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गुरुवार, 14 सितंबर 2017

'बेस्टसेलर' हिंदी अपनी भाषा में आते-आते 'बिकाऊ' हो जाती है

हिंदी के नाम पर होने वाले दिवस पहले सप्ताह बने, अब पखवाड़ा होने लगे हैं। आप मेट्रो में सफर कर रहे 50 लोगों से पखवाड़े का मतलब पूछ लीजिए, कम से कम 40 लोग इसे पिछवाड़ाही समझेंगे। सरकारी हिंदी ने हमारा हाल ही ऐसा कर दिया है। आप किसी भी संस्थान में ऐसे पखवाड़ों में होने वाले कार्यक्रमों की लिस्ट उठाकर देख लीजिए। वही घिसी-पिटी प्रतियोगिताएं, वही पुरस्कार के नाम पर लार टपका कर भाग ले रहे प्रतिभागी और श्रोताओं-दर्शकों के नाम पर ख़ाली-ख़ाली कुर्सियां। ये ठीक वैसा ही है जैसा भारत सरकार का इस बार का 'स्वच्छता मिशन' जो इस बार सरकारी आयोजनों में नरेंद्र मोदी के जन्मदिन से शुरू होकर महात्मा गांधी के जन्मदिन पर ख़त्म होगा।

अभी कुछ दिन पहले हिंदी का सबसे ज़्यादा बिकने वाला अखबार दैनिक जागरणएक बेस्टसेलरलिस्ट लेकर आया। यह हिंदी साहित्य के बेस्टसेलर साहित्य की सूची थी (कहानियां, लेख आदि)। इस अखबार ने इस महान सूची को तैयार करने में इतनी रिसर्च की, इतनी रिसर्च की कि एक ही प्रकाशक की सात किताबें टॉप टेन में शामिल करनी पड़ीं। प्रकाशक भी ऐसा कि कभी हिंदी को ख़ूनदेने के मिशन के नाम पर शुरू किया गया शैलेश भारतवासी का हिंदयुग्म छपास लेखकों की जेब चूसकर हिंदी का बेस्टसेलर प्रकाशक बन गया। एक ऐसा प्रकाशक जहां कहानियां बाद में लिखी जाती हैं, राइटर बाद में तय होते हैं, ऑनलाइन प्री-बुकिंग पहले शुरू हो जाती है। हिंदी को कैलेंडर से उतारकर ऐसे बेस्टसेलर समय ने पांव पोंछने वाली दरी बना दी है। आप हिंदी के सीईओ बन जाइए और अपने आसपास हिंदी का झंडा लेकर चार बाउंसरलेखक-आलोचक रख लीजिए। थैंकयू।

सोशल मीडिया एक बची-खुची उम्मीद के तौर पर है। मगर सोशल मीडिया पर अच्छा ढूंढने के चक्कर में  इतनी कविताएं हैं, इतनी हिंसा है, इतना ख़ून-ख़राबा है कि वहां भी बड़ेलोगों के लाइक के लायकसिर्फ वही हैं, जो असल दुनिया में एक-दूसरे के चाटुकार कुनबे का हिस्सा हैं। मिसाल के तौर पर एक हिंदी साहित्यिक पत्रिका के संपादक की कहानी बताता हूं। एक बार उनके दफ्तर में कुछ कविताएं भेजीं। फिर तीन महीने बाद उन्हें याद दिलाया कि सर, कुछ कविताएं भेजी हैं। उन्होंने कहा, हमारे सहायक से बात कीजिए। फिर मैं सहायक से अगले छह महीने बात करता रहा। सहायक भी बात करते रहे। फिर उन्हें सोशल मीडिया पर मैसेज किया कि सर, बात करते-करते आपके सहायक मेरे अच्छे मित्र हो गए हैं। अब कविताओं का क्या करूं। उनका जवाब आज तक नहीं आया। आप संपादक का नाम एकांत श्रीवास्तव से लेकर लीलाधर कुछ भी रख लीजिए, क्या फर्क पड़ जाएगा। सोचिए अगर ब्लॉग न होता, दो-चार भले संपादक और न होते तो इमानदार कवियों का ये पखवाड़े क्या उद्धार कर लेते।

कवियों से एक बात और याद आई। इस बार हिंदी पखवाड़े में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) जाना हुआ। एक कविता प्रतियोगिता के जज के तौर पर। वहां क़रीब 65 कवि थे! मतलब कि देश के सबसे लोकप्रिय मीडिया संस्थान में हर संभावनाशील पत्रकार हिंदी का कवि होना चाहता है। मै चाहता हूं कि हिंदी के संवेदनशील लोग या कवि मीडिया चैनलों तक थोक भाव में पहुंचे वरना आपके घर में होने वाली सबसे बुरी घटनाओं को सबसे मसालेदार बनाकर हिंदी एंकर आपके मुंह में माइक ठूंस कर मुस्कुराते रहेंगे।   

ज़्यादा लंबी छोड़िए, चलते-चलते इतना बताइए, पिछली बार से इस बार तक में कितने नेताओं, अधिकारियों, हिंदी प्रेमियों ने अपने बच्चों को हिंदी मीडियम स्कूल में दाखिला करवाया और फेसबुक पर स्टेटस डाला। अगर आपका जवाब 'ना' हा तो मुझसे पलटकर सवाल मत कीजिएगा वरना हिंदी में एक गाली निकल जाएगी।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 27 नवंबर 2016

'डियर आलिया भट्ट', मुझे आपसे प्यार हो रहा है

अगर आप शाहरुख खान के नाम पर ‘डियर ज़िंदगी’ देखने का मन बना रहे हैं तो आप अब भी समय से काफी पीछे चल रहे हैं। आलिया भट्ट को आपने ‘उड़ता पंजाब’ में कमाल की एक्टिंग करते देखा था। मेरा दावा है कि इस फिल्म के बाद आपको आलिया भट्ट से प्यार हो जाएगा। तो प्लीज़ ये फिल्म ‘डियर आलिया भट्ट’ के लिए देखने जाएं क्योंकि मेरा सिनेमा बदल रहा है। ये फिल्म गौरी शिंदे ने बनाई है। वही जिन्होंने साल 2012 में ‘इंग्लिश-विंग्लिश’ बनाई थी। अच्छी फिल्म थी। ‘डियर ज़िंदगी’ बहुत अच्छी फिल्म है। कई जगह आप ज़िंदगी के बारे में लंबे-लंबे उपदेश सुन-सुनकर बोर होंगे मगर एक अच्छी फिल्म में थोड़ा बोर होना एक बुरी फिल्म देखने से ज़्यादा अच्छा है।

आज के समय की एक लड़की कायरा (आलिया) तमाम तरह की उलझनों से भरी ज़िंदगी ढो रही है। कई सारे रिश्तों में उलझी। कई सारे रिश्तों से बचती हुई। रिश्तों में, समाज में, परिवार में पूरी तरह से ‘मिसफिट’ एक लड़की जो आपको आजकल हर शहर में अपनी पहचान के लिए जूझती मिल जाएगी। फिर अचानक फ्रस्ट्रेशन की हद तक पहुंचकर उसकी नींदें उड़ जाती हैं, बुरे-बुरे ख़्वाब आने लगते हैं तो एक ऐसे ‘दिमाग के डॉक्टर’ की एंट्री होती है जो सभी सवालों के जवाब जानता है। जिसकी ख़ुद की ज़िंदगी में एक तलाकशुदा पत्नी है, बिछड़ गए बेटे का दर्द है मगर वो कायरा की ज़िंदगी को ठीक करने का सारा फॉर्मूला जानता है। ये डॉक्टर जहांगीर खान हैं जो शाहरुख खान तो हैं मगर ‘किंग खान’ नहीं।

उसके पास हर चीज़ की एक नई परिभाषा है। वो बहुत सारे प्रेम-संबंधों को जायज़ ठहराता है। प्यार के रिश्तों को कुर्सी ख़रीदने से पहले ट्राई करने की तरह देखता है। ज़िंदगी को समंदर समझकर लहरों से कबड्डी खेलता है। सबसे ज़रूरी और कम ज़रूरी रिश्तों में फर्क करना सिखाता है। ऐसा लगता है कि वो दिमाग का डॉक्टर नहीं किसी न्यूज़ चैनल का एंकर हो जिसे धरती पर ज्ञान बांटने के लिए ही अवतार लेना पड़ा।

ऐसे वक्त में जब सलमान ‘बिग बॉस’ जैसे घटिया एंटरटेनमेंट के दम पर उछलते हैं, अमिताभ बच्चन बोरोप्लस को रिश्ते में सबका बाप बतला कर महानायक बने रहने का झूठ रचते हैं, शाहरुख ने अपनी रोमांटिक इमेज से हटकर एक ऐसा किरदार चुना जिसके लिए उन्हें सौ सलाम मिलने चाहिए। फिल्म का दूसरा हाफ सिर्फ शाहरुख और आलिया की बातचीत है। अकेलापन एक मिस्ट्री है जिसको एक डीकोड करता है और दूसरा अकेलेपन के दूसरे लेवल पर पहुंचता है। 

स्क्रीनप्ले बहुत शानदार है। कई जगह आप जमकर हंसेंगे और अगर शहर की उलझनों ने कभी आपको अकेला किया होगा तो आलिया की शानदार एक्टिंग आपकी आंखों से बहेगी भी। जेनरेशन गैप की वजह से परिवार की भूमिका पर भी फिल्म लंबा उपदेश देती है। एडिटिंग इस फिल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी है। ऐसी कमज़ोरी कि इस अच्छी फिल्म में भी इंटरवल पर दर्शकों की तरफ से ‘थैंक गॉड’ की आवाज़ आती है।

मुझे अक्सर लगता रहा है कि सबसे अच्छी कविता या सबसे अच्छी फिल्म वही हो सकती है, जिसमें कई चीज़ें पंक्तियों या दृश्यों के बीच में छोड़ दी जाएं। इस फिल्म में कुछ भी छूटता नहीं। फिल्म इतना समझाती है, इतना
समझाती है कि आप ‘पकने’ लगते हैं। असल वाली ज़िंदगी इतनी ‘डियर’ कभी नहीं होती कि तीन घंटे में सारी उलझनें सुलझा ली जाएं। न ही सबकी किस्मत में एक ‘दिमाग का डॉक्टर’ होता है।

सेंसर बोर्ड वाले पहलाज निहलानी ने ऐसी फिल्म में भी ‘बीप’ के लिए जगह निकालकर पूरी देशभक्ति का परिचय दिया है। हालांकि, ‘लेस्बियन’ को वो ‘लेबनीज़’ ही सुन और समझ पाए, इसीलिए जाने दिया। वो चाहते तो फिल्म के टाइटल पर भी नाराज़ हो सकते थे जैसा उनकी पूर्व शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी एक बिहारी मंत्री के ‘डियर स्मृति जी’ लिखने पर नाराज़ हो गईं थीं। इसके अलावा फिल्म से पहले ‘फिल्म डिवीज़न’ की सरदार पटेल पर डॉक्यूमेंट्री भी मुफ्त में आपको देखने को मिलेगी और आप राष्ट्रप्रेम के मामले में तरोताज़ा महसूस करेंगे।
(ये फिल्म समीक्षा Youth Ki Awaaz के लिए लिखी गई है)


निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

धोनी जितना अच्छा क्रिकेटर है, फिल्म उतनी अच्छी नहीं

अब जहां एक हफ्ते में फिल्मों का विसर्जन हो जाता है, महेंद्र सिंह धोनी पर पिछले हफ्ते रिलीज़ हुई फिल्म धोनी..The Untold Story’ पर अब जानबूझ कर इसीलिए लिख रहा हूं ताकि अपनी याद्दाश्त टेस्टकर सकूं कि एक हफ्ते के बाद भी फिल्म का कितना असर दिमाग पर बचा है। अच्छी फिल्म वही जो कई-कई बार आपको याद आए, याद आती रहे। धोनी इतनी तो ठीकठाक है कि एक हफ्ते तक उसका असर बचा हुआ है। इससे ज़्यादा बचा रह पाएगा, कहना मुश्किल है।
रांची के एक डीएवी स्कूल में मेरी स्कूली पढ़ाई हुई। ठीक उसी दौर में जब धोनी वहां डीएवी के दूसरे स्कूल में स्पोर्ट्स कोटा के ज़रिए पिता के लिए टिकट कलेक्टर बनने का सपना पूरा कर रहे थे। उस वक्त के अखबारों में वो मैच याद है जब धोनी ने 30 ओवरों के मैच में डबल सेंचुरी लगाई थी और स्कूल के दौरान ही उनकी क्रिकेट किट को स्पांसर मिल गया था। ये माही के महेंद्र सिंह धोनी होने की शुरुआत थी जैसा फिल्म ठीक ही बताती है। धोनी जब टीम इंडिया में आए तो एक रांची वालाहोने के नाते सचमुच वैसी ही खुशी मिली जैसा फिल्म में उनके क़रीबी दोस्तों को होती दिखती है।

मैं रांची में पिस्का मोड़ के पास जिस किराए के मकान में रहता था, उसकी छत से एक खेत वाला मैदान दिखता था जहां कुछ आदिवासी लड़के बैट भांजकर वही शॉट लगाते थे, जिसे बाद में हैलीकॉप्टरशॉट के नाम से जाना गया। इसीलिए लंबे बालों वाले धोनी को टीवी पर वैसै शॉट्स खेलते देखना घर के सामने किसी झबरीले बाल वाले लड़के का खेलना लगता था।  धोनी को देखकर सचमुच लगता रहा कि ये एक आम आदमी का सेलेब्रिटी होना है।
मगर फिल्म देखकर लगा कि ये एक आम आदमी की कहानी नहीं है। ये एक बड़ी हस्ती की कहानी है जिसके बारे में हम जानते हैं कि उसे कितना बड़ा होना है। ये पान सिंह तोमरनहीं है जिसे हम उसके संघर्षों के लिए याद रखेंगे। हीभाग मिल्खाहै जिसके महान होने में एक ट्रैजेडी पहले ही जुड़ी हुई है। ये सचिन तेंदुलकर भी नहीं है जिनके क्रिकेट की कहानी का आखिरी पन्ना लिखा जा चुका है और अब अगर कोई फिल्म बन भी जाए तो बात पचती है। मगर धोनी? धोनी अच्छे स्कूल में पढ़े, उन्हें तमाम तरह के मौके मिलते रहे। क्रिकेट के लिए तो उनका शौक अचानक ही पनपा। टीचर के जबरदस्ती कहने पर। बहुत ही बनावटी ढंग से दशहरा घूम रहे धोनी को भगवान के पोस्टर के बीच सचिन का पोस्टर टंगा हुआ दिख जाता है और एक फुटबॉलर लड़का जो अभी-अभी क्रिकेट शुरू कर रहा है, इसी भगवान की फोटो अपनी मां से खरीदने की ज़िद करता है।  
फिल्म का आधा हिस्सा स्कूली लड़के धोनी के टिकट कलेक्टर तक बनने की कहानी है। इसमें हैलीकॉप्टर शॉट अपनी प्रेमिका तक पहुंचने के पुल की तरह है। इसमें छोटी-छोटी बातों का ख़याल रखने वाले यारों के यार हैं जो धोनी को धोनी बनाने के लिए सब कुछ निसार करने को तैयार हैं। इसमें मल दे सूरज के मुंह पर मलाई, चढ़ते बादल पर कर दे चढ़ाईजैसे अच्छे गीत हैं। फिल्म धीमे-धीमे आगे बढ़ती है, असर भी करती है। मगर फिल्म का दूसरा हाफ उतना ही बुरा है, जितना टी-20 की शक्ल में आईपीएल।
दूसरे हाफ में फिल्म निर्देशक को सब कुछ इतना फटाफट ख़त्म करना है कि जैसे आप धोनी की फिल्म नहीं, मैच की हाईलाइट्स देख रहे हों।  इतना नाटकीय कि भरोसा तक नहीं होता। जैसे ये कि अपने शुरुआती लगातार पांच मैचों में फ्लॉप हो रहे धोनी की अगले मैच में सेंचुरी दरअसल उनकी मेहनत नहीं, हवाई जहाज़ में मिली एक ख़ूबसूरत लड़की की भविष्यवाणी थी। इस तरह तीन घंटे की एक हिंदुस्तानी फिल्म में प्रेम कहानी का आगमन एक घंटे पचास मिनट बाद होता है।  फिर दूसरी प्रेम कहानी फिल्म ख़त्म होने से ठीक पहले। और कुछ मशहूर मैचों के टुकड़े जिनमें मुशर्रफ ने धोनी के बालों की तारीफ की या फिर टीम इंडिया के सीनियर खिलाड़ियों से थोड़ी-बहुत खटपट जो ब्रेकिंग न्यूज़ वाला मीडिया कई-कई बार पहले भी बता चुका है। मैच फिक्सिंग, कोच का विवाद, दूसरे बड़े खिलाड़ियों के साथ धोनी के रिश्ते  या फिर ड्रेसिंग रूम की कहानियां फिल्म से ऐसे ग़ायब हैं जैसे वो किसी सीक्वेल के लिए बचाए गए हों।
कुल मिलाकर फिल्म अच्छे धोनी को और अच्छाबनाकर ख़त्म हो जाती है। दूध का धुलाधोनी रोज़ चार लीटर दूध (ऐसा उसने एक बार रवि शास्त्री से किसी मैच के बाद कहा था) पीता है, ऐसा कहीं नहीं दिखता। हिंदी के कमेंटेटर दिखते हैं जो उतने ही जोकर लगते हैं जितना दूरदर्शन के आज के हिंदी कमेंटेटर। ये फिल्म धोनी की पूरी तरह से रिटायरमेंट के बाद आती तो ज़्यादा साफ नीयत से बन पाती।
फिलहाल इस फिल्मी धोनी को देखने की सिर्फ एक ही वजह हो सकती है। या तो आप आज भी उनके बहुत बड़े फैन हैं या किसी ने फिल्म देखने के बदले किसी आईपीएल मैच का फ्री पास दिया हो। और हां, सुशांत सिंह राजपूत की एक्टिंग धोनी की बैटिंग और इस फिल्म से कहीं ज़्यादा अच्छी लगी।
 
निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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