सोमवार, 16 जुलाई 2012

कई संपादक अब चीयरलीडर होते जा रहे हैं..


राजदीप सरदेसाई
भारतीय पत्रकारिता की सबसे बड़ी हस्तियों में से एक स्व प्रभाष जोशी की 76वीं सालगिरह पर उन्हें याद करते हुए CNN-IBN के एडिटर-इन-चीफ राजदीप सरदेसाई से हुई हमारी (प्रेम भारद्वाज और मेरी) ये  बातचीत पाखी पत्रिका के प्रभास जोशी विशेषांक में छपी है...चूंकि राजदीप अंग्रेज़ी के पत्रकार हैं, तो इस पूरी बातचीत को लगभग हिंदी में उतारने का काम आपके इस ब्लॉगर साथी निखिल आनंद गिरि ने किया है..आप पढ़कर अपनी राय दे सकते हैं...


हम ये जानना चाहेंगे कि प्रभाष जोशी जिस मूड की पत्रकारिता करते थे, जिस सरोकार की,या मूल्यों की..या फिर जिनसे उनकी टकराहटें थीं..उस तरह की पत्रकारिता में उनके जाने के बाद जो वैक्यूम या शून्यता पैदा हुई है..या क्या हुआ है? वो चीज़ें बढ़ी हैं, घटी हैं...किस रूप में देखते हैं उनकी पत्रकारिता को...
देखिए, मैं..25 साल का था 1990 में और मुझे मेरे अख़बार टाइम्स ऑफ इंडिया ने तब कहा, आडवाणी जी की जो रथयात्रा थी, उसको आप रिपोर्ट कर लीजिए..समय था 1990 का और सोमनाथ से लेकर भोपाल तक मैंने वो रथयात्रा कवर की थी। उस समय पहली बार मैंने प्रभाष जोशी के जो लेख थे, उस समय, वो पढ़े और काफी प्रभावी रहे मेरे लिए। क्योंकि जिस तरह का माहौल बन रहा था, जिस तरह का, एक तरह से एक नई सोच आ रही थी, उस पर या तो ज़्यादातर लोग उस लहर में आकर उसके साथ चल रहे थे या तो हम केवल उसको देखकर रिपोर्ट कर रहे थे। प्रभाष जोशी, उस समय जिस तरह से उन्होंने उस समय पत्रकारिता की, जिस तरह के लेख लिखे, उस लहर से एक तरह विपरीत होकर, उसमें आखिर में बड़ी तस्वीर क्या है..क्या हो रहा है देश में, किस वजह से इतने लोग बाहर आ रहे हैं आडवाणी की रथयात्रा के साथ..और उस रथयात्रा और भारतीयता और राष्ट्रवाद के जो प्रश्न उठ रहे थे, उन पर जिस तरह से उन्होंने सवाल उठाये, जिस तरह के लेख लिखे, उस पर एक रिपोर्टर की हैसियत से मैं प्रभावित रहा। और फिर आप देखेंगे कि 1991-92 का जो पूरा पीरियड है, मस्जिद की डिमॉलिशन (विध्वंस) तक...लगातार उन तीन सालों में जो लेख उन्होंने लिखे, उसमे एक चीज़ साफ थी कि राष्ट्रवाद की जो उनकी एक कल्पना थी..


उस पर उन्होंने एक किताब भी लिखी बाद में...
हां, किताब भी लिखी..लेकिन जनसत्ता में जो उन्होंने उस वक्त आर्टिकल्स (लेख) लिखे, सबसे बड़ा सवाल उन्होंने यही पूछा था कि राष्ट्रवाद यानी क्या। ये नेशनलिज़्म (राष्ट्रवाद) पर जो डिबेट (बहस) होना चाहिए, वो किस तरह का डिबेट होना चाहिए। सेक्युलरिज़्म पर, धर्मनिरपेक्षता क्या है..और अच्छी बात क्या थी कि वो केवल एक इंग्लिश स्पीकिंग, वेस्टर्नाइज़्ड एजुकेटेड (अंग्रेज़ी बोलने वाले, पश्चिम से प्रभावित शिक्षाप्राप्त) जो एक क्रिटिसिज़्म (आलोचना) होती है उस मूवमेंट की, उस नज़रिए से वो नहीं लिख रहे थे। वो लिख रहे थे, वो ख़ुद एक रिलीजियस (धार्मिक) आदमी थे, He was proud of his Hinduism, वो कोई Atheist नहीं थे। तो उन्होंने...क्या कहेंगे उसको...He was rooted in the reality of India..उनका जो 40-50 साल का अपना तजुर्बा था, उन्होंने उसको लेकर जो लिखा है, मुझे लगता है शायद बहुत कम ऐसे लोग होंगे जिन्होने उस समय , उस हालात में उस तरह की writing (पत्रकारिता) की हो।
और ये करना जब उनके पर्सनल रिलेशन्स (निजी संबंध) बड़े अच्छे थे। आडवाणी जी के साथ, अटल जी के साथ...क्योंकि इमरजेंसी में उनका रोल रहा था। प्रभाष जी इन सबको जानते थे। लेकिन, मुझे लगता है कि उन्होंने पत्रकारिता में ये दिखाया कि मेरे पर्सनल रिलेशन जो भी हों, लेकिन मेरे लिखने पर उसका कोई असर नहीं होगा। और आपको मैं अगर क्रिटिसाइज़ (आलोचना) करता हूं तो मैं मेरी neutral independent position से, मुझे जो सही लगता है, उस हैसियत से करता हूं। क्योंकि एडिटर या एक कमेंटेटर की जो विशेषता होती है, कि आप जब किसी इशु (मुद्दे) पर लिखते हैं, आप उसे अपने पर्सनल इक्वेशन (निजी संबंधों) से दूर रखकर एक बड़ी तस्वीर लोगों के सामने लाने की कोशिश करते हैं। तो जिस एग्रेशन (आक्रामकता) से उन्होंने लिखा, जिस डायरेक्शन (नज़रिए) से लिखा..हालांकि, कुछ लोग कह सकते हैं कि वो उनके लिए एक 'finest hour' था। कई लोग कहते हैं कि इमरजेंसी में जिस तरह से उन्होंने जुड़कर जेपी के साथ काम किया था, वो तो बात अलग है..लेकिन उन दो-तीन सालों में जो उन्होंने लगातार लेख लिखे और जिस तरह से उन्होंने प्रश्न उठाए, एक तरह से 'That would be his finest hour' हम कह सकते हैं।


अच्छा, क्रिकेट भी तो आप दोनों के बीच कॉमन रहा होगा।
जवाब - हां, वो क्रिकेट के बहुत शौकीन थे। जब मैं उनसे पहली बार मिला तो हमने क्रिकेट पर कई बातें की। और वो मेरे पापा (दिलीप सरदेसाई) के बहुत शौकीन थे। तो, कई बार मैं जब बात करना चाहता था 91-92 में जो हो रहा था, उस पॉलिटिक्स की, और वो बात करने लगते थे क्रिकेट की। मुझे ये भी हमेशा अच्छा ही लगता था। वो शायद तब की बात है जब मैं एक बार उनके साथ एक दौरे पर गया था, शायद पीएम का दौरा रहा होगा या ऐसा ही कुछ, तो मैं लगातार उनसे बात करना चाहता था पॉलिटिक्स के बारे में और वो बात करना चाहते थे क्रिकेट की।


और कोई ख़ास बात जो याद हो...
उन्होंने कभी ऐसा नहीं सोचा कि कोई यंग है या बुजुर्ग है..कभी उनमें ऐसी भावना नहीं थी। और वो मराठी बड़ा अच्छा बोलते थे। मुझे लगता है ये उनका इंदौर का प्रभाव रहा होगा कि वो हमेशा मुझसे मराठी में बोलते थे। मैं सवाल उनसे हिंदी में पूछता था मेरी हिंदी बेहतर करने के लिए और वो जवाब हमेशा दिया करते थे मराठी में। तो ये दो-तीन बातें मुझे उस समय की याद हैं। फिर लगातार संपर्क रहा उनसे। उनसे सीखने का काफी मौका मिला मुझे। उनमें कभी bitterness (कड़वाहट) नहीं देखी। उनमें हमेशा ये था कि उनका जो एक्सपीरिएंस था, वो हमेशा लोगों से बांटना चाहते थे। पिछले पांच-छह सालों में जो उनको गुस्सा आया होगा, वो मुझे लगता है, पेड न्यूज़ को लेकर।


हां, आपसे भी काफी टकराहटें हुई थीं इसे लेकर?
हां, कि पेड न्यूज़ क्या होना चाहिए। किस तरह का होना चाहिए। पेड न्यूज़ का मतलब क्या है। मेरा हमेशा ये कहना था कि disclosure (खुलासा) होना चाहिए। कि अगर आप कोई ख़बर कर रहे हैं और उस ख़बर के पीछे 'कोई' है तो आपको ज़रूर ये बताना चाहिए। उनको लिए तो पूरी तरह से Advertising (विज्ञापन) ही...

आपके क्या मतभेद रहे?
नहीं, मतभेद नहीं थे। मुझे लगता है कि उन्हें लगा कि कहीं न कहीं जो आज की पत्रकारिता इतनी भटक गई है..उन्हें डर था पेड न्यूज़ की वजह से आज की पत्रकारिता भटक गई है। मेरा ये कहना है कि आज के ज़माने में आप मार्केटिंग से दूर नहीं रह सकते। आप बेशक पेड न्यूज़ करें। मेरा कहना था कि आप लोगों के सामने डिस्क्लोज़र करें। आगर आपकी कोई ख़बर है और उसके पीछे किसी की स्पांसरशिप है तो लोगों को बताइए। आप सीधा रखिए। मैं आज भी वही मेंटेन करता हूं, कि पूरा डिस्कलोज़र होना चाहिए। पेड न्यूज़ तब है, जब आप लोगों से छल करते हो कि किसी के नाम से आप ख़बर छपवा लो और उसकी जानकारी viewer को नहीं दो। वो एक ऐसे ज़माने के पत्रकार थे जिसमें उनको मार्केंटिग और एडवर्टाइज़िंग (विज्ञापन) से कोई लेना-देना ही नहीं था।

मतलब, बाज़ार के खिलाफ था एकदम?
राजदीप - हां, उनको लगा एकदम बाज़ारीकरण हो रहा है। कमर्शियलाइज़ेशन हो रहा है। मेरा ये कहना है कि कमर्शियलाइज़ेशन को हम पूरी तरह से नकार नहीं सकते। और इसके कुछ benefits (फायदे) भी हैं। वो ज़माना चला गया कि आप जर्नलिज़्म को उस तरह से देख सकें। दुनिया कमर्शियल हुई है। क्या पत्रकार उससे पूरी तरह से हट सकता है। नहीं। क्या पत्रकार अलग रह सकता है। ज़रूर। पत्रकार अलग इस तरह से रह सकता है कि बाज़ारीकरण जो हो रहा है, उसमें आप मार्केंटिंग और एडिटोरियल में एक फर्क तो ज़रूर रखना पड़ेगा। एक चाइनीज़ वॉल रखनी ही पड़ेगी। उनका कहना था कि कोई ज़रूरत नहीं है एडवर्टाइज़िंग की। एडवर्टाइज़िंग से हमें कोई लेना-देना नहीं है। मेरा ये कहना है कि एडवर्टाइज़िंग से आपको कहीं न कहीं एक रिलेशनशिप बनानी पड़ेगी। लेकिन, उस रिलेशनशिप में आपका अपना दायित्व, अपना कर्तव्य viwer या पाठक के पास है, किसी एडवर्टाइज़र के पास नहीं है। तो आपके पास कोई ख़बर है तो वो ख़बर रहती है, आप कोई पीआर नहीं कर रहे। इसमें और उनमें कोई मतभेद नहीं है। उनका इतना ही कहना था कि ये जो भी हो रहा है वो बाज़ारीकरण है। और मैं समझता हूं कि हर चीज़ को अगर हम बाज़ारीकरण के रूप में लें तो वो ग़लत होगा।

वो मीडिया के कारपोरेटाइज़ेशन के सख्त खिलाफ थे।
हां, मगर मेरा ये कहना है कि आप कारपोरेटाइज़ेशन को अगर रावण की तरह देखा करोगे, हर चीज़ जो कॉरपोरेट इंडिया करता है, वो ग़लत है तो ये भी कहना ग़लत होगा, मुझे लगता है। हां, उसके कई निगेटिव पहलू भी आए हैं। पेड न्यूज़ उनमें से एक है। पेड न्यूज़ के खिलाफ हम भी हैं, वो भी थे। मुझे लगता है पेड न्यूज़ किसी भी हालत में हमें मंज़ूर नहीं है। मगर पेड न्यूज़ की परिभाषा क्या है। पेड न्यूज़ मेरे ख़याल में वो है जबकि आप न्यूज़ छपवाते हैं किसी के इशारे पर और वो अपने पाठक या दर्शक को बताते नहीं हैं। उनकी परिभाषा में कोई भी ख़बर जिसमें एडवर्टाइज़र किसी भी तरह से शामिल हो या कोई प्रोग्राम स्पांसर्ड (प्रायोजित) हो, वो सब....

लेकिन, वो जिस हद तक ख़िलाफ थे पेड न्यूज़ के, वो पूरी आज़ादी से स्टैंड ले सकते थे, लेते रहे। आप उस आज़ादी से खिलाफ नहीं हो सकते। आप पर कहीं न कहीं से 'प्रेशर' (दबाव) रहेगा।
मुझे नहीं लगता। मैं तो दूसरी तरफ से देखता हूं। आपका प्रेशर तब कम होता है जब आप कमर्शियली स्ट्रांग (आर्थिक स्थिति मज़ूबत) हैं। आज ख़ास कर के रीजनल मीडिया में क्या हुआ है। रीजनल मीडिया में पेड न्यूज़ ज़्यादा क्यों बढ़ गया है। क्योंकि रीजनल मीडिया एक तरह से फाइनेंशियली इंडिपेंडेंट (आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर) नहीं है। जब तक आप इंडिपेंडेंट (आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर) नहीं है, तब तक आपको डर हमेशा रहेगा कि एडवर्टाइज़र जो है, वो डिक्टेट करेगा। आप कॉरपोरेटाइज़ेशन को ग़लत देखोगे तो मुझे लगता है कहीं न कहीं हम मिसटेक कर रहे हैं। मैं इस बात की...ये जो ख़बरें चलती हैं कभी-कभी टीवी पर, क्या ये कॉरपोरेटाइज़ेशन की वजह से हैं। कि शाहरुख को कहीं मोच आई या आप बिहार के फ्लड्स(बाढ़) की ख़बर नहीं करेंगे, कोई प्रेम कहानी करेंगे। तो मेरा उनसे उतना ही कहना था कि ये जो डिक्लाइन (पतन) हुई थी, और हमारे मीडिया में डिक्लाइन हुई है। एडिटोरियल पेज पर डिक्लाइन हुई है। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबार में जो एडिटोरियल एक समय मज़बूत था, अब कमज़ोर हुआ है। उसकी वजह कॉरपोरेटाइज़ेशन नहीं है। उसकी वजह है कि हमारी जो रीढ़ है, हमारी जो बैकबोन है, वो कमज़ोर हुई है। हम ख़ुद कमज़ोर हुए हैँ। हम एक तरह से कॉरपोरेटाइज़ेशन का एक्सक्यूज़ (बहाना) दे रहे हैं कि सब कुछ (ग़लत) कॉरपोरेटाइज़ेशन की वजह से ही हो रहा है। तो वहां, उनमें और मुझमें थो़ड़ा फर्क था। उनका कहना था कि कॉरपोरेटाइज़ेशन को किसी भी हालत में आने नहीं देना चाहिए। मेरा ये कहना है कि कॉरपोरेटाइज़ेशन को आप अकेले ज़िम्मेदार मत ठहराइए। मीडिया में जो डिक्लाइन हो रहा है, उसके लिए हम उतने ही ज़िम्मेदार हैं, जितने कॉरपोरेट्स।

उस दौर की संपादकीय टीम में और आपके दौर की एडिटोरियल टीम में कैसा फर्क आया है। ख़बरों के चयन को लेकर जो बदलाव आए हैं, वो क्या यहीं से नहीं शुरू होते।
देखिए, एक तो मुझे लगता है कि ज़माना बदल गया है। आज मार्केट कांपटीशन बहुत है। कॉरपोरेटाइज़ेशन नहीं मार्केट कांपटीशन। टीवी चैनल जो हैं। अब आप 20-30-40 चैनल लाएंगे, हर चैनल अगर ब्रेकिंग न्यूज़ कर रहा है तो कहीं न कहीं आपका जो दिमाग है, वो ब्रेकिंग न्यूज़ की दुनिया में चला जाता है। वो ख़बरों से दूर हटकर नहीं देखता कि बड़ी तस्वीर क्या है। आप सिर्फ उस समय को भुनाने के चक्कर में चले जाते हैं। और छोटी ख़बर को बड़ी ख़बर करना कैसे है। क्योंकि दर्शक तो एक है। चैनल 25-30 हैं। तो उसको कैसे अपनी तरफ खींचें। और दर्शक का अटेंशन स्पैन (रुके रहने का सब्र) जो है, वो भी कम हुआ है। उसके पास दो घंटे नहीं हैं। जैसे एक ज़माने में पांच दिनों के टेस्ट मैच हुआ करते थे, आज टी-20 है। उसी तरह टीवी में भी हुआ है। एक ज़माने में आप एक घंटे की डॉक्यूमेंट्री करते थे, आज लोग चाहते हैं कि उनको सौ ख़बर दे दो एक मिनट में।


लेकिन, अख़बार क्यों टीवी बनता जा रहा है?
क्योंकि, अख़बार एक तरह से उस टीवी के प्रेशर में आकर, कि यही मेरा भी जो पाठक है, वो मेरे साथ एक घंटा नहीं गुज़ारेगा, उसके पास सिर्फ दस मिनट का समय है। तो आप जो ख़बर हज़ार शब्दों में देते थे 10-15 साल पहले, वही आप उसको सौ अक्षरों में दे दो। कहीं न कहीं टीवी का दबाव तो है। पर, मैं फिर कह रहा हूं कि इसके लिए ज़िम्मेदार हम हैं। हम इससे दूर हट सकते हैं। मैं अभी भी समझता हूं कि इतने बड़े देश में ऐसे भी दर्शक या पाठक होंगे जो चाहते हैं कि आप उनको अच्छी ख़बरें दें। आप उनको ख़बरें सोच-समझ कर दें।

लेकिन, यहां फिर वहीं लोग टीआरपी का रोना रोने लगते हैं।
देखिए, जर्नलिज़्म बॉक्स ऑफिस नहीं है। हमें ये बात अच्छी तरह से समझनी होगी। ये बॉक्स ऑफिस नहीं है कि हम हफ्ते के हफ्ते अपनी कलेक्शन देखें। और मैं समझता हूं कि यही एडवर्टाइज़र भी चाहेगा। कोई भी एडवर्टाइज़र किसी चड्डी-बनियान चैनल के साथ जुड़ना नहीं चाहेगा। एडवर्टाइज़र भी चाहता है कि सबसे बड़ी चीज़ हो उस चैनल या अख़बार की विश्वसनीयता। और विश्वसनीयता कोई एक हफ्ते में नहीं बढ़ती। विश्वसनीयता पाने के लिए आपको दिन पर दिन, साल भर साल लगे रहना होगा। हर दिन लोगों को दिखाना पड़ेगा कि किस तरह की ख़बर होती है। असम में बाढ़ आई तो इसका मतलब नहीं कि आप उसको फर्स्ट हेडलाइन (पहली ख़बर) नहीं बनाएंगे। दिल्ली में सात लोग मरते हैं आग में, आप उसको टॉप हेडलाइन बनाते हैं। असम में सौ लोग मरते हैं बाढ़ में, आप उस पर ध्यान नहीं देते। मेरा आपसे कहना है कि किसने आपको कहा कि असम की हेडलाइन मत बनाओ पहले। दर्शक तो नहीं कह रहा है। आप सोच रहे हैं कि दर्शक सिर्फ दिल्ली की ख़बर देखना चाह रहा है। मैं हमेशा ये कोशिश करता हूं कि इस तरह का 'daring' (चुनौतीपूर्ण) कदम लिया जाए। हमने कल अपनी पहली हेडलाइन असम बनाई थी। आज हमने बिजली के संकट को पहली हेडलाइन रखी है। कौन कहता है कि आप न बनाएँ। ताक़त तो आपके पास है। हां, ये हो सकता है कि कोई कहे, यार ये ख़बर सेक्सी नहीं है, चलेगी नहीं। पर अगर हम इस तरह से सोचें तो बेहतर है पिक्चर बनाएँ फिर। हम फिल्म बनाएं राउडी राठौर जैसी। हमें फिल्म बनानी है या हकी़कत दिखानी है, ये तय करना होगा।

यानी बाज़ार भी है, आपसी रेस भी है, और क्या संकट हैं पत्रकारिता के?
संकट तो हैं। ऐसा नहीं है कि सब कुछ इतना आसान है। कल अगर टीआरपी गिरी तो मार्केटिंग वाला एडिटर पर दबाव ज़रूर डालेगा, ये बात सही है। लेकिन कहीं न कहीं हमें उस मार्केंटिग वाले को भी सिखाना पड़ेगा कि आपके लिए भी, आपका जो स्पांसर है, वो विश्वसनीयता देखकर ही आपके पास आएगा।

तो इतने 'डेयरिंग' (साहसी) संपादक अब हैं कहां?
वही तो मुसीबत है ना। हुआ क्या है कि जो मैनेजमेंट है, उसने संपादक का जो रोल है, उसे ख़त्म कर दिया है। हमारी सेल्फ रिस्पेक्ट...। प्रभाष जोशी जो थे, एक ऐसे संपादक थे, जिनके पीछे गोयनका (रामनाथ गोयनका) भी थे, और उनसे मार्केटिंग वाले मिलने से डरते थे, कि प्रभाष जोशी जी हैं। एक 'वेट' (क़द) था। आज भी किसी संपादक के पास 'वेट' हो तो मार्केटिंग वाला दो बार सोचेगा उससे टकराव करने की। पर चूंकि मैनेजमेंट और मार्केंटिंग वालों ने ऐसे संपादकों या पत्रकारों को ख़त्म करने की कोशिश की है,जिस वजह से इतनी समस्या आई है। पर अगर संपादक 'टफ' हुआ तो..

तो प्रभाष जी भी कहीं न कहीं उसी चीज़ से डर रहे थे कि संपादक के व्यक्तित्व को ये कॉरपोरेट ख़त्म कर देंगे?
हां, लेकिन हम अपने आप पर ज़िम्मेदारी लें। जैसे इमरजेंसी के दौरान कुछ एडिटर्स ने उसका सामना किया, कुछ झुक गए। उसी तरह से कारपोरेटाइज़ेशन के साथ उसका सामना करें। मैं समझौता नहीं करुंगा पर उनके साथ बराबर का एक 'इक्वेशन' (समीकरण) बनाकर खड़ा रहूंगा। मगर कुछ लोग बिल्कुल झुक जाते हैं।

कुलदीप नैय्यर जी से बात हो रही थी तो उन्होंने बताया था कि कैसे इमरजेंसी के दौरान करीब 150 पत्रकार एकजुट हुए थे, मगर इंदिरा शासन के खिलाफ साइन करने की बात आई तो केवल 37 लोगों ने किया। इसका मतलब पत्रकार पहले भी डरते थे और अब भी डरते हैं।
डर है, जायज़ भी है। लेकिन पत्रकार की एक विशेषता यही होती है कि वो अपना वज़न बनाए रखता है। हमारा वज़न सोसाइटी से आता है। हमारा वज़न न तो सैलरी से आता है और न कहीं और से। हमारा वज़न सिर्फ हमारी राइटिंग (लेखन), हमारी पत्रकारिता से आता है। वो एक तरह से यूनीक है। और एक पास आपके पास वज़न हो, तो फिर कोई भी मार्केटिंग वाला भी आपके पास आएगा। क्योंकि आपमें जो विश्वसनीयता है, वो किसी और में नहीं है। स्पांसर एक तरह से आपकी विश्वसनीयता ख़रीदना चाहता है।

संकट तो और भी कई हैं। जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया में कई लोगों के शेयर लगे हुए हैं। तो कम से कम जिन कंपनियों के शेयर लगे हुए हैं, उनके ख़िलाफ तो वहां ख़बरे जाएंगी नहीं।
वही तो पेड न्यूज़ की समस्या है। कि कारपारेट आपको शेयर दे दे और उसके शेयर के बदले में आप उसके बारे में अच्छा लिखें तो कैसे चलेगा। क्योंकि आप अपने पाठक या दर्शक को तो नहीं बता रहे हैं कि यहां इनका शेयर है। मैं कहता हूं आप बताइए कि मेरा शेयर है और फिर स्टोरी करिए। वरना आप सबको धोखा दे रहे हैं। पर मैं ये नहीं मानता कि स्ट्रांग एडिटर्स (मज़बूत संपादकों) के लिए जगह नहीं है। रास्ता ज़रूर है। हां, एक फर्क ये है कि प्रभाष जोशी जी के ज़माने में जर्नलिस्ट (पत्रकारों) के लिए रिस्पेक्ट (सम्मान) था। आज रिस्पेक्ट चला गया है। 'फियर' (डर) है। लोग हमसे डरते हैं। लेकिन, हमें रिस्पेक्ट नहीं करते। ये फर्क है। उस समय लोग पत्रकारों से डरते नहीं थे।

उस समय पत्रकारों में एक तरह से 'एक्टिविज़्म' भी था। प्रभाष जी ख़ुद भी घूम-घूम कर पत्रकारिता किया करते थे। पहले समाज से बहुत जुड़े हुए थे पत्रकार, अब तो गूगल से ही काम चल जाता है?
देखिए, एक्टिविज़्म का क्या है मतलब। कुछ लोग कहेंगे कि उस ज़माने में जो एक्टिविज़्म थी, वो एक तरह से पार्टिज़न (पक्षपाती) भी थी। कुछ लोग ये भी कहेंगे कि आप कैंपेन हमारे खिलाफ चला रहे थे। जैसे प्रभाष जी एक्टिविज़्म करते थे, दूसरे कुछ और भी कहते।

आप लोगों ने भी तो गुजरात में एक स्टैंड लिया था?
देखिए, आप एक्टिविज़्म कब कर सकते हैं। जब आपको बिल्कुल आपमें विश्वास हो कि जो हो रहा है, वो एकदम ग़लत है। वो लोगों के सामने आप दिखाएं। मेरा ये कहना है कि अब कांग्रेस ग़लत करती है, आप कांग्रेस के खिलाफ एक्टिविज़्म करें। जब बीजेपी ग़लत करती है, आप बीजेपी के खिलाफ एक्टिविज़्म करें। अब ये एक्टिविज़्म है या जर्नलिज़्म है। मेरे ख़याल में जर्नलिज़्म है। मैं अपने आप को एक्टिविस्ट नहीं मानता। एक्टिविस्ट जो होगा, वो अक्सर दूसरे (पक्ष) की बात सुनने से हिचकिचाएगा। क्योंकि उसको लगता है कि दूसरा जो है, वो ग़लत ही है। कभी-कभी मुझे लगता है कि हम जर्नलिस्ट जब एक्टिविस्ट बनने लगते हैं तो हम हमारी निष्पक्षता भूल जाते हैं। मैं एक्टिविज़्म में विश्वास नहीं करता। मैं समझता हूं आपके जर्नलिज़्म में इतना दम होना चाहिए कि वो अपने आप एक्टिविज़्म जैसा हो जाए। मैं नहीं समझता कि मैंने जो गुजरात में किया वो एक्टिविज़्म था। तीस्ता सीतलवाड एक्टिविस्ट हैं। इसीलिए अगर मैं आज कहूं कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात में कृषि के लिए अच्छा काम किया है, तो तीस्ता नहीं मानेंगी क्योंकि उनकी एक्टिविज़्म के मुताबिक नरेंद्र मोदी 'विलेन' हैं। मैं पत्रकार हूं। मैंने उनको कहा भी कुछ दिन पहले, जब ये SIT की रिपोर्ट आई और मैंने उनसे कुछ सवाल पूछे, उन्होंने मुझे कहा कि आप क्या कर रहे हैं। आप तो नरेंद्र मोदी के साथ अब हो गए हैँ। मैंने कहा कि साथ का सवाल नहीं है। अगर रिपोर्ट आई है, रिपोर्ट में कुछ सवाल उठे, तो पत्रकार का दायित्व है कि वो सवाल उठाए। दरअसल, जो Tolerance (सहनशीलता) थी, वो अब नहीं है। वो बहुत ही कम हुआ है। और हमारे पत्रकार भी politicized हो गए हैं। और एक्टिविस्ट भी हो गए हैं। इसकी वजह से हम कैंप्स (गुटों) में बंट गए हैं। नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाला कैंप या उसके पक्ष में। मैं कहता हूं जो अच्छी बातें हैं हम कहेंगे, जो बुरी बातें हैं वो भी कहेंगे। लेकिन जब हम अच्छी बातें कहते हैं आप कहेंगे हम बिक गए हैं।

चलिए, मोदी से हटकर बात करते हैं। आपके बारे में एक सीनियर जर्नलिस्ट कह रहे थे कि आप कई जगहों पर अंबानी के साथ खड़े दिखते हैं, उनके फैमिली फंक्शन में भी रहते हैं। तो ऐसे में आपकी पत्रकारिता या 'एक्टिविज़्म' वहां कमज़ोर नहीं पड़ जाती है? 
नहीं, नहीं। देखिए, मैं पत्रकार हूं। अगर मैं अंबानी के साथ खड़ा रहूं फंक्शन में और उसके बाद अगर कोई स्टोरी आए अंबानी की और मैं उस स्टोरी को दबा दूं तो आप मुझे कह सकते हैं। देखिए, पत्रकार जो है कई लोगों से मिलेगा। उनके कई रिलेशनशिप्स (संबंध) होंगे। लेकिन, आखिर में आप अपने चैनल पर क्या चलाते हैं या एडिटोरियल में क्या लिखते हैं, उससे फर्क पड़ता है। अब मैंने एक आर्टिकल लिखा तीन दिन पहले नीतीश पर। नीतीश जी और मोदी की तुलना करते हुए। अब नीतीश जी गुस्सा हैं। वो कह रहे हैं कि आपने मेरी कंपैरिज़न (तुलना) मोदी के साथ कर दी। अब कल तक वही नीतीश जी मुझे कह रहे थे कि आप बड़े धर्मनिरपेक्ष जर्नलिस्ट हैं। मेरी यही तो मुसीबत है। अगर सबको मुझसे दिकक्त है और सब मुझ पर आक्षेप लगाते रहें तो ये ठीक ही है। मुझे न नरेंद्र मोदी से लेना-देना है, न नीतीश कुमार से। तो प्रॉब्लम यही है कि नेताओं में भी tolerance (सहनशीलता) बहुत घटी है पहले की तुलना में। प्रभाष जोशी भले ही कुछ भी लिखते रहे आडवाणी या वाजपेयी जी के खिलाफ, ख़ास कर वाजपेयी जी पर, इसका मतलब ये नहीं कि वाजपेयी जी और उनके निजी संबंध ख़राब हो गए। या वाजपेयी जी ने उनकी स्टोरीज़ को दबाने की कोशिश की या कहा हो कि प्रभाष जोशी आप बिक गए हैं। लेकिन अगर मैं आज उसी तरह की पत्रकारिता करने की कोशिश करूं तो लोग कहेंगे कि आप बिक गए हैँ। तो सोच का फर्क है। ज़माना बदल गया है। प्रभाष जोशी का जो ज़माना था, वो एक तरह से बदल गया है।

प्रभाष जोशी का ज़माना ख़त्म हो गया है या बदल गया है?
नहीं. बदल गया है। ख़त्म भी कह सकते हैं। देखिए, अब दर्शक बदल गये हैं, नेता बदल गए हैं, संपादक बदल गए हैं, बाज़ार बदल गया है।

अब उस दौर की कोई ज़रूरत है क्या ?
देखिए, इंटेग्रिटी (इमानदारी) की ज़रूरत तब भी थी, आज भी है। Integrity के लिए अभी भी स्पेस है। अपनी पर्सनल इंटेग्रिटी के लिए जो जगह 20-30 साल पहले थी, वो आज भी है। आज थोड़ा मुश्किल है। हमारे सामने चुनौतियां और हैं। क्योंकि स्थितियां और भी जटिल हो गई हैं। प्रॉफिट का प्रेशर होता है। बाज़ार का प्रेशर होता है। ये सब चुनौतियां हैं। पर इसके बावजूद ये कहना कि क्या उनकी ज़रूरत नहीं है, बिल्कुल है। मैं समझता हूं आज ज़रूरत ज़्यादा है। क्योंकि इस प्रोफेशन को अगर हम पटरी पर लाना चाहें तो ये तभी ला सकते हैं जब जो आइडियलिज़्म (आदर्श), जो सोच प्रभाष जोशी जी में था, वो वापस लाएं। तो राह से हम भटक गए हैं ये बात सही है लेकिन अगर वापस पटरी पर आना है तो उस तरह की पत्रकारिता एक बार फिर करनी पड़ेगी। भले ही जो भी दबाव या चुनौतियां हों।

आइडियलिज़्म के लिहाज से पूछूं तो अभी हाल ही में जो एकाध आंदोलन देश में होते दिखे, उसमें संपादक कितने एक्टिव या इनएक्टिव दिखे?
देखिए, अन्ना के आंदोलन की बात कर रहे हैं तो मेरा तो एक तरह से क्रिटिसिज़्म (आलोचना) है उस पर। हम (कई संपादक) अन्ना के चीयरलीडर बन गए। तो मैं कहना चाह रहा हूं कि एक्टिविस्ट की भूमिका में जर्नलिस्ट आ जाए तो डेंजरस (ख़तरनाक) है। क्योंकि जब आप एक्टिविस्ट बन जाते हैं तो उस मूवमेंट की जो कमियां हैं, वो लोगों के सामने नहीं लाते। या तो आपको दिखाई देती हैं और आप लाते नहीं हैं या आप देखना नहीं चाहते। हमने देखा कि कैसे कुछ संपादक अन्ना के मूवमेंट में चीयरलीडर बन गए थे और मुझे वो अच्छा नहीं लगा। अच्छा, मेरे साथ प्रॉब्लम ये हो गई कि मैंने क्रिटिसाइज़ किया तो लोग कहने लगे कि अरे, आप करप्ट के साथ जुड़ गए हैं। अब मैंने अगर जनलोकपाल बिल पर कुछ प्रश्न उठाए तो इसका मतलब ये तो नहीं कि मैं करप्ट हूं। दरअसल, हम ये फर्क नहीं सोच पाते एक पत्रकार और एक्टिविस्ट का। मैं चीयरलीडर नहीं हूं। मैं टीम अन्ना का सदस्य नहीं हूं। मुझे नहीं होना है। अगर होना होता तो मैं शामिल हो जाता फिर। हां, जब आप संपादकीय लिखें तो उसमें ज़रूर लिख सकते हैं कि अन्ना जो कर रहे हैं वो सही है पर हर रोज़, ये दिक्कत है।

अच्छा, ये तो बता दीजिए कि प्रभाष जोशी और सचिन के बीच क्या जादुई रिश्ता था।
वो सचिन के बहुत शौकीन थे। उनकी हमेशा सचिन से मिलने की बहुत ख़्वाहिश थी। और देखना भी चाहते थे सचिन को। मुझे जहां तक याद है 1992 में हमलोग वर्ल्डकप के लिए साथ में ऑस्ट्रेलिया गए थे। और वहां हम सचिन से मिले थे। वो बहुत खुश हुए थे। मैं टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए लिख रहा था और वो जनसत्ता के लिए। सचिन को देखना उनके लिए एक तरह से मोक्ष ही था।

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

आइए दारा सिंह की तरह मुंह फुलाएं, हमारी बहनें असुरक्षित हैं...

ज़ी न्यूज़ पर दस बजे 'बड़ी ख़बर' लेकर आते हैं पुण्यप्रसून वाजपेयी। बढ़ी हुई दाढ़ी, हथेली रगड़ते, कुटिल मुस्कान के बीच बहुत जानकार लगते हैं 'बाबा' (चैनल के बीच पीठ पीछे इसी नाम से मशहूर)। बेशक हैं भी। कल दारा सिंह पर इतनी सारी जानकारियां लेकर आए थे कि लगा दारा सिंह पर कोई अच्छी किताब हमने पढ़ ली। इंदिरा से रिश्ते, जवाहरलाल नेहरू से रिश्ते, अमिताभ बच्चन से रिश्ते, सब पर जानकारी। सवाल ये नहीं कि (ये बाबा का तकियाकलाम भी है) इस प्रोग्राम में क्या था, सवाल ये था कि क्या सचमूच कल रात दस बजे यही बड़ी ख़बर थे। सिर्फ इसीलिए कि बाबा की दिमागी विकीपीडिया में दारा सिंह से लेकर दुनिया के हर विषय पर कई जानकारियां फीड हैं।

सवाल इसलिए कि 'बड़ी ख़बर' से ठीक पहले एनडीटीवी इंडिया पर 9 से दस बजे तक रवीश कुमार ने अपने गुस्से से हम सबको हिला दिया था। दो दिन पुराना एक वीडियो दिख रहा था। गुवाहाटी में कुछ भेड़िए (आदमी की शक्ल वाले) सड़क पर खुल्लखुल्ला ग्यारहवीं की एक लड़की के कपड़े फाड़कर तमाशा कर रहे थे। जो लोग लड़की की तरफ बढ़ रहे थे, वो बचाने के लिए नहीं, उसके कपड़े नोंचकर ले जाने के लिए आ रहे थे। कोई टोपी पहनकर आ रहा था, कोई हेलमेट पहने ही थोड़ी देर उसके साथ खेल लेना चाहता था। एनडीटीवी पर चार मेहमानों के साथ आग उगलते रवीश कुमार तब इकलौते 'दारा सिंह' लग रहे थे। उनका गुस्सा किसी स्क्रिप्ट में लिखा हुआ नहीं था। ये एक पत्रकार का गुस्सा था जो उस वक्त किसी दूसरे चैनल के स्टूडियो में नज़र नहीं आ रहा था। सुबह तक लगातार एनडीटीवी उस ख़बर को अपनी स्क्रिन के नीचे वाली जगह ('टिकर') पर लिख कर चला रहा था। 


अफसोस बस यही है । क्या ऐसे मौक़ों पर भी सभी न्यूज़ चैनलों को अपने-अपने गूगल की मदद से लिखे-लिखाए प्रोग्राम पेश करने का मन करता है। क्या गुस्सा हमारा सामूहिक हथियार नहीं बन सकता। ज़ाहिर है, रुस्तम-ए-हिंद दारा सिंह पर भी एक फीचर लाज़मी था, मगर क्या आधे घंटे में कुछ मिनट भी पुण्य प्रसून वाजपेयी इस घटना पर अपने ही अंदाज़ में मुंह नहीं फुला सकते थे। ये सवाल इसीलिए क्योंकि हिंदी मीडिया में जिन कुछ चेहरों पर दर्शक दांव लगा सकते हैं, उनमें से एक चेहरा बाबा का भी है। (ये किसी सर्वे के आधार पर नहीं, मेरी निजी राय है)। 


रवीश कुमार ने किसी मेहमान से सवाल किया कि क्या सरकार या वहां के नेता-पुलिस अचार डाल रहे थे। ये सवाल हम सबका है। वहां (गुवाहाटी) की महिला सांसद से रवीश ने एकदम डांटते हुए पूछा कि क्या आप वहां गई हैं, तो ऊल-जुलूल बोलती सांसद के पास कोई जवाब नहीं था। क्या जवाब होता, वो तो मीडिया रिपोर्ट देखकर ही जान पाई कि उसके इलाके की किसी लड़की के साथ सरेआम नंगई हुई है। 


ऐसे हैं हमारे सांसद। ऐसी है हमारी पुलिस। हम और आप इन्हें पहचानते है, मगर बोलते कुछ नहीं । मैं रोज़ मेट्रो में सफर करता हूं। हर दूसरे दिन सीट से लेकर भीड़ में ठीक से खड़े होने को लेकर लड़ाईयों की आवाज़ आती रहती है। तू सरदार है, तो मैं जाट हूं मादर...। तू दस साल से है, तो मैं बीस साल से हूं, क्या उखाड़ लेगा मेरा। इस तरह के डायलोग रोज़ सुनाई पड़ते हैं। हम चुपचाप सुनते रहते हैं और जोड़ते रहते हैं कि कितने साल से दिल्ली में हैं और कितने सालों तक रह पाएंगे ऐसे माहौल में। 


इसी संडे को मेरी एक कहानी 'गुड फ्राइडे'  जनसत्ता  में आई थी। पहली लाइन बेचारे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की बेचारगी पर हल्के तंज से शुरु हुई थी। वो गुड फ्राइडे का दिन था। प्रधानमंत्री जिनका हाथ कंधे से ऊपर नहीं उठता और राष्ट्रपति ने, जिन्हें लगातार पांच मिनट बोलने के बाद दाईं ओर के आखिरी दांत दुखने की शिकायत है, पूरे देश को शुभकामनाएं दी थीं। माननीय अखबार ने वो लाइन उड़ा दी। पूरी कहानी छाप दी। कहानी में कुछ नया नहीं था। मुझे तो कहानी लिखनी आती ही नहीं। वो तो बस एक सच्ची घटना का थोड़ा-सा काल्पनिक विस्तार था, जिसमें एक स्टंटमैन मॉल की ऊंचाई से गिरकर मर गया था। और मैंने कुछ लोगों को मज़ाक में कहते सुना था कि साले ने दारू पी ली होगी। तो मैंने गुस्सा ज़ाहिर करने के लिए कुछ लिख दिया था। मगर ग़ुस्से का पहला वाक्य ही काट दिया गया। सवाल यही कि हम कब तक 'सेफ' खेलते रहेंगे। ख़ैर...


बात दारा सिंह से शुरु हुई थी। हमारे घर में हनुमान का कैलेंडर था जिस पर दूध का हिसाब लिखा जाता था। मुझे बचपन से पूरा यक़ीन था कि टीवी वाले दारा सिंह और कैलेंडर वाले हनुमान एक ही आदमी के चेहरे हैं। शीशे के सामने मुंह फुलाकर कई बार हम हनुमान या बलवान बनने की नकल करते रहे हैं। आइए एक बार फिर सचमुच का गुस्सा भरकर दारा सिंह की तरह मुंह फुलाएं। इसकी बहुत ज़रूरत है। रक्षा बंधन आने वाला है और हमारी बहनें सड़कों पर नंगी की जा रही हैं। 


निखिल आनंद गिरि 

रविवार, 8 जुलाई 2012

गुड फ्राइडे

वो गुड फ्राइडे का दिन था। प्रधानमंत्री जिनका हाथ कंधे से ऊपर नहीं उठता और राष्ट्रपति ने, जिन्हें लगातार पांच मिनट बोलने के बाद दाईं ओर के आखिरी दांत दुखने की शिकायत है, पूरे देश को शुभकामनाएं दी थीं।
उसके सारे दांत बाहर आ गए थे। वो मुंह के बल ज़मीन पर गिरा था। उसका मुंह खेत में पड़े किसी मिट्टी के ढेले की तरह भसक गया था। आसपास बहुत ख़ून बह रहा था। मगर उसके मरने की जगह इतनी साफ थी कि मक्खियां अब तक वहां पहुंच नहीं सकी थीं। ख़ून साफ करने के लिए एक रेस्क्यू टीम मिनटों में वहां घेरा बना चुकी थी। पांच से दस मिनट के भीतर सब कुछ सामान्य था। अगर कोई आदमी अब इस उद्घाटन समारोह में पहुंचता तो उसे बिल्कुल ही पता नहीं चलता कि अभी-अभी एक स्टंटमैन यहां ख़ून की उल्टियां कर मर गया है। स्पॉट डेड।
मेरे हाथ में एक बढ़िया सा डिजिटल कैमरा था। जिससे बहुत दूर की तस्वीरें भी साफ आती थी। मैंने एक फोटोग्राफी की किताब भी ख़रीदी थी, जो किसी और को देने के लिए थी। तब तक उसे पढ़-पढ़कर मैं जहां-तहां की फोटो खींचता फिर रहा था। इतने बड़े मॉल का उद्घाटन था। तो मुझे वहां जाना ज़रूरी लगा। एकदम नए तरह के एडवेंचर गेम्स वाला शहर का पहला मॉल बना था। ख़ूब भीड़ थी। स्टंटमैन रस्सी में झूलता हुआ लोगों को सलाम कर रहा था। लोग वॉउ वॉउकरते जा रहे थे। कुछ लड़कियां रिदम में तालियां बजा रही थी। उस स्टंटमैन का जोश बढ़ता जा रहा था। फिर उसने रैपलिंग (रस्सियों का एक तरह का करतब) के कुछ बेजोड़ नमूने दिखाए। हवा में कई सेकेंड्स तक लटका रहा। वो नीचे से जंप लेता तो रस्सियों में टंगा आसमान तक पहुंच जाता। हो सकता है, उतनी ऊंचाई से उसे शहर के बाहर अपना गांव भी दिखता हो। लोग सीटियां बजा रहे थे। मैं तस्वीरें लेता जा रहा था। कभी लोगों की तो कभी उस स्टंटमैन की। सबसे अच्छी तस्वीर वही थी जो उसकी मौत से ठीक पहले खींची गई थी। एकदम दोनों हाथ आज़ाद फैले हुए और चेहरा मुस्कुराता हुआ। फिर अचानक वो मॉल की सबसे ऊंचे तल्ले से नीचे आने लगा। शायद उसे अंदाज़ा नहीं था कि नीचे आते-आते रस्सियां ख़त्म हो गई थीं या फिर वो सीटियों और तालियों के जोश में एक मंज़िल ऊपर तक चला गया था। ठीक उसी वक्त की तस्वीर थी वह। एकदम ईसा मसीह वाली मुद्रा थी। फिर वो ज़मीन पर आ गिरा। मर गया।
टीवी पर तो ख़ैर इस तरह की छोटी ख़बरें आती नहीं, इसीलिए मैंने आज चार अख़बार ख़रीदे हैं। मैंने सारे अख़बार पलट लिए हैं, कहीं उसकी कोई जानकारी तक नहीं है। कोई नहीं जानता कि उसके कितने बच्चे थे। उसकी बीवी किसी के साथ भाग गई या अब तक घर में चूड़ियां तोड़ रही है। मेरा ख़याल है कि उसकी बीवी को तुरंत कहीं भाग जाना चाहिए। नैतिकता का ख़याल किए बिना। एक औरत की नैतिकता तो तब तक ही अच्छी लगती है, जब तक उसका पति उसे इसके नंबर देता रहे। तस्वीर में दिख रहे उस स्टंटमैन की उम्र के हिसाब से उसकी बीवी की उम्र का अंदाज़ा लगाकर यही कह सकता हूं कि वो एकदम जवान रही होगी। एकाध बच्चे हो गए होंगे तो भी ताज्जुब नहीं। वो रोज़ अपने बच्चों के दूध में से थोड़ा बचाकर अपने पति को पिला देती होगी क्योंकि उसका काम जोखिम भरा है। पता नहीं उसने कभी मॉल देखा होगा या नहीं। मॉल देखा भी हो तो पति को बहादुरी भरे जोखिम उठाते देखा होगा कि नहीं। कैसे वो अपनी जान पर खेल कर सब उदास लोगों को मुस्कुराहट से भर देता है। और लड़कियां रिदम में सीटियां बजाती हैं। उसकी बीवी को तो सीटियां बजाना भी नहीं आता होगा। लेकिन, अब जब स्टंटमैन मर चुका है तो लोग उसके घर के बाहर सीटियां बजाएंगे। चूंकि वो जवान होगी, तो उसके साथ कुछ लोग भाग जाने का मन भी बनाएंगे।

शहर के जिस किनारे पर यह मॉल बना है वहां पहले बहुत झुग्गियां हुआ करती थीं। ऐसा नहीं कि झुग्गियों वाले लोग ही अब अमीर हो गए मगर अब यहां बहुत अमीर लोग रहते हैं। ज़ाहिर सी बात है कि ऐसे सभ्य लोगों के बीच कोई मॉल बने तो कोई केंद्रीय मंत्री ही उद्घाटन करेगा। कोई गांव का मंदिर या पुस्तकालय तो है नहीं कि किसी ग़रीब की चाची या स्कूल का हेडमास्टर आकर फीता काट दे। तो जिस वक्त ये हादसा हुआ केंद्रीय मंत्री जी वहां मुस्कुराते हुए खड़े थे। मंत्री जी को मुस्कुराने का बहुत शौक था, इसीलिए मुस्कुराते रहते थे। ये वही मंत्री थे, जिन्हें एक बार किसी टीवी के कैमरे ने तब फैशन शो में मुस्कुराते हुए पकड़ लिया था, जब मुंबई में बम धमाके हुए थे और तेरह लोग मारे गए थे। इस मॉल में वो फिल्मी सितारे भी आए थे, जिन्हें बुरी फिल्मों में भी मुश्किल से रोल मिलते थे। सयाली नाम की कोई कलाकार भी थी जिसके बारे में मेरी जानकारी उतनी ही है, जितनी अपनी बुआ की सबसे छोटी लड़की के बारे में जो बनारस में किसी लड़के के साथ भाग गई थी और उसके पांव भारी होने की अफवाह के बाद बुआ ने खु़दकुशी कर ली। लेकिन, सयाली के बारे में उस मॉल में मौजूद लोगों का सामान्य ज्ञान मुझसे कहीं बेहतर था। वो सयाली को इतना नज़दीक से देख लेना चाहते थे कि जैसे किसी ग़रीब गांव में पहली बार हैंडपंप लगा हो। सयाली उन्हें हंसकर देख रही थी तो वहां के लोग इतने संतुष्ट दिख रहे थे जैसे जैसे आरओ फिल्टर से छना हुआ पानी पीकर तृप्ति मिलती है।

मॉल का पहला दिन था इसीलिए हर ओर सेक्यूरिटी के लिहाज से वर्दी में पर्याप्त गार्ड मौजूद थे। मगर, मेरा अनुमान है कि ज़्यादातर इस वक्त कलाकारों की भीड़ की तरफ ही खड़े थे। स्टंटमैन की मौत ठीक इसी वक्त हुई थी, और उसके आसपास सुरक्षा की ज़िम्मेदारी जिस टीम की थी, वो या तो फिल्मी कलाकारों के आसपास घूम रहे होंगे या फिर केंद्रीय मंत्री जी की कार के आसपास खड़े होंगे।   

जब स्टंटमैन मरा तो मंत्री जी मॉल के मैनेजर की पत्नी के हाथ से मीठा पान खा रहे थे। उन्हें यूं मीठा पान खाना बहुत पसंद है। वो बहुत ज़ोर से खिलखिलाकर हंसे थे और उनके मुंह से पान की पीक उनके सफेद कुर्ते पर आ गिरी थी। मॉल मैनेजर की पत्नी ने झट से अपनी साड़ी हाथ में लेकर उनके कुर्ते पर पड़ी पीक साफ की थी। मंत्री जी ने सो नाइस ऑफ यू कहा था और मैनेजर ने अचानक खड़े लोगों को झुंझलाते हुए थोड़ा-पीछे हटने को कहा था। ठीक इसी वक्त स्टंटमैन पूरे जोश में और ऊपर की तरफ उछला था और नीचे उसकी लाश ही लौटी थी। मंत्री जी ने पूरा का पूरा पान निगल लिया था और जल्दी से अपनी गाड़ी में वापस लौटने को चल दिए थे। मॉल मैनेजर स्टंटमैन की लाश की तरफ जाने के बजाय मंत्रीजी की तरफ भागा था मगर उसे एक गंदी गाली मिली थी।
टीवी कैमरे आधा-आधा झुंडों में बंट कर लाश और मंत्रीजी की गाड़ी की तरफ लपके थे।

इधर सब कुछ सामान्य हो गया था। लाश के आसपास से सब कुछ धो-पोंछ कर साफ किया जा चुका था। स्टंटमैन की डेड बॉडी एंबुलेंस में लादकर मॉल से बाहर कर दी गई थी। रिदम वाली तालियां थोड़ी देर चुप रही थीं, मगर फिर एक नए स्टंटमैन ने माहौल संभाल लिया था। माहौल ऐसे बदल गया था जैसे कोई चिड़िया पंखे से टकराकर घर में मर जाती है और उसके बाहर फेंके जाने तक मायूस दिख रहे घर के लोग अचानक अपने रूटीन पर लौट आते हैं। मॉल में मौजूद पत्रकारों और पुलिस अधिकारियों को मैनेजर की पत्नी तुरंत फूड स्टॉल की तरफ लेकर गई थी। वहां खाने (और पीने) का इतना बढ़िया इंतज़ाम था कि इसके बाद किसी गदहे को ही मॉल के भीतर सुरक्षा इंतज़ाम में कोई चूक नज़र आती। लोग थालियां हाथ में लिए मॉल की तारीफ में लंबे-लंबे वाक्य कह रहे थे। साथ ही ये भी कह रहे थे कि स्टंटमैन ने आज थोड़ी ज़्यादा ही दारू पी रखी थी, इसीलिए कंट्रोल छूट गया। एक अख़बार वाले ने ये भी कहा था कि उसकी बीवी देखने में बहुत ख़ूबसूरत है, मगर पति के आने से पहले घर का दरवाज़ा तक नहीं खोलती।

अंदर सयाली नाम की वो कलाकार भी किसी स्टंट को करने के चक्कर में बैलेंस खोकर घायल हो गई थी। एक गोल-गोल घूमनेवाली गाड़ी थी, जो हाथ छोड़कर चलाने में इधर-उधर लहराने लगती थी। इसी स्टंट के चक्कर में सयाली ने जैसे ही हाथ छोड़ा, वो गाड़ी से बाहर गिर पड़ी और गाड़ी के नीचे आ गई। मगर, जैसा मैने पहले ही बताया वहां तमाम तरह के सेक्यूरिटी गार्ड्स से लेकर जवानों की टीम मौजूद थी। तो उसे तुरंत संभाल लिया गया। खाना छोड़कर कुछ पत्रकार उधर भागे थे, मगर तब तक सयाली भी मॉल से बाहर जा चुकी थी। फिर वो अपनी जूठी थालियों की तरफ लौट आए थे।

तो कुल मिलाकर घटना ये हुई थी कि दिल्ली से सटे नोएडा शहर में एक नया मॉल उस जगह खुला था जहां पहले झुग्गियां और फिर एक श्मशान हुआ करता था। उसी मॉल के उद्घाटन समारोह में एक स्टंटमैन करतब दिखाने के लिए सुबह से ही तैयार बैठा था। स्टंट शुरू होते-होते भीड़ बहुत ज़्यादा बढ़ गई थी। एक केंद्रीय मंत्री जो अक्सर इस तरह के चकाचक कार्यक्रमों में जाने के आदी थे, पहुंच गए थे। एक फिल्म कलाकार जिसे पिछले कुछ सालों से किसी ने पर्दे पर देखा नहीं था, वो भी यहां आई थी। इन सबके बीच पंद्रह हज़ार सात सौ रुपये मासिक सैलरी कमाने वाले उस स्टंटमैन की एक तस्वीर मैंने खींची थी जो उसकी मौत से ठीक पहले की थी। उस तस्वीर में वो एकदम ईसा मसीह की तरह सलीब पर लटका नज़र आ रहा था। भीड़ वाले शहर पर बेफिक्र  मुस्कुराता हुआ। अरबों रुपये फूंक कर तैयार हुए इस शानदार मॉल में मौत से ठीक पहले  मुस्कुराते हुए उस आदमी के नीचे की ज़मीन पर अगर गद्दे बिछे होते तो वो बच भी सकता था। शहर की सबसे महंगी दुकान से भी गद्दे ख़रीदे जाते तो पंद्रह हज़ार सात सौ रुपये तक में आ ही जाते। लेकिन, इन पैसों का इससे ज़्यादा ज़रूरी इस्तेमाल मॉल के बुद्धिजीवी प्रबंधन ने किया था। उन्होंने यहां आने वाले सभी प्रेमी जोड़ों के लिए ख़ूब सारे नकली फूलों वाले गुलदस्ते और बच्चों के लिए टॉफियां मंगवा ली थीं।

इसके ठीक बाद उस फिल्म कलाकार के नाज़ुक शरीर पर थोड़ी सी चोट आई थी, जिसकी तस्वीर भी मेरे कैमरे में आ गई थी। मैं इस हादसे के वक्त वहां मौजूद दो-तीन  अख़बारों के स्टाफ को भी पहचानता था। स्टंटमैन की मौत के वक्त वो किसी दूसरे काम में बिज़ी रहे होंगे, इसीलिए मैंने अपने कैमरे की तस्वीर उन्हें इस उम्मीद पर दी थी कि कम से कम तीन कॉलम की एक ख़बर उस स्टंटमैन की फोटो के साथ ज़रूर आएगी।

शनिवार को मैंने शहर के सारे अख़बार ख़रीद लिए थे। अधिकतर अख़बारों में इस तरह की कोई ख़बर नहीं थी जिसमें किसी मॉल के भीतर किसी के मरने का ज़िक्र हो। एक अख़बार में सयाली की तस्वीर के साथ दो कॉलम की छोटी-सी ख़बर बनी थी। आप इसे स्टंटमैन की दुखद मौत की कवरेज समझ सकते हैं। ख़बर में लिखा था, गुडफ्राइडे की शाम नोएडा के रिहायशी इलाके में बने सबसे ख़ूबसूरत मॉल में बॉलीवुड की उभरती हुई मशहूर और ख़ूबसूरत अदाकारा सयाली गंभीर रूप से घायल हो गईं। उनकी दाहिनी हथेली में खरोंच आई है और कोहनी भी छिल गई है। बचपन से ही हिम्मती और दिलेर सयाली यहां मॉल के उद्घाटन समारोह के दौरान एक स्टंट करने के दौरान घायल हुई और उन्हें चाकचौबंद मॉल प्रबंधन ने तुरंत अस्पताल शिफ्ट कर दिया। बताया जा रहा है कि इस मॉल में स्टंट का ज़िम्मा देख रही टीम ने लापरवाही से इंतज़ाम किए थे। ख़बर है कि प्रैक्टिस के दौरान एक स्टंटमैन की मौत भी हो गई। पुलिस ने मामला दर्ज किया है और अंदेशा जता रही है कि स्टंटमैन नशे में धुत था और मॉल प्रबंधन के लाख रोकने के बावजूद स्टंट करने पर उतारू हो गया क्योंकि उसे उम्मीद थी कि केंद्रीय मंत्री की मौजूदगी में अगर मॉल प्रबंधन को उसने खुश कर दिया तो उसे बड़ी प्रोमोशन मिल सकती है।
गुड फ्राइडे बीत चुका है। आज इतवार है, ईस्टर है। यीशु के धरती पर दोबारा जन्म का पर्व। मैं फिर से उस स्टंटमैन की आख़िरी तस्वीर को ग़ौर से देखता हूं। पता नहीं क्यों मुझे अचानक लगता है कि जैसे वो डर के मारे थोड़ी बस थोड़ी देर के लिए लेटकर मरने की एक्टिंग कर रहा है और फिर तुरंत खड़ा होकर स्टंट करने लग जाएगा। उसकी बीवी ने उसके लौटने के इंतज़ार में अब तक दरवाज़ा नहीं खोला होगा। और बंद दरवाज़े के भीतर अगर अख़बार आया भी होगा तो उसमें किसी स्टंटमैन के मरने की ख़बर होगी ही नहीं। मलमल के पन्नों पर छपे बड़े अख़बारों में इतनी छोटी ख़बरें नहीं छपा करतीं।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 29 जून 2012

सच भी सुनिए कभी...

इस शहर की सब आबोहवा,
धूल-मिट्टी और ख़ून के रंग का पसीना
सब आपकी देन है, सब कुछ....

हमें कोई ऐतराज़ नहीं इस बात पर
कि बच्चों के स्कूल में आप ही आए
हर बार सम्मानित अतिथि बनकर..
मासूम तालियों के सब तिलिस्म आपके...
और हमारे लिए सब सूनापन,
अथाह शोर और घमासान के बीच...

हमें तेल की पहचान तो है,
मगर मालिश करने का तरीका नहीं मालूम
इसीलिए फिसल जाता है नसीब...

हमारे रहनुमाओं की कोठियों के आगे बड़े-बड़े दरवाज़े
लोहे की मज़बूत दीवारें ऊंची-ऊंची..
जैसे सबसे ज़्यादा डर आम आदमी से हो....
कभी जाइए उन्हें देखने की हसरत लिए
हाथ में पिस्तौल लेकर संतरी करेंगे स्वागत
लोकतंत्र किसी बंदूक की नली पर जमी धूल की तरह है...

घर-गली के तमाम चेहरे...
अख़बार वाले का नाम और गांव का पिन कोड
भूल जाना सब कुछ
नियम है शहर का..

जिन पेड़ों को आपने रोपे हैं अपने गमले में
वो सिर्फ छुईमुई हैं अफसोस...
जो पेड़ बच गए हैं शहर की सांस के वास्ते...
उनके नाम तक नहीं पता किसी को...

और सुनिए, जब आपको नागरिक सम्मान देने के लिए
पुकारा गया था नाम ज़ोर-ज़ोर से...
तब आप भी टीवी देखने में व्यस्त थे
और ये ख़बर आई थी कि...
छह महीने भूख और दुख से बेहाल...
एक कमरे में मर गईं दो अकेली बहनें

सच कहिए वो आपका मोहल्ला नहीं था?

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 23 जून 2012

कल सपने में आई थी पुलिस...

इधर कुछ दिनों से..
डरावनी हो गईं है मेरी सुबहें...

कल सपने में अचानक बज उठा सायरन,
और मैंने देखा सुबह मेरे घर पुलिस आई थी
मुझे ठीक तरह से याद नहीं
कितनी ज़मानत देकर छूटा था मैं सपने में...

वो बरसों पुराना लिफाफा था कोई,
जिन्हें कभी पहुंचना नहीं था मेरे पास
एक डाकिया आया था कल रात सपने में
सपने में ही आते हैं ख़त आजकल...

कल सपने मे मुझे डांटने का मन हुआ
बूढ़े होते पिता को...
और मैं सुबह से सोचता रहा
मुझे मौत कब आएगी..

अचानक सपने में कोई मर रहा था प्यास से
और मैंने उसे दिखाए समंदर
जिनका रंग ख़ून की तरह लाल था...
मगर फिर भी वो प्यास बुझाकर खुश था...

हां, एक सपना भूख की शक्ल का भी था
जब तुमने इत्मीनान से पकाई थी खिचड़ी
और आधा ही खाकर आ गई मुझे नींद...
मैं भूख से इतना खुश पहले कभी नहीं हुआ,

मैं सच कहता हूं, एकदम सच...
मुझे रात भर नींद नहीं आती आजकल
मगर सपने आते हैं बेहिसाब
सपनों में रोज़ आती है पुलिस
रोज़ आते हैं पिता
और रोज़ आती है प्यास
जिसका रंग लाल है...

वो दफ्तर जहां मेरे पिता जाते हैं हर साल
ये साबित करने कि वो ज़िंदा हैं..
सुना किसी अफसर से लड़ गया था कोई आम आदमी
तब से हर किसी की तलाशी लेता है बेचारा गार्ड

यहां कवियों की भी तलाशी ली जाती है
और इसी बात पर मन करता है
कि अगर नहीं छूटती मुल्क से गुलामी
तो क्यों ने छोड़ दिया जाए मुल्क ही
और उड़ कर भाग जाएं सिंगापुर...
जब जेब में हों इत्ते भर पैसे...
कि भागकर लौटा न जा सके...

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 16 जून 2012

फादर्स डे पर 'फरारी का सवारी' कर आइए...

अगर आप मेरी उम्र में हैं तो मुझे पक्का यक़ीन है कि आपको याद नहीं आपने आख़िरी बार अपने पिता से ज़िद करके अपनी कोई डिमांड कब पूरी की है। कई बार कहते-कहते ज़ुबान लड़खड़ा जाती है क्योंकि हमें लगने लगता है कि हम बड़े हो गए हैं और पिता बूढ़े। हालांकि, ये अंतर पहले भी था लेकिन पहले आप बचपन में थे और पिता युवा। तो ये बचपन बड़ा निर्दोष होता है, जो आपसे ज़िद करवाता है, आपके युवा पिता को लंबी उम्र देता है और हमें भूलने की आदत।

शहरों में कमाने-खाने (नाम कमाना भी शामिल) आए हम जैसों के लिए पिता को तीन घंटे लगातार याद करना पसंदीदा हॉबी नहीं रही। इससे बेहतर हम कहीं फोन या फेसबुक या किसी मॉल में वक्त गुज़ार  देना चाहते हैं। ऐसे ही दर्शकों के लिए विधु विनोद चोपड़ा उन्हीं मॉल्स के भीतर 'फरारी की सवारी' लेकर आए हैं।निर्देशन उनका नहीं है, मगर छाप पूरी है। फिल्म की कहानी से लेकर किरदार 'फादर्स डे' वाली पीढ़ी के लिए ही गढ़े गए लगते हैं। मगर, हर तरह का दर्शक एक बार ये फिल्म ज़रूर देख सकता है।

आपको ताज्जुब हो सकता है कि फिल्म में कोई हीरोइन नहीं है, मगर इसमें ताज्जुब जैसी कोई बात होनी नहीं चाहिए। 'उड़ान' को अब तक आप भूले नहीं होंगे। वो भी बिना हीरोइन के, एक बाप-बेटे वाली ही कहानी थी, मगर इस वाली कहानी से बिल्कुल अलग। वहां बेटा बाप से पीछा छुड़ाकर भाग रहा होता है और यहां बाप बेटे की हर खुशी के लिए भाग रहा होता है। हालांकि, उड़ान का स्तर इस फिल्म से बहुत आगे का था। वो एक चुप-सी गंभीर कविता थी और ये किसी बच्चे की ज़ुबान से बोलती हुई भोली कविता।

'फरारी की सवारी' देखना इसीलिए ज़रूरी है क्योंकि इस फिल्म के पास हमारे समाज ढेरों उम्मीदें हैं। वो चाहती है कि हम किसी के देखे बगैर भी ट्रैफिक सिग्नल तोड़ें, तो जुर्माना ज़रूर भरें। वो चाहती है कि कर्ज़ का इंतज़ाम  उनके लिए सबसे ज़्यादा होने चाहिए जिन्हें सचमुच इसकी ज़रूरत है। जिनकी सैलरी पहले ही ज़्यादा है, उसे कर्ज़ की क्या ज़रूरत। हमारे आदर्शों को ऐसे भोलेपन के साथ फिल्म में रखा गया है कि आपको ये बच्चों की फिल्म लग सकती है। ऐसी आदर्श दुनिया का ख़याल भी सचमुच बचपना ही लगता है, मगर थ्री इडियट्स जैसी स्टारकास्ट के साथ फिल्म बना चुके विधु एक नए निर्देशक राजेश मपुस्कर के साथ अगर भोली फिल्मों पर पैसा लगाने को तैयार हैं, तो उन्हें दाद देने हॉल ज़रूर जाना चाहिए। असली दुनिया में इस आइडियलिज़्म और फीलगुड की तलाश एक बेहतर सिनेमा ही कर सकता है। क्रेडिट कार्ड और नेटबैंकिग के ज़माने में गुल्लक फोड़कर बेटे की खुशी के लिए पैसे इकट्ठा करता मुंबई का एक पिता एक फिल्म की कल्पना में ही मिल सकता है।

क्रिकेट और इससे जुड़े तमाम सपनों को लेकर 'फरारी की सवारी' उतनी ही चंचल फिल्म है, जितना एक बच्चे की नज़र से हो सकती है। शरमन जोशी, बोमन इरानी और नन्हें कलाकार ऋत्विक की तिकड़ी ने इतना इमानदार अभिनय किया है कि आप थोड़े वक्त के लिए बिना किसी अन्ना इफेक्ट के लिए इमानदार होना चाहेंगे। विद्या बालन के नाम एक मराठी लावणी आइटम सांग है, जिसे आप देखना चाहेंगे। लगभग सवा दो घंटे की फिल्म होशियार हो चुके दर्शकों के लिए थोड़ा बोरिंग ज़रूर हो सकती है, मगर बाप-बेटे की दो जोड़ियों (शरमन और ऋत्विक, बोमन और शरमन) के बीच आपको एक न एक बार अपने पिता ज़रूर याद आएंगे। अगले हफ्ते आ रही 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' जैसी लाउड फिल्म से पहले मन के भीतर का शोर कम करना बेहद ज़रूरी है।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 11 जून 2012

वो इंपोर्टेड कमरिया 'शांघाई' की है, भारत माता की नहीं!

यूं तो हिंदी सिनेमा में कहानियों के नाम पर वही फॉर्मूले बार-बार नये पैकेज में परोसे जाते रहे हैं, मगर दिबाकर बनर्जी हमारे दौर के सबसे अच्छे फिल्म निर्देशकों में इसीलिए हैं क्योंकि वो उस फॉर्मूले की पैकेजिंग हमारे समय को समझते हुए कर पाते हैं। उनकी कहानियों में हमारे समय की राजनीति है, उसका ओछापन है, साज़िशें हैं, बुझा हुआ शाइनिंग इंडिया है और चकाचक शहरों के नाम पर होनेवाली हत्याएं और अरबों का दोगलापन भी है। उनकी नई फिल्म ‘’शांघाई’’ में भी वही सब है। हर दौर में ऐसे निर्देशक रहे हैं जिन्होंने अपने समय को पर्दे पर उतारा है, मगर दिबाकर उनसे अलग इसलिए हैं कि अब ऐसा कर पाना साहस का काम है। अब राउडी राठौर, दबंग और झंडू गानों का ज़माना है। और ऐसे में अपने आसपास के समाज को पर्दे पर सीधा-सपाट देखने का रिस्क उठाने वाले बहुत कम हैं। इसी चक्कर में शांघाई महान फिल्म नहीं बन पाई क्योंकि उसे सच को एक ऐसे रैपर में पैक करना था कि हॉल तक दर्शक आएं और बस्तियों या गांवों तक न सही, फेसबुक और ट्विटर तक बात पहुंच सके। दरअसल, ये निर्देशक की नहीं, हमारी कमज़ोरी है कि हम इसी तरह की स्पूनफीडिंग के आदी हैं। जिसमें एक बड़े राजनैतिक षडयंत्र के फ्रेम से छोटी सी उपकथा निकाली जाए और फिर बच्चों की तरह एक-एक हिस्सा साफ-साफ समझाया जाए।

दरअसल, ये फिल्म उन दौड़ती सड़कों के किनारे लगे होर्डिंग्स की जगह टांग दी जानी चाहिए जहां आशियाना से लेकर आम्रपाली तक के एमआईजी या एलआईजी अपार्टमेंट्स आपको लुभाते रहते हैं। ताकि काले शीशे में उधर से गुज़र रही सॉफ्टस्पोकन आबादी को अहसास हो कि वो जिन नए विश्वकर्माओं की शरण में हैं, उनके हाथ दरअसल कई रंग के ख़ून से सने हुए हैं। या फिर, उन छोटी बस्तियों में सेक्स के इश्तेहार वाली उन दीवारों की जगह जहां सोने-चांदी के शहर बसाने वाले मजदूर आज तक अपनी झोपड़पट्टी से आगे नहीं बढ़ पाए। ताकि उन्हें एहसास हो कि वो जिनके लिए अपना ख़ून-पसीना एक कर रहे हैं, वही एक दिन शहर में कर्फ्यू के नाम पर उन्हें  ढूंढ-ढूंढ कर मार डालेंगे।  

पिछले साल अक्टूबर में पंकज सुबीर की एक कहानी पढ़ी थी। इस लंबी कहानी में रामभरोसे छोड़े गए एक शहर की उस रात का ज़िक्र था जब किसानों की आत्महत्याएं रोकने के लिए सूबे के शासकों की प्रायोजित एक हाईप्रोफाइल रामकथा चल रही थी और इसी शंखध्वनि और भक्तिपूर्ण माहौल में एक हत्या इतनी शांति से हुई कि किसी के कानों तक मरनेवालों की उफ तक नहीं पहुंची। तब ये कहानी उतनी अच्छी नहीं लगी, मगर अब लगता है यही कहानी दिबाकर के ज़ेहन में चेहरा बदलकर उतर गई हो। अब लगता है कि ऐसी कहानियां बार-बार अलग-अलग मीडियम से हमारी आंखों के आगे घूमती रहें ताकि हमारी नींद में लोकतांत्रिक ख़लल पड़ती रहे।

कहानी के नाम पर ऐसा कुछ नया नहीं है, जो आपको दोबारा बताया जाए। सेलेब्रिटी आंदोलनों के दौर में आप और हम जिस करप्शन को पासवर्ड की तरह कंठस्थ कर चुके हैं, उसी का एक फिल्मीकरण भर है शंघाई। एक बहुत साधारण सी मर्डर मिस्ट्री जिसे फिल्म के आखिर-आखिर तक सुलझना ही है। मगर, इस कहानी में अच्छाई ये है कि इसके किरदार हमारे असली समाज से हैं। नाम बदल दिए जाएं तो आप इन किरदारों को अपने-अपने घरों में आसानी से पहचान सकते हैं। ये वही चेहरे हैं जो टीवी कैमरों के आगे अलग-अलग झंडों के साथ हमारा हमदर्द होने का भ्रम पैदा करते हैं। और कैमरा ऑफ होते ही अपनी-अपनी मां-बहनों के रेट तय करने लगते हैं। फिल्म में बस इतनी ही चतुराई बरती गई है कि कैमरा ऑफ कर दिया गया है, मगर साउंड रिकॉर्डिंग ऑन ही रह गई है। बस इसी के ज़रिए आप और हम सब कुछ सुन-समझ पाते हैं कि कैसे हमारी लाशों के टेंडर लग रहे हैं और हम खुशी-खुशी अपनी कब्रगाहों में गृहप्रवेश के शंख बजा रहे हैं। इससे ज़्यादा एक फिल्म से उम्मीद भी क्या कर सकते हैं।

फिल्म की कहानी पूरी तरह से फिल्मी और पुरानी भी है, मगर सुख इस बात का है कि आप मज़ा लेने के लिए एक राउडी राठौर (इन जैसी सभी फिल्मों के लिए विशेषण) नहीं, वो कहानी देख रहे हैं, जिसमें आप भी शामिल हैं। एक लड़की के हाथ में सिस्टम को नंगा कर देने वाली सीडी है। वो ऑफिसर तक बदहवास पहुंचती है। ऑफिसर कल वक्त पर ऑफिस में आने को कहकर लौटा रहा होता है, मगर फिर दोनों डर जाते हैं कि कल तक वो लड़की बचे न बचे। क्या हम और आप इस डर के साथ रोज़ नहीं जीते कि क्या पता हम जहां पहुंचना चाहते हैं, वहां हमसे पहले हमारी लाशें न पहुंच जाएं।

शांघाई ज़रूर देखिए। आप राजनैतिक तौर से स्वदेशी विकास के एजेंडे को मानते हों कि ग्लोबलाइज़ेशन के एजेंडे को, इस फिल्म में सबकी हक़ीक़त साफ दिखेगी। एक्टिंग के नाम पर कट्टर राजपूत बने इमरान हाशमी तक को चुम्मा लेने की इजाज़त नहीं है, इसीलिए आप बोर हो सकते हैं। मगर, आप ये ज़रूर जानना चाहेंगे कि आपके हत्यारे कौन हो सकते हैं। और हां, अगर कहीं मरने की आज़ादी हो तो किसी रोशनी वाली जगह में ही मरें वरना शहरों में कई लाशें पहचानने के लिए पुलिस के पास पर्याप्त लाइट तक नहीं होती।

फिल्म के गीतों ने बहुत दिनों बाद देशभक्ति गीतों का एक ख़ास पैटर्न समझने में मदद की है। एक वो दौर था जब संतोष आनंद की कलम के बूते भारत कुमार उर्फ मनोज कुमार मुंह को हाथ से छिपाकर, देशभक्तों को आवाज़ देते थे। फिर सन्नी देओल का दौर भी आया जब चीख-चीख कर ‘’मेरा भारत महान’’ हमारे कानों में उतार दिया गया। और तो और सलमान खान ने नचनिया बनकर भी ''ईस्ट या वेस्ट, इंडिया इज़ द बेस्ट'' का नारा दिया। मगर, उसके ठीक उलट इंडिया बना परदेसके बैनर तले अब इंपोर्टेड कमरिया लेकर नचनिया कमर मटका रही है। मगर, इत्मीनान रखिए, पिज़्जा-पॉपकॉर्न खाइए, ये कमर ‘’शांघाई’’ की है, भारत माता की नहीं। 
डेंगू, मलेरिया..सोने की चिड़िया...बोलो, बोलो, बोलो...भारत माता की जय...
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 2 जून 2012

मैं एक कूटभाषा में लड़ना चाहता हूं...

मुझे रह-रह कर अपना बचपन याद आ रहा है। एक स्कूल जहां रिक्शा घंटी बजाता आता तो हम पीछे वाले डिब्बे में बैठ जाते। रिक्शेवाला दरवाज़े की कुंडी लगा देता और हम चुपचाप शोर मचाते स्कूल पहुंच जाते। कोई हाय-हल्लो या हैंडशेक नहीं। सीधे-सीधे आंखो वाली पहचान। हम रिक्शे में बैठे होते और रास्ते के किनारे एक टूटी-सी कंटेसा कार खड़ी होती। हम रोज़ उसे देखा करते। वो कार आज कहीं नहीं दिखती, मगर वो है कहीं न कहीं। ऐसे फॉर्म (आकार) में नहीं कि उसे छू सकें, देख सकें, मगर एकदम आसपास है। ये कोड लैंग्वेज (कूटभाषा) बचपन की विरासत है हमारे साथ जो हर अच्छे-बुरे वक्त में काम आती है।

मेट्रो में एक चेहरे को देखकर मेरी निगाहें रुक गई हैं। उसके चेहरे में मेरी पहचान का कोई पुराना चेहरा नज़र आ रहा है। वो मुझसे कई क़दम के फासले पर है। मैं उसकी आवाज़ नहीं सुन सकता। मगर, वो चेहरा कुछ कह रहा है। मैं उसे एकटक देख रहा हूं। सामने एक आदमी आकर खड़ा हो गया है। हालांकि, उससे मेरी कोई पहचान नहीं है। मगर, उससे मुझे चिढ हो गई है। फिर कई सारे आदमी सामने आ गए हैं। मैं सबसे चिढ़ने लगा हूं। एक रिश्ते को ढंक दिया है इन सारे अनजान आदमियों ने, जिनसे दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं। मैं अगर लड़ना भी चाहूं तो किससे लड़ूं। किस कूटभाषा में लड़ूं। क्या लड़ाईयों की कूटभाषा नहीं होती।

स्कूल की एसेंबली में एक लड़की याद आती है। मुझसे बहुत लंबी। दरअसल, मैं ही क्लास में सबसे छोटा। क्लास की लाइन में मेरा हाथ पकड़कर सबसे आगे करती हुई। फिर चुपचाप लाइन में सबसे पीछे जाकर खड़ी होती। उसके सीने पर दाहिनी ओर मॉनिटर लिखा  हुआ। प्रार्थना शुरू होती तो मैं सबकी आंखे देखता, जो मुंदी हुई होतीं। मेरी आंखें लाइन में पीछे मुड़तीं। सबसे पीछे तक। वो लड़की अपने हाथ जोड़े, मगर आंखें खुली हुई। हम एक कूटभाषा में आज भी बात करते हैं, पता नहीं वो समझ पाती है कि नहीं।

मैं अब भी वो कूटभाषा सीख रहा हूं जब कीबोर्ड की दो बूंदों वाला एक बटन किसी ब्रैकेट वाले दूसरे बटन के साथ जुगलबंदी कर ले तो हम मुस्कुराने (स्माइली) लगते हैं या फिर उदास दिखने लगते हैं।  क्या ज़िंदगी में ऐसा नहीं हो सकता। हम जिन्हें चाहते हैं, वो दिखें, न दिखें। मिलें, न मिलें। बात करें, न करें। बस इतना कि ज़िंदगी में उनकी मौजूदगी का एहसास बना रहे। किसी भी आकार में। सॉलिड में न सही, लिक्विड या गैस में ही सही।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 27 मई 2012

वो मेरी चुप्पियां भी सुनता था...

मैंने सब जुर्म याद रखे हैं...
मैंने सब कटघरे सजाए हैं...
कोई तो आए, सज़ा दे मुझको...

लोग कहते हैं अजब पूनम है...
चांद सूजा हुआ-सा लगता है...
तुमने फिर नींद की गोली ली क्या?

मैंने दुनिया से कुछ कहा भी नहीं
जाने क्या उसने सुना, रुठ गया...
वो मेरी चुप्पियां भी सुनता था...

देखो ना रिस रहा है आंखो से
एक रिश्ता कोई हौले-हौले
कोई 'चश्मा' भी नहीं आखों में !!

मैंने हर खिड़की खुली रखी है..
कोई परवाज़ भरे, लौट आए...
कल से हड़ताल है उड़ानों की...

मैं बुरा हूं तो मैं बुरा ही सही
आप अच्छे हैं, मगर भूल गए...
हमने बदले थे आईने कभी...

सारे आंसू नए, मुस्कान नई
ज़िंदगी में नया-नया सब कुछ..
बस कि गुम हैं पुराने कंधे...

होंठ सिलकर ज़बान की तह में
मैंने एक सच छिपाए रखा था
रात उसने ली आखिरी सांसे...

एक दिन ऐसे टूट कर रोये,
गुमशुदा हो गया ख़ुदा मेरा...
हम भी आंखों में ख़ुदा रखते थे...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 20 मई 2012

''मेरे पास स्पर्म है....''

हिंदी सिनेमा की वीर्य-गाथा...'विकी डोनर'
1959 में जेमिनी पिक्चर्स के बैनर तले बनी फिल्म 'पैग़ाम' याद आ रही है। दिलीप कुमार कॉलेज की पढ़ाई में अव्वल होकर घर लौटते हैं और बड़े भाई को सहजता से बताते हैं कि वो पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए रिक्शा चलाते हैं। एक पढा-लिखा नौजवान रिक्शा चलाता है, ये सुनकर बड़े भाई (राजकुमार) को जितना ताज्जुब होता है, ठीक वैसा ही ताज्जुब फिल्म विकी डोनर में विकी की बीवी आशिमा रॉय के चेहरे पर देखने को मिला। ये चेहरा उस मॉडर्न कहलाने वाली पीढ़ी का चेहरा कहा जा सकता है, जो आधुनिकता को अश्लीलता की हद तक पचाने को तैयार है, मगर ये नहीं कि इंसान का वीर्य यानी स्पर्म भी बाज़ार का हिस्सा बन सकता है।

विकी डोनर एक ज़रूरी फिल्म है। हिंदी सिनेमा के सौ साल होने पर हमारे बीच ऐसी फिल्में हैं, जानकर गर्व किया जा  सकता है। ये किसी चर्चित मैगज़ीन में छपी उस लघुकथा की तरह है, जिसे पढा जाना मैगज़ीन पढ़े जाने जितना ही ज़रूरी है। पलायन की मारी दिल्ली में किस-किस तरह से प्रेम कहानियां और ज़िंदा रहने की कहानियां सांस लेती हैं, ऐसी फिल्में उन पर किया गया बेहतरीन रिसर्च हैं। इस दौर की कई फिल्मों की सबसे बड़ी उपलब्धि ये है कि वे सीरियस होते हुए भी नारेबाज़ी नहीं करतीं। बेहद हल्की-फुल्की भाषा में बात करती हैं। हमारी-आपकी बोलियों में बात करती हैं।  इसीलिए, हमें अच्छी लगती हैं।

विकी डोनर एक बोल्ड और साहित्यिक फिल्म है। बाज़ार पर इतनी बारीकी से रिसर्च कर बनाई गई फिल्में हमारे सामने कम ही आई हैं। संतान पर होने वाले खर्च और उनसे जुड़ी हमारे मां-बाप की महत्वाकांक्षाएं अब किस स्तर तक पहुंच गई हैं, उसकी बानगी इस फिल्म में है। वो औलाद के पैदा होने से पहले ही उसका करियर तय कर देना चाहते हैं। अगर संतान के लिए बेहतर स्कूल, बेहतर कपड़े, बेहतर सोसाइटी, बेहतर भाषा ख़रीदकर एक 'प्रोडक्टिव कमोडिटी' (आप इसे 'कमाऊ पूत' पढ़ सकते हैं) तैयार की जा सकती है, तो क्यों न सबसे बेहतर स्पर्म (वीर्य) ही ख़रीद लिया जाए ताकि प्रोडक्ट की वैल्यू बढाई जा सके। क्यों कोचिंग संस्थानों को डोनेशन दिये जाएं कि अच्छा इंजीनियर या डॉक्टर या आईपीएस बना दो। सीधा स्पर्म ही ख़रीद लेते हैं जो शर्तिया क्रिकेटर ही बने, या वो जो भी मां-बाप चाहते हैँ। एक सौ फीसदी तय कमाऊ पूत पर ममता लुटाने का मज़ा ही कुछ और है।

अगर आप दिल्ली की किसी सोसाइटी में ही ''जन्मे और पाले-पोसे'' (BORN n BROUGHT UP) नहीं गए हैं और फिर भी दिल्ली का हिस्सा हैं, तो विकी डोनर आपकी भी कहानी हो सकती है। दिल्ली की प्रेम कहानियां कितने विकल्पों और बेफिक्री के साथ हर मोहल्ले में मिलती हैं, यहां उसका भी ज़िक्र है। पड़ोस की बड़ी होती, शोर की हद तक बात करती 'दिल्ली वाली लड़की' विकी पर बिना नियम-शर्त ''मर-मिटने'' को आतुर है, मगर विकी एक बंगाली चेहरे में ''शांतिनिकेतन'' ढूंढ रहा है। तो ऐसे में दिल्ली की लड़की का दिल नहीं टूटता। वो उसके सीने पर चढ़ कर बोलती है, इस ग़लतफहमी में मत रहियो कि तू ही एक है.....बहुत हैं लाइन देने वाले...ये इक्कीसवीं सदी के प्यार का वो स्वाद है जिसे दिल्ली के मोहल्लों से होते हुए देश भर के प्रेमी अब चखने लगे हैं। और हां, इस  विकी डोनर की प्रेमकहानी में फेसबुक भी है, इसीलिए हर हाल में ये हमारी ही प्रतिनिधि कहानी ही है।

जिस तरह दिल्ली में हर तीसरा आदमी प्रॉपर्टी डीलर है और ये मानकर चलता है कि वो शकल देखकर पहचान सकता है हर किसी को यहां ज़मीन या फ्लैट की दरकार है, ठीक उसी तर्ज़ पर  एक प्रोफेशनल ''स्पर्म  डीलर '' भल्ला (अनु कपूर) भी ''शकल देखकर बंदे का स्पर्म पहचान जाता हूं..'' कहते हुए जिस तरह के भाव चेहरे पर लाता है, वो खालिस दिल्ली के मर्द की बॉडी लैंग्वेज है। ये मर्द मॉडर्न दिखता ज़रूर है, मगर हर किसी को अपने गुमान भरे चश्मे से नाप सकता है। उसे गुमान है कि उसे अपने आस-पास की वक्त की पहचान ही नहीं है, वो उसे किसी भी क़ीमत पर ख़रीद भी सकता है। और एक पहलू से देखें तो ये सच भी है। दिल्ली के शाहरुख  खान जब से मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में ''मर्दानगी'' दिखाकर आए हैं, तब से एक ही जुमला मन  में घूम रहा है। आप किसी आदमी को दिल्ली से बाहर कर सकते हैं मगर किसी आदमी के भीतर से 'दिल्ली' को बाहर नहीं कर सकते।

मेर भीतर भी एक दिल्ली घुसपैठ कर गई है। न मैं इसमें से बाहर आना चाहता हूं, न ये मुझसे निकलना चाहती है। इस फिल्म में भी दिल्ली सिर्फ पर्दे के भीतर नहीं है। वो अचानक बाहर भी निकल आती है।
लगता ही नहीं कि अन्नू कपूर और आयुष्मान को हम किसी फिल्म के भीतर देख रहे हैं। लगता है वो हमारे मोहल्लों के आसपास ही हैं। किसी बालकनी से ताकते मिल जाएंगे। जिस बालकनी के नीचे एक बोर्ड लगा होगा 'स्पर्म ही स्पर्म'। दिल्ली के रास्ते एक दिन ये बिज़नेस हमारे बचे-खुचे गांवों तक भी पहुंच जाएगा जहां स्पर्म की टोकरी सिर पर लादे कोई आवाज़ लगा रहा होगा, 'स्पर्म ले लो, स्पर्म। एकदम ताज़ा स्पर्म ले लो भाई....''

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 13 मई 2012

गौरव सोलंकी को गुस्सा क्यों आता है ?

गौरव सोलंकी को तब से जानता हूं, जब वो सिर्फ एक इंजीनियर थे। सिर्फ एक कवि थे! लोकप्रिय बाद में हुए। और कहानीकार उसके भी बाद हुए। हिंदी सेवा के नाम पर कमाने-खाने वाली एक वेबसाइट 'हिंदयुग्म' के स्वघोषित ''सीईओ'' शैलेश के साथ गौरव और मैं लंबे वक्त तक साथ रहे। आज गौरव का नाम हिंदी साहित्य के चर्चित युवा साहित्यकारों में शुमार है। हिंदी साहित्य और सिनेमा के  प्रति उनकी ईमानदारी समझने के लिए इतना बताना ही काफी है कि आईआईटी से पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अपने जुनून को समय देने के लिए एक 'अच्छी-खासी' नौकरी से तौबा कर ली। मगर हिंदी साहित्य के मठों ने उन्हें क्या दिया, ये इस लेख को पढ़कर समझिए। ये भारतीय ज्ञानपीठ को लिखा गया 
एक पत्र है, जिसे गौरव सोलंकी ने लिखा है। 
इस ख़त के गुस्से में मुझे भी शामिल समझिए।

आदरणीय ...... ,
भारतीय ज्ञानपीठ
खाली स्थान इसलिए कि मैं नहीं जानता कि भारतीय ज्ञानपीठ में इतना ज़िम्मेदार कौन है जिसे पत्र में सम्बोधित किया जा सके और जो जवाब देने की ज़हमत उठाए. पिछले तीन महीनों में मैंने इस खाली स्थान में कई बार निदेशक श्री रवीन्द्र कालिया का नाम भी लिखा और ट्रस्टी श्री आलोक जैन का भी, लेकिन नतीजा वही. ढाक का एक भी पात नहीं. मेरे यहां सन्नाटा और शायद आपके यहां अट्टहास.
खैर, कहानी यह जो आपसे बेहतर कौन जानता होगा लेकिन फिर भी दोहरा रहा हूं ताकि सनद रहे.
पिछले साल मुझे मेरी कविता की किताब ‘सौ साल फिदा’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ ने नवलेखन पुरस्कार देने की घोषणा की थी और उसी ज्यूरी ने सिफारिश की थी कि मेरी कहानी की किताब ‘सूरज कितना कम’ भी छापी जाए. जून, 2011 में हुई उस घोषणा से करीब नौ-दस महीने पहले से मेरी कहानी की किताब की पांडुलिपि आपके पास थी, जो पहले एक बार ‘अज्ञात’ कारणों से गुम हो गई थी और ऐन वक्त पर किसी तरह पता चलने पर मैंने फिर जमा की थी.
मां-बहन को कम से कम यह तो खुद तय करने दीजिए कि वे क्या पढ़ें या क्या नहीं. उन्हें आपके इस उपकार की ज़रूरत नहीं है. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दीजिए. उन्हें यह 'अश्लीलता' पढ़ने दीजिए कि कैसे एक कहानी की नायिका अपना बलात्कार करने वाले पिता को मार डालती है. लेकिन मैं जानता हूं कि इसी से आप डरते हैं
ख़ैर, मार्च में कविता की किताब छपी और उसके साथ बाकी पांच लेखकों की पांच किताबें भी छपीं, जिन्हें पुरस्कार मिले थे या ज्यूरी ने संस्तुत किया था. सातवीं किताब यानी मेरा कहानी-संग्रह हर तरह से तैयार था और उसे नहीं छापा गया. कारण कोई नहीं. पन्द्रह दिन तक मैं लगातार फ़ोन करता हूं और आपके दफ़्तर में किसी को नहीं मालूम कि वह किताब क्यों नहीं छपी. आखिर पन्द्रह दिन बाद रवीन्द्र कालिया और प्रकाशन अधिकारी गुलाबचन्द्र जैन कहते हैं कि उसमें कुछ अश्लील है. मैं पूछता हूं कि क्या, तो दोनों कहते हैं कि हमें नहीं मालूम. फिर एक दिन गुलाबचन्द्र जैन कहते हैं कि किताब वापस ले लीजिए, यहां नहीं छप पाएगी. मैं हैरान. दो साल पांडुलिपि रखने और ज्यूरी द्वारा चुने जाने के बाद अचानक यह क्यों? मैं कालिया जी को ईमेल लिखता हूं. वे जवाब में फ़ोन करते हैं और कहते हैं कि चिंता की कोई बात नहीं है, बस एक कहानी 'ग्यारहवीं ए के लड़के' की कुछ लाइनें ज्ञानपीठ की मर्यादा के अनुकूल नहीं है. ठीक है, आपकी मर्यादा तो आप ही तय करेंगे, इसलिए मैं कहता हूं कि मैं उस कहानी को फ़िलहाल इस संग्रह से हटाने को तैयार हूं. वे कहते हैं कि फिर किताब छप जाएगी.
लेकिन रहस्यमयी ढंग से फिर भी ‘कभी हां कभी ना कभी चुप्पी’ का यह बेवजह का चक्र चलता रहता है और आख़िर 30 मार्च को फ़ोन पर कालिया जी कहते हैं कि ज्ञानपीठ के ट्रस्टी आलोक जैन मेरे सामने बैठे हैं और यहां तुम्हारे लिए माहौल बहुत शत्रुतापूर्ण हो गया है, इसलिए मुझे तुम्हें बता देना चाहिए कि तुम्हारी कहानी की किताब नहीं छप पाएगी. मैं हैरान हूं. 'शत्रुतापूर्ण' एक खतरनाक शब्द है और तब और भी खतरनाक, जब 'देश की सबसे बड़ी साहित्यिक संस्था' का मुखिया पहली किताब के इंतज़ार में बैठे एक लेखक के लिए इसे इस्तेमाल करे. मुझसे थोड़े पुराने लेखक ऐसे मौकों पर मुझे चुप रहने की सलाह दिया करते हैं, लेकिन मैं फिर भी पूछता हूं कि क्यों? शत्रुतापूर्ण क्यों? हम यहां कोई महाभारत लड़ रहे हैं क्या? आपका और मेरा तो एक साहित्यिक संस्था और लेखक का रिश्ता भर है. लेकिन इतने में आलोक जैन तेज आवाज में कुछ बोलने लगते हैं. कालिया जी कहते हैं कि चाहे तो सीधे बात कर लो. मैं उनसे पूछता हूं कि क्या कह रहे हैं 'सर'?
तो जो वे बताते हैं, वह यह कि तुम्हारी कहानियां मां-बहन के सामने पढ़ने लायक कहानियां नहीं हैं. आलोक जी को मेरा 'फ्रैंकनैस' पसंद नहीं है, मेरी कहानियां अश्लील हैं. क्या सब की सब? हां, सब की सब. उन्हें तुम्हारे पूरे 'एटीट्यूड' से प्रॉब्लम है और प्रॉब्लम तो उन्हें तुम्हारी कविताओं से भी है, लेकिन अब वह तो छप गई. फ़ोन पर कही गई बातों में जितना अफसोस आ सकता है, वह यहां है. मैं आलोक जी से बात करना चाहता हूं लेकिन वे शायद गुस्से में हैं, या पता नहीं. कालिया जी मुझसे कहते हैं कि मैं क्यों उनसे बात करके खामखां खुद को हर्ट करना चाहता हूं? यह ठीक बात है. हर्ट होना कोई अच्छी बात नहीं. मैं फ़ोन रख देता हूं और सन्न बैठ जाता हूं.
जो वजहें मुझे बताई गईं, वे थीं 'अश्लीलता' और मेरा 'एटीट्यूड'.
अश्लीलता एक दिलचस्प शब्द है. यह हवा की तरह है, इसका अपना कोई आकार नहीं. आप इसे किसी भी खाली जगह पर भर सकते हैं. जैसे आपके लिए फिल्म में चुंबन अश्लील हो सकते हैं और मेरे एक साथी का कहना है कि उसे हिन्दी फिल्मों में चुम्बन की जगह आने वाले फूलों से ज़्यादा अश्लील कुछ नहीं लगता. आप बच्चों के यौन शोषण पर कहानी लिखने वाले किसी भी लेखक को अश्लील कह सकते हैं. क्या इसका अर्थ यह भी नहीं कि आप उस विषय पर बात नहीं होने देना चाहते. आपका यह कृत्य मेरे लिए अश्लील नहीं, आपराधिक है. यह उन लोकप्रिय अखबारों जैसा ही है जो बलात्कार की खबरों को पूरी डीटेल्स के साथ रस लेते हुए छापते हैं, लेकिन कहानी के प्लॉट में सेक्स आ जाने से कहानी उनके लिए अपारिवारिक हो जाती है (मां-बहन के पढ़ने लायक नहीं), बिना यह देखे कि कहानी की नीयत क्या है.
मां-बहन को कम से कम यह तो खुद तय करने दीजिए कि वे क्या पढ़ें या क्या नहीं. उन्हें आपके इस उपकार की ज़रूरत नहीं है. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दीजिए. उन्हें यह 'अश्लीलता' पढ़ने दीजिए कि कैसे एक कहानी की नायिका अपना बलात्कार करने वाले पिता को मार डालती है. लेकिन मैं जानता हूं कि इसी से आप डरते हैं.मेरा एक पुराना परिचित कहता था कि वह खूब पॉर्न देखता है, लेकिन अपनी पत्नी को नहीं देखने देता क्योंकि फिर उसके बिगड़ जाने का खतरा रहेगा. क्या यह मां-बहन वाला तर्क वैसा ही नहीं है? अगर हमने उनके लिए दुनिया इतनी ही अच्छी रखी होती तो मुझे ऐसी कहानियां लिखने की नौबत ही कहाँ आती? यह सब कुछ मेरी कहानियों में किसी जादुई दुनिया से नहीं आया, न ही ये नर्क की कहानियां हैं. और अगर ये नर्क की, किसी पतित दुनिया की कहानियां लगती हैं तो वह दुनिया ठीक हम सबके बीच में है. मैं जब आया, मुझे दुनिया ऐसी ही मिली, अपने तमाम कांटों, बेरहमी और बदसूरती के साथ. आप चाहते हैं कि उसे इगनोर किया जाए. मुझे सच से बचना नहीं आता, न ही मैंने आपकी तरह उसके तरीके ईज़ाद किए हैं. सच मुझे परेशान करता है, आपको कैसे बताऊं कि कैसे ये कहानियां मुझे चीरकर, रुलाकर, तोड़कर, घसीटकर आधी रात या भरी दोपहर बाहर आती हैं और कांच की तरह बिखर जाती हैं. मेरी ग़लती बस इतनी है कि उस कांच को बयान करते हुए मैं कोमलता और तथाकथित सभ्यता का ख़याल नहीं रख पाता. रखना चाहता भी नहीं.
आख़िर 30 मार्च को फ़ोन पर कालिया जी कहते हैं कि ज्ञानपीठ के ट्रस्टी आलोक जैन मेरे सामने बैठे हैं और यहां तुम्हारे लिए माहौल बहुत शत्रुतापूर्ण हो गया है
लेकिन इसी बीच मुझे याद आता है कि भारतीय ज्ञानपीठ में 'अभिव्यक्ति' की तो इतनी आज़ादी रही कि पिछले साल ही 'नया ज्ञानोदय' में छपे एक इंटरव्यू में लेखिकाओं के लिए कहे गए 'छिनाल' शब्द को भी काटने के काबिल नहीं समझा गया. मेरी जिस कहानी पर आपत्ति थी, वह भी 'नया ज्ञानोदय' में ही छपी थी और तब संपादकीय में भी कालिया जी ने उसके लिए मेरी प्रशंसा की थी. मैं सच में दुखी हूं, अगर उस कहानी से ज्ञानपीठ की मर्यादा को धक्का लगता है. लेकिन मुझे ज़्यादा दुख इस बात से है कि पहले पत्रिका में छापते हुए इस बात के बारे में सोचा तक नहीं गया. लेकिन तब नहीं, तो अब मेरे साथ ऐसा क्यों? यहां मुझे खुद पर लगा दूसरा आरोप याद आता है- मेरा एटीट्यूड.
मुझे नहीं याद कि मैं किसी काम के अलावा एकाध बार से ज़्यादा ज्ञानपीठ के दफ़्तर आया होऊं. मुझे फ़ोन वोन करना भी पसंद नहीं, इसलिए न ही मैंने 'कैसे हैं सर, आप बहुत अच्छे लेखक, संपादक और ईश्वर हैं' कहने के लिए कभी कालिया जी को फ़ोन किया, न ही आलोक जी को. यह भी गलत बात है वैसे. बहुत से लेखक हैं, जो हर हफ़्ते आप जैसे बड़े लोगों को फ़ोन करते हैं, मिलने आते हैं, आपके सब तरह के चुटकुलों पर देर तक हँसते हैं, और ऐसे में मेरी किताब छपे, पुरस्कार मिले, यह कहाँ का इंसाफ़ हुआ? माना कि ज्यूरी ने मुझे चुना लेकिन आप ही बताइए, आपके यहाँ दिखावे के अलावा उसका कोई महत्व है क्या?
ऊपर से नीम चढ़ा करेला यह कि मैंने हिन्दी साहित्य की गुटबाजियों और राजनीति पर अपने अनुभवों से 'तहलका' में एक लेख लिखा. वह शायद बुरा लग गया होगा. और इसके बाद मैंने ज्ञानपीठ में नौकरी करने वाले और कालिया जी के लाड़ले 'राजकुमार' लेखक कुणाल सिंह को नाराज कर दिया. मुझे पुरस्कार मिलने की घोषणा होने के दो-एक दिन बाद ही कुणाल ने एक रात शराब पीकर फ़ोन किया था और बदतमीजी की थी. उस किस्से को इससे ज़्यादा बताने के लिए मुझे इस पत्र में काफ़ी गिरना पड़ेगा, जो मैं नहीं चाहता. ख़ैर, यही बताना काफ़ी है कि हमारी फिर कभी बात नहीं हुई और मैं अपनी कहानी की किताब को लेकर तभी से चिंतित था क्योंकि ज्ञानपीठ में कहानी-संग्रहों का काम वही देख रहे थे. मैंने अपनी चिंता कालिया जी को बताई भी, लेकिन ज़ाहिर सी बात है कि उससे कुछ हुआ नहीं.
वैसे वे सब बदतमीजी करें और आप सहन न करें, यह तो अपराध है ना? वे राजा-राजकुमार हैं और आपका फ़र्ज़ है कि वे आपको अपमानित करें तो बदले में आप 'सॉरी' बोलें. यह अश्लील कहाँ है? ज्ञानपीठ इन्हीं सब चीजों के लिए तो बनाया गया है शायद! हमें चाहिए कि आप सबको सम्मान की नज़रों से देखें, अपनी कहानियां लिखें और तमाम राजाओं-राजकुमारों को खुश रखें. मेरे साथ के बहुत से काबिल-नाकाबिल लेखक ऐसा ही कर भी रहे हैं. ज्ञानपीठ से ही छपे एक युवा लेखक हैं जिन पर कालिया जी और कुणाल को नाराज़ कर देने का फ़ोबिया इस कदर बैठा हुआ है कि दोनों में से किसी का भी नाम लेते ही पूछते हैं कि कहीं मैं फ़ोन पर उनकी बातें रिकॉर्ड तो नहीं कर रहा और फिर काट देते हैं. अब ऐसे में क्या लिक्खा जाएगा? हम बात करते हैं अभिव्यक्ति, ग्लोबलाइजेशन और मानवाधिकारों की.
ख़ैर, राजकुमार चाहते रहे हैं कि वे किसी से नाराज़ हों तो उसे कुचल डालें. चाहना भी चाहिए. यही तो राजकुमारों को शोभा देता है. वे किसी को भी गाली दे सकते हैं और किसी की भी कहानी या किताब फाड़कर नाले में फेंक सकते हैं. कोलकाता के एक कमाल के युवा लेखक की कहानी आपकी पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ के एक विशेषांक में छपने की घोषणा की गई थी, लेकिन वह नहीं छपी और रहस्यमयी तरीके से आपके दफ़्तर से, ईमेल से उसकी हर प्रति गायब हो गई क्योंकि इसी बीच राजकुमार की आंखों को वह लड़का खटकने लगा. एक लेखक की किताब नवलेखन पुरस्कारों के इसी सेट में छपी है और जब वह प्रेस में छपने के लिए जाने वाली थी, उसी दिन संयोगवश उसने आपके दफ़्तर में आकर अपनी किताब की फ़ाइल देखी और पाया कि उसकी पहली कहानी के दस पेज गायब थे. यह संयोग ही है कि उसकी फ़ाइनल प्रूफ़ रीडिंग राजकुमार ने की थी और वे उस लेखक से भी नाराज़ थे. किस्से तो बहुत हैं. अपमान, अहंकार, अनदेखी और लापरवाही के. मैं तो यह भी सुनता हूं कि कैसे पत्रिका के लिए भेजी गई किसी गुमनाम लेखक की कहानी अपना मसाला डालकर अपनी कहानी में तब्दील की जा सकती है.
लेकिन अकेले कुणाल को इस सबके लिए जिम्मेदार मानना बहुत बड़ी भूल होगी. वे इतने बड़े पद पर नहीं हैं कि ऊपर के लोगों की मर्ज़ी के बिना यह सब कर सकें. समय बहुत जटिल है और व्यवस्था भी. सब कुछ टूटता-बिगड़ता जा रहा है और बेशर्म मोहरे इस तरह रखे हुए हैं कि ज़िम्मेदारी किसी की न रहे.
नामवर जी, आप सुन रहे हैं कि मेरी 'सम्मानित' की गई किताब क्या है? वह जिसके बारे में अखबारों में बड़े गौरवशाली शब्दों में कुछ छपा था और जून की एक दोपहर आपने फ़ोन करके बधाई दी थी, वह ख़ालिस गंदगी है.
मैं फिर भी आलोक जैन जी को ईमेल लिखता हूं. उसका भी कोई जवाब नहीं आता. मैं फ़ेसबुक पर लिखता हूं कि मेरी किताब के बारे में भारतीय ज्ञानपीठ के ट्रस्टी की यह राय है. इसी बीच आलोक जैन फ़ोन करते हैं और मुझे तीसरी ही वजह बताते हैं. वे कहते हैं कि यूं तो उन्हें मेरा लिखा पसंद नहीं और वे नहीं चाहते थे कि मेरी कविताओं को पुरस्कार मिले (उन्होंने भी पढ़ी तब प्रतियोगिता के समय किताब?), लेकिन फिर भी उन्होंने नामवर सिंह जी की राय का आदर किया और पुरस्कार मिलने दिया. (यह उनकी महानता है!) वे आगे कहते हैं, "लेकिन एक लेखक को दो विधाओं के लिए नवलेखन पुरस्कार नहीं दिया जा सकता." लेकिन जनाब, पहली बात तो यह नियम नहीं है कहीं और है भी, तो पुरस्कार तो एक ही मिला है. वे कहते हैं कि नहीं, अनुशंसा भी पुरस्कार है और उन्होंने 'कालिया' को पुरस्कारों की घोषणा के समय ही कहा था कि यह गलत है. उनकी आवाज ऊंची होती जाती है और वे ज्यादातर बार सिर्फ 'कालिया' ही बोलते हैं.
वे कहते हैं कि एक बार ऐसी गलती हो चुकी है, जब कालिया ने कुणाल सिंह को एक बार कहानी के लिए और बाद में उपन्यास के लिए नवलेखन पुरस्कार दिलवा दिया. अब यह दुबारा नहीं होनी चाहिए. तो पुरस्कार ऐसे भी दिलवाए जाते हैं? और अगर वह ग़लती थी तो क्यों नहीं उसे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया जाता और वह पुरस्कार वापस लिया जाता? मेरी तो किताब को ही पुरस्कार कहकर नहीं छापा जा रहा. और यह सब पता चलने में एक साल क्यों लगा? क्या लेखक का सम्मान कुछ नहीं और उसका समय?
यह सब पूछने पर वे लगभग चिल्लाने लगते हैं कि वे हस्तक्षेप नहीं करेंगे, कालिया जी जो भी 'गंदगी' छापना चाहें, छापें और भले ही ज्ञानपीठ को बर्बाद कर दें. नामवर जी, आप सुन रहे हैं कि मेरी 'सम्मानित' की गई किताब क्या है? वह जिसके बारे में अखबारों में बड़े गौरवशाली शब्दों में कुछ छपा था और जून की एक दोपहर आपने फ़ोन करके बधाई दी थी, वह ख़ालिस गंदगी है. इसके बाद आलोक जी गुस्से में फ़ोन काट देते हैं. ज्ञानपीठ का ही एक कर्मचारी मुझसे कहता है कि चूंकि तकनीकी रूप से मेरे कहानी-संग्रह को छापने से मना नहीं किया जा सकता, इसलिए मुझे उकसाया जा रहा है कि मैं खुद ही अपनी किताब वापस ले लूं, ताकि जान छूटे.
सब कुछ अजीब है. चालाक, चक्करदार और बेहद अपमानजनक. शायद मेरे बार-बार के ईमेल्स का असर है कि आलोक जैन, जो कह रहे थे कि वे कभी ज्ञानपीठ के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करते, मुझे एक दिन फ़ोन करते हैं और कहते हैं, "मैंने कालिया से किताब छापने के लिए कह दिया है. थैंक यू." वे कहते हैं कि उनकी मेरे बारे में और पुरस्कार के बारे में राय अब तक नहीं बदली है और ये जो भी हैं - बारह शब्दों के दो वाक्य - मुझे बासी रोटी के दो टुकड़ों जैसे सुनते हैं. यह तो मुझे बाद में पता चलता है कि यह भी झूठी तसल्ली भर है ताकि मैं चुप बैठा रहूं.
फ़ोन का सिलसिला चलता रहता है. वे अगली सुबह फिर से फ़ोन करते हैं और सीधे कहते हैं कि आज महावीर जयंती है, इसलिए वे मुझे क्षमा कर रहे हैं. लेकिन मेरी गलती क्या है? तुमने इंटरनेट पर यह क्यों लिखा कि मैंने तुम्हारी किताब के बारे में ऐसा कहा? उन्हें गुस्सा आ रहा है और वे जज्ब कर रहे हैं. वे मुझे बताते जाते हैं, फिर से वही, कि मेरी दो किताबों को छापने का निर्णय गलत था, कि मैं खराब लिखता हूं, लेकिन फिर भी उन्होंने कल कहा है कि किताब छप जाए, इतनी किताब छपती हैं वैसे भी. मैं अपना पक्ष रखना चाहता हूं कि मेरी क्या गलती है, मुझे आप लोगों ने चुना, फिर जाने क्यों छापने से मना किया, फिर कहा कि छापेंगे, फिर मना किया और अब फिर टुकड़े फेंकने की तरह छापने का कह रहे हैं. और जो भी हो, आप इस तरह कैसे बात कर सकते हैं अपने एक लेखक से? लेकिन मैं जैसे ही बोलने लगता हूं, वे चिल्लाने लगते हैं- जब कह रहा हूं कि मुझे गुस्सा मत दिला तू. कुछ भी करो, कुछ भी कहो, कोई तुम्हारी बात नहीं सुनेगा, कोई तुम्हारी बात का यक़ीन नहीं करेगा, उल्टे तुम्हारी ही भद पिटेगी. इसलिए अच्छा यही है कि मुझे गुस्सा मत दिलाओ. यह धमकी है. मैं कहता हूं कि आप बड़े आदमी हैं लेकिन मेरा सच, फिर भी सच ही है, लेकिन वे फिर चुप करवा देते हैं. बात उनकी इच्छा से शुरू होती है, आवाज़ें उनकी इच्छा से दबती और उठती हैं और कॉल पूरी.
कभी तू, कभी तुम, कभी चिल्लाना, कभी पुचकारना, सार्वजनिक रूप से सम्मानित करने की बात करना और फ़ोन पर दुतकारकर बताना कि तुम कितने मामूली हो- हमारे पैरों की धूल. मुझे ठीक से समझ नहीं आ रहा कि नवलेखन पुरस्कार लेखकों को सम्मानित करने के लिए दिए जाते हैं या उन्हें अपमानित करने के लिए. यह उनका एंट्रेंस टेस्ट है शायद कि या तो वे इस पूरी व्यवस्था का 'कुत्ता' बन जाएं या फिर जाएं भाड़ में. और इस पूरी बात में उस 'गलती' की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता, जब आप अपने यहां काम करने वाले लेखक को यह पुरस्कार देते हैं, दो बार. और दूर-दराज के कितने ही लेखकों की कहानियां-कविताएं-किताबें महीनों आपके पास पड़ी रहती हैं और ख़त्म हो जाती हैं. बहुत लिख दिया. शायद यही 'एटीट्यूड' और 'फ्रैंकनैस' है मेरा, जिसकी बात कालिया जी ने फ़ोन पर की थी. लेकिन क्या करूं, मुझसे नहीं होता यह सब. मैं इन घिनौनी बातचीतों, मामूली उपलब्धियों के लिए रचे जा रहे मामूली षड्यंत्रों और बदतमीज़ फ़ोन कॉलों का हिस्सा बनने के लिए लिखने नहीं लगा था, न ही अपनी किताब को आपके खेलने की फ़ुटबॉल बनाने के लिए. माफ़ कीजिए, मैं आप सबकी इस व्यवस्था में कहीं फिट नहीं बैठता. ऊपर से परेशानियां और खड़ी करता हूं. आपके हाथ में बहुत कुछ होगा (आपको तो लगता होगा कि बनाने-बिगाड़ने की शक्ति भी) लेकिन मेरे हाथ में मेरे लिखने, मेरे आत्मसम्मान और मेरे सच के अलावा कुछ नहीं है. और मैं नहीं चाहता कि सम्मान सिर्फ़ कुछ हज़ार का चेक बनकर रह जाए या किसी किताब की कुछ सौ प्रतियाँ. मेरे बार-बार के अनुरोध जबरदस्ती किताब छपवाने के लिए नहीं थे सर, उस सम्मान को पाने के लिए थे, जिस पर पुरस्कार पाने या न पाने वाले किसी भी लेखक का बुनियादी हक होना चाहिए था. लेकिन वही आप दे नहीं सकते. मैं देखता हूं यहाँ लेखकों को - संस्थाओं और उनके मुखियाओं के इशारों पर नाचते हुए, बरसों सिर झुकाकर खड़े रहते हुए ताकि किसी दिन एक बड़े पुरस्कार को हाथ में लिए हुए खिंचती तस्वीर में सिर उठा सकें. लेकिन उन तस्वीरों में से मुझे हटा दीजिए और कृपया मेरा सिर बख़्श दीजिए. फ़ोन पर तो आप किताब छापने के लिए तीन बार ‘हां’ और तीन बार ‘ना’ कह चुके हैं, लेकिन आपने अब तक मेरे एक भी पत्र का जवाब नहीं दिया है. आलोक जी के आख़िरी फ़ोन के बाद लिखे गए एक महीने पहले के उस ईमेल का भी, जिसमें मैंने कालिया जी से बस यही आग्रह किया था कि जो भी हो, मेरी किताब की अंतिम स्थिति मुझे लिखकर बता दी जाए, मैं इसके अलावा कुछ नहीं चाहता. उनका एसएमएस ज़रूर आया था कि जल्दी ही जवाब भेजेंगे. उस जल्दी की मियाद शायद एक महीने में ख़त्म नहीं हुई है.
मैं जानता हूं कि आप लोग अपनी नीयत के हाथों मजबूर हैं. आपके यहां कुछ धर्म जैसा होता हो तो आपको धर्मसंकट से बचाने के लिए और अपने सिर को बचाने के लिए मैं ख़ुद ही नवलेखन पुरस्कार लेने से इनकार करता हूं और अपनी दोनों किताबें भी भारतीय ज्ञानपीठ से वापस लेता हूं, मुझे चुनने वाली उस ज्यूरी के प्रति पूरे सम्मान के साथ, जिसे आपने थोड़े भी सम्मान के लायक नहीं समझा. कृपया मेरी किताबों को न छापें, न बेचें. और जानता हूं कि इनके बिना कैसी सत्ता, लेकिन फिर भी आग्रह कर रहा हूं कि हो सके तो ये पुरस्कारों के नाटक बन्द कर दें और हो सके, तो कुछ लोगों के पद नहीं, बल्कि किसी तरह भारतीय ज्ञानपीठ की वह मर्यादा बचाए रखें, जिसे बचाने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है.
सुनता हूं कि आप शक्तिशाली हैं. लोग कहते हैं कि आपको नाराज़ करना मेरे लिए अच्छा नहीं. हो सकता है कि साहित्य के बहुत से खेमों, प्रकाशनों, संस्थानों से मेरी किताबें कभी न छपें, आपके पालतू आलोचक लगातार मुझे अनदेखा करते रहें और आपके राजकुमारों और उनके दरबारियों को महान सिद्ध करते रहें, या और भी कोई बड़ी कीमत मुझे चुकानी पड़े. लेकिन फिर भी यह सब इसलिए ज़रूरी है ताकि बरसों बाद मेरी कमर भले ही झुके, लेकिन अतीत को याद कर माथा कभी न झुके, इसलिए कि आपको याद दिला सकूं कि अभी भी वक़्त उतना बुरा नहीं आया है कि आप पच्चीस हज़ार या पच्चीस लाख में किसी लेखक को बार-बार अपमानित कर सकें, इसलिए कि हम भले ही भूखे मरें लेकिन सच बोलने का जुनून बहुत बेशर्मी से हमारी ज़बान से चिपककर बैठ गया है और इसलिए कि जब-जब आप और आपके साहित्यिक वंशज इतिहास में, कोर्स की किताबों में, हिन्दी के विश्वविद्यालयों और संस्थानों में महान हो रहे हों, तब-तब मैं अपने सच के साथ आऊं और उस भव्यता में चुभूं.
तब तक शायद हम सब थोड़े बेहतर हों और अपने भीतर की हिंसा पर काबू पाएँ.
गौरव सोलंकी
11/05/2012
(फोटो 'तहलका' वेबसाइट से 'साभार')

शनिवार, 12 मई 2012

खोल दो...

सआदत हसन मंटो ने कहा था, ''मैं तो सिर्फ वही लिखता हूं जो कुछ इस समाज में मुझे दिखाई देता है। अगर आप मेरी लेखनी को बर्दाश्त नहीं कर पाते, तो इसका मतलब है कि समाज नाकाबिले-बर्दाश्त हो चुका है।'' समाज को इतनी बारीकी से पढ़ने और पहचानने वाले मंटो आज होते तो सौ साल के होते। उनकी कहानियां आज भी हैं, सौ साल बाद भी रहेंगी। उनकी एक 'बदनाम' कहानी शेयर कर रहा हूं। बर्दाश्त कर सकें तो कीजिए....

खोल दो
अमृतसर से स्पेशल ट्रेन दोपहर दो बजे चली और आठ घंटों के बाद मुगलपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। अनेक जख्मी हुए और कुछ इधर-उधर भटक गए।
सुबह दस बजे कैंप की ठंडी जमीन पर जब सिराजुद्दीन ने आंखें खोलीं और अपने चारों तरफ मर्दों, औरतों और बच्चों का एक उमड़ता समुद्र देखा तो उसकी सोचने-समझने की शक्तियां और भी बूढ़ी हो गईं। वह देर तक गंदले आसमान को टकटकी बांधे देखता रहा। यूं ते कैंप में शोर मचा हुआ था, लेकिन बूढ़े सिराजुद्दीन के कान तो जैसे बंद थे। उसे कुछ सुनाई नहीं देता था। कोई उसे देखता तो यह ख्याल करता की वह किसी गहरी नींद में गर्क है, मगर ऐसा नहीं था। उसके होशो-हवास गायब थे। उसका सारा अस्तित्व शून्य में लटका हुआ था।
गंदले आसमान की तरफ बगैर किसी इरादे के देखते-देखते सिराजुद्दीन की निगाहें सूरज से टकराईं। तेज रोशनी उसके अस्तित्व की रग-रग में उतर गई और वह जाग उठा। ऊपर-तले उसके दिमाग में कई तस्वीरें दौड़ गईं-लूट, आग, भागम-भाग, स्टेशन, गोलियां, रात और सकीना...सिराजुद्दीन एकदम उठ खड़ा हुआ और पागलों की तरह उसने चारों तरफ फैले हुए इनसानों के समुद्र को खंगालना शुरु कर दिया।
पूरे तीन घंटे बाद वह ‘सकीना-सकीना’ पुकारता कैंप की खाक छानता रहा, मगर उसे अपनी जवान इकलौती बेटी का कोई पता न मिला। चारों तरफ एक धांधली-सी मची थी। कोई अपना बच्चा ढूंढ रहा था, कोई मां, कोई बीबी और कोई बेटी। सिराजुद्दीन थक-हारकर एक तरफ बैठ गया और मस्तिष्क पर जोर देकर सोचने लगा कि सकीना उससे कब और कहां अलग हुई, लेकिन सोचते-सोचते उसका दिमाग सकीना की मां की लाश पर जम जाता, जिसकी सारी अंतड़ियां बाहर निकली हुईं थीं। उससे आगे वह और कुछ न सोच सका।
सकीना की मां मर चुकी थी। उसने सिराजुद्दीन की आंखों के सामने दम तोड़ा था, लेकिन सकीना कहां थी , जिसके विषय में मां ने मरते हुए कहा था, "मुझे छोड़ दो और सकीना को लेकर जल्दी से यहां से भाग जाओ।"
सकीना उसके साथ ही थी। दोनों नंगे पांव भाग रहे थे। सकीना का दुप्पटा गिर पड़ा था। उसे उठाने के लिए उसने रुकना चाहा था। सकीना ने चिल्लाकर कहा था "अब्बाजी छोड़िए!" लेकिन उसने दुप्पटा उठा लिया था।....यह सोचते-सोचते उसने अपने कोट की उभरी हुई जेब का तरफ देखा और उसमें हाथ डालकर एक कपड़ा निकाला, सकीना का वही दुप्पटा था, लेकिन सकीना कहां थी?
सिराजुद्दीन ने अपने थके हुए दिमाग पर बहुत जोर दिया, मगर वह किसी नतीजे पर न पहुंच सका। क्या वह सकीना को अपने साथ स्टेशन तक ले आया था?- क्या वह उसके साथ ही गाड़ी में सवार थी?- रास्ते में जब गाड़ी रोकी गई थी और बलवाई अंदर घुस आए थे तो क्या वह बेहोश हो गया था, जो वे सकीना को उठा कर ले गए?
सिराजुद्दीन के दिमाग में सवाल ही सवाल थे, जवाब कोई भी नहीं था। उसको हमदर्दी की जरूरत थी, लेकिन चारों तरफ जितने भी इनसान फंसे हुए थे, सबको हमदर्दी की जरूरत थी। सिराजुद्दीन ने रोना चाहा, मगर आंखों ने उसकी मदद न की। आंसू न जाने कहां गायब हो गए थे।
छह रोज बाद जब होश-व-हवास किसी कदर दुरुसत हुए तो सिराजुद्दीन उन लोगों से मिला जो उसकी मदद करने को तैयार थे। आठ नौजवान थे, जिनके पास लाठियां थीं, बंदूकें थीं। सिराजुद्दीन ने उनको लाख-लाख दुआऐं दीं और सकीना का हुलिया बताया, गोरा रंग है और बहुत खूबसूरत है... मुझ पर नहीं अपनी मां पर थी...उम्र सत्रह वर्ष के करीब है।...आंखें बड़ी-बड़ी...बाल स्याह, दाहिने गाल पर मोटा सा तिल...मेरी इकलौती लड़की है। ढूंढ लाओ, खुदा तुम्हारा भला करेगा।
रजाकार नौजवानों ने बड़े जज्बे के साथ बूढे¸ सिराजुद्दीन को यकीन दिलाया कि अगर उसकी बेटी जिंदा हुई तो चंद ही दिनों में उसके पास होगी।
आठों नौजवानों ने कोशिश की। जान हथेली पर रखकर वे अमृतसर गए। कई मर्दों और कई बच्चों को निकाल-निकालकर उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया। दस रोज गुजर गए, मगर उन्हें सकीना न मिली।
एक रोज इसी सेवा के लिए लारी पर अमृतसर जा रहे थे कि छहररा के पास सड़क पर उन्हें एक लड़की दिखाई दी। लारी की आवाज सुनकर वह बिदकी और भागना शुरू कर दिया। रजाकारों ने मोटर रोकी और सबके-सब उसके पीछे भागे। एक खेत में उन्होंने लड़की को पकड़ लिया। देखा, तो बहुत खूबसूरत थी। दाहिने गाल पर मोटा तिल था। एक लड़के ने उससे कहा, घबराओ नहीं-क्या तुम्हारा नाम सकीना है?
लड़की का रंग और भी जर्द हो गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन जब तमाम लड़कों ने उसे दम-दिलासा दिया तो उसकी दहशत दूर हुई और उसने मान लिया कि वो सराजुद्दीन की बेटी सकीना है।
आठ रजाकार नौजवानों ने हर तरह से सकीना की दिलजोई की। उसे खाना खिलाया, दूध पिलाया और लारी में बैठा दिया। एक ने अपना कोट उतारकर उसे दे दिया, क्योंकि दुपट्टा न होने के कारण वह बहुत उलझन महसूस कर रही थी और बार-बार बांहों से अपने सीने को ढकने की कोशिश में लगी हुई थी।
कई दिन गुजर गए- सिराजुद्दीन को सकीना की कोई खबर न मिली। वह दिन-भर विभिन्न कैंपों और दफ्तरों के चक्कर काटता रहता, लेकिन कहीं भी उसकी बेटी का पता न चला। रात को वह बहुत देर तक उन रजाकार नौजवानों की कामयाबी के लिए दुआएं मांगता रहता, जिन्होंने उसे यकीन दिलाया था कि अगर सकीना जिंदा हुई तो चंद दिनों में ही उसे ढूंढ निकालेंगे।
एक रोज सिराजुद्दीन ने कैंप में उन नौजवान रजाकारों को देखा। लारी में बैठे थे। सिराजुद्दीन भागा-भागा उनके पास गया। लारी चलने ही वाली थी कि उसने पूछा-बेटा, मेरी सकीना का पता चला?
सबने एक जवाब होकर कहा, चल जाएगा, चल जाएगा। और लारी चला दी। सिराजुद्दीन ने एक बार फिर उन नौजवानों की कामयाबी की दुआ मांगी और उसका जी किसी कदर हलका हो गया।
शाम को करीब कैंप में जहां सिराजुद्दीन बैठा था, उसके पास ही कुछ गड़बड़-सी हुई। चार आदमी कुछ उठाकर ला रहे थे। उसने मालूम किया तो पता चला कि एक लड़की रेलवे लाइन के पास बेहोश पड़ी थी। लोग उसे उठाकर लाए हैं। सिराजुद्दीन उनके पीछे हो लिया। लोगों ने लड़की को अस्पताल वालों के सुपुर्द किया और चले गए।
कुछ देर वह ऐसे ही अस्पताल के बाहर गड़े हुए लकड़ी के खंबे के साथ लगकर खड़ा रहा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता अंदर चला गया। कमरे में कोई नहीं था। एक स्ट्रेचर था, जिस पर एक लाश पड़ी थी। सिराजुद्दीन छोटे-छोटे कदम उठाता उसकी तरफ बढ़ा। कमरे में अचानक रोशनी हुई। सिराजुद्दीन ने लाश के जर्द चेहरे पर चमकता हुआ तिल देखा और चिल्लाया-सकीना
डॉक्टर, जिसने कमरे में रोशनी की थी, ने सिराजुद्दीन से पूछा, क्या है?
सिराजुद्दीन के हलक से सिर्फ इस कदर निकल सका, जी मैं...जी मैं...इसका बाप हूं।
डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी हुई लाश की नब्ज टटोली और सिराजुद्दीन से कहा, खिड़की खोल दो।
सकीना के मुद्रा जिस्म में जुंबिश हुई। बेजान हाथों से उसने इज़ारबंद खोला और सलवार नीचे सरका दी। बूढ़ा सिराजुद्दीन खुशी से चिल्लाया, जिंदा है-मेरी बेटी जिंदा है?

सआदत हसन मंटो
(11 मई 1912-18 जनवरी 1955)

बुधवार, 2 मई 2012

शर्म से कहिए कि वो 'मुसलमान' है...


दिल्ली में कई बार ऐसा हुआ कि मैं और मेरे मुसलमान साथी किराए के लिए कमरा ढूंढने निकले हों और मकान मालिक ने सब कुछ तय हो जाने के बाद हमें कमरा देने से इनकार कर दिया हो। कई बार मुसलमान साथी के सामने ही तो कई बार मुझे अकेले में बताते हुए। इस उम्मीद से कि मैं हिंदू हूं तो उसकी बात समझ ही लूंगा। कई बार दिल्ली की तीखी ज़ुबान से बिहारी सुनने का भी कड़वा अनुभव रहा है। मगर, ऐसे लोगों की बौद्धिक हैसियत पर मन ही मन हंसकर चुपचाप सह लेना ही बुद्धिमानी लगता रहा है।

लेकिन, 20 साल के आरज़ू सिद्दीकी के साथ सिर्फ इतना कहकर ही बात ख़त्म नहीं की गई। सिर्फ कहकर छोड़ दिया जाता तो वो भी सुनकर लौट आता, सह लेता। उसे मारा-पीटा गया। उस कॉलेज के भीतर जहां वो मीडिया की पढ़ाई करता है। उस आदमी ने पीटा, जिसकी बीवी को वो दो दिन पहले ख़ून देकर आय़ा था। सिर्फ एक बार ही नहीं पीटा गया उसे, कॉलेज के प्रिंसिपल जी के अरोड़ा ने भी बजाय उसे दिलासा देने के, पहले ‘मुसलमान’ और ‘बिहारी’ कहा और फिर बाद में सस्पेंड कर दिया। एक सड़कछाप गुंडे से भी बदतर अंदाज़ में उसका करियर तबाह करने की धमकी दी। महीने भर बाद जब आरज़ू अपने करियर की दुहाई लेकर प्रिंसिपल के पास दोबारा गया और परीक्षा में बैठने देने की अनुमति मांगी तो उसे फिर धमकाया गया। आरज़ू ने बताया कि वो बेहद ग़रीब परिवार से है और उसका एक साल बरबाद होने की ख़बर सुनकर घरवाले मर जाएंगे। वो भी जी नहीं सकेगा। कुर्सी की धौंस में प्रिंसिपल ने ‘मुसलमान’ और ‘बिहारी’ आरज़ू को मर जाने की बेहतर सलाह दी। आरज़ू ने तनाव में आकर आत्मदाह तक का मन बना लिया। मगर, इस युवा साथी की मानसिक स्थिति समझने और उसे सहारा देने के बजाय कॉलेज वालों ने उसे पुलिस के हवाले कर दिया।  



'जनसत्ता' में 8 जून 2012 को प्रकाशित
 
आरज़ू सिद्दीकी, जिसका जुर्म ये है कि वो मुसलमान है,
बिहारी है और ग़रीब भी है...
आरज़ू परीक्षा के पेपर देने के बजाय कोर्ट की पेशी झेलने को मजबूर हो गया। उसे मानसिक सुधार गृह में रख दिया गया। ये साबित करने की कोशिश की गई कि वो पागल है, उसका दिमागी संतुलन बिगड़ गया है। मगर डॉक्टर्स ने आरज़ू के कुछ साथियों के दबाव को देखते हुए ऐसा लिखने की मेहरबानी नहीं की। नतीजा ये हुआ कि कोर्ट को उसे रिहा करना पड़ा। फिलहाल आरज़ू दिल्ली की सड़कों पर घूम रहा है। उस पर हर तरफ से दबाव है कि वो आगे कोई ग़लतक़दम न उठाए। दिल्ली यूनिवर्सिटी की डिसिप्लीनरी कमेटी अब इस मामले की नज़ाकत को समझ रही है और आरज़ू को वहां भी पेशी के लिए बुलाया गया है।

मगर, सवाल ये है कि क्या सारा दोष सिर्फ आरज़ू का ही है। एक 20 साल के लड़के को तमाम गालियों के साथ मुसलमान और बिहारी कहकर मर जाने को उकसाने वाले उस प्रिंसिपल और उसके गैंग को समाज के सामने शर्मिंदा नहीं किया जाना चाहिए। क्या उनको ये अहसास नहीं होना चाहिए कि कुर्सी पर बैठ जाने से उनके सामने का हर आम आदमी कीड़ा-मकोड़ा नहीं हो जाता। वो भी तब जब अंबेडकर के नाम पर कॉलेज हो और उसका प्रिंसिपल ऐसा ग़ैर-संवेदनशील, रेसिस्ट और असामाजिक हो।  

ये भी बताते चलें कि आरज़ू के पिता के पिता पटना में चूड़ियां बेचकर किसी तरह परिवार का गुज़ारा करते हैं। आरज़ू की हिम्मत नहीं हुई कि वो अपने साथ हुई इस ज़्यादती की ख़बर घर पर दे सके। वो ज़िंदगी में चूड़ियां बेचने से कुछ अलग और बेहतर करना चाहता था इसीलिए दिल्ली चला आया। मगर, उसके मुसलमान या बिहारी या ग़रीब होने ने उसके बाक़ी तमाम सपनों को फिलहाल कुचल कर रख दिया है। उसकी हालत अभी क्या है, सिर्फ वही समझ सकता है। उसने प्रधानमंत्री से लेकर बिहार के मुख्यमंत्री तक को तमाम चिट्ठियां लिख दी हैं मगर सब के सब उतने ही शांत और बेफिक्र हैं।

क्या आप और हम आरज़ू सिद्दीकी के लिए कुछ नहीं कर सकते

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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