रविवार, 30 जून 2013

एक मामूली आदमी की डायरी-2

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करीब तीन साल पुरानी बात है..ज़ी यूपी में था तब पहली बार मीडिया खबर के बारे में पता चला था..हमारे सम्पादक वसिन्द्र मिश्र के 'खिलाफ' धडाधड खबरें छपती थीं और मेरी न्यूज़ रूम  में 'अलग' इमेज के चलते उन्हें लगा कि मैं ही पुष्कर पुष्प और मीडिया खबर का 'गुप्तचर' हूँ..शायद इस आधार पर कि पुष्कर का ताल्लुक भी बिहार (मुजफ्फरपुर) और जामिया से है..मुझे खूब लताड़ा गया और रात को मैंने उन्हें इस्तीफा मेल कर दिया था..हालांकि, ये अच्छा लगा था कि कोई 'मामूली' वेबसाइट भी बड़े संपादकों का हाजमा खराब कर सकती है..मन था कि पुष्कर से कभी मिला जाए और उनकी वेबसाइट पर आ रहे ताबड़तोड़ लेखों को जारी रखने के लिए उन्हें हौसला दिया जाए..

बहरहाल, अब जाकर पुष्कर से मेरी पहली मुलाक़ात 27 जून 2013 को मीडिया खबर के कॉन्क्लेव में हुई..अब आलम ये है कि पिछले कुछ महीनो से न तो मीडिया खबर का तेवर वो रहा और न ही मैं ज़ी में हूँ..जिस कॉन्क्लेव में पुष्कर से भेंट हुई, वो किसी कॉर्पोरेट कार्यक्रम की तर्ज़ पर आयोजित था...एस पी सिंह के नाम पर याद करने के सिवा कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे सुकून मिल सके कि मीडिया खबर अब भी वैसी ही वेबसाइट है जिससे किसी सम्पादक की नींद खराब हो जाए...ऐसा लग रहा था कि सारे कार्यक्रम बड़े संपादकों को 'आईना' दिखाने की बजाय उनके साथ मेलजोल बढाने, बोलने-बतियाने और उन्हें फूल मालाएं भेंट करने के लिए रखा गया था...हँसते-खेलते विनीत कुमार अपनी शैली में दो-चार खरी बातें कह भी गए तो किसी को कोई फर्क पड़ा होगा, लगता नहीं है...विनीत को शायद वो सब 'पर्सनली' जानते हैं इसीलिए उनसे किसी 'नुकसान' की उम्मीद या डर सबके चहरे से गायब था..वो सब उस कॉन्क्लेव में शर्मिंदा होने के बजाय 'एन्जॉय' कर रहे थे...

कमर वहीद नकवी ही थोड़े सेंसिटिव दिख रहे थे..हालांकि, वो भी इतिहास का हवाला देकर संपादकों और नौसिखिये कर्मचारियों की सैलरी में बड़े गैप को जस्टिफाई कर रहे थे..किसी ने ये सवाल नहीं पूछा कि अगर ये उन्हें 'नाजायज़' लगता है/था तो क्यों नहीं एक बड़े चैनल का मुखिया रहते उन्होंने इसे दुरुस्त करने कि कोशिश की..वह पैनल में बैठे मोटी चमड़ी वाले संपादकों से ये भी पूछा जाना चाहिए था कि नैतिकता के नाम पर अपनी सैलरी भी सार्वजनिक करते..

एक एडिटर साहेब थे, जिनके लिए मालिकों के तलवे चाटकर पत्रकारिता करने की अपनी मजबूरी अब कोई शर्म की बात नहीं लगती..उल्टे वो अपने कुतर्कों के साथ मज़ा ले रहे थे और सबसे पूछ रहे थे कि कोई विकल्प हो तो कहिये..कम से कम ये मत कहियेगा कि हम मीडिया की नौकरी छोड़कर जूते या कपडे सिलने लगें..ऐसी बेफिक्री और बेशर्मी सिर्फ और सिर्फ तभी आती है जब आपके पास नौकरी जाने के बाद रोटी-दाल का खतरा न हो..

सभी इस बात से सहमत दिखे कि सारी दिक्कत उनके 'पुअर मैनेजमेंट' कि वजह से नहीं बल्कि नए लोगों में 'क्वालिटी' की कमी की वजह से ही है..उनके इस भोले जवाब पर क्या किया जाए, अब तक सोच रहा हूँ..ऐसा कुतर्क कई दफे सुनता रहा हूँ और ऐसा लगने लगा है कि चैनलों में जो कुछ 'भला' बचा है, वो सब कुछ बूढ़े लोगों की वजह से ही बचा है..मुझे निजी तौर पर उन तरह के टेस्ट से सख्त एलर्जी है जिनमें अमरीका के उपराष्ट्रपति का नाम न जाने वाले को लाइब्रेरी का टेप ढोने लायक भी नहीं समझा जाए..

होना ये चाहिए था  कि कुछ यंग लोगों को मंच पर बिठाकर तमाम एडिटर्स को नीचे बिठाया जाना चाहिए था और आखिर में हाथ उठा-उठा कर उन्हें अपनी सफाई देने भर का मौक़ा देना चाहिए था..मीडिया खबर को अगर सचमुच कुछ अलग करना है तो 'रिस्क' उठाने को अपनी आदत बनाए रखना चाहिए..वरना , 'भड़ास' निकालने वाली वेबसाइट्स  की कोई कमी थोड़े ही है.. 

यूं तो कार्यक्रम 5 -7 घंटे चला मगर वहाँ सवाल पूछने वालों के लिए कोई समय नहीं था..वरना एक सवाल ज़रूर पूछता कि आप सब कौन सी चक्की का आटा खाते हैं जो आपको अब किसी बात का कोई फर्क नहीं पड़ता..हमें पड़ता है..तभी हम दिल्ली में अपना वक़्त बर्बाद कर आप लोगों को उम्मीद से सुनने जाते हैं और फिर अफ़सोस करते हुए लौट आते हैं..

भूल-चूक लेनी-देनी..

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 18 मई 2013

एक मामूली आदमी की डायरी-1

आजकल दो चीज़ों से बहुत परेशान हूं। पहली तो ये कि मेरी किसी भी 'बड़े आदमी' से कोई पहचान नहीं है। जिससे भी मिलता हूं, वो किसी न किसी तगड़ी पहचान के साथ आगे बढ़ता दिखता है। कैरियर में सफल  लोगों पर कोई बातचीत होती है तो अक्सर सुनता हूं कि फलां जगह वो चुना गया क्योंकि वहां उसकी उनसे पहले से ही पहचान थी। उनके लिए स्पॉट फिक्सिंग एक अपराध नहीं जीवनशैली है। हर क्षेत्र में कोई पैनल या कमिटी किसी नई नियुक्ति नहीं करती। एक गिरोह करता है, जिसमें चुने जाने वाले का कोई न कोई सगा ज़रूर होता है। इतनी सी बात से पूरा आत्मविश्वास हिल जाता है। नौकरी में जहां भी रहा, वफादारी से काम करता रहा। लोग काम की तारीफ भी करते हैं। मगर दावे से नहीं कह सकता कि वहां का बॉस या कोई 'बड़ा आदमी' मेरे साथ फुर्सत में उठऩा-बैठना पसंद करे। क्या बडे पद पर पहुंचने के लिए कोई और योग्यता चाहिए होती है। इन दिनों जिस तरह का कंपनी राज है, उसमें अगले दिन नौकरी रहेगी या नहीं, कुछ पता नहीं होता। लेकिन फिर भी उन लोगों की तरह क्यों नहीं हो पाता जो अच्छी तरह जानते हैं कि नौकरी में बने रहने के लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए। मुझे तो मोहल्ले में भी ठीक से कोई नहीं पहचानता। हमेशा डर लगा रहता है कि कोई भी मुझसे लड़ सकता है, जीत सकता है। कोई पुलिस वाला बिना बात की गाली बक सकता है। कोई दुकानदार मुझे सामान देने के लिए भीड़ के ख़त्म होने तक खड़ा रख सकता है। कोई नया लड़का ऊंची आवाज़ में मुझे नीचा दिखा सकता है। उम्र में जितना बड़ा होता जा रहा हूं, भीतर से उतना ही कमज़ोर भी।

दूसरी चीज़ परेशान करती है खुद को काबू में नहीं रख पाना। इतना कमज़ोर महसूस करने के बावजूद कई बार छोटी-छोटी बातों में ग़लत होता देखकर लड़ जाना अच्छा लगता है। अपना फायदा-नुकसान बाद में समझ आता है। चुप रहने की अदा सीखना चाहता हूं । वो लोग किस चक्की का आटा खाते हैं, जिन्हें कभी गुस्सा नहीं आता। हर बात में वो शांत दिखते हैं। उन्हें किसी चीज से कोई परेशानी नहीं होती। उन्हें लगता है कि जब तक उनके पास मोटी तनख़्वाह है, नौकरी सुरक्षित है, तब तक किसी और के लिए या किसी अच्छी वजह के लिए तर्क करना फालतू का काम है।

वो ग़लती से अगर किसी अनशन या आंदोलन के आसपास से गुजर भी जाएं तो नाक पर रुमाल रख लेते हैं। वो अपने घरों में बच्चों से क्या बातें करते होंगे, सोचता हूं। वो कसरत के लिए बच्चों को सांपों का वीडियो दिखाते होंगे। वो उन्हें इतना लचीला बना देना चाहते होंगे कि वो किसी बिल में दुबक कर आराम से ज़िंदगी गुजार सकें। वो जब स्कूल जाएं तो उनके लिए सबसे अच्छे पराठे हों, सबसे महंगे मोबाइल हों और सबसे अमीर दोस्त। वो अगर कॉलेज में पढने जाएं तो किताबों के बजाय किसी टीचर से सेटिंग करने में ज़्यादा माहिर हो सकें। अगर कभी पढ़ाने लग जाएं तो कॉपियां सही जांचने के बजाय ज्यादा कॉपियों के नाम पर ज़्यादा बिल भरने की कला सीख सकें। वो जिस पेशे में जाएं, महान बनन के तरीके ढूंढ निकालें। उनके लिए दोस्ती और दुश्मनी जेब में रखे चिल्लर से भी कम क़ीमती शब्द हों, जिनका इस्तेमाल मूंगफली खाने से लेकर किताबें छपवाने तक के लिए किया जा सके। ज़िंदगी उनके लिए प्रयोगशाला न होकर दलाली का अड्डा बन जाए। वो कृष्ण पक्ष में जिसके पीठ पीछे गालियां बकते रहें, जिनके खिलाफ उसूलों की दुहाई देते रहें, शुक्ल पक्ष में उनके साथ किट्टी पार्टियां करें, साहित्यिक विमर्श करें, एक-दूसरे की शादियों में लिफाफे लेकर जाएं और 'दोस्ती' के गाने साथ में गुनगुनाने लगें। वो रात को सोने से पहले एक गिलास गरम दूध पिएं, बुद्धिजीवी कहे जाएं और नए सांपों को अपनी तरह का बनाते जाएं। एक दिन वो और उनकी पाली-पोसी नई पीढी महान हो जाएं।

ऐसे कई नाम याद आ रहे हैं, जिनका नाम ले-लेकर ज़िक्र करने और ग़ुस्सा उतारने का मन हो रहा है, मगर इसमें कैरियर का नुकसान भी है और जान जाने का ख़तरा भी। बुद्धिजीवियों के गिरोह किसी आतंकवादी गिरोह से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक होते हैँ। ये बात पूरे होशोहवास में कह रहा हूं और इसका हर जीवित व्यक्ति,कहानी या घटना से पूरा संबंध है। किसी भी हालत में इसे संयोग न समझा जाए।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 4 मई 2013

धूप जब टेढ़ी होती है..

आप कैसे ठीक कह जाते हैं इतना..
कि हम संभालते रहते है हिज्जे..
पूर्ण विराम तक पहुंच नहीं पाते कभी,
सांस उखड़ने लगती है हर बार...

आप तो सांस भी ठीक लेते हैं..
छींकते भी ठीक ही हैं माशाअल्लाह..
महान होना का फायदा यही है,
आप कहीं भी महान बने रह सकते हैं..
मंदिर में, मस्जिद में, शौचालय में भी..
अस्पताल तक में डॉक्टर गर्व से भर जाता है
जब ठीक कर रहा होता है आपके बलतोड़..
कि ये एक महान आदमी का पिछवाड़ा है..

ये जो राजधानी बनी फिरती है..
स्वर्ग की फोटोकॉपी लगती है कभी-कभी..
यहां महान आदमी  विचरते हैं लाल बत्ती में..
धुआं छोडते ग़ायब हो जाते हैं देवता..
आम आदमी भी चलता है यहां आसमान में..
और टोकन लेने पर गायब हो जाता है पसीना..

आप ठीक कहते थे अक्सर
किताबों को उलटते-पलटते..
पुस्तकालय किसी दूसरी ग्रह का शब्द लगता है..
लाइब्रेरी एक आसान शब्द है..
जीभ अटकती नहीं कहीं भी..
महानता का आभास होता है..

धूप जब टेढी होती है..
तीखी और गुस्सैल भी..
आप सूरज से बचकर निकलते हैं..
कोई क्रीम लगाते हैं चेहरे पर..
और सूरज का सामना करने लगते हैं..
हमारे पास सूरज नहीं उतना..
कि हम सामना करें सूरज का..

किसी ने सिखाई ही नहीं ये तमीज़..
कमीज़ पहनना ही काफी नहीं है..
पैंट के भीतर होनी चाहिए कमीज़..
आपने ठीक ही कहा,
जूते पॉलिश होने चाहिए
मगर जूता भी होना चाहिए
पॉलिश के लिए सज्जनों...

हमें सिखलाया गया था रंग के बारे में..
कि ख़ून और पानी दो अलग रंग हैं..
पानी बहता है तो खुशी आती है..
खून बहता है तो खुशी जाती है..

आपको क्या सिखलाया गया था..
कौन-सी किताबें पढी थी आपने..
कि प्यास ख़ून से बुझती है..
और पानी बहता है पैसे की तरह ..
खून के धब्बे मिटाने में..
चाहे धब्बा कितना भी पुराना क्यों न हो...

चौरासी या दो हजार दो के धब्बे,
मिटाए जा सकते हैं अदालतों में...
तीस-चालीस-हजार बरस बाद भी..

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 14 अप्रैल 2013

मैं एंकर हूं और रिक्शे पर भी चलता हूं..

कई बार टीवी पर रोज़ सूट-बूट में आने वाले एंकरों पर लिखने का मन करता है। कैसे एक बार कैमरे के सामने आने के बाद उनकी बॉडी लैंग्वेज किसी 'तीसमारखां 'जैसी हो जाती है, कैसे वो ख़ुद को ''लार्जर दैन लाइफ'' समझने लगते हैं। और ये भी कि कैसे दस-बारह हज़ार रुपये की सैलरी में भी ख़ुद को  लखटकिया एंकर जैसा'मेंटेन' करने की मजबूरी उन्हें एक पत्रकार के बजाय किसी ऑर्केस्ट्रा का 'आइटम पीस' बनाकर छोड़ देती है, जिसके लिए चेहरे का चमकना और होठों से मुस्कुराना एक मजबूरी बन जाती है। एनडीटीवी एंकर रवीश कुमार के ब्लॉग पर ऐसा ही एक लेख दिखा तो 'आपबीती' पर भी शेयर करने का मन हुआ..रवीश लंबे समय तक टीवी पर रिपोर्टिंग करते दिखे और अचानक सूट-बूट में कैमरे के आगे बिठा दिए गए..ये लेख उनके एंकर बनने के बाद की घुटन का एक हिस्सा भर है..

महानगरों में आपके रहने का पता एक नई जाति है। दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों में जाति की पहचान की अपनी एक सीमा होती है। इसलिए कुछ मोहल्ले नए ब्राह्मण की तरह उदित हो गए हैं और इनके नाम ऋग्वेद के किसी मंत्र की तरह पढ़े जाते हैं। पूछने का पूरा लहज़ा ऐसा होता है कि बताते हुए कोई भी लजा जाए। दक्षिण हमारे वैदिक कर्मकांडीय पंरपरा से एक अशुभ दिशा माना जाता है। इस पर एक पुराना लेख इसी ब्लाग पर है। सूरज दक्षिणायन होता है तो हम शुभ काम नहीं करते। जैसे ही उत्तरायण होता है हम मकर संक्रांति मनाने लगते हैं। लेकिन मुंबई और दिल्ली में दक्षिण की महत्ता उत्तर से भी अधिक है। दक्षिण मतलब स्टेटस। मतलब नया ब्राह्मण।


जब तक रिपोर्टर था तब तक तो लोगों को मेरे ग़ाज़ियाबादी होने से कोई खास दिक्कत नहीं थी। जब से एंकर हो गया हूं लोग मुझसे मेरा पता इस अंदाज़ में पूछते हैं कि जैसे मैं कहने ही वाला हूं कि जी ज़ोर बाग वाली कोठी में इनदिनों नहीं रहता । बहुत ज़्यादा बड़ी है। सैनिक फार्म में भी भीड़ भाड़ हो गई है। पंचशील अमीरों के पते में थोड़ा लापता पता है। मतलब ठीक है आप साउथ दिल्ली में है। वो बात नहीं । फ्रैंड्स कालोनी की लुक ओखला और तैमूर नगर के कारण ज़ोर बाग वाली नहीं है मगर महारानी बाग के कारण थोड़ा झांसा तो मिल ही जाता है। आप कहने को साउथ में है पर सेंट्रल की बात कुछ अलग ही होती है । मैं जी बस अब इन सब से तंग आकर अमृता शेरगिल मार्ग पर रहने लगा हूं। खुशवंत सिंह ने बहुत कहा कि बेटे रवीश तू इतना बड़ा स्टार है, टीवी में आता है, तू न सुजान सिंह पार्क में रहा कर। अब देख खान मार्केट से अमृता शेर गिल मार्ग थोड़ी दूर पर ही है न। सुजान सिंह पार्क बिल्कुल क्लोज। काश ऐसा कह पाता । मैं साउथ और सेंट्रल दिल्ली में रहने वालों पर हंस नहीं रहा। जिन्होंने अपनी कमाई और समय रहते निवेश कर घर बनाया है उन पर तंज नहीं है। पर उनके इस ब्राह्रणवादी पते से मुझे तकलीफ हो रही है। मुझे हिक़ारत से क्यों देखते हो भाई ।


तो कह रहा था कि लोग पूछने लगे हैं कि आप कहां रहते हैं। जैसे ही ग़ाज़ियाबाद बोलता हूं उनके चेहरे पर जो रेखाएं उभरती हैं उससे तो यही आवाज़ आती लगती है कि निकालो इसे यहां से। किसे बुला लिया। मैं भी भारी चंठ। बोल देता हूं जी, आनंद विहार के पास, गाज़ीपुर है न वो कचड़े का पहाड़,उसी के आसपास रहता हूं। मैं क्या करूं कि गाज़ियाबाद में रहता हूं। अगर मैं टीवी के कारण कुछ लोगों की नज़र में कुछ हो गया हूं तो ग़ाज़ियाबाद उसमें कैसे वैल्यू सब्सट्रैक्शन (वैल्यू एडिशन का विपरीत) कैसे कर देता है। एक माॅल में गया था। माॅल का मैनेजर आगे पीछे करने लगा। चलिये बाहर तक छोड़ आता हूं। मैं कहता रहा कि भाई मुझे घूमने दो। जब वो गेट पर आया तो मेरी दस साल पुरानी सेंट्रो देखकर निराश हो गया। जैसे इसे बेकार ही एतना भाव दे दिये। वैसे दफ्तर से मिली एक कार और है। रिक्शे पर चलता फिरता किसी को नज़र आता हूं तो लोग ऐसे देखते हैं जैसे लगता है एनडीटीवी ने दो साल से पैसे नहीं दिये बेचारे को।

कहने का मतलब है कि आपकी स्वाभाविकता आपके हाथ में नहीं रहती। प्राइम टाइम का एंकर न हो गया फालतू में बवाल सर पर आ गया है । तभी कहूं कि हमारे कई हमपेशा एंकर ऐसे टेढ़े क्यों चलते हैं। शायद वो लोगों की उठती गिरती नज़रों से थोड़े झुक से जाते होंगे। मुझे याद है हमारी एक हमपेशा एंकर ने कहा था कि मैं फ्रैड्स कालोनी रहती हूं । डी ब्लाक। फ्रेड्स कालोनी के बारे में थोड़ा आइडिया मुझे था। कुछ दोस्त वहां रहते हैं। जब बारीकी से पूछने लगा तो ओखला की एक कालोनी का नाम बताने लगीं। बड़ा दुख हुआ। आप अपनी असलीयत को लेकर इतने शर्मसार हैं तो जाने कितने झूठ रचते होंगे दिन भर। इसलिए जो लोग मुझे देख रहे हैं उनसे यही गुजारिश है कि हम लोग बाकी लोगों की तरह मामूली लोग होते हैं। स्टार तो बिल्कुल ही नहीं। हम भी कर्मचारी हैं । काम ही ऐसा है कि सौ पचास लोग पहचान लेते हैं। जैसे शहर के चौराहे पर कोई होर्डिंग टंगी होती है उसी तरह से हम टीवी में टंगे होते हैं। मैंने कई एंकरों की चाल देखी है । जैसे पावर ड्रेसिंग होती है वैसे ही पावर वाॅक होती है । ऐसे झटकते हैं जैसे अमित जी जा रहे हों । उनकी निगाहें हरदम नापती रहती हैं कि सामने से आ रहा पहचानता है कि नहीं । जैसे ही कोई पहचान लेता है उनके चेहरे  पर राहत देखिये । और जब पहचानने वाला उन्हें पहचान कर दूसरे एंकर और चैनल का नाम लेता है तो उस एंकर के चेहरे पर आफ़त देखिये !

तो हज़रात मैं ग़ाज़ियाबाद में रहता हूं। मूल बात है कि औकात भी यही रहने की है। इसलिए सवाल मेरी पसंद का भी नहीं है। बाकी एंकरों का नहीं मालूम। आप उनसे पूछ लीजिएगा। लेकिन नाम सही लीजियेगा । बेचारों पर कुछ तो दया कीजिये ।

रवीश कुमार

रविवार, 31 मार्च 2013

खुली हवाओं की कविताएं

एक आदमी जो फंस गया था
आंदोलन कर रही भीड़ के बीच में
किसी तरकारी का नाम याद कर रहा था
और बुदबुदा रहा था होठों से
अपनी पत्नी या प्रेमिका का नाम।
आपने क्रांति का नारा समझ लिया
आंसू गैस छोड़े और गोली दाग दी।
जब आप व्यवस्था के नाम पर
गोलियां बरसा रहे थे भीड़ पर,
वहां खड़े कुछ लोगों को
ज़रा देर से लगी होती गोली,
तो पूरी हो सकती थीं
उम्मीद की सैंकड़ों कविताएं।
कहां तक मारे जाएंगे सपने?
कितनी जगह होगी आपकी जेलों में
जब ज़मीन के दलाल
बेच चुके होंगे आख़िरी टुकड़ा.
कहां जेल बनाएंगे आप?
हम बीच सड़क पर ख़ूब कहकहे लगाएंगे
आप गाड़ियों में लादकर कहां ले जाएंगे
पेड़ नहीं होगी, घास नहीं होगी
किस कागज़ पर दर्ज करेंगे
झूठे केस-मुकदमे।
हमें लाठियों-डंडों-गोलियों से कूटेंगे
ठूंस देंगे किसी सडांध भरी जगह में
हम अचार बनाएंगे
पापड़ बनाएंगे
आप किटी पार्टियों में स्टॉल लगाएंगे
और ख़ूब अमीर हो जाएंगे।
आप हमारी ज़ुबान पर ताले जड़ देंगे
सूरज को छिपा देंगे कहीं तहख़ाने में
हम सुंदर कविताएं लिखेंगे तब
नीम अंधेरे में।
सड़ांध वाले कमरों में
खुली हवाओं की कविताएं।

सोमवार, 25 मार्च 2013

घर में पधारो 'योयो' जी..

हनी सिंह का रैपर अंश
हिमाचल-पंजाब से लेकर बिहार-झारखंड तक के शादी समारोहों में दो चीज़ें ज़रूर होती हैं। एक तो वीडियो कैमरा और दूसरा डीजे। कैमरे का स्तर तो बहुत ज़्यादा नहीं बदला मगर डीजे का ज़रूर बदल गया है। शहनाई की धुन वाले समारोह मैंने देखे नहीं। 'आज मेरे यार की शादी है', 'बाबुल की दुआएं लेती जा'' का दौर अब पूरी तरह बीत चुका है। 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' फिल्म में शारदा सिन्हा का गाया गीत 'तार बिजली से पतले हमारे पिया' भी नया तो है, मगर नए ज़माने का नहीं है। नए ज़माने में तो बस हनी सिंह हैं। हनी सिंह को जानना हो तो गूगल नहीं दिल्ली की गलियों में घूमना चाहिेए।

द्वारका क्षेत्र का बहुत पुराना गांव है ककरौला। जाट इतिहास से जुड़ी कई नामी हस्तियां इस इलाके से रहीं। एक स्थानीय जाट लेखक के बुलावे पर उनके भतीजे की शादी में शिरकत करने का मौका मिला। ऊपर से नीचे तक सफेद कमीज़ और पैंट में छोटे-बड़े तमाम लोग कमाल के लग रहे थे। औरतें साड़ियों में थीं और बच्चे रंग-बिरंगे परिधानों में। शादी के लिए तैयार किए गए शामियाने के ठीक बीच में हुक्के की महफिल लगी हुई थी। खाने में तंदूरी रोटी के साथ गांव का शुद्ध देसी घी भी एक बर्तन में रखा हुआ था।  इन सबके बीच कैमरे और डीजे का इंतज़ाम भी था। गाने वही जो बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश की शादी वाले डीजे में बज रहे थे। कुछ फिल्मी आइटम गीत और बहुत कुछ हनी सिंह। मैंने अपने लेखक 'अंकल' से कहा, बाक़ी सब तो ठीक है, मगर ये डीजे ककरौला गांव के देसी घी की तरह असली नहीं है। मुझे तो ठेठ जाट अंदाज़ वाली शादी देखने का मन था। उन्होंने कहा, 'गांव के लोग हैं, इन्हें असली-नकली की इतनी समझ नहीं, शहर में जो लोकप्रिय है, गांव तक आ ही जाता है।'

इसके कुछ दिन बाद ही दिल्ली के कई कॉलेजों में चल रहे फेस्ट में जाने का मौक़ा मिला। हर जगह ककरौला मेरे साथ ही रहा। सफेद लिबास और देसी घी वाला ककरौला नहीं, डीजे वाला ककरौला। हनी सिंह के गानों पर झूमता ककरौला। हनी सिंह हर कार्यक्रम में खु़द नहीं आए तो उनकी टीम के रैपर (मुख्य गवैये) पधारे और माहौल हनीमय कर दिया। समस्तीपुर और रांची की शादियों में भी कुछ गाने हनी सिंह के थे। हनी सिंह के बारे में मेरी जानकारी इतनी ही है जितनी मनमोहन सिंह के रसोइये के बारे में। मगर मेरी जानकारी के स्तर से हनी सिंह का क़द मत मापिए। हनी सिंह को समझना हो तो दिल्ली के कॉलेजों में हो रहे रंगारंग कार्यक्रमों की रिकॉर्डिंग कहीं से देखिए। हनी सिंह के गीत मंच पर शुरू होते नहीं कि होंठ से होंठ मिलाकर नौजवान उन गीतों पर झूमते-थिरकने लगते। ऐसा कंठस्थ वातावरण मैंने सिर्फ आरती के वक्त मंदिरों में ही साक्षात देखा है।

हनी सिंह दिल्ली-पंजाब की डीजे जेनरेशन के ख़ुदा यूं ही नहीं लगते। 'श्री श्री' की तरह हनी सिंह भी अपने नाम के साथ 'यो यो' लिखते हैं। गूगल पर लाख ढूंढने के बावजूद कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिला कि 'यो यो' विशेषण लगाने से आदमी के नाम में कितने चांद लग जाते हैं। ख़ैर, यो यो की कुछ और ख़ासियतें भी हैं। एक तो ये कि एकदम नई पीढ़ी के बच्चों के नाम अब चीकू, मीकू, पीकू से योयो, जोजो, भोंभों होते जा रहे हैं। दूसरा, शाइरी अपने टूटे-फूटे रूप में भी ज़िंदा बची हुई है। 'बरसात का मौसम है, बरसात न होगी..तू नहीं आएगी तो क्या रात न  होगी' जैसे शेरों पर योयो के भक्त जब 'वंस मोर' का जयकारा लगाते हैं तो लगता है उनके चेहरे से पसीना नहीं, गंगा मैली होकर बह रही हो।

भद्दे गीतों पर झूमते योयो के दीवानों में सिर्फ लड़के ही नहीं, लड़कियां भी हैं। आप उन्हें बुरा-भला कह सकते हैं, मगर वो अपना बुरा-भला ख़ुद सोच-समझ सकने वाली पीढ़ी है। उन्हें पता है कि दिल्ली में कॉलेज के भीतर किस लेक्चरर का कितना लेक्चर सुनना है और किसका कितना संगीत सुनना है। योयो के माध्यम से वो अपनी ज़िंदगी जीने का तरीका चुन रहे हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। अब तो किसी योयो को ही किसी यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर बना देना चाहिए। कम से कम किसी कॉलेज का प्रिंसिपल तो ज़रूर ही। प्रोफेसर, डॉक्टर जैसे विशेषण से अब बुद्धिजीवी ऊबने लगे हैं। उनकी किताबी बातें आजकल किसी के पल्ले भी नहीं पड़तीं। तभी तो वो अपने बच्चों का दिल बहलाने के लिए लाखों का फंड खर्च करके योयो को न्योता भेजते हैं।  कॉलेज में क्लास के भीतर बहुत कम बच्चे होते हैं। योयो को सुनने पूरा कॉलेज आता है। योयो ही इस वक्त की मांग है।

लेकिन ऐसा क्यों हुआ है? हनी सिंह के गाए कुछ गीतों के शब्द और आशय पढ़ने के बाद दिल दहल जाता है। स्त्रियों के खिलाफ शायद इससे घिनौने लहजे में कुछ और नहीं कहा जा सकता। इसके बावजूद एक बड़ा तबका हनी सिंह को सुनकर क्यों दीवाना होता है? क्या वही गीत वह अपने घर की महिलाओं के बारे में सुनकर उसी भाव में झूमेगा? वहां उसकी 'मर्दानगी' कैसे रिएक्ट करेगी? एलीट स्कूल-कॉलेजों से निकली युवतियों को ये समझना क्यों मुश्किल हो रहा है कि हनी सिंह के गाये कुछ गीत  उन्हें किस अंधे कुएं में धकेल कर छोड़ रहे हैं। क्या हमारी पढ़ाई-लिखाई की ज़मीन इतनी खोखली है कि यह अपने ही सम्मान,गरिमा और अस्तित्व को अपमानित करने के कारकों को हमें पहचानने नहीं देती?

निखिल आनंद गिरि
(सभी तस्वीरें सस्ते मोबाइल से खींची गई हैं..)
(25 मार्च 2013 को 'जनसत्ता' अख़बार में प्रकाशित)

रविवार, 17 मार्च 2013

ओ आसमान की परियों !!

जब हर तरफ बसंत था..
हर दिन, हर रात, हर पहर..

तुमने चांद को चांद कहा
मैंने चांद ही सुना..
(ऊब की हद तक चांद)
तुमने जो कहा भला-बुरा
सब भला सुना मैंने...
ग्लोब से बढ़कर..
एक चेहरा तुम्हारा..
उन लकीरों में ही
सब पढ़े मैंने
महाद्वीप, महादेश वगैरह वगैरह..

फूल झरते थे बिना बात के भी..
सपनों में भी उतर आती थी खुशबू..
सब सन्नाटे, संगीत से बढ़कर..
सब भाषाओं से बढ़कर एक अनंत मौन..

तब एक बार आई थी बड़ी बीमारी,
और मैं हंसते-हंसते ठीक हुआ था..
एक बार गिरा था मैं तीसरी मंज़िल से,
मगर जाने किस ख़याल में बचा रहा साबुत...
मैं एक बार आसमान को तकता,
तो तीन परियां कहीं से उतर आतीं..
मेरा माथा सहलातीं और मैं सो जाया करता..

कैसे आई इतनी झूठी
इतनी मीठी, इतनी लंबी नींद
बिना नींद की गोली के..

अब जब जागा हूं..
हर तरफ बंजर है..
हर तरफ अंधेरे..
कोई और नहीं आसपास,
सिवाय एक अनजान चेहरे के..
उजाला बनकर मेरे साथ खड़ा है..
मेरे सब कालेपन के बावजूद..

ये बसंत नहीं है
आसमान की परियों..
कोई नया मौसम है..
मैं जीने लगा हूं शायद..
तुम्हारी यादें धुधला रही हैं..
आसमान की परियों...
मैं जाग रहा हूं..

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 5 मार्च 2013

जिम जाती लड़की...

मेरी पार्वती बुआ घर का सारा काम करती थी
मगर मां की ननद नहीं थीं बुआ...
मां बताती है कि जब हम भी नहीं थे,
तब परबतिया एक लड़की जैसी थी
जिसके बाल उलझे थे
और हाथों में खुरपी थी...
उसके नाम के साथ हरदम एक गाली लगाकर
बुलाती थी बड़की माई...
खेत से दौड़ी चली आती थी बुआ
बिन चप्पल के, फटी साड़ी लपेटे....
 
बुआ दौड़ती थी, सच में दौड़ती थी...
वैसे नहीं जैसे ट्रेडमिल पर दौ़ड़ती हैं लड़कियां
दिल्ली के जिम में...
एसी में हांफतीं, झूठमूठ की..
डेढ़ कोस दूर बांध पर से लौटती थी बुआ
तीन गायों के साथ रोज़ाना
सारा गोबर टोकरी पर उठाए...
कम से कम एक पसेरी तो होगा ही..
सच में लाती थी गोबर...
वैसे नहीं जैसे जिम में होते हैं
झूठमूठ के बटखरे...
दो किलो, पांच किलो वगैरा वगैरा
 
इतना थककर भी बुआ खेलती थी कितकित
और गाती थी सामा चकवा के मीठे गीत
बुआ बैडमिंटन नहीं खेली कभी
जैसे झूठमूठ का खेलती हैं
पार्क में जाने वाली लड़कियां
जिन्हें घूरते रहते हैं हर उम्र के मर्द
बुआ ने शायद ही देखा हो कभी आईना
गोबर से घर लीपती गंदी बुआ
मिट्टी में सनी हुई काली बुआ
बुआ को देखता नहीं था कोई प्यार से
भैंस चराता नेटचुआ भी नहीं..
जैसे जिम वाली लड़की को देखते हैं सब...
और वो एक शोर को निर्गुण समझकर...
रिदम में चलाती है साइकिल झूठमूठ की...
 
अचानक याद आ गई मां जैसी पार्वती बुआ
जिम में लहराती जिस लड़की को देखकर
शर्त लगाकर कह सकता हूं मैं...
परबतिया नहीं हो सकता इसका नाम..
 
 
बुआ और बैडमिंटन वाली लड़की के बीच
मैं किसी बीमारू राज्य के पुल की तरह हूं
जो कभी भी भरभरा कर गिर सकता है
पार करने के बारे में सोचने तक से भी...
निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

हमारी रातों में सपने हैं, नींद नहीं...

तुम्हारे बाद भी भूख लगती है पेट को,
और आंखों को आंसू आते हैं...
देश में कहीं कोई हड़ताल भी नहीं हुई,
और आप कहते हैं बेवफाई बड़ी चीज़ है...

जहां राजनीति नहीं, वहां सिर्फ प्यार  है..
और प्यार से कवि बना जा सकता है
लेखक बना जा सकता है...
बहुत हुआ तो वैज्ञानिक भी,
मगर एक ऐसा आदमी नहीं,
जिसे गणमान्य समझा जाए।

मेरे पिता से पूछिए,
उन्हें गणमान्य आदमी कितने पसंद हैं..
वो चाहते रहे हमें एक ख़ास आदमी बनाना...
लाल बत्ती न सही, गाड़ी ही कम से कम...
और हम पैदल चलते रहे सड़कों पर,
पांच रूपये की मूंगफली और हथेली थामे...

हम दोनों एक ही अखबार पढ़ते हैं...
अलग-अलग शहरों में....
पिता का समाज और है,
हमार समाज कुछ और...
फिर भी हम एक परिवार के सदस्य तो हैं....
जहां मां जोड़ती है दोनों को..
और बालों का ख़ालीपन भी...

उन्हें नींद नहीं आती हमारी फिक्र में ...
हमें नहीं आती कि हमारे पास सपने हैं...
जो पूरे नहीं होंगे कभी...
और देखिए किसी सरकारी दफ्तर की तरह,
हर तरफ रातें हैं,
मगर किसी काम की नहीं....

वो सुबह का वक्त था
कि एक दिन पटरियों के दोनों ओर,
पांव फैलाकर चल रहे थे हम
और तुम्हारी हथेली थी मेरी आंखों पर..
मैंने पहली बार एक सपने की आवाज़ सुनी थी...

देखना एक दिन हम भी अमीर हो जाएंगे
और हमारे बच्चे आवारा....
उन्हें मालूम होगा सिर्फ ख़ून का रंग
और फिर भी शरीफ कहे जाएंगे
उस सपने को चुराकर बनेगी फिल्म
तो नाम क्या रखा जाएगा ?

निखिल आनंद गिरि
(संवदिया पत्रिका में प्रकाशित)

रविवार, 20 जनवरी 2013

'अजी, आंख में पड़ गया था कुछ..'

आंखें

दो आंखें..
आंसू दो झरते हैं..
दो आंखों से..
दो आंखो की पीड़ा एक..

दो दिशाओं में तकती हैं..
दो आंखें..                                          
दोनों तरफ अंधेरा एक..

रोना

सबसे बुरा रोना वह
जब रोने के बाद 
ख़ुद ही पोछने पड़े आंसू
और दीवारों से करने पड़े बहाने
'अजी, आंख में पड़ गया था कुछ..
या कि प्याज़ बड़ी ज़ालिम चीज़ है यार..''

खिड़की

शौचालयों की कमी में,
वो छिप कर बैठ जाती हैं
नोकिया या वोडाफोन के इश्तेहारों तले,
कोई रेलगाड़ी जब गुज़रती है हहाती हुई,
वो कपड़े ठीक करती हैं
खड़ी हो जाती हैं..
इश्तेहार बन कर रह जाती हैं..
खिड़कियों से ताड़ती कई निगाहों के लिए..

बीमारी

मैं नींद की गोली लेता रहा
ख़ुद से बातें करता रहा
सपनों के साथ वक्त बिताने को
बीमारी अच्छा बहाना थी

गदहे

राजनीति के युवराज वही
जो दो नंबर के कर सके काम
वही लंबी रेस का घोड़ा
बाक़ी सब गदहे
भारत भ्रष्ट महान !

मोमबत्ती

पिघलने से पहले तक
जितना जलती है मोमबत्ती
रोशनी की उम्मीद बढ़ाती है
मोमबत्ती कोई चुनाव चिह्न नहीं
इसीलिए उम्मीद का मतलब धोखा नहीं
उम्मीद ही समझा जाए

आम आदमी

एक नई पार्टी मेंबर बना रही है,
लोगों को नई टोपी पहना रही है
टोपी पर लिखा होता है 'आम आदमी'
पांच रुपये की रसीद कटाकर
आम आदमी नई टोपी पहन रहा है...

निखिल आनंद  गिरि

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

प्रलय का इंतज़ार..

आइए जंतर-मंतर पर जमा हों..
और भीतर छिपे मर्दों को फांसी दें..
सरकार के पास बहुत पैसा है..
पुलिस है, गोलियां हैं..
वो घेरा बनाकर..
आंसू गैस छोड़ेगी,
रोएगी हमारे लिए..
ख़ज़ाने लुटाएगी मुआवज़े के नाम पर...

हमारे भीतर के 'मर्द' दिल्ली पर राज कर रहे हैं..
हमारी बहन, बेटी, प्रेमिकाएं सिंगापुर जा-जाकर..
तिल-तिल मर रही हैं..

आप अब भी प्रलय का इंतज़ार कर रहे हैं?

निखिल आनंद गिरि

 

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

''मज़ाक़'' की भी हद होती है, ज्ञानोदय !!

नवंबर 2012 का 'नया ज्ञानोदय' हाथ में है। इस अंक में जितेंद्र भाटिया ने नोबेल विजेता साहित्यकार मो यान की कहानी का अनुवाद किया है। कहानी इतनी बेहतरीन है कि अनुवाद की ख़बसूरती पर ध्यान बाद में जाता है। वर्तनी पर और बाद में। मगर 'नया ज्ञानोदय' में इतनी ज़्यादा अशुद्धियां हो तो सिर्फ कहानी पढ़कर संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। ऐसी पत्रिकाओं से उम्मीद रहती है कि वो भाषा का ज्ञान बढ़ाने में मदद करेंगी। मगर, नुक़्ते ने सारा खेल ख़राब किया है। या तो नुक़्ते लगाने ही नहीं थे और लगाने थे तो दोबारा फिल्टर किया जाना चाहिए था।

अब कहानी का शीर्षक ही देखिए। मज़ाक की भी हद होती है, शिफू! जब 'ज़' वाला एक नुक्ता लग सकता है तो  'क' को तो अफसोस रह ही जाएगा ना। और फिर दो नुक़्ते लगा देने में कितनी रोशनाई ही ख़र्च हो जाती। नुक़्ते को लेकर ऐसी ग़लतियां इस लंबी कहानी में कई जगह है।
उसे काम मिला एक कारख़ाने में, जहां देखा जाए तो उसकी 'जिन्दगी' किसी किसान से बुरी नहीं थी। इस 'ख़ुशक़िस्मती' के लिए डिंग अपने समाज का शुकग्रुज़ार था...(पेज 22)
अगर ख़ुशक़िस्मती में सही-सही नुक़्ते लग सकते हैं, तो 'ज़िंदगी' से नुक़्ता क्यों ग़ायब है?

इसी पन्ने पर 'फ़ौज़ी' शब्द में एक नुक़्ता बेवजह डाल दिया गया है। नुक़्ता प्रयोग न करना भूल है, मगर ग़लत जगह नुक़्ता लगा देना अपराध की तरह है।
भीड़ के समूचे शोर के बीच अंडे देते वक़्त 'मुर्गियों' की कुड़कुड़ाहट की तरह कुछ औरतों के स्वर साफ़ सुने जा सकते थे। (पेज 23)
जब नुक़्ता लगाना ही है तो 'मुर्ग़ियां' भी इसकी हक़दार हैं। और अगले पैरा में 'कारख़ाना' भी।
छंटनी की पहली ख़बरों के फैलते ही वह 'कारखाने' के मैनेजर से मिलने गया था।
इसी पेज पर एक और लाइन है - 'उसी वक़्त एक सफ़ेद रंग की आधुनिक चिरोकी जीप हॉर्न बजाती हुई गेट के भीतर 'दाखिल' हुई'। यहां भी जीप को नुक़्ते के साथ 'दाख़िल' होना चाहिए था। ख़ैर...

पूरी क़िताब की बात ही छोड़ दीजिए, 21 पन्नों की इस लंबी और अनोखी कहानी में ही नुक़्ते से जुड़ी सैकड़ों ग़लतियां हैं। ध्यान दिलाना मुझे इस लिए ज़रूरी लगा क्योंकि मैंने इस क़िताब को राजधानी दिल्ली के सबसे मशहूर बुद्धिजीवियों से लेकर गांव के रेलवे स्टेशनों तक बिकते देखा है। सो, इसमें छपा हर शब्द भाषा की हर कसौटी पर माप-तौल कर बाहर आना चाहिए। वरना एक से बढ़कर एक पत्रिकाएं बिना किसी बड़े बैनर के भी शुद्ध वर्तनी के साथ छप-बिक रही हैं। यूं भी हिंदी में उर्दू और फ़ारसी के शब्दों के इस्तेमाल को लेकर कन्फ्यूज़न बहुत ज़्यादा है। अगर कन्फ्यूज़न दूर न किया जा सके तो बेहतर हो कि नुक़्ते लगाए ही न जाएं। कम से कम ग़लत जगह तो न ही लगाएं जाएं।

'नतीज़तन' (पेज 26), 'ख़ुशफहम' (पेज 28) , 'शिनाख्त' , 'फैक्टरी', 'मुसाफिरों', 'हरफनमौला', 'सख्त' (सभी पेज 29), 'तफरीह', 'तूफान', 'ज़ायकेदार' (सभी पेज 30), 'क़रतब', 'दिलक़श', 'फिकरे' (पेज 32), 'अक्स', 'ख़ुशमिजाज़ी'  सिर्फ टाइपिंग की ग़लतियां नहीं कही जा सकतीं। और अगर सिर्फ टाइपिंग की ग़लतियां भी है तो मेरा ख़याल है टाइपराइटर बदल  देना चाहिए।

माथे की बिंदी बाथरूम की दीवार पर चिपकी दिखे, तो न माथा ख़ूबसूरत दिखता है और न ही दीवार।

(लेखक ने हिंदी की क़िताबी पढ़ाई आठवीं में ही छोड़ दी थी। इसीलिए हिंदी को बेहतर करने के लिए ऐसी ही दो-चार क़िताबों का सहारा है। भावनाओं को समझिए।)

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

माई गे माई..एफडीआई..

आई रे आई, एफडीआई...
माई गे माई, एफडीआई..
दादा रे दादा, एफडीआई..

हथिया पे आई..
साइकिल पे आई..
लल्लू के, कल्लू के
दुर्दिन मिटाई..
आई रे आई, एफडीआई..

बटुआ में आई,
जै काली माई
व्हाइट हाउस वाली
काली कमाई..
आई रे आई, एफडीआई...

अमरीकी राशन
जियो सुशासन
खेती लंगोटी में
बिक्री में टाई..
आई रे आईएफडीआई...

खुदरा किराना..
डॉलर खजाना..
चड्डी में, टट्टी में
सोना हगाई..
आई रे आई, एफडीआई...

उठा के कॉलर,
घूमेगा डॉलर..
खेलेगा रुपिया,
छुप्पम छुपाई
आई रे आई, एफडीआई...
 
माया रे माया
नाटक रचाया
दद्दा मुलायम
चाभो मलाई..
आई रे आई, एफडीआई..
समाजवाद माने एफडीआई...
दलितवाद याने एफडीआई...

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

डबिंग वाली हिंदी बोलते पोगो पीढ़ी के बच्चे..

लिपि और उसकी दुनिया
ढाई साल की लिपि फोन पर 'मछली जल की रानी है' सुनाती है तो फोन के दूसरी तरफ अपने नन्हे हाथों से परफॉर्म भी कर रही होती है। पिछली छुट्टियों में उसे इस कविता के साथ एक्टिंग करना सिखा आया था। मैं देख नहीं पाता, मगर आख़िरी लाइन 'बाहल निकालो मल जाएगी' में जब उसकी आवाज़ धीमी होती है तो मेरा मन ताली बजाने का होता है। वो तालियों की ज़बान नहीं समझती, मगर मैं फोन पर 'पुच्ची' देने को कहता हूं तो उधर से एक गीली-सी मीठी आवाज़ फोन पर आ जाती है।

मैं पिछले कई सालों से टेलीविज़न में नौकरी कर रहा हूं, मगर शर्तिया कह सकता हूं कि लिपि रोज़ाना मुझसे ज़्यादा टीवी देखती है। ज़्यादा ध्यान से देखती है। 'छोटा भीम' उसका फेवरेट सीरियल है। ये उसने कभी कहा नहीं है, मगर सारा घर जानता है। आज तक-फाज तक, सीएनएन-फीएनन, इल्मी-फिल्मी कोई भी चैनल चल रहा हो, लिपि अगर टीवी के आसपास है तो सबको 'छोटा भीम' देखना ही पड़ता है। हम उसकी तरह रो-रोकर अपने प्रोग्राम के लिए ज़िद नहीं कर सकते। वो कर सकती है। करती है। एक ऑडिएंस अवार्ड इन बच्चों के लिए भी होना चाहिए। छोटा भीम की तरह हवा में एक काल्पनिक लड्डू उछालकर वो अगल-बगल के लोगों पर मुक्का चलाती है। छोटा भीम, डोरोमन, ढोलकपुर उसकी दुनिया का हिस्सा हैं। इस दुनिया को हम किसी अजनबी की तरह निहारते हैं, वो बेरोकटोक घूमते हैं। केबल टीवी ने बच्चों को वक्त से पहले ही दुनिया दिखानी शुरू कर दी है।

दक्ष का रूटीन चार्ट
दक्ष छह साल का है। उसे 'छोटे बच्चे' बहुत पसंद हैं। कार्टून की दुनिया भी। वो भी इस दुनिया का हिस्सा है। लिपि से थोड़ा सीनियर। मगर सीनियर होने का कोई घमंड नहीं।  उसे इस दुनिया ने सोचने का नया तरीका सिखाया है।  वो जब पांच साल का था तो 'जी-वन' (रा-वन के शाहरुख) बना घूमता था। थक जाने पर बैट्री से रिचार्ज हो जाता था। सोते-सोते 'दुश्मन' की तलाश में उठ बैठता और सिग्नल मिलने की एक्टिंग करता। वो बड़ा होकर भी जी-वन ही बनेगा और दुश्मनों को ख़त्म कर देगा। उसे कोलावरी का पूरा डांस कंठस्थ याद है। वो हफ्ते में पांच दिन स्कूल जाता है। पांचों दिन की ड्रेस अलग-अलग है। आज उसे कुंगफू की ड्रेस पहनकर जाना है। वो बहुत खुश है, उतावला है। उसकी मम्मी ने उसकी ड्रेस के ऊपर स्वेटर पहना दिया है। इस वजह से उसकी कुंगफू की ड्रेस किसी को नज़र नहीं आएगी। इस बात से वो बहुत दुखी है। वो मुझे अपनी 'चित्रा मिस' की कहानियां सुनाता है। 'मिस' उसे होमवर्क ठीक से करने पर कैडबरी देती है। मुझसे कहता है, 'मामा, मंडे को ऑफिस मत जाओ, मैं अपनी मैम से कहके आपका एडमिशन यहीं स्कूल में करा दूंगा, फिर दोनों साथ ही काम पर जाएंगे स्कूल वैन में!' । दक्ष अपने दोस्तों के बारे में भी बताता है। मम्मी-पापा के बारे में बताता है, जिन्हें मैं पहले ही से जानता हूं। पापा जब डांटते हैं तो एक कागज़ पर लिख देता है, 'पापा गुस्सा करते हैं, अच्छे नहीं हैं।'। मैं प्यार कर लेता हूं तो लिखता है, 'मामा बहुत मज़ाकिया हैं।'
नानू के कंधे पर 'जी-वन' बनने की कोशिश

सबसे छोटे उस्ताद
मैं 2001 तक अपने घर में सबसे छोटा था। जब तक सेतु नहीं आया, मंगल पांडे (निकनेम) नहीं आया, दक्ष या लिपि नहीं आए। मुझे लंबे वक्त तक ये दुख था कि मुझे गांव या घर जाने पर सबके पांव छूने पड़ते थे। अब ये बच्चे मेरे पांव छूते हैं। उनके मम्मी-पापा ज़बरदस्ती ऐसा करने को कहते हैं। मैं बड़ा हो गया हूं। होना नहीं चाहता। उनकी बातें सुनना चाहता हूं, सीखना चाहता हूं। उनके जैसा रहना चाहता हूं। कोई दोबारा मुझे बचपन दे और चश्मा पहनकर पूछे, 'बड़े होकर क्या बनना चाहते हो'। तो मैं कहूंगा बच्चा बनना चाहता हूं। बड़ों की दुनिया में सीखने को कुछ नहीं है। क़िताबें पढ़-पढ़कर ज्ञान बढाया जा सकता है, रिसर्च की जा सकती है, बेदाग़ नहीं हुआ जा सकता। मैं दोबारा बेदाग़ होना चाहता हूं। नींद आए तो थपकी के साथ सोना चाहता हूं। हवा में झूठमूठ का लड्डू उछालकर ताक़तवर होना चाहता हूं। टीवी पर सिर्फ कार्टून देखने के लिए लड़ना चाहता हूं।

 हालांकि इस टीवी ने बच्चों की हिंदी का कूड़ा भी किया है। पोगो चैनल पर बच्चे फिर को 'फ़िर', फूल को 'फ़ूल', फेंकना को 'फ़ेकना' कहते हैं। ज़ाहिर है, पोगो चैनल के क्रियेटिव हेड कोई बच्चे नहीं हैं। उन्हें अपनी ज़िम्मेदारी समझनी चाहिए। अगर हिंदी में ठीकठाक कहानियां  या बोलियां नहीं सिखा सकते तो सिर्फ अंग्रेज़ी में ही शो दिखाइए। डबिंग करने की ज़रूरत ही क्या है। हमारे बच्चे डबिंग वाली हिंदी सीखकर बड़े हो रहे हैं। क्या हम अपनी नई पीढ़ी को कार्टून बनाकर छोड़ेंगे? क्या ये हमारे लिए सोचने का सही वक्त नहीं है?

(राष्ट्रीय अख़बार जनसत्ता ने भी इस लेख को अपने संपादकीय पन्ने पर जगह दी है...)
निखिल  आनंद गिरि

रविवार, 4 नवंबर 2012

एक डरे हुए आदमी का शब्दकोष

मेरा परिचय एक ऐसे आदमी से है,
जिसकी प्रेमिका मेज़ पर पड़ा ग्लोब घुमाती है
तो वो भूकंप के डर से
भागता है बाहर की ओर
पसीने से तरबतर,

बाहर खुले मैदान नहीं है...
बाहर लालची जेबें हैं लोगों की
जेब में ज़बान है और मुंह में पिस्तौलें...
बाहर कहीं आग नहीं है
मगर बहुत सारा धुंआ है..
गाड़ियों का बहुत सारा शोर है
जैसे पूरा शहर कोई मौत का कुंआ है...

मेरा परिचय एक ऐसे आदमी से है
जो शहर में अपनी पहचान बताने से डरता है
और गांव में अब कोई पहचानता नहीं है....
सिर्फ इसीलिए बचा हुआ है वह आदमी
कि नहीं हुए धमाके समय पर इस साल...
कि कुछ दिन और मिले प्यार करने को...
कुछ दिन और भूख सताएगी अभी...

उसने हाथ से ही उखाड़ लिया है
दाईं ओर का आखिरी दुखता दांत
सही समय पर दफ्तर पहुंचना मजबूरी है
और दानव डाक्टर की फीस से बचना भी ज़रूरी है....
दुखे तो दुखे थोड़ी देर आत्मा...
बहे तो बहे थोड़ी देर खून....
अपरिचित नहीं है ख़ून का रंग

अभी कल ही तो कूदा था एक स्टंटमैन
पंद्रह हज़ार करोड़ में बने एक मॉल से...
और उसकी लाश ही वापस आई थी ज़मीन पर...
पंद्रह हज़ार के गद्दे बिछे होते ज़मीन पर
तो एक स्टंटमैन बचाया जा सकता था...
मगर छोड़िए, इस बेतुकी बहस को
कविता में जगह देने से
शिल्प बिगड़ने का ख़तरा है...

तो सुनिए, इस बुरे समय में...
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोष में
लोकतंत्र किसी दूसरी ग्रह का शब्द है...
तो सुनिए, इस बुरे समय में...
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोष में
लोकतंत्र किसी दूसरी ग्रह का शब्द है...
जिसका अर्थ किसी हिंदू हिटलर की मूंछ है....
और उसके दांतों से वही महफूज़ है...
जिसके शरीर पर जनेऊ है
और पीछे एक वफादार पूंछ है...

डरा हुआ आदमी सड़क पर देखता सब है
कह पाता कुछ भी नहीं शोर में
सड़क पर जल उठी लाल बत्ती
एक भूखा, मासूम हाथ
काले शीशे के भीतर घुसा
भीतर बैठे कुत्ते ने काट खाया हाथ
कब कैसे पेश आना है
ख़ूब समझते हैं एलिट कुत्ते

एक डरे हुए आदमी के शब्दकोश में
गांव सिर्फ इसीलिए सुरक्षित है
कि वहां अब भी लाल बत्ती नहीं है
दरअसल उस डरे हुए आदमी की ज़िंदगी
भिखारी की फटी हुई जेब है
ख़ाली हो रहे हैं दिन-हफ्ते
और भरे जाने का फरेब है...

एक डरे हुए आदमी की ज़िंदगी
उस आदिवासी औरत के पेट में
पल रहे बच्चे का पहला रुदन है...
जो गांव की सब ज़मीन बेचकर
पालकी में लादकर
उबड़-खाबड़ रास्तों से लाया गया
शहर के इमरजेंसी वार्ड में
जिसने एक बोझिल जन्म लेकर आंखे खोलीं
ख़ूब रोया और मर गया....
उस डरे हुए आदमी के दरवाज़े पर
हर घड़ी दस्तक देता बुरा समय है
जो दरवाज़ा खुलते ही पूछेगा
उसी भाषा, गांव और जाति का नाम
फिर छीन लेगा पोटली में बंधा चूरा-सत्तू
और गोलियों से छलनी कर देगा...

इस बुरे समय की सबसे अच्छी बात ये है कि
एक डरा हुआ आदमी अब भी
सुंदर कविता लिखना चाहता है...

निखिल आनंद गिरि
(यह कविता पाखी के अक्टूबर-नवंबर अंक में छपी है। इसके साथ ही एक और कविता  ''लिपटकर रोने की सख्त मनाही है'' को भी पत्रिका में जगह मिली है।)

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

नो 'हिंदी-विंदी', सिर्फ 'इंग्लिश-विंग्लिश'...

अगर विदेशी लोकेशन पर शूट करना हिंदी सिनेमा के निर्देशकों के लिए मुनाफा कमाने की मजबूरी है, तब तो ठीक है, वरना 'इंग्लिश-विंग्लिश' जैसी कहानी हिंदुस्तान के किसी भी शहर में शूट की जा सकती थी। शशि (श्रीदेवी) को अपने घर में सिर्फ इसीलिए इज़्ज़त नहीं मिलती क्योंकि उसकी हिंदी अंग्रेज़ी से ज़्यादा अच्छी है। लेकिन, अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में पढ़ रहे उसके बच्चों के लिए उनकी मम्मी का अच्छी हिंदी जानना (और अंग्रेज़ी नहीं जानना) लड्डू बनाने के काम जैसा मामूली और बेकार है।
स्कूल जाती बेटी मां को बार-बार ताने देकर एहसास दिलाती रहती है कि इस सदी में अंग्रेज़ी न जानना आपको तरक्की के सूचकांक में कितने साल पीछे कर देता है।

इस फिल्म में शुरु के कई हिस्से  अच्छे तो हैं, मगर फिल्म जिस उम्मीद से देखने गया था, वहां खरी नहीं उतरी। मुझे लगा था कि बढ़िया कहानी चुनने के बाद  निर्देशिका गौरी शिंदे इसकी कहानी को भाषा के मोर्चे पर आगे ले जाएंगी। हिंदी और दूसरी देसी भाषाओं को हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी के बराबर खड़ा करने की फिल्मी कोशिश की जाएगी। वो उद्दंड बेटी जो 'तुम पढ़ाओगी मुझे 'इंग्लिश लिटरेचर'! कहकर अपनी मां को बार-बार तार-तार कर देती है, आखिर-आखिर तक अपने अंग्रेज़ी घमंड और बड़बोलेपन के लिए मां से माफी मांगेगी, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। हिंदुस्तान के कई इलाकों में अंग्रेज़ी की दहशत (और श्रद्धा) में जी रहे करोड़ों हिंदी लोगों की कहानी न कहते हुए गौरी इस कहानी को सीधा अमरीका उड़ा ले गईं। फिर, अमरीका में अंग्रेज़ी सिखाने वाले एक कोचिंग सेंटर में नायिका को भर्ती करा दिया और फिल्म को ग्लोबल टच दे दिया। फिल्म हल्का-हल्का इमोशनल टच देती हुई निकल गई। एक हाउसवाइफ की कहानी बनकर रह गई जो आखिर-आखिर तक अंग्रेज़ी बोलना सीख ही जाती है और अपने घर में सम्मान पा जाती है। स्मार्ट मॉम के लिए तालियां...

मगर, हिंदी का क्या हुआ। सिर्फ टूल के तौर पर फिल्म में इसका इस्तेमाल हुआ। स्थापित तो अंग्रेज़ी ही हुई ना। और सिर्फ हिंदी ही नहीं। फ्रेंच, उर्दू जैसी दुनिया भर की तमाम ज़रूरी भाषाएं हांफती-दौड़ती,  फीस भरकर अंग्रेज़ी सीखती दिखीं। कुल मिलाकर फिल्म अंग्रेज़ी का प्रचार करती ही दिखी। किसी और भाषा को सम्मान देने के बजाय बाज़ार की उसी भाषा को सम्मान देती दिखी, जिसके आगे दुनिया भर की कई भाषाओं की बड़ी से बड़ी प्रतिभाएं पानी भरती दिखती हैं। हिंदी के दिग्गजों का तो हाल ही मत पूछिए। वो दिल्ली में हिंदी की खाते हैं और न्यूयॉर्क में हिंदी सम्मेलन के नाम पर ऐतिहासिक सेमिनार और फूहड़ बहसें करते हैं। ये फिल्म भी उसी बहस का एक विस्तार जैसा लगी। बस, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का ब्रिटेन में दिया वो असल बयान भी फिल्म में जोड़ देते जिनमें वो बहुत कृतज्ञ थे कि अंग्रेज़ों ने हमें इतनी महान भाषा सिखाई।

ऐसी फिल्में प्रोपैगेंडा फिल्मों की तरह लगती हैं। जैसे सिनेमा की शुरुआत में अमरीकी नस्लवाद पर मुहर लगाती फिल्में बनती थीं या फिर बाद में हिटलर और नाज़ी वैभव का प्रचार करती फिल्में। एक ख़ास सोच से निकली हुई निर्देशक के पास फिल्म बनाने को बजट तो था मगर कहानी का कैनवस बड़ा करने का साहस नहीं था। वरना, वो देश भर के अंग्रेज़ी सिखाने वाले कोचिंग संस्थानों का एक मोंटाज ज़रूर दिखातीं जो 100 रुपये में भी अंग्रेज़ी सिखा देने का दावा करते हैं, फरेब करते हैं। वो मेरे तेलुगु दोस्त प्रदीप या तमिल दोस्त राजगोपाल सुब्रह्मण्यम का वो दर्द भी दिखाती कि कैसे उनका अंग्रेज़ी ज्ञान भी हिंदी की दबंगई के आगे काम नहीं आता। जब वो रोज़ डीटीसी की बसों में हिंदी गालियां बकते कंडक्टरों से परेशान होते हैं और मुझे अफसोस होता है कि कम से कम देश की राजधानी में इन तमाम बसों, रास्तों और दफ्तरों के तमाम साइन बोर्ड्स संविधान में दर्ज सभी भाषाओं में क्यों नहीं हो सकते। वो हमारी मौक़ापरस्ती भी दिखातीं कि कैसे हिंदी के तमाम न्यूज़ चैनल, हिंदी सिनेमा के तमाम नायक, निर्देशक, हिंदी समाज के तमाम नेता, बुद्धिजीवी और तीसमारखां अंग्रेज़ी में बात करने पर कितना गर्व महसूस करते हैं। मुझे उदय प्रकाश की कविता 'एक भाषा हुआ करती है '  अचानक याद आ रही है -

दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर, सबसे गरीब और
सबसे खूंखार सबसे काहिल और सबसे थके-लुटे लोगों की भाषा
अस्सी करोड़ या नब्बे करोड़ या एक अरब भुक्खड़ों, नंगों और गरीब-लफंगों की जनसंख्या की भाषा
वह भाषा जिसे वक्त-जरूरत तस्कर, हत्यारे, नेता,
दलाल, अफसर, भंडुए, रंडियाँ और जुनूनी
नौजवान भी बोला करते हैं
वह भाषा जिसमें
लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है

बहरहाल, 'इंग्लिश-विंग्लिश' एक ठीकठाक फिल्म है। श्रीदेवी की वापसी है, मगर वो हवाहवाई नहीं हैं।
वो शशि हैं। हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी से ग्रस्त एक परिवार के बीच से बचकर अमरीका में वक्त गुज़ारने पहुंची एक एलीट हिंदी हाउसवाइफ। शशि अमरीका के किसी पार्क में बेंच पर बैठकर देखती हैं कि कैसे दोनों हाथों और मुंह से नोचकर बर्गर खाए जाते हैं। वो ये भी महसूस करती है कि उसका पति सिर्फ उसे 'हग' करने में हिचकिचाता है और बाक़ी सबसे अपनापन जताने के लिए शिद्दत से गले मिलता है।  हिस्सों में फिल्म अच्छी है, मगर फिल्म की टार्गेट ऑडिएंस शायद कोई और है। बाज़ार होती दुनिया में कमज़ोर अंग्रेज़ी की कुंठा के मारे शर्मिंदगी झेल रही हिंदुस्तानी ऑडिएंस तक ये फिल्म पहुंच भी पाएगी या नहीं, कहना मुश्किल है।

दिल्ली मेट्रो का एक वाकया याद आ रहा है। ट्रेन के भीतर एक बच्ची उछल-उछल कर मेट्रो के स्टेशनों के नाम पढ़ रही थी और अपनी मां को खुशी से सुना रही थी। मां खुश हो रही थी, मगर जैसे ही उसने देखा कि बेटी अंग्रेज़ी में नहीं, बल्कि हिंदी में लिखे नामों को पढ़ने की कोशिश पर खुश हो रही है, वो ज़ोर से हंसने लगी और बच्ची के पिता को बोली - 'हिंदी में पढ़ रही है, घंटे भर में  तो पढ़ ही लेगी।' मुझे लगता है, 'इंग्लिश-विंग्लिश' उस बच्ची की मां को भी दिखाई जानी चाहिए। दुनिया भर के उन तमाम स्कूलों को भी जहां मातृभाषाएं ज़बरदस्ती छुड़वाई जाती हैं। अंग्रेज़ी नहीं बोलने पर एक रुपये का जुर्माना लगाने की धमकियां दी जाती हैं।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

तुम्हें इक झूठ कह देना था मुझसे..

दर-ओ-दीवार हैं, पर छत नहीं है।
हमें सूरज की भी आदत नहीं है।।

यहां सब सर झुकाए चल रहे हैं।
यहां हंसने की भी मोहलत नहीं है।।

तुम्हें इक झूठ कह देना था मुझसे।
मुझे सच सुनने की हिम्मत नहीं है।।

फ़क़त लाखो की ही अंधेरगर्दी !
'ये क्या खुर्शीद पर तोहमत नहीं है'!!

मैं पत्थर पर पटकता ही रहा सर।
मगर मरने की भी फुर्सत नहीं है।।

सभी को बेज़ुबां अच्छा लगा था।
मैं चुप रह लूं, मेरी फितरत नहीं है।।

(खुर्शीद = सूरज)

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

दारू और बंदूक के बीच बापू की याद...


अक्टूबर के पहले हफ्ते की बात है। दिल्ली में क़ुतुब मीनार के पास एक क्लब में भारतीय मूल की ब्रिटिश लेखिका मोनिषा राजेश की पहली क़िताब 'अराउंड इंडिया..इन 80 ट्रेन्स' के लांच पर जाना हुआ। चार महीने तक भारत की अलग अलग ट्रेनों में लेखिका के सफ़र का अनुभव इस क़िताब की ख़ासियत थी। मौके पर बतौर मुख्य अतिथि पहुंचे एक पूर्व रेलमंत्री ने बातों बातों में अपनी तुलना महात्मा गांधी से कर दी। उन्होंने कहा कि जैसे गांधी को ट्रेन से उतार दिया गया था, वैसे ही उन्हें भी उतार दिया गया और फिर दोनों 'आज़ाद' हुए। गांधी को इस तरह चटखारे लेकर याद कर रहे मंत्रीजी को सुनने वालों में कुछ वरिष्ठ पत्रकारों के अलावा 25-30 बुलाए गए मेहमान थे। उनके हाथों में बियर की बोतलें भी थी।


गांधी कथा कहते नारायण देसाई
इस कार्यक्रम के चंद दिन बाद ही दिल्ली महात्मा गांधी को एक और ढंग से याद कर रही थी। महात्मा गांधी के प्रिय सचिव रहे महादेव भाई देसाई के पुत्र नारायण भाई देसाई के चिर-परिचित अंदाज़ में चार दिनों की 'गांधी कथा' का आयोजन किया गया था। एक विशाल सभागार में गांधी कथा सुनने का ये अनुभव जितना अनूठा था, उतना ही यादगार भी। दरअसल, ये दिल्ली में नारायण देसाई की आखिरी 'गांधी कथा' थी। सुनने वालों में कुछ नेता, बुद्धिजीवी, पत्रकार और सैंकड़ों लोग मौजूद रहे। हालांकि, पीने को यहां भी बोतलबंद पानी ही था, मगर 'गांधी कथा' के ज़रिए गांधी को दोबारा जीवंत करने की कोशिश काबिल-ए-तारीफ थी।

हम जैसे कोई युवाओं को गांधी का युग देखना नसीब नहीं हुआ। हां, गांधी का इस्तेमाल जगह-जगह देखते आए हैं। सेलेब्रिटी आंदोलनों में गांधी टोपी पहनने से लेकर घूस के लिए गांधी के नोट धराते लोग। आख़िरी आदमी का दुख बांटने के नाम पर लाखों-करोड़ों का फर्ज़ीवाड़ा करते लोग। ऐसे में नारायण देसाई की कही हर बात किसी दस्तावेज़ की तरह ज़रूरी हो जाती है, जिन्होंने सचमुच बापू के साथ लंबा समय गुज़ारा है। आज के संदर्भों के साथ दिल्ली की इस गांधी कथा को जोड़ना बहुत ज़रूरी और दिलचस्प हो जाता है। नारायण देसाई के मुताबिक उस वक्त भी गांधी के साथ आंदोलन में जुड़ने वाले 'चुनिंदा सक्रिय' (एक्टिव फ्यू) युवा ही थे। उन युवाओं के पास समाज के लिए एक विज़न था। वो 'व्यावहारिक आदर्शवादी' थे। मतलब ख़ुद को बदलकर समाज में वांछित बदलाव का सपना देखने वाले। आज हमारे आसपास टीवी या मीडिया ने जिस तरह के 'एक्टिव युवा' खड़े किए हैं, उनके सर पर भी आम आदमी की टोपी दिखती है। मगर, उनका चंपारण कैमरे से दिखाई देने वाली दिल्ली से ज़्यादा दूर नहीं जा पाता और नील के किसान भी बिजली बिल फाड़ने वाले मिडिल क्लास चेहरों से अलग नहीं हो पाते। वो कई रसूख वाले नेताओं पर उंगली उठाते हैं, फिर अचानक शांत हो जाते हैं फिर अचानक आंदोलन का नया शेड्यूल तय कर देते हैं। पुराना आंदोलन चार दिन में ही पुराना पड़ जाता है।

जिस कांग्रेस को खरी-खोटी सुनाने के नाम पर ही कई पार्टियां या लोग सियासत के हसीन सपने देखते नहीं थक रहे हैं, उस पार्टी का मूल चरित्र गांधी के वक्त कैसा था, ये भी जानना ज़रूरी है। लखनऊ अधिवेशन में जब कांग्रेस का अधिवेशन दूसरे कई 'संवेदनशील' मुद्दों पर रखा गया, तब बिहार से आए किसान राजकुमार शुक्ल की बात किस तरह गांधी ने सुनी और बाद में उन्हें मदद देने के आश्वासन को पूरा भी किया, उसकी तुलना मौजूदा राजनीतिक पतन को समझने में मदद करती है। इतिहास की किताबों में ये बातें कई जगह कई बार लिखी हैं। मगर, गांधी कथाओं जैसे आयोजन के ज़रिए उस दौर की प्रासंगिकता पर बहस हो और बिना ज़्यादा प्रचार-प्रायोजन के लोग सुनने भी आएं तो आश्चर्य और खुशी दोनों होती है।

गांधी ने सत्य के साथ किए अपने प्रयोगों में जो भी क़दम उठाए, उसका एक प्रतीकात्मक महत्व भी रहा। उनके आश्रम में तीन चीज़ें ज़रूरी थीं। प्रार्थना, स्वच्छता और चरखे से सूत कातना। प्रार्थना अगर आध्यात्मिक क्रांति का प्रतीक था, तो साफ-सफाई सामाजिक क्रांति का। ठीक ऐसे ही चरखे का प्रयोग स्वावलंबन और आर्थिक आज़ादी का प्रतीक कहा जा सकता है। मौजूदा राजनीति में ऐसे प्रतीक कम से कम मेरे लिए ढूंढ पाना थोड़ा मुश्किल है। ताज़ा प्रतीक लाल बत्ती और बंदूक ही नज़र आते हैं जिससे गांधी की अहिंसा के सिद्धांत का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। मसलन, बापू की जन्मभूमि पोरबंदर का ही ताज़ा उदाहरण सामने है जब वहां के कांग्रेसी सांसद विट्ठल रठाड़िया ने 50 रुपये का टोल टैक्स मांगे जाने पर बंदूक तान कर अपनी 'सहनशीलता' का परिचय दिया। चाल, चरित्र और चिंतन में सभी पार्टियों में ऐसे सांसद रोज़ देखने-सुनने को मिल रहे हैं।

गांधी कथा के दौरान खादी के ज़रिए चले देशव्यापी आंदोलन को भी समझने का मौका मिला। एक बार जब विदेशी सामान का विरोध कर रहे सत्याग्रहियों को पुलिस पकड़कर ले जाने लगी तो एक महिला ने यूं ही एक अजनबी सत्याग्रही को पास बुलाकर अपने शरीर से तमाम गहने उतारकर थमा दिए और कहा कि इसे उसके घर पहुंचा दे। सत्याग्रही ने चौंककर पूछा कि उसे एक अजनबी पर इतना अटूट विश्वास कैसे है। महिला ने हंसते हुए कहा कि ये विश्वास मेरे और तुम्हारे शरीर पर पहनी गयी खादी ने दिया है। और किसी प्रमाण पत्र की ज़रूरत नहीं है। क्या आज खादी पर आम आदमी रत्ती भर भरोसा कर सकता है। जब खादी पहने एक केंद्रीय मंत्री ये कहता मिले कि घोटाले लाखों के नहीं करो़ड़ों के हों, तब मीडिया को उस पर ध्यान देना चाहिए।

क्या आज कोई आंदोलन या कोई हुजूम एक-दूसरे पर इतना भरोसा कर सकता है। हो सकता है, नारायण देसाई की बातें उनके निजी या काल्पनिक अनुभव भर ही हों, मगर हम जिस समाज में विकसित होने का दावा कर रहे हैं, क्या ये भरोसा या सामुदायिक निर्भरता कल्पना से ज़्यादा लग भी नहीं सकते। वो भी उस दिल्ली में जहां छह महीने बाद दो अकेली बहनें मरणासन्न हालत में कमरे से निकाली जाएं या फिर किसी बुज़ुर्ग दंपती के घर में दिनदहाड़े घुसकर उन्हें गोली मार दी जाए और सब कुछ लूट लिया जाए।

गांधीजी ने कहा था कि अगर स्वराज हासिल नहीं हुआ तो वो वापस अपने आश्रम में कभी क़दम नहीं रखेंगे। 15 अगस्त 1947 के बाद गांधी कभी वापस अपने आश्रम में नहीं लौटे। शायद जिस स्वराज का सपना गांधी ने देखा था, उन्हें वो पूरा होता नहीं दिखा। मगर, दिल्ली में उनके नाम पर होने वाली गांधी कथाएं और उन्हें सुनने आने वाली दिल्ली एक उम्मीद जैसी हैं। इन्हें और प्रचार दिए जाने की ज़रूरत है। कला के दूसरे माध्यमों के ज़रिए भी गांधी कथाएं कही-सुनी जानी चाहिए। जैसे महमूद फारूक़ी या दूसरे कलाकार दिल्ली के छोटे-बड़े मंचों पर दास्तानगोई के ज़रिए मंटो या दूसरे मुद्दों को ज़िंदा रखे हुए हैं। नारायण देसाई के साथ मंच पर मौजूद संगीत मंडली ने भी कमाल की मेहनत की थी। तीन घंटे की गांधी कथा को रोचक बनाए रखने के लिए नुक्कड़ शैली में लिखे 'गांधी गीतों' को सुनना बेहद ताज़ा अनुभव था। जहां साबरमती के नीर बधाई देते, जहां खरहा डट कर लोहा ले कुत्ते से...वहां पराक्रमी बापू का आश्रम स्थित है, गांधी का आश्रम स्थित है। क्या ऐसे कठिन गीत लिखना और कंपोज़ करना कोई आसान काम हैं।

आख़िर में एक बात और पूछने या कहने का मन कर रहा है। दिल्ली में कैसे भी साहित्यिक, राजनैतिक या सांस्कृतिक कार्यक्रम हों, दर्शक दीर्घा में कुछ बुद्धिजीवियों के चेहरे कभी नहीं बदलते। वो हर जगह नज़र आ जाते हैं। या तो उन्हें दिल्ली में रहते हुए भी फुर्सत बहुत है या फिर बुद्धिजीवी बने रहना उनकी हॉबी बन गई है।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

पान की पीक से पॉपकॉर्न तक...सिनेमा ही सिनेमा

फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर सिर्फ जहाज में ही नहीं जाते...
मेरा बचपन बिहार (और झारखण्ड) के अलग-अलग कस्बों में बीता। पिताजी पुलिस अधिकारी रहे हैं तो अलग-अलग थानों में तबादले होते रहे और हम उनके साथ घूमते रहे। इन्हीं में से किसी इलाके में पहली फिल्म देखी होगी, मगर मुझे ठीक से याद नहीं। हाँ, फिल्म देखने जाने के कई खट्टे-मीठे अनुभव याद हैं, जिन्हें बताना पहला अनुभव जानने से कम ज़रूरी नहीं। क्योंकि सिनेमा के सौ साल का सफर उन्हीं सिनेमाघरों में हम और आप जैसे तमाम दर्शकों के होते हुए गुज़रा है।


मैं शायद छह या सात साल का रहा होऊंगा जब पिताजी के किसी 'इलाके' में 'सूरज' फिल्म लगी थी। हमारे परिवार के लिए फिल्म देखने का मतलब ये होता था कि टिकट पिताजी से लें। मतलब, एक सादी पर्ची (पान के साथ चूना दिये जाने जैसी) पर पिता जी कुछ लिख भर देते थे और हम आराम से हॉल में जाते और हॉल का मैनेजर पर्ची देखते ही पूरे 'सम्मान' से सीट देकर हमें फिल्म देखने देता। मैं तब न तो फिल्म समझता था, न फिल्म देखने के लिए फिल्म देखने जाता था। घर में सबसे छोटा था, तो जो सब करते वही करना ही होता था। ऐसे ही पर्चियों वाली हमने कई फिल्में देखीं। गाइड, मर्दों वाली बात, गंगा-जमुना, गंगा किनारे मोरा गाँव और फिर बाद में मोहरा तक। ये सब वैसे ही पर्ची लिखा-लिखा कर सीधा हॉल में प्रवेश करने वाली फिल्में थीं। हमारी तरफ भोजपुरी फिल्में ख़ूब लगती थीं, और उन फिल्मों के बारे में जानने के लिए हमें किसी ब्लॉग, रिसर्च पेपर या समीक्षा नहीं देखनी पड़ती थी। गाँव भर की बुआ, चाची, दीदी को हर फिल्म में नाम के साथ सब कुछ याद रहता था। भोजपुरी स्टार कुणाल सिंह हमारे बचपन के महानायक थे। वो जितेंद्र से मिलते-जुलते लगते थे तो मुझे जितेंद्र की फिल्में भी अच्छी लगती थीं। लखीसराय का अनुभव सबसे यादगार था, जहाँ एक बार पिक्चर शुरू हो गई और हम बाहर से एक बेंच लाए और फिर पिक्चर देखने बैठे।

तब हमारे घर टीवी नहीं हुआ करता था। रविवार को चार बजे शाम में फिल्म आती थी और हम देखने के लिए पड़ोस में जाते थे। ऐसे देखी गई पहली फिल्मों में से थी 'एक चादर मैली सी', 'एक दिन अचानक' और 'पार्टी'। आप समझ सकते हैं कि 'गंगा किनारे मोरा गाँव' तक से 'पार्टी' तक एक ही बचपन में देखने से सिनेमा कितनी गहराई से भीतर घुस रहा था।

जब राँची में स्कूल के दोस्तों के साथ पहली बार टिकट के पैसे चुकाकर फिल्म देखनी पड़ी तो लगा जैसे कोई गुनाह कर रहे हैं। तब तक 'पुलिसिया पहचान के नाम पर फिल्म देखना बुरा है', समझ आने लगा था। तब शायद पहली देखी फिल्म 'गॉडजिला' थी। बाद में एनाकान्डा, मोहब्बतें, गदर वगैरह-वगैरह। फिर जमशेदपुर गए तो वहाँ बैचलर लाइफ शुरु हुई। एक दोस्त ने पहली बार सुबह वाला 'शो' दिखाया। फिर तो सिनेमा आदत बन गया। हर नई रिलीज़ देखना ही देखना था। जमशेदपुर के बसन्त टॉकीज़ (जो अब नहीं रहा) में पाँच रुपये और ग्यारह रुपये के टिकट हुआ करते थे। पाँच रुपये की टिकट के हिसाब से साल में सौ शो देखने के भी लगभग पाँच सौ रुपये ही खर्च होते थे। इसीलिए सभी 'तरह' की फिल्में अफॉर्ड हो जाती थीं। कला के लिए जागरुक शहर जमशेदपुर में फिल्म महोत्सवों का चस्का लगा, जो अब तक कायम है।

फिर, दिल्ली आए तो पहली फिल्म देखी 'ओंकारा'। जामिया से नेहरु प्लेस तक पैदल चलकर तीस रुपये की टिकट पर। फिर एक महिला-मित्र के साथ मॉल गए, कोई फालतू सी फिल्म देखने। इतना महँगा पड़ा कि साथ देखने से जी भर गया। जमशेदपुर और बचपन बहुत याद आया। फिर देखा कि उन्हीं फिल्मों के 12 बजे से पहले वाले शो सस्ते होते हैं। तो आज तक दिल्ली में सुबह जल्दी उठने का सिर्फ यही मकसद होता है। कभी-कभी जान-बूझ कर देर से उठता हूँ, जब किसी ख़ास के साथ पिक्चर हॉल जाना हो और पॉपकॉर्न खाते हुए पिक्चर देखनी हो।

(ये लेख रेडियोप्लेबैक इंडिया वेब पोर्टल के लिए लिखा गया था..वहां जाकर भी पढ़ सकते हैं..इस पोस्ट के साथ लगाई गई दो तस्वीरें मेरे कैमरे से ली गई हैं..)

बुधवार, 26 सितंबर 2012

सस्ते अंडे देने वाली मुर्गियों में भी भगवान है..

क़रीब पंद्रह-सोलह साल पुरानी बात याद आ रही है। किराने की दुकान पर घरेलू सामान ख़रीदने के लिए जाने से पहले एक कागज़ के पुर्ज़े पर सभी सामानों के नाम वगैरह लिख कर झोला टांगते थे और सामान  ले आते थे। सबसे सस्ती मिलती थी अगरबत्ती। परनामी अगरबत्ती। बीस रुपये में पूरा बंडल कम से कम दस। उससे भी सस्ती माचिस। 4-5 रुपये में पूरा बंडल। तब भगवान पर बहुत प्यार आता था। सिर्फ बीमारी या दुख के दिनों में ही नहीं, हर तरह के दिन में। इस बार समस्तीपुर में घर पर था तो अगरबत्ती खत़्म हो गई। बाज़ार में गया तो अगरबत्ती का बंडल 120 रुपये का हो चुका था। अचानक आटे के दाम याद आ गए। पांच किलो 110 रुपये में। सही किया कि भगवान से प्यार का रिश्ता कम कर लिया। पेट में रोटी मिले, उसके बाद ही अगरबत्ती जलाने का सुख सुख जैसा लगता है। रोटी के साथ दाल के बजाय मैं अंडे खाना ज़्यादा पसंद करुंगा। उबले हुए दो अंडे दिल्ली में 12 रुपये के मिलते हैं। बिहार में भी 10 रुपये लगते हैं।  दाल कहीं भी 80 रुपये से कम की नहीं मिलती। दाल के साथ गैस का ख़र्च भी है। पानी का ख़र्च भी है। अंडे तो उबले हुए ही मिलते हैं। मैं मुर्गियों को अगरबत्ती दिखाना चाहूंगा। मुझे मुर्गियों में भगवान दिखने लगे हैं। वो न होतीं, तो हमारी रोटियां महंगाई के इस दौर में बेवा हो जातीं। रोटियों की मांग का सिंदूर है अंडे की भुर्जी।
ख़ैर, बचपन की इस अगरबत्ती से एक दूसरे भगवान भी याद आ गए। रांची के डॉक्टर। क़रीब 15 साल पहले एक डॉ. प्रसाद की ख़बर आई थी अख़बार में। किडनी चुराने का संगीन आरोप था। इस बार समस्तीपुर गया था तो वहां गर्भाशय घोटाले की ख़बर देखी-सुनी। ग़रीब महिलाओं के गर्भाशय चुराकर कई डॉक्टर अमीर हो गए। ज़ाहिर है, इसमें महिला डॉक्टरों के भी कई नाम थे। पूरे के पूरे नर्सिंग होम ही शामिल थे डॉक्टरी के पेशे की लुटिया डुबोने में। अब सरकारी जांच-फांच चल रही है। मगर, जिनके गर्भाशय बिना पूछे ही निकाल लिए गए, उनकी भी कोई जांच होनी चाहिए। क्या उनमें ज़िंदगी जीने की इच्छा बची होगी। पता नहीं। मैं तो अपनी बीमारी ठीक करने के इरादे से समस्तीपुर गया था। लेकिन, वहां के डॉक्टरों की ऐसी हालत देखकर घर में ही दम साधे ठीक होता रहा। दिल्ली के डॉक्टर से फोन पर सलाह ले-लेकर। क्या पता मेरा क्या निकाल लेते। 
ख़ैर, अब और किसी भगवान को याद नहीं करूंगा। वो बुरा भी मान सकता है। वक्त ही बुरा है। क्या पता गालियां भी बकता हो मुझे।

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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