकोण को देखूं तो मुझे कहीं से भी वो इतनी सुंदर नहीं दिखतीं जिनके लिए अलाउद्दीन खिलजी तीन घंटे तक अंबा सिनेमा में तूफान मचाता रहे। राजा रतन (शाहिद कपूर) सेन इतने कृशकाय दिखते हैं (यह तेरहवीं सदी का एक शब्द है, जिसका मतलब ‘ज़ीरो फिगर’ होता है) कि उन्हें देखकर राजपूत खानपान शैली पर सहानुभूति ही ज़्यादा होती है।
खिलजी के डायलॉग, नाच-गाने की वजह से फिल्म मज़ेदार दिखती है। राजपूत सेनापति का वो शॉट जिसमें वो गर्दन कटने के बाद भी तलवार भांजता है, रोंगटे खड़े करने वाला है।मगर जैसे ही हम चित्तौड़ प्रवेश करते हैं, वहां एक छत से राजपूत बहादुर इतनी दूर तक देख लेता है, जितनी दूर से चित्तोड़ आने में खिलजी को सुबह से शाम हो जाए। ऐसे ‘दूरदर्शी’, बहादुर लोगों का इतिहास जौहर वाली रानियों के साथ ही लिखा गया, इसीलिए बार-बार इस काम के लिए भंसाली को कोसना ठीक नहीं।

हांसती प्रथा को जिस तरह से उन्होंने भव्य और ग्लैमर दिया है, वो इस निर्देशक की नीयत पर संदेह पैदा करता है। नीयत तो इतनी ख़राब है कि राजपूत (हिंदू) राजकुमार का दूसरी रानी लाना भी अच्छा और खिलजी (मुसलमान) का एक तंदूरी चिकेन खाना भी बुरा होने की निशानी बना कर रख दिया है। नीयत इतनी ख़राब कि राजपूताना का कबाड़ा किया एक ब्राह्मण ने और इल्ज़ाम आया एक मुसलमान (खिलजी) के सर। 

क्लाइमैक्स के नाम पर पूरी बेशर्मी से एक गर्भवती स्त्री, एक नाबालिग़ लड़की को जौहर के लिए जाते दिखाना लगभग अपराध जैसा है। जब तक रतन सिंह खिलजी से लड़ता रहा, पद्मावती का सती प्रथा पर लंबा लेक्चर ख़त्म ही नहीं होता।

अपने क्लाइमैक्स में एक कुप्रथा पर तालियां बजवाकर संजय लीला भंसाली करणी सेना के किसी एजेंट की तरह दिखने लगते हैं।  


(समीक्षा अगर अनावश्यक रूप से लंबी है, तो इसे भी इस फिल्म की राजपूती परंपरा का पालन समझा जाए। जय हो अन्नदाता की!)

निखिल आनंद गिरि 
(सभी तस्वीरें अंबा सिनेमा की)

गुरुवार, 14 सितंबर 2017

'बेस्टसेलर' हिंदी अपनी भाषा में आते-आते 'बिकाऊ' हो जाती है

हिंदी के नाम पर होने वाले दिवस पहले सप्ताह बने, अब पखवाड़ा होने लगे हैं। आप मेट्रो में सफर कर रहे 50 लोगों से पखवाड़े का मतलब पूछ लीजिए, कम से कम 40 लोग इसे पिछवाड़ाही समझेंगे। सरकारी हिंदी ने हमारा हाल ही ऐसा कर दिया है। आप किसी भी संस्थान में ऐसे पखवाड़ों में होने वाले कार्यक्रमों की लिस्ट उठाकर देख लीजिए। वही घिसी-पिटी प्रतियोगिताएं, वही पुरस्कार के नाम पर लार टपका कर भाग ले रहे प्रतिभागी और श्रोताओं-दर्शकों के नाम पर ख़ाली-ख़ाली कुर्सियां। ये ठीक वैसा ही है जैसा भारत सरकार का इस बार का 'स्वच्छता मिशन' जो इस बार सरकारी आयोजनों में नरेंद्र मोदी के जन्मदिन से शुरू होकर महात्मा गांधी के जन्मदिन पर ख़त्म होगा।

अभी कुछ दिन पहले हिंदी का सबसे ज़्यादा बिकने वाला अखबार दैनिक जागरणएक बेस्टसेलरलिस्ट लेकर आया। यह हिंदी साहित्य के बेस्टसेलर साहित्य की सूची थी (कहानियां, लेख आदि)। इस अखबार ने इस महान सूची को तैयार करने में इतनी रिसर्च की, इतनी रिसर्च की कि एक ही प्रकाशक की सात किताबें टॉप टेन में शामिल करनी पड़ीं। प्रकाशक भी ऐसा कि कभी हिंदी को ख़ूनदेने के मिशन के नाम पर शुरू किया गया शैलेश भारतवासी का हिंदयुग्म छपास लेखकों की जेब चूसकर हिंदी का बेस्टसेलर प्रकाशक बन गया। एक ऐसा प्रकाशक जहां कहानियां बाद में लिखी जाती हैं, राइटर बाद में तय होते हैं, ऑनलाइन प्री-बुकिंग पहले शुरू हो जाती है। हिंदी को कैलेंडर से उतारकर ऐसे बेस्टसेलर समय ने पांव पोंछने वाली दरी बना दी है। आप हिंदी के सीईओ बन जाइए और अपने आसपास हिंदी का झंडा लेकर चार बाउंसरलेखक-आलोचक रख लीजिए। थैंकयू।

सोशल मीडिया एक बची-खुची उम्मीद के तौर पर है। मगर सोशल मीडिया पर अच्छा ढूंढने के चक्कर में  इतनी कविताएं हैं, इतनी हिंसा है, इतना ख़ून-ख़राबा है कि वहां भी बड़ेलोगों के लाइक के लायकसिर्फ वही हैं, जो असल दुनिया में एक-दूसरे के चाटुकार कुनबे का हिस्सा हैं। मिसाल के तौर पर एक हिंदी साहित्यिक पत्रिका के संपादक की कहानी बताता हूं। एक बार उनके दफ्तर में कुछ कविताएं भेजीं। फिर तीन महीने बाद उन्हें याद दिलाया कि सर, कुछ कविताएं भेजी हैं। उन्होंने कहा, हमारे सहायक से बात कीजिए। फिर मैं सहायक से अगले छह महीने बात करता रहा। सहायक भी बात करते रहे। फिर उन्हें सोशल मीडिया पर मैसेज किया कि सर, बात करते-करते आपके सहायक मेरे अच्छे मित्र हो गए हैं। अब कविताओं का क्या करूं। उनका जवाब आज तक नहीं आया। आप संपादक का नाम एकांत श्रीवास्तव से लेकर लीलाधर कुछ भी रख लीजिए, क्या फर्क पड़ जाएगा। सोचिए अगर ब्लॉग न होता, दो-चार भले संपादक और न होते तो इमानदार कवियों का ये पखवाड़े क्या उद्धार कर लेते।

कवियों से एक बात और याद आई। इस बार हिंदी पखवाड़े में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) जाना हुआ। एक कविता प्रतियोगिता के जज के तौर पर। वहां क़रीब 65 कवि थे! मतलब कि देश के सबसे लोकप्रिय मीडिया संस्थान में हर संभावनाशील पत्रकार हिंदी का कवि होना चाहता है। मै चाहता हूं कि हिंदी के संवेदनशील लोग या कवि मीडिया चैनलों तक थोक भाव में पहुंचे वरना आपके घर में होने वाली सबसे बुरी घटनाओं को सबसे मसालेदार बनाकर हिंदी एंकर आपके मुंह में माइक ठूंस कर मुस्कुराते रहेंगे।   

ज़्यादा लंबी छोड़िए, चलते-चलते इतना बताइए, पिछली बार से इस बार तक में कितने नेताओं, अधिकारियों, हिंदी प्रेमियों ने अपने बच्चों को हिंदी मीडियम स्कूल में दाखिला करवाया और फेसबुक पर स्टेटस डाला। अगर आपका जवाब 'ना' हा तो मुझसे पलटकर सवाल मत कीजिएगा वरना हिंदी में एक गाली निकल जाएगी।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 15 अगस्त 2017

मेरा देश बदल रहा है

'मेरा देश बदल रहा है
मेरा देश बदल रहा है..

देश का नक्शा मुंह दाबे,
बन्दर अदरक को चाभे
छम छम उछल रहा है
मेरा देश बदल रहा है।

बेदम बचपन बेचारा
जिसने मिलजुलकर मारा
दिल्ली टहल रहा है
मेरा देश बदल रहा है।

कवियों को चालाकी दो,
डुबकी दो, तैराकी दो
बच के निकल रहा है
मेरा देश बदल रहा है।

जनता को मत राशन दो
ठूंस ठूंस के भाषण दो
ये ही अमल रहा है
मेरा देश बदल रहा है।

अपने धन पर ताले हैं
काले धन को पाले हैं
सच अब निकल रहा है
मेरा देश बदल रहा है।

सूरज को गप से खा लो
राजा का मुंह झरका दो
ज़हर उगल रहा है
मेरा देश बदल रहा है।
मेरा देश..'

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 11 जुलाई 2017

बीमार होती दुनिया को सिर्फ पोएट्री नहीं, ‘पोएट्री क्लीनिक’ की ज़रूरत है

कोई मन्नत अरमान हैं फेसबुक पर। कुछ महीने पहले मेरी आवाज़ में रिकॉर्ड करने के लिए कुछ कविताएं भेजी थीं। मैंने कारण पूछा तो बताया कि आपकी आवाज़ की गोलियां बनाकर मरीज़ों का इलाज करेंगी। मैंने कविताएं देखीं तो वो कुछ ख़ास तरह की कविताएं थीं। हीलिंग टचवाली। फिर एकाध रिकॉर्डिंग्स भेज दी और भूल गया।
कल रात को अचानक एक इनबॉक्स मैसेज आया कि कविताओं की एक नई क्लीनिक खुली है 'POETRYCLINIC' के नाम से। देखा तो बड़ा अच्छा लगा। वेबसाइट की टैगलाइन है - 'Poerty that heals'। पोएट्री क्लीनिक (www.poetryclinic.com) के पेज पर जब आप जाएंगे तो लगेगा किसी क्लीनिक में आ गए हैं। सारे सेक्शन के नाम कुछ इस तरह मिलेंगे – ओपीडी’, ‘साउंड थेरेपी, विज़ुअल थेरेपी, मेडिकल स्टोर आदि। कमाल का डिज़ाइन लगा मुझे।
ऐसा नहीं कि साहित्य पर बात करने वाली वेबसाइट्स नहीं हैं, कविताओं पर ज्ञान रखने वाले पोर्टल या पेज नहीं हैं, मगर बीमार होती जा रही दुनिया का इलाज करने के मकसद से हिंदी में कोई इस भोलेपन से मेहनत कर रहा है, इस बात की तारीफ करनी चाहिए। हिंदी कविता की दुनिया में लड़ाइयां बहुत हैं, छपास बहुत है, टांग-खिंचाई बहुत है, ख़ेमेबाज़ियां बहुत हैं, मगर कविताओं से इलाज की उम्मीद करने वाले लोग बड़े कम हैं।
नए-पुराने सब तरह के कवि मिलेंगे इस अनोखी वेबसाइट पर। कुंवर नारायण, अशोक वाजपेयी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से लेकर अविनाश मिश्र और विपिन चौधरी तक। सिर्फ हिंदी ही नहीं विश्व कविताओं का भी एक कॉलम है। दिन के हिसाब से कविताओं की गोलियां हैं। नए कवियों को न्यू हीलर्सबताया गया है तो पुराने कवियों को मंजा हुआ डॉक्टर। सब मिलकर इस दुनिया का इलाज करेंगे।
इसके लिए वेबसाइट पर जाना पड़ेगा। अगर आपको लगता है कि आपके आसपास कोई कविताओं की दवाई से जी उठेगा तो मेडिकल स्टोर सेक्शन से अपनी पसंद की कविता अपने घर ले जाइए, या फिर अपने दोस्त को गिफ्ट कर सकते हैं।
पोएट्री क्लीनिकअपने परिचय में कहती है – हमें ऐसा लगता है कि कविता ही हमें बचाएगी। अगर आपको भी ऐसा ही लगता है, तो हमसे जुड़े रहिए। ऐसा नहीं लगता है, तो कुछ देर यहां रुककर देखिए, शायद आपको भी लगे कि कविताओं के पास वो ताकत है कि वो हमें बचा सकती है, बशर्ते हम बचना चाहें। हैप्पी पोएट्री!
पोएट्री क्लीनिक के बारे में बहुत ज़्यादा नहीं जानता, मगर इससे जुड़ गया हूं। किसी भी इमानदार कोशिश के साथ जुड़ना अच्छा लगता है। आप भी इस टीम का हौसला बढाइए। पोएट्री क्लीनिक की पूरी टीम को बधाई।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 23 जून 2017

इस देश का हर दर्शक ‘ट्यूबलाइट’ है, जिसे सलमान खान पसंद है

जिस तरह गांधीगिरी पर संजय दत्त का कॉपीराइट है, परफेक्शन वाली भूमिकाओं पर आमिर खान का, हाथों के विस्तार से प्रेम रचने पर शाहरूख ख़ान का, उसी तरह बेसिरपैर की फिल्मों का कॉपीराइट सिर्फ और सिर्फ सलमान खान पर है। आप दबंग देख लें, दबंग-2 देख लें या कोई भी सलमान की फिल्म, बंदे को यक़ीन है कि फिल्म में कहानी का लेवल गिरता जाएगा और दर्शक झक मार कर आते रहेंगे।

तो इस तरह ट्यूबलाइटसलमान के यक़ीन की फिल्म है, जिसे इस बार ईद तो क्या नरेंद्र मोदी भी फ्लॉप होने से नहीं बचा पाएंगे, ऐसा मेरा यक़ीन है। फ्लॉप-हिट तो ख़ैर अपनी जगह है, फिल्म में बेवकूफी का भी एक लॉजिक होता है, जो सलमान की फिल्मों में नहीं है। अच्छा हुआ कि वो इस फिल्म के प्रोड्यूसर ही बने, निर्देशक नहीं वरना एकाध अच्छे गाने और सुंदर कैमरा भी दर्शकों को नसीब नहीं होता।

फिल्म की कहानी कुछ नहीं है। आप सलमान को देखने जा रहे हैं और आधे घंटे में ही फिल्म में शाहरूख खान नज़र आने लगते हैं।  फिर शाहरूख एक बोतल को लेकर अटक जाते हैं कि सलमान की फिल्म है तो वो इस बोतल को भी नचा सकता है। जब तक बोतल नहीं नाचती, शाहरूख फिल्म से जाते ही नहीं। फिल्म में गांधीजी भी आ जाते हैं। वो फिल्म से अंत तक नहीं जाते। सलमान ने उनकी कही बातों की चिट बना ली है और वो गांधी जी के नाम पर दर्शकों के साथ वही करता है जो देश की हर बड़ी हस्ती आम लोगों के साथ करती आई है। गांधी के नाम पर उल्लू बनाने के क्रम में सलमान ख़ान इतनी बार भारत माता की जय चिल्लाता है कि दोबारा भी अगर हिरण को मारने का मुकदमा चले तो वो बाइज्ज़त बरी कर दिया जाए।

अब आते हैं फिल्म की बची-खुची कहानी पर। 1962 के दौरान भारत-चीन के बीच जंग में कुमाऊं के एक पहाड़ी गांव से भरत सिंह बिष्ट सेना में शामिल होकर लड़ने जाता है। उसका भाई, यानी सलमान खान, जो दिमाग से थोड़ा कमज़ोर है, अपने भाई के लौटने का इंतज़ार करता है। इस बीच एक चीनी मूल के मां-बेटे उसी गांव में रहने आ जाते हैं। सलमान को उनमें दुश्मन दिखते हैं, मगर ओम पुरी गांधी के पक्के चेले हैं, सो सलमान को चीनी दुश्मनमें भी दोस्त देखने पर यक़ीन करवाते हैं। यहां पर मुझे जितेंद्र की एक फिल्म हातिमताईयाद आती है, जिसमें राजकुमार हातिम सात सवालों की खोज में निकलता है और एक-एक सवाल को डीकोड करते हुए एक परी को मुक्त करता जाता है। यहां सलमान वो ट्यूबलाइटहातिम है और गांधी जी के वचन को डीकोड करता जाता है।

‘FAITH MOVES MOUNTAINS’ जैसी कहावत की बत्ती बनाती हुई सलमान की इस फिल्म में दिखाया गया है कि अगर कुंग फू वाले पोज़ में कोई पहाड़ों की तरफ घूर कर देखता रहे तो भूकंप भी ला सकता है। और तो और पूरब दिशा की तरफ इसी पोज़ में देखते रहने की वजह ही भारत-चीन की जंग भी ख़त्म हुई थी। यक़ीन न हो तो 1962 के दैनिक जागरण का कुमाऊं संस्करण देख लीजिए। मुझे यकीन है इसी दैनिक जागरण में ख़बर छपेगी कि एक दिन किसी हिंदू हृदय सम्राट ने सलमान वाले पोज़ में संसद की छत पर खड़े होकर भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया है।

सलमान खान जब फिल्म के अंत में एक भावुक सीन में रोते हैं तो इस नादान दर्शक को भी रोना आता है। मगर वो खुशी के आंसू हैं कि जैसे-तैसे ये फिल्म ख़त्म तो हुई। मुझे यक़ीन है कि इसी फिल्म में काम करने की वजह से ओम पुरी को दिल का दौरा पड़ा और वो फिल्मी ही नहीं पूरी दुनिया को छोड़ गए।

अंत में मैं उस प्रोमोकोड का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं जिसकी वजह से इस फिल्म को देखने के लिए कम पैसे देने पड़े। 

निखिल आनंद गिरि
ज़िंदगी को दोबारा जीने का मौका मिलता तो भी मैं शायद इसी तरह जीता। इतनी ही बेतरतीब, इतनी ही उलझन भरी। जीने का शायद यही एक अंदाज़ मुझे पता है। जिसमें तुम हो, मुझे बार-बार ठुकराती हुई। मैं हूं, खुशी-खुशी ख़ारिज होता हुआ। और कुछ जीना भी होता है क्या।
मैंने चिट्ठियां लिखनी छो़ड़ दी हैं। चिट्ठियां आती भी नहीं। उम्मीद भी नहीं आती। अब तो तुम्हारा पता भी याद नहीं। जाने कौन-से शहर में तुम्हारी रौनके होंगी। अपना तो यहीं है। एक उदास कोना किसी कमरे का। शहर-दर-शहर यहीं से देखता रहा तुम्हें। सोचता रहा। मन मसोसता रहा।
मेरी एक बेटी है। कभी-कभी गुस्से में बात नहीं करती। तो मैं उसे देखकर मुस्कुरा उठता हूं। तुम भी जब रुठती थीं तो ऐसे ही रूठती थीं। हम घंटो बात नहीं करते थे। दो भले लोगों को रूठना बहुत बुरा होता है। बहुत ही बुरा।

जैसे आजकल हालात हैं ज़िंदगी मौत से ज़्यादा दिलचस्प हो गई है। ंमैं रोना भूल गया हूं। जैसे तुम मुझे। 

निखिल आनंद गिरि

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