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गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

पसीने की गंध

मैं भीड़ में पसीने से तर खड़ा था
आपने अचानक कार का दरवाज़ा खोल दिया
मैं थोड़े वक्त आपके साथ हो लिया
जैसे धूल चिपकी होती है चमकीली कार के साथ
जैसे अचानक एसी बंद हो जाने पर
पसीना होता है कलफ वाली कमीज़ के साथ।
जैसे कोई बीमा पॉलिसी बेच रहा एजेंट होता है
आपके एकदम साथ होने का भरम बेचते।
आप खामखा भरम में फूल गए जिस वक्त
कि मैं भी हो जाऊंगा आप जैसा
मैं अपने पसीने की गंध में
परिचय खोज रहा था अपना
मैं जिस भाषा में बात करता हूं
आपके नौकर, ड्राइवर या बहुत हुआ तो
गालियों का ज़ायका बढ़ाने के लिए आप भी,
टिशू पेपर की तरह इस्तेमाल करते हैं।
मेरे साथ लंबा वक्त गुज़ारना मुनासिब नहीं
हालांकि दरकिनार भी नहीं किया जा सकता
जूते पर पालिश की तरह
आपके बंगले तक पहुंचने के लिए
कचरे वाली आखिरी गली की तरह
देश के नक्शे पर उत्तर-पूर्व की तरह
आप सड़क पर गंदगी देखकर उबकाते हैं
ग़रीबी देखकर मुंह बिचकाते हैं
दुख देखकर बुद्ध हुए जाते हैं
सड़क की चीख-पुकार सुनकर
कार का स्टीरियो तेज़ चलाते हैं
मिली के दर्द भरे गाने बजाते हैं।
आपने मेरा पता पूछा था हंसते हुए,
और मैं हंसते हुए टाल गया था
दरअसल, आप जिस दिल्ली में मेरा पता ढूंढेंगे
उस दिल्ली में नहीं मिलते हम जैसे लोग
धूप का चश्मा पहनकर सूरज नहीं ढूंढते
हम दोनों साथ हैं
या हो सकते हैं
ये एक राजनैतिक भ्रम है
समानांतर रेखाएं कभी साथ नहीं हो सकतीं
लेकिन ऐसी रेखाएं होती ज़रूर हैं
जो कभी-कभी आपके माथे पर नज़र आ जाती हैं।


निखिल आनंद गिरि
(कविताओं की पत्रिका 'सदानीरा', मार्च-अप्रैल-मई 2014 अंक में प्रकाशित)

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