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सोमवार, 23 जनवरी 2023

उदास मौसम का प्रेमगीत

ये सच है कि मेरे सपनों में 
जादू वाली परियां आती थीं बचपन में
मगर उनका चेहरा ग़ायब हो जाता था भोर से पहले
तुम्हारा होना किसी भोर के सपने का सच होना लगता है

तुम्हारा होना
संसार की सबसे सुंदर घड़ी का कलाई पर होना है
जिसमें बुरे से बुरा समय भी निखर कर आता है

तुम्हारा होना
किसी गुरुद्वारे में प्रवेश के पहले
पानी में पैर रखने जितना पवित्र
जहां से जीवन एक गुरुद्वारा लगता है

जैसे दिल्ली कोई बेहद निर्मम, भावहीन शहर नहीं
यह अथाह शोर की राजधानी नहीं
किसी संगत में बजती बानी में 
बदल जाता है
जहां घर से दफ़्तर और दफ़्तर से घर लौटना
सपनों का मर जाना नहीं लगता।

तुम्हारा होना मुझे इस क़दर मज़बूत करता है
जैसे मैं कोई दरवेश हो जाता हूं
और किसी आखिरी सांस ले रहे निर्जीव शरीर में भी 
जीवन फूंक देने के विश्वास से भर जाता हूं

मौन सबसे सुंदर भाषा हो जाती है
जब मैं होता हूं तुम्हारे साथ  
जब मेरे रुखे चेहरे को स्पर्श करते हैं 
तुम्हारी कटी-छिली उंगलियों वाले हाथ
यह देह का स्पर्श नहीं
आत्मा का मिलन लगता है

तुम्हारी बाहें दो पंख हैं
तुम्हारी पीठ पर किसी शिशु-सा कस कर बंधा मैं
पैदल चलते हुए हम अचानक
कितनी दूर निकल जाते हैं ब्रह्मांड में
 
अब मेरी दीवारों में कोई सीलन नहीं
मेरी दोस्तों से कोई अनबन नहीं
मेरे मोज़ों में कोई बदबू नहीं
मेरे पहियों में कोई पंक्चर नहीं
मेरे पिता को कोई बीमारी नहीं
इस दुनिया में कोई युद्ध नहीं

तुम्हारे साथ होना अपनी जड़ों में होने जैसा है
जहां कमियां कोई घाव नहीं लगतीं चरित्र का
हम पैसे खोने पर दुखी नहीं होते
हम रास्ता भटकने पर डरते नहीं
दुख कोई छिपाने जैसी मजबूरी नहीं लगती

जहां मैं एक ही वक्त में 
बेटा, भाई, पति, पिता,
मुजरिम, शराबी, फ़कीर
यानी जैसा चाहूं वैसे का वैसा 
हो सकता हूं

जहां मैं जब चाहूं अपनी मातृभाषा में 
देर तक रो सकता हूं 

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 4 जनवरी 2015

दो रुपये का लोकतंत्र..

बचपन की एक बात समझी,
लगभग तीस साल की उम्र में
एक आदमी चौबीस घंटे में,
तीस लोगों की डांट खाता है
तीन सौ लोगों की डांट से बचता है
तीन हज़ार बार 'सर सर' कहता है
सर झुकाकर खच्चर की तरह,
तीस हज़ार लोगो के साथ,
रोज़ाना धक्के खाते आता-जाता है
शनीचर को तेल चढ़ाता है,
आप कहते हैं मन से नौकरी करता है
कंपनी का बड़ा वफादार है
बीवी-बच्चों से सच्चा प्यार है
मैं तब समझा ये अतिशयोक्ति अलंकार है!


और ये भी कि,
सभ्यताओं के इतिहास में
सिर्फ दुम छोटी होती गई
दुम हिलाना होता गया,
सभ्य होने की पक्की गारंटी।

वो डॉक्टर जो नब्ज़ पकड़ता था
और झट पकड़ लेता बीमारी भी
एक दिन मरा लाइलाज बीमारी से
एक बिल्ली रास्ता काटती ही थी
कि कट गई गाड़ी के नीचे आकर
एक सरकारी अस्पताल खुलना ही था
मर गया महामारी में सारा गांव
दो रिश्ते एक होने को ही थे,
कि सरकारी योजनाओं की तरह
टूट गए भरम के सारे पुल।

जीवन की काली कोठरी में
जब चीख़ती हैं सवालों की परछाईयां
''और कितना डूबोगे सूरज
अंधेरे के बोझ तले
कितना और..?''
उम्मीद की अकेली किरण होती है-
जैसे-तैसे ली गई
एक अंधेरी, बोझिल सांस।
और तब समझ आता है
विडंबना का शाब्दिक अर्थ
दरअसल, व्याकरण की नहीं लिखी गई किताब में
प्यार लोकतंत्र का ही पर्यायवाची शब्द है.
और लोकतंत्र उस अश्लील कहकहे का
जिसका वज़न दो रुपये की क़ीमत चुकाकर,
किसी भी शाम तोला जा सके इंडिया गेट पर


निखिल आनंद गिरि
(कविताओं की पत्रिका 'सदानीरा', मार्च-अप्रैल-मई 2014 अंक में प्रकाशित)

रविवार, 2 मार्च 2014

बहुरूपिये पिताओं के बारे में

उम्र के उस किनारे
किसी विशाल और सजीव मूरत की तरह
खड़ा है जैसे कोई सदियों से।
मैं समंदर की तरह बहता हूं
और पांव छूकर लौट आता हूं।
पूछूंगा कभी उन पांवों से
भीतर तक महसूस हुआ कि नहीं।

सबसे अधिक बातें करना चाहता हूं पिता से
असंख्य तारों से भी ज़्यादा
उन-उन भाषाओं में जो गढ़ी नहीं गईं
उन लिपियों में जिनका नाम तक नहीं मालूम
ऐसे ही संभव हैं कुछ बातें
तुम्हारी आंखों में धंसे दुख के बारे में
जो उतर आता है मेरी नसों में भी
बिना किसी मुहूर्त के
मेरे माथे पर उग आती हैं
तुम्हारे चेहरे की सब झुर्रियां।


मिलना चाहता हूं उन सब पिताओं से

जो दिखते हैं मुझमें
प्रेमिकाओं की आंखों से।
मैं पिता से प्रेमिकाओं की तरह मिलना चाहता हूं
देवताओं की तरह नहीं।

गले में कसकर हाथ डाले
बीच सड़क पर किसी नई फिल्म का
गाना गाते, भूलते बीच-बीच में।
सर्दियों में ज़बरदस्ती आइसक्रीम खिलाते
सबसे असभ्य गालियां बकते
सबसे सभ्य दिखते लोगों को
झट खड़े हो जाते मेट्रो में
किसी पिता जैसे चेहरे को देखकर
उम्र के सब मचान लांघते
तुम्हारे बेहद क़रीब आना चाहता हूं।

तुम्हारी बांहों में मछलियां नहीं हैं
फिर कैसे लड़ लेते हो हम सबके लिए
तुम्हारी आंखों में पावर वाला चश्मा है
फिर कैसे देख लेते हो सबसे दूर तक
तुम कोई बहुरूपिए हो पिता
एक सच्चे मिथक की तरह
तुम शक्तिपुंज हो पिता मेरे लिए

किसी मैग्निफआइंग लेंस के सहारे
सहेज लूंगा तुम्हारी सब ऊर्जा
जो एक दिन जला देगी देखना
संसार के सब दुख, छल और नकलीपन।

निखिल आनंद गिरि
(पिता के जन्मदिन पर..
)

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

खुले बालों वाली लड़की...

एक ही टेबल पर कॉफी पीते हुए दोनों दो अलग-अलग ग्रहों के बारे में सोच रहे थे....लड़का सोच रहा था कि वो चांद पर ज़मीन ले पाया तो सबसे पहले कॉफी की खेती शुरू करेगा... उसने अचानक लड़की को बताया कि पिछली रात कार्तिक की पूर्णिमा को उसने खुले आकाश के नीचे मीठी खीर रख छोड़ी थी... लड़की सोच रही थी कि कॉफी गर्म नहीं होती तो वो इस बोरिंग लड़के के बजाय मेट्रो की सीट पर बैठी होती, जहां एक सीट उसके लिए आरक्षित होती है.....टेबल के सामने एक यूनिफॉर्म में वेटर खड़ा था और इस ऊबाऊ प्रेम कहानी के अंत का इंतज़ार कर रहा था क्योंकि उसे दुकान समय से बंद करनी थी और यहां उसे किसी टिप की उम्मीद भी नहीं थी...लड़की ने जैसे-तैसे कॉफी खत्म की और टिशू पेपर से अपना मुंह साफ किया....टिशू पेपर पर लिपस्टिक के निशान उग आए थे....वेटर ने झट से लिपस्टिक वाले टिशू पेपर के साथ कॉफी से खाली गिलास ट्रे में रख लिया....लड़के ने लपककर टिशू पेपर उठा लिया और वेटर को घूरते हुए शॉप से बाहर निकल आए...लड़की ने किसे घूरा, ये बताने की ज़रूरत नहीं है...लड़के की इच्छा हुई कि वो थोड़ी देर और बैठे, इधर-उधर की बातें करे और हो सके तो लड़की का माथा भी चूम ले...उसने लड़की से पहली इच्छा जताई तो लड़की ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई...उसका मूड शायद खराब था क्योंकि उसे घर पहुंचने में देर हो रही थी....लड़के की बाक़ी दो इच्छाएं किसी काम की नहीं रहीं....लड़के ने सोचा कि ज़रूर आकाश में रखी खीर बिल्ली ने जूठी कर दी होगी...उसे बिल्ली और खीर पर बहुत गुस्सा आया....


‘हम कल फिल्म देखने चलें....’ लड़की ने अचानक पूछा...

लड़के ने कहा, ‘नहीं, कल नहीं....परसों चलते हैं..’। उसे लगा लड़की उसे कल के लिए ज़िद करेगी तो वो हां करेगा....मगर,लड़की ने परसों वाला प्रस्ताव भी टाल दिया और आगे कोई बात नहीं की....लड़के को ही कहना पड़ा...’कल कितने बजे का शो देखेंगे’

लड़की ने कहा, ‘अब रहने दो’

लड़के ने कहा, ‘क्यूं..?’

‘क्यूं मेरा सर...’

‘प्लीज़ कल ही चलते हैं...प्लीज़’

लड़की मान गई और लड़के से शर्त रखी कि वो कोई नीली कमीज़ पहनकर आए। लड़के ने तुरंत मान लिया और ये भी नहीं सोचा कि हॉल के अंधेरे में सभी रंग एक जैसे होते हैं....

लड़की ने पूछा, ‘तुम्हारे पास कैमरा है?’

‘नहीं...क्यों?’
'क्यों, मेरा सर...
लड़की थोड़ी जल्दी में थी क्योंकि वो लड़की थी और उसे शाम के बाद घर से बाहर रहना मना था....
वो फिर भी बोली,
''अच्छा सुनो, कल हम थोड़ी देर धूप में बैठेंगे.....'
''और चावल भी खाएंगे, फ्राइड राइस....''

लड़के ने कहा, ''ठीक है, मगर तुम अपने खुले बालों के साथ आना.....''
लड़की मुस्कुराई और पूछा, ''क्यूं...''
''ऐसे ही''
लड़की बोली ''तुम्हारी कमीज़ में दो जेबें क्यूं हैं....''
लड़का कुछ समझा नहीं कि क्या जवाब दे....बोला, ''एक में आसमान है, और एक में सारी दुनिया...''
लड़की बोली, ''और मैं....''

लड़की चली गई....लड़का कुछ देर खड़ा रहा...उसने लिपस्टिक वाला टिशू पेपर निकाला और वापस अपनी जेब में रखकर दूसरी ओर चला गया...उसने सोच लिया था कि कुछ भी हो कल वो नीली कमीज़ नहीं पहनेगा....

निखिल आनंद गिरि
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रविवार, 8 सितंबर 2013

वो प्यार नहीं था..

कभी-कभी सोचता हूं...
(इतना काफी है मानने के लिए कि ज़िंदा हूं)
कि आकाश तक जाने का कोई पुल होता तो हम छोड़ देते धरती
किसी अमावस की रात में...
और मुझे मालूम है कि,
पिता नहीं, वो तो खर्राटे भर रहे होंगे..
मां भी नहीं, वो थक कर अभी चूर हुई होगी...
तुम ही मुझे आधे रास्ते से उतार लाओगी
कान पकड़े किसी हेडमास्टर की तरह...
जबकि चांद एक सीढ़ी भर दूर बचेगा...
अंधी रात को क्या मालूम उसे तुमने नीरस किया है।

तुम्हारी तेज़ कलाई जब देखी थी आखिरी बार,
मुझे नहीं आता था बुखार नापना...
मेरी धड़कनों में वही रफ्तार है अभी...
इस वक्त जब ले रहा हूं सांसें...
और हर सांस में डर है मरने का...
तुम्हें भूलने का इससे भी बड़ा...
 
ये बचपना नहीं तो और क्या
कि जिस चौराहे से गुज़रिए वहां भगवान मिलते हैं
इस आधार पर मान लिया जाए,
कि बचपन की हर चीज़ वहम थी...
मौत के डर से हमने बनाए भगवान,
जिन्हें मरने का शौक होता है,
वो बार-बार प्यार करते हैं...

जबकि, प्यार कहीं भी, कभी भी हो सकता है...
छत पर खड़े हुए तो सूखे कपड़ों के बीच में..
और जब सबसे बुरे लगते हैं हम आईने में, तब भी...

तो सुनो, कि मैं सोचने लगा हूं अब..
तुमने चांद से सीढ़ी भर दूर मुझे मौत दी थी...
और सो गयी थीं गहरी नींद में...
वो प्यार नहीं था,
प्यार कोई इतवार की अलसाई सुबह तो नहीं,
कि इसे सोकर बिता दिया जाए

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 25 अगस्त 2013

कुछ है, जो दिखता नहीं..

जब ठठाकर हंस देती है सारी दुनिया,
बिना किसी बात पर..
अचानक कंधे पर बैठ जाती है गौरेया
कहीं किसी अंतरिक्ष से आकर..
चोंच में दबाकर सारा दुख
उड़ जाती है फुर्र..

फिर न दिखती है,
न मिलती है कहीं..
मगर होती है
सांस-दर-सांस
प्रेम की तरह..

रविवार, 17 मार्च 2013

ओ आसमान की परियों !!

जब हर तरफ बसंत था..
हर दिन, हर रात, हर पहर..

तुमने चांद को चांद कहा
मैंने चांद ही सुना..
(ऊब की हद तक चांद)
तुमने जो कहा भला-बुरा
सब भला सुना मैंने...
ग्लोब से बढ़कर..
एक चेहरा तुम्हारा..
उन लकीरों में ही
सब पढ़े मैंने
महाद्वीप, महादेश वगैरह वगैरह..

फूल झरते थे बिना बात के भी..
सपनों में भी उतर आती थी खुशबू..
सब सन्नाटे, संगीत से बढ़कर..
सब भाषाओं से बढ़कर एक अनंत मौन..

तब एक बार आई थी बड़ी बीमारी,
और मैं हंसते-हंसते ठीक हुआ था..
एक बार गिरा था मैं तीसरी मंज़िल से,
मगर जाने किस ख़याल में बचा रहा साबुत...
मैं एक बार आसमान को तकता,
तो तीन परियां कहीं से उतर आतीं..
मेरा माथा सहलातीं और मैं सो जाया करता..

कैसे आई इतनी झूठी
इतनी मीठी, इतनी लंबी नींद
बिना नींद की गोली के..

अब जब जागा हूं..
हर तरफ बंजर है..
हर तरफ अंधेरे..
कोई और नहीं आसपास,
सिवाय एक अनजान चेहरे के..
उजाला बनकर मेरे साथ खड़ा है..
मेरे सब कालेपन के बावजूद..

ये बसंत नहीं है
आसमान की परियों..
कोई नया मौसम है..
मैं जीने लगा हूं शायद..
तुम्हारी यादें धुधला रही हैं..
आसमान की परियों...
मैं जाग रहा हूं..

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 29 अगस्त 2012

उसने मुझे नज़र से था कुछ यूं गिरा दिया..

पत्थर पिघल रहा था मेरे दिल की ताब से

किसने जगा दिया मुझे हसीन ख़्वाब से


नाज़ुकमिज़ाज दिल की तसल्ली के वास्ते

हंसकर जिये हैं उसने सभी दिन अजाब-से


वो सुबह अब न आएगी बहरी जो हो गई

यूं उठ रहा है शोर, नए इनक़लाब से


उसने मुझे नज़र से था कुछ यूं गिरा दिया..

जैसे ज़मीं पे कोई गिरे माहताब से..


मैं उससे बरसों बाद भी था बे-तरह मिला

वो मुझसे खुल रहा था अगरचे हिसाब से


झोंके ने एक रेत के सब धुंधला कर दिया

नज़रों में इक उम्मीद बची थी सराब से


इंसानियत का अब कोई मतलब नहीं रहा

मैने पढ़ी थी बात ये सच की किताब से..

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

लिपटकर रोने की सख्त मनाही है...

रात में सियारों की हुंआ-हुंआ की तरह
सुनाई देती है मेट्रो की हल्की आवाज़
पेड़-पौधों की तरह दिखते हैं
दूर-दूर तक वीरान मकान...
शिकार के लिए ढूंढने नहीं पड़ते शिकार
बाइज्ज़त होम डिलीवरी की भी व्यवस्था है...
और मुझे ये सच कहने पर चालान मत कीजिए
कि हम एक जंगल को शहर समझने लगे हैं....
ऐसा नहीं कि पहली बार लिखा गया हो ये सब
मगर ये हर भाषा में बार-बार बताया जाना ज़रूरी है

जैसे बार-बार बनाई जानी होती है दाढ़ी
याद किए जाने होते हैं आखिरी विलाप
छूने होते हैं पांव, बेमन से....
घर लौटना होता है नियम और शर्तों के बिना
बीमार होने पर वही कड़वी दवाईयां बार-बार
जैसे बार-बार बदलते बेटों के लिए
नहीं बदलते मां के व्रत
और सुनिए इस शहर के चरित्र के खिलाफ
आपको दुर्लभ दिखने के लिए रोना हो बार-बार...
तो ठूंठ पेड़ बचाकर रखिए दो-चार...
किसी से लिपटकर रोने की सख्त मनाही है...

इस शहर में छपने वाले अमीर अखबारों के मुताबिक
निहायती ग़रीब, गंदे और बेरोज़गार गांवों से...
वेटिंग की टिकट लेने से पहले मुसाफिरों को... 
ख़रीदने होते हैं शहर के सम्मान में
अंग्रेज़ी के उपन्यास...
गोरा होने की क्रीम..
सूटकेस में तह लगे कपड़े...
और मीडियम साइज़ के जॉकी....
हालांकि लंगोट के खिलाफ नहीं है ये शहर..
और सभ्य साबित करने के लिए
अभी शुरु नहीं हुआ भीतर तक झांकने का चलन...

यहां हर दुकान में सौ रुपये की किताब मिलती है
जिसमें लिखे हैं सभ्य दिखने के सौ तरीके
जैसे सभ्य लोग सीटियां नहीं बजाते
या फिर उनके घरों में बुझ जाती हैं लाइट
दस बजते-बजते...
या जैसे मोहल्ले की पुरानी औरतें कहती हैं
अच्छे या सभ्य नहीं होते 47 वाले पंजाबी..

बात-बात पर आंदोलन के मूड में आ जाता है जो शहर...
हमारे उसी शहर में थूकने की आज़ादी है कहीं भी...
गालियां बकना नाश्ते से भी ज़रूरी है हर रोज़...
और लड़कियों के लिए यहां भी दुपट्टा डालना ज़रूरी है..
जहां न बिजली जाती है कभी और न डर।

जिनकी राजधानी होगी वो जानें..
किसी दिन तुम इस शहर आओ
और कह दो कि मुझे सफाई पसंद है..
तो पूरे होशोहवास में सच कहता हूं,
डाल आऊंगा...कूड़ेदान में सारा शहर...

निखिल आऩंद गिरि

रविवार, 27 मई 2012

वो मेरी चुप्पियां भी सुनता था...

मैंने सब जुर्म याद रखे हैं...
मैंने सब कटघरे सजाए हैं...
कोई तो आए, सज़ा दे मुझको...

लोग कहते हैं अजब पूनम है...
चांद सूजा हुआ-सा लगता है...
तुमने फिर नींद की गोली ली क्या?

मैंने दुनिया से कुछ कहा भी नहीं
जाने क्या उसने सुना, रुठ गया...
वो मेरी चुप्पियां भी सुनता था...

देखो ना रिस रहा है आंखो से
एक रिश्ता कोई हौले-हौले
कोई 'चश्मा' भी नहीं आखों में !!

मैंने हर खिड़की खुली रखी है..
कोई परवाज़ भरे, लौट आए...
कल से हड़ताल है उड़ानों की...

मैं बुरा हूं तो मैं बुरा ही सही
आप अच्छे हैं, मगर भूल गए...
हमने बदले थे आईने कभी...

सारे आंसू नए, मुस्कान नई
ज़िंदगी में नया-नया सब कुछ..
बस कि गुम हैं पुराने कंधे...

होंठ सिलकर ज़बान की तह में
मैंने एक सच छिपाए रखा था
रात उसने ली आखिरी सांसे...

एक दिन ऐसे टूट कर रोये,
गुमशुदा हो गया ख़ुदा मेरा...
हम भी आंखों में ख़ुदा रखते थे...

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

मुझे ये शहर तो ख़्वाबों का कब्रिस्तान लगता है..

जो पत्थर की तरह बस बेहिस-ओ-बेजान लगता है
वही चेहरा मुझे अक्सर मेरा भगवान लगता है..

हमारे गांव यादों में यहां हर रोज़ मरते हैं,
मुझे ये शहर तो ख़्वाबों का कब्रिस्तान लगता है..

ज़रा फुर्सत मिले तो देखिए उसको अकेले में,
वो गोया भीड़ में अच्छा-भला इंसान लगता है..

उजाले ही उजाले हों तो कुछ घर सा नहीं लगता..
अंधेरों के बिना भी घर बहुत वीरान लगता है..

मेरे ख्वाबो की गठरी को समंदर में बहा डालो,
मेरे कमरे में रद्दी का कोई सामान लगता है..

मैं किसको उम्र के इस कारवां में हमसफर समझूं.
मुझे हर शख्स बस दो दिन यहां मेहमान लगता है..

ज़रा मेरी तरह पत्थर पे सजदे करके भी देखे
जिसे भी इश्क नन्हें खेल सा आसान लगता है....

मैं ज़िंदा हूं तुम्हारे बिन, यक़ीं ख़ुद भी नहीं होता,
यहां पहचान साबित ना हो तो चालान लगता है..

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 21 सितंबर 2011

ऐसा भी क्या हुआ कि उसे इश्क हो गया...

खुशबू के नाम पर हुए सौदे बहार में
छुपना पड़ा गुलों को भी दामाने-ख़ार में

बरसों के बाद टूटा वो तारा फ़लक से रात,
फिर से हुआ सुकून बहुत, इंतज़ार में...

ऐसा भी क्या हुआ कि उसे इश्क हो गया
कुछ तो कमी ही थी मां के दुलार में...

एक रोज़ ख़ाक होंगे सभी जीत के सामान
रखा नहीं है कुछ भी यहां जीत-हार में...

वहशी हुए तो घर में ही करने लगे शिकार
जंगल से ही उसूल भी लेते उधार में..

सब रहनुमाओं ने किए अपने पते भी एक
मिलना हो आपको तो पहुंचिए तिहाड़ में...

जिस फूल की तलब में गुज़री तमाम उम्र
वो फूल ही आया मेरे हिस्से, मज़ार में...

निखिल आनंद गिरि

 

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

अंधेरे में सुनी जाती हैं सिर्फ सांसें...

एक सांस का मतलब एक सांस ही नहीं होता हर बार...
और ये भी नहीं कि आप जी रहे हैं भरपूर

मोहल्ले का आखिरी मकान
जहां बंद होती है गली
जहां जमा होता है कचरा
या शहर के आखिरी छोर पर
जहां जमा होता है डरावना अकेलापन
वहां जाकर पूछिए किसी से एक सांस की क़ीमत

या फिर वहां जहां जात पूछ कर रखे जाते हैं किराएदार
और ग़लती से आपका मकान मालिक
एक दिन पूछ देता है नाम
और जब आप सांसे भर कर बताते हैं सिर्फ नाम
तो अगली सांस भरने से पहले ही 'बाप' का नाम
यानी जन्म लेने भर से ही ज़रूरी नहीं
कि आप जब तक जिएं हर जगह सांस ले सकें...

पिता जब ताकते हैं आखों में
शाम को देर से आने पर
या मां पकड़ लेती है कोई गलती
जो नहीं की जाती हर किसी से साझा
सांसें हो जाती है सोने-चांदी से भी क़ीमती

अगर भूल गए हों आप कोई नाम
या भूलने लगे हों खुश रहने के तरीके
तो बंद आंखों से एक सांस भरना
ज़रूरी हो जाता है बहुत

सांसें तब भी ज़रूरी हैं
जब ज़रूरी नहीं लगता जीना
या फिर सबसे ज़्यादा ज़रूरी लगता हो
यानी तब जब आप सच के साथ हों
एकदम अकेले....एक तरफ
और पूरी दुनिया दूसरी तरफ

या तब भी जब आखिरी कुछ सांसे ही बची हों
और मिलना बाकी हो उनसे
जिन्होंने आपके साथ बांटी हो सांसें....
एकदम अंधेरे में...
जब दिखता नहीं कुछ भी
और सिर्फ सुनी जा सकती हो सांसें...

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

कहीं बीच में जो रुकी है कहानी...

राशि मेरी ज़िंदगी में थोड़े वक्त के लिए ही आई....आप हमारे छोटे-से रिश्ते को दोस्ती कह सकते हैं या ज़्यादा समझ रखने वाले प्यार भी समझ सकते हैं...अगर ये प्यार है, तो मुझे प्यार कई बार हो चुका है...(प्रेमिकाएं मुझे गालियां दे सकती हैं...)..जिस तरह अचानक ज़िंदगी में आई, चली भी गई...हमारी मुलाकात न तो दोबारा हुई और न ही ऐसी कोई संभावना है...फ्रेंडशिप डे के ठीक पहले अचानक एक चिट्ठी आई तो सोचा यहीं शेयर कर लूं...बहुत दिन हुए, दिल्ली में किसी से इतना प्यार पाए...अगर आप भी किसी अच्छे दोस्त को याद करना चाहते हैं तो टूटी-फूटी नज़्म ही लिख कर भेज दें....प्यार में डूबे हर कच्चे-पक्के शब्द को नोबेल दिया जाना चाहिए..दिल से ही सही..

प्रिय निखिल,

आपसे वादा किया था कि आपके लिए कुछ लिखेंगे, तो बस आँखें बंद करके कुछ यादें इकठ्ठा करके, उनको तोड़ मरोड़ के, एक कविता लिखने का प्रयास किया मैंने... लिखते चले गए, ख्याल आया काफी लम्बी हो गयी है कविता पर कहने को अभी भी काफी कुछ बाकी है...जो कहना बाकी है वो आपको पता है और हमको भी तो फिर कहने की क्या ज़रुरत और फिर कुछ बातों सिर्फ हम दोनों के बीच राज़ है, वह मैं औरों से बांटना नहीं चाहती...आशा है आपको पसंद आएगा ये प्रयास...

ऐसे तो और भी बहुत कुछ है लिखने को,
लेकिन जिस पर लिखने जा रही हूं, वो भी कुछ कम नहीं है...
आज ही सवेरे फिर मिल गया...
जब भी मिलता है मुझको,
अपने आप से मिलवा देता है....
ऐसे बड़ा ज़िंदादिल है मगर,
कहीं कुछ छिपा है...

कॉलेज के एकमात्र खंडहर-से पुस्तकालय में.
चुड़ैल-सी शक्ल बनाए बैठा था वो..
जैसे निखिल आनंद गिरि नहीं हिंदी का रचयिता हो...
ऐसे हर वक्त ऐँठता है वो...
मौका मिलते ही शेखी बघारने से बाज़ नहीं आते जनाब,
उनके हिसाब से दुनिया में उनको छोड़कर बाक़ी सब हैं ख़राब
इन सब के पीछे मगर एक शांत, थोड़ा शैतान-सा बच्चा है...
उस काली कलूटी शक्ल के पीछे मगर जो दिल है, वो अच्छा है....

दोस्ती करमे में तो माहिर हैं हुजूर,
दिल तोड़ने का फन भी जानते हैं ज़रूर
इतना सोचते हैं कि ख़ुद को खो दिया है...
कोई पूछ ले कान ऐंठ के..
मुंह फुला के कहता है 'मैंने क्या किया है...'

अंग्रेज़ी अच्छी है लेकिन अंग्रेज़ी से ख़ास लगाव नहीं है...
उनके हिसाब से नदी का आजकल सीधा बहाव नहीं है...
एक वो है बाहर से तो दुनिया से रुठे हुए-से हैं...
पर लगता है जनाब अंदर से ख़ुद टूटे हुए-से हैं...

पीछे पड़ जाना इनकी आदत में शामिल है,
और बात का बतंगड़ बनाने में इन्हें महारत हासिल है...
मिट्टी की खुशबू आती है जब भी ये बोलते हैं,
न जाने अनजाने में ये ऐसे कितनों के पोल खोलते हैं...

एक रास्ता मुझे भी दिखाया था कभी,
वहीं भूल आयी थी अपना एक हिस्सा
याद आया अभी...

एक दुनिया दिखाई थी उम्मीद की,
सपनों की और  विश्वास की...
आज वही उम्मीद, सपने और विश्वास...
वजह हैं हमारी सांस की....

सिखाया था मुझे विश्वास करना अपने ख़्वाबों पर,
सिखाया था मुझे दिल जीतना किसी का सिर्फ बातों पर....

आज देखती हूं तो लगता है,
अपनी ज़िंदगी की ही एक ख़ूबसूरत झांकी है..
हां, तुम ठीक कहते थे निखिल आनंद गिरि
सिर्फ नाम ही काफी है...

राशि

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

हम भी कई रोज़ से जिए ही नहीं...

तमाम राहें जो हमारी न हुईं...

तमाम किस्से जो हमारे न हुए...

और वो चेहरे जो अजनबी ही रहे...

छोड़ आएंगे कहीं धोखे से....


अपनी ही छत पे सभी चांद उगें,

अपने उजालें हों, सूरज भी सभी...

आसमां पर हो सिर्फ अपना हक़...

ज़िंदगी नज़्म से भी हो सुरमई...


एक कप चाय जो कभी पी नहीं

और वो गीत जिनकी धुन भूले

एक वो ख़त जिसमें अधूरा-सा कुछ

उस एक शाम....सब बांटेगे हम...


एक तारीख में लिपटी हुई यादें सारी

एक मुस्कान में लिपटे हुए सब मौज़ूं...

तेरी नाराज़ नज़र, मेरी गुस्ताख ज़बां...

सब अदालत तेरी, गुनाह सब मेरे..


जैसे जन्नत मिले है मौत के बाद..

तुझसे मिलना है कई साल के बाद

तुझसे मिलकर ही मेरे सरमाया

तय करेंगे इस रिश्ते की मियाद...


आओ कि इस शहर में जान आए

हम भी कई रोज़ से जिए ही नहीं....

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 4 जून 2011

तुम्हारा चेहरा मुझे ग्लोब-सा लगता है...

दो साल पहले लिखी गई एक नज़्म शेयर करने का मन कर रहा है...

तुम कैसे हो?


दिल्ली में ठंड कैसी है?

....?

ये सवाल तुम डेली रूटीन की तरह करती हो,

मेरा मन होता है कह दूं-

कोई अखबार पढ लो..

शहर का मौसम वहां छपता है

और राशिफल भी....



मुझे तुम पर हंसी आती है,

खुद पर भी..

पहले किस पर हंसू,

मैं रोज़ ये पूछना चाहता हूं

मगर तुम्हारी बातें सुनकर जीभ फिसल जाती है,

इतनी चिकनाई क्यूं है तुम्हारी बातों में...

रिश्तों पर परत जमने लगी है..

अब मुझे ये रिश्ता निगला नहीं जाता...

मुझे उबकाई आ रही है...

मेरा माथा सहला दो ना,

शायद आराम हो जाये...



कुछ भी हो,

मैं इस रिश्ते को प्रेम नहीं कह सकता...

अब नहीं लिखी जातीं बेतुकी मगर सच्ची कविताएं...

तुम्हारा चेहरा मुझे ग्लोब-सा लगने लगा है,

या किसी पेपरवेट-सा....

भरम में जीना अलग मज़ा है...



मेरे कागज़ों से शब्द उड़ न जाएं,

चाहता हूं कि दबी रहें पेपरवेट से कविताएं....

उफ्फ! तुम्हारे बोझ से शब्दों की रीढ़ टेढी होने लगी है....



मैं शब्दों की कलाई छूकर देखता हूं,

कागज़ के माथे को टटोलता हूं,

तपिश बढ-सी गयी लगती है...

तुम्हारी यादों की ठंडी पट्टी

कई बार कागज़ को देनी पड़ी है....



अब जाके लगता है इक नज़्म आखिर,

कच्ची-सी करवट बदलने लगी है...

नींद में डूबी नज्म बहुत भोली लगती है....

जी करता है नींद से नज़्म कभी ना जागे,

होश भरी नज़्मों के मतलब,

अक्सर ग़लत गढे जाते हैं....

 
निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

वक्त से जब वो भिड़ गया होगा...

गांव से दूर एक दरिया था,
गांव में प्यास बहुत थी लेकिन...
उनकी किस्मत में कोई पुल न हुआ।

वक्त क़ैद था मु्ट्ठी में जब,
चार फीट के दोस्त थे सब,
चार दिनों में शादी है अब !

अब तो रोना भी भूल बैठा हूं,
एक हंसी भी उधार ली मैंने
एक आदत सुधार ली मैंने ।

मेरी बस्ती में कौन आएगा,
हाल पूछेगा, चला जाएगा...
अजनबी अजनबी रह जाएगा...

पहले होती थी रुहानी बातें,
अबके क़ीमत में जिस्म सौंपा है...
आओ फिर से भरम का सौदा करें।

एक कमरे में ज़िंदगी काटी,
एक बित्ते में मौत आएगी...
ख्वाब क्यों आसमान भर देखें...

ये न पूछो कि क्या हुआ होगा,
ज़र्रा-ज़र्रा ही लुट गया होगा...
वक्त से जब वो भिड़ गया होगा ।

मेरी ख़ामोश हसरतों में रहे,
उम्र की सारी सिलवटों में रहे...
मर चुके ख़्वाब बड़े होते रहे ।

बंद कमरे में कोई वहशी था,
आईने का ही क़त्ल कर डाला...
लाल है रंग इस अंधेरे का ।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 26 मार्च 2011

शादियों का इतिहास नहीं होता...

शादियां करना उन्हें बहुत पसंद था। और अपनी तस्वीरों की जगह बिल्लियों या लाल गुलाब लगाना भी उन्हें अच्छा लगता था। उन्हें लगता कि कोई है जो सिर्फ उनके लिए बना है। वो दुनिया की सबसे महंगी कार में सवार होकर आएगा और उस वक्त समय सबसे खूबसूरत लगेगा। जबकि, ये वो दौर था जब एक सुनामी आती तो मोहब्बत की हज़ारों कहानियां बहाकर ले जाती। इनमें कई महंगी कारें भी थीं, जिन्हें बहता देखकर लोग रोना तक भूल गए थे।

वो एक यादगार शाम थी क्योंकि पहली बार उसने एक लड़के को मुंह पर गंदी गाली बकी थी (कुछ गालियां अच्छी भी होती होंगी, शायद मां के मुंह से निकलने वाली)।  कहने वाले कहते रहे कि दोनों एक दूसरे से प्यार करते हैं मगर लड़की का गुस्सा कम होने का नाम नहीं ले रहा था। लड़के ने कुछ नहीं कहा था। उसे पहली बार की हर चीज़ अच्छी लगती थी। इसीलिए वो कई बार पहला प्यार कर चुका था। कई बार पहली गाली नहीं खाई थी। उसने गाली खाने के बाद लड़की से पूछा कि क्या उसे चूम सकता है। लड़की ने थोड़ी देर कुछ नहीं कहा और फिर अपनी आंखे बंद कर ली।

ये शहर उसे मरने की फुर्सत भी नहीं देता था और जीने के लिए जो ज़रूरतें उसकी थीं, वो कहीं भी पूरी की जा सकती थीं। वो अपने पिता के लिए कोई बीमा पॉलिसी लेना चाहता था मगर दुनिया की कोई भी बीमा पॉलिसी बूढ़े लोगों का खयाल नहीं रखती थी। उन्हे ज़िंदा लोग अच्छे लगते थे और वो नहीं जिनकी जेब में सिर्फ पेंशन आती हो।

शहर में कई मोहल्ले थे और मोहल्ले में कई पेचीदा गलियां जहां छतों के बीच फासले इतने कम थे कि नफरत को पनाह नहीं मिलती थी। इन गलियों में हर रोज़ कोई नई प्रेम कहानी जन्म लेती थी। इन गलियों का इतिहास गूगल पर नहीं मिलता था। इनके नक्शे किसी इतिहास की किताब में भी नहीं मिलते थे। इतिहास सिर्फ उतना ही बताता रहा जितना इम्तिहानों में पास करने के लिए ज़रूरी होता है। वो इतिहास में अपनी जगह बनाना चाहता था इसीलिए उसे शादियों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसे शादियों से बेहतर सुनामी लगती थी, जहां बड़ी से बड़ी कारें कागज़ की नाव की तरह बहती थीं और पॉलिसी के कागज़ भी।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

हम भला कौन सा मुद्दा रखते...

बड़े लोगों से ग़र वास्ता रखते,

आज हम भी कोई रूतबा रखते...

घर के भीतर ही अक्स दिख जाता,

काश! कमरे में आईना रखते...

तीरगी का सफ़र था, मुट्ठी में

एक अदना-सा सूरज का टुकड़ा रखते...

चांद को छूना कोई शर्त ना थी,

झुकी नज़रों से ही कोई रिश्ता रखते...

वक़्त के कटघरे में लोग अपने थे,

हम भला कौन-सा मुद्दा रखते....

दो किनारों की मोहब्बत थी "निखिल"

किसके बूते पर जिंदा रखते...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

तुम्हें मंदिर की घंटियों में मैंने पाया है...

तुम्हे मंदिर की घंटियों में मैंने पाया है
मैं महसूस करता हूँ तुमको ही अज़ानों में,
अक्सर माँ की लोरी की तरह ही बोल तेरे,
अक्सर घोल देते हैं मिठास मेरे कानों में...
अब मंज़िल ही कोई, और राहगुजर कोई,
हुआ एक भी सफ़र मेरा और ना हमसफ़र कोई,
मैं फिर भी इन उम्मीदों के सहारे चल रहा हूँ,
कि अनगिन वेदना के क्षणों में जल रहा हूँ-
कि तुम इस धूप में भी बरगदों की छाँव बनकर,
कि बनकर तुम किसी झरने का कलकल स्वर ...
सुख, अमर सुख, दे सको मेरी थकानों में.....

मैं अगणित बार खंडित हो रहा हूँ, दिन-प्रतिदिन;
मैं कितनी बार जीते-जी मरा करता हूँ तुम बिन;
बहारें हैं ज़माने में, मेरी खातिर है पतझड़;
इस मायावी दुनिया में खड़ा हूँ हाशिये पर,
मेरी श्रद्धा, मेरा भी प्रेम अब मायावी बनेगा?
दो आत्माओं का मिलन (भी) दुनियावी बनेगा?
सजेंगे आस्था के फूल दुनिया की दुकानों में.....

मैं थक कर चूर हो जाऊं तो सहलाना मुझे तुम,
ये दुनिया जब लगे छलने तो बहलाना मुझे तुम;
ये सौदे, दोस्त-दुश्मन और अय्यारी की बातें;
मेरे बस की नही हमदम; ये दुनियादारी की बातें;
मेरे आँसू यही कहते हैं तुमसे बार-बार
' मुझे लेकर चलो इस मायावी दुनिया के पार'
दफ़न हो जाएँ किस्से भी हमारे दास्तानों में...

तुम्हे मंदिर की घंटियों में मैंने पाया है,
मैं महसूस करता हूँ तुमको ही अज़ानों में,
अक्सर माँ की लोरी की तरह ही बोल तेरे,
अक्सर घोल देते हैं मिठास मेरे कानों में...

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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