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बुधवार, 21 जनवरी 2015

विलोम का अर्थ

जहां से शुरू होती है सड़क,
शरीफ लोगों की
मोहल्ला शरीफ लोगों का
उसी के भीतर एक हवादार पार्क में
एक काटे जा चुके पेड़ की
सूख चुकी डाली पर
दो गर्दनों को षटकोण बनाकर
सहलाती है गौरेया अपने साथी को
और उड़ जाती है आसमान में
लीक तोड़ कर उड़ जाने में
मूंगफली तक खर्च नहीं होती।



एक ऐसी बात जो कही नहीं किसी ने
लोहे के आसमान में सुराख जैसी बात
आप सुनकर सिर्फ गर्दन हिलाते हैं
जुगाली करते हैं फेसबुक पर
छपने भेज देते हैं किसी अखबार में
और चौड़े होकर घूमते हैं सड़कों पर
जो सचमुच लड़ रहे होते हैं आसमानों से
कलकत्ता या छतीसगढ़ की ज़मीनों पर
आपके शोर में चुपचाप मर जाते हैं।



आप जिन दीवारों पर करते रहे पेशाब,
कोई वहां लिखता रहा था क्रांति
उसी दीवार के सहारे करता रहा आंदोलन,
भूखे पेट सोता रहा महीनों
एक दिन उसे पुलिस उठाकर ले गई
और गोलियों का ज़ायका चखाया
दीवारों ने बुलडोज़र का स्वाद चखा
और आप घर बैठे आंदोलन देखते रहे टीवी पर,


इस सदी का सबसे घिसा-पिटा शब्द है आंदोलन
अमिताभ बच्चन की तरह



जिस दिन आपके कुर्ते का रंग सफेद हुआ,
हमें समझ लेना चाहिए था
शांति और सत्ता विलोम शब्द हैं।



निखिल आनंद गिरि
(पहल पत्रिका के 98वें अंक में प्रकाशित)

रविवार, 15 दिसंबर 2013

मेरा गला घोंट दो मां

किसी धर्मग्रंथ या शोध में लिखा तो नहीं,

मगर सच है...

प्यार जितनी बार किया जाए,

चांद, तितली और प्रेमिकाओं का मुंह टेढ़ा कर देता है..

एक दर्शन हर बार बेवकूफी पर जाकर खत्म होता है...


आप पाव भर हरी सब्ज़ी खरीदते हैं

और सोचते हैं,  सारी दुनिया हरी है....

चार किताबें खरीदकर कूड़ा भरते हैं दिमाग में,

और बुद्धिजीवियों में गिनती चाहते हैं...

आपको आसपास तक देखने का शऊर नहीं,

और देखिए, ये कोहरे की गलती नहीं...


ये गहरी साज़िशों का युग है जनाब...

आप जिन मैकडोनाल्डों में खा रहे होते हैं....

प्रेमिकाओं के साथ चपड़-चपड़....

उसी का स्टाफ कल भागकर आया है गांव से,

उसके पिता को पुलिस ने गोली मार दी,

और मां को उठाकर ले गए..

आप हालचाल नहीं, कॉफी के दाम पूछते हैं उससे...


आप वास्तु या वर्ग के हिसाब से,

बंगले और कार बुक करते हैं...

और समझते हैं ज़िंदगी हनीमून है..

दरअसल, हम यातना शिविरों में जी रहे हैं,

जहां नियति में सिर्फ मौत लिखी है...

या थूक चाटने वाली ज़िंदगी.....


आप विचारधारा की बात करते हैं....

हमें संस्कारों और सरकारों ने ऐसे टी-प्वाइंट पर छोड़ दिया है,

कि हम शर्तिया या तो बायें खेमे की तरफ मुड़ेंगे,

या तो मजबूरी में दाएं की तरफ..

पीछे मुड़ना या सीधे चलना सबसे बड़ा अपराध है...


जब युद्ध होगा, तब सबसे सुरक्षित होंगे पागल यानी कवि...

मां, तुम मेरा गला घोंट देना

अगर प्यास से मरने लगूं

और पानी कहीं न हो...


निखिल आनंद गिरि
(पाखी के दिसंबर 2013 अंक में प्रकाशित)


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रविवार, 31 मार्च 2013

खुली हवाओं की कविताएं

एक आदमी जो फंस गया था
आंदोलन कर रही भीड़ के बीच में
किसी तरकारी का नाम याद कर रहा था
और बुदबुदा रहा था होठों से
अपनी पत्नी या प्रेमिका का नाम।
आपने क्रांति का नारा समझ लिया
आंसू गैस छोड़े और गोली दाग दी।
जब आप व्यवस्था के नाम पर
गोलियां बरसा रहे थे भीड़ पर,
वहां खड़े कुछ लोगों को
ज़रा देर से लगी होती गोली,
तो पूरी हो सकती थीं
उम्मीद की सैंकड़ों कविताएं।
कहां तक मारे जाएंगे सपने?
कितनी जगह होगी आपकी जेलों में
जब ज़मीन के दलाल
बेच चुके होंगे आख़िरी टुकड़ा.
कहां जेल बनाएंगे आप?
हम बीच सड़क पर ख़ूब कहकहे लगाएंगे
आप गाड़ियों में लादकर कहां ले जाएंगे
पेड़ नहीं होगी, घास नहीं होगी
किस कागज़ पर दर्ज करेंगे
झूठे केस-मुकदमे।
हमें लाठियों-डंडों-गोलियों से कूटेंगे
ठूंस देंगे किसी सडांध भरी जगह में
हम अचार बनाएंगे
पापड़ बनाएंगे
आप किटी पार्टियों में स्टॉल लगाएंगे
और ख़ूब अमीर हो जाएंगे।
आप हमारी ज़ुबान पर ताले जड़ देंगे
सूरज को छिपा देंगे कहीं तहख़ाने में
हम सुंदर कविताएं लिखेंगे तब
नीम अंधेरे में।
सड़ांध वाले कमरों में
खुली हवाओं की कविताएं।

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

अन्ना का आंदोलन और साइड इफेक्ट्स...

वो बहुत दिनों से पब्लिसिटी के भूखे थे। दिल्ली के एक होटल में कमरा बुक कराकर रहते थे कि किसी एक दिन पार्टी का टिकट मिल जाए तो मशहूर हो जाएं। अन्ना ने दिल्ली आकर आंदोलन शुरू कर दिया तो उन्हें लगा कि उम्र भर की साध पूरी हो गई। इस एक आंदोलन में कूदने का मतलब उम्र भर की टीआरपी मुफ्त में मिल जानी थी। फिर क्या था, अन्ना अन्ना करते जा कूदे भीड़ में। मीडिया पहले से थी ही, तो कैमरे के आगे भी अन्ना अन्ना शुरू कर दिया। गलत-सलत उच्चारण के साथ एकाध कविताएं भी सुना डालीं। मीडिया को ऐसी कविताएं बहुत पसंद थीं, उन्होंने कवि महोदय को हाथों हाथ लिया और लगे हाथ स्टूडियो बुला लिया। अन्ना पड़े हैं आमरण अनशन पर। जिन्हें पब्लिसिटी चाहिए, उन्हें स्टूडियो मिल रहे हैं। एसी में पीने का पानी और खाने को स्नैक्स भी उपलब्ध हैं। किरण बेदी तो तीन बार कपड़े बदल चुकी हैं और आमरण अनशन में शामिल होकर इतनी खुश हैं कि पूछिए मत। मीडिया ज़िंदाबाद का नारा भी लगा चुकी हैं।


हमारी कॉलोनी में एक मजबूर पतिदेव रहते हैं। शिफ्ट खत्म करने के बाद वो घर लौटे तो पत्नी बिफर पड़ीं। पति महोदय को याद आया कि अरे, आज तो चिड़ियाघर ले जाना था बच्चों को। सॉरी सॉरी कहते रहे मगर पत्नी मानने को तैयार ही नहीं। अचानक टीवी पर जंतर मंतर की तस्वीरें दिखीं कि कोई बूढा आदमी अनशन पर है और वहां फिल्म से लेकर मीडिया की बड़ी बड़ी हस्तियां उपलब्ध हैं। पति ने फटाफट मुंह धोया और बच्चों को तैयार हो जाने का आदेश दिया। पत्नी को लगा कि पतिदेव का माथा खिसक गया है, मगर फिर भी तैयार हो ही गईं। बच्चों ने पूछा कि कहां जा रहे हैं तो पति ने कहा जंतर मंतर। बच्चे खुश हुए मगर पत्नी ने पूछा वहां क्यों। पतिदेव ने गियर तेज़ करते हुए कहा कि कोई अन्ना हैं वहां जिनको मरता हुआ देखने के लिए सब जा रहे हैं। थोड़ी देर रुकने पर मीडिया कवरेज के लिए पहुंच जाती है। बच्चों को ये सब समझ नहीं आया मगर कैमरे पर आने का सुख सोचकर वो चुप रह गए। पत्नी ने भी टाइमपास के लिए आंदोलन का हिस्सा बनना बुरा नहीं समझा। वो बहुत दिनों से चिड़ियाघर भी नहीं गई थी।

इधर फेसबुक पर वर्ल्ड कप के फाइनल की तस्वीरें अब तक टीआरपी बनाए हुए थीं। देशभक्ति के स्लोगन और पाकिस्तान-श्रीलंका को गालियां देकर एक से बढ़कर एक हिंदुस्तानी महान बनने की जुगत में थे। अचानक मुंबई से फेसबुक का ध्यान दिल्ली की ओर शिफ्ट हो गया। कोई अन्ना थे जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन में मरने को तैयार थे। देश में भूख से मरने वालों की रिपोर्ट कई दिनों से टीवी पर चली नहीं थी, मगर अन्ना ने उन्हें सद्बुद्धि दी थी। फेसबुक पर फिर से देशभक्ति का बाज़ार गर्म है। अन्ना पर स्टेटस अपडेट करना फैशन है। हर कोई बहती गंगा में हाथ धोना चाहता है। कुछ न कुछ लाइफ में होते रहना चाहिए। साले एफएम वाले बोर करते हैं अब। एक ही जैसे चुटकुले सुनकर ज़िंदगी भर हंसा तो नहीं जा सकता। टीवी पर बड़े बड़े फांट में अखबार पढ़पढ़कर आंखे बाहर होने लगी हैं। दिल्ली को कुछ नया चाहिए। रंग दे बसंती टाइप। तो अन्ना हैं ना। अंग्रेज़ी में कहें तो ऑसम (AWESOME) माहौल है जंतर-मंतर पर। मनमोहन सरकार का इससे कुछ उखड़ेगा या नहीं, ये कहना जल्दबाज़ी होगी, मगर दिल्ली के लिए अन्ना किसी सुड या लव गुरू से ज़्यादा बेहतर टाइमपास हैं। कम से कम वहां जाने पर लगता है कि कुछ किया है। गर्लफ्रेंड के साथ वहीं बैठ लिए थोड़ी देर तो इंप्रेशन भी अच्छा जमता है। फेसबुक पर अपील हो रही है कि अन्ना के लिए चले आइए। उस एक नेक बूढे आदमी के लिए चले आइए। प्लीज़ चले आइए। क्योंकि एक अन्ना मरे तो हज़ार अन्ना पैदा नहीं होने वाले। कम से कम दिल्ली में स्वार्थ की गुटबाज़ी के सिवा कोई जमात नहीं बनती, इतना तो सबको पता है। मुझे भी...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 30 जनवरी 2011

ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है...

यहां दिल्ली पुलिस आपकी सेवा में सदैव तत्पर है...
प्यार ढूंढना हो तो कहीं और जाएं

जब तुम्हारे होंठ छुए, तो मालूम हुआ...
ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है....
और उदास रौशनी का
जहां दाईं और बाईं ओर सिर्फ लड़ाईयां हैं
और बीच में हैं फ्लाईओवर.....

हम अपनी रीढ़ तले सख्त ज़मीन रखकर सोते हैं...
और आप मेरी कविताओं में रुई ढूंढते हैं...
इतनी खुशफहमी कहां से खरीद कर लाए हैं...
आप कह सकते हैं शर्तियां...
मैं किसी ऐसी बीमारी से मरूंगा...
जिसमें सीधी रीढ़ लाइलाज हो जाती है...

हमें ठीक तरह से याद है....
आधे दाम पर बेची गईं थी स्कूल की किताबें....
जिनमें लिखा था तीसरे पन्ने पर-
'चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं...'

चाहता हूं कि चुरा लूं सब तालियां,
जब वो भाषण दे रहे होंगे भीड़ में
नोंच लूं उनकी आंखों से नींद,
ताकि खूंखार सपने न देख पाएं कभी...

काश! किताबों में एकाध पन्ने जुड़ जाते चाहने भर से,
जैसे आ से आंदोलन, क से क्रांति...
जैसे ज़िंदा रहने के लिए ऑक्सीजन या दिल नहीं,
दुम ज़रूरी है....
और प्यार करने के लिए कंडोम.....

फाड़ दीजिए धर्म-शिक्षा के तमाम पन्ने...
कि सांसों के भी रंग होते हैं अब...
ये 1948 नहीं कि मरते वक्त
हे राम ! कहने की आज़ादी हो....

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 26 दिसंबर 2010

बनमानुस...

एक दुनिया है समझदार लोगों की,

होशियार लोगों की,

खूब होशियार.....

वो एक दिन शिकार पर आए

और हमें जानवर समझ लिया...

पहले उन्होंने हमें मारा,

खूब मारा,

फिर ज़बान पर कोयला रख दिया,

खूब गरम...

एक बीवी थी जिसके पास शरीर था,

उन्होंने शरीर को नोंचा,

खूब नोचा...

जब तक हांफकर ढेर नहीं हो गए,

हमारे घर के दालानों में....


हमारी बीवियों ने मारे शरम के,

नज़र तक नहीं मिलाई हमसे

उल्टा उन्हीं के मुंह पर छींटे दिए,

कि वो होश में आएं

और अपने-अपने घर जाएं...

ताकि पक सके रोटियां

खूब रोटियां...


वो होश में आए तो,

जो जी चाहा किया...

हमे फिर मारा,

उन्हें फिर नोंचा...

हमारी रोटियां उछाल दी ऊंचे आकाश में....

खूब ऊंचा....

वो हंसते रहे हमारी मजबूरी पर,

खूब हंसे...


भूख से बिलबिला उठे हम....

जलता कोयला निकल गया मुंह से...

जंगल चीख उठा हमारी हूक से....

पहाड़ कांप उठे हमारी सिहरन से....

नदियों में आ गया उफान,

खूब उफान....


उनके हाथ में हमारी रोटियां थीं,

उनकी गोद में हमारी मजबूर बीवियां थीं...

उनकी हंसी में हमारी चीख थी, भूख थी....

हमने पास में पड़ा डंडा उठाया

और उन्हें हकार दिया,

अपने दालानों से....

वो नहीं माने,

तो मार दिया.....


जंगल से बाहर की दुनिया

यही समझती रही,

हम आदमखोर हैं, बनमानुस...

जंगली कहीं के....

वाह रे समझदार...

वाह री सरकार.....


निखिल आनंद गिरि

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रविवार, 28 नवंबर 2010

एक उदास कविता...जैसे तुम

गांव सिर्फ खेत-खलिहान या भोलापन नहीं हैं,

गांव में एक उम्मीद भी है,

गांव में है शहर का रास्ता

और गांव में मां भी है...


शहर सिर्फ खो जाने के लिए नहीं है..

धुएं में, भीड़ में...

अपनी-अपनी खोह में...

शहर सब कुछ पा लेना है..

नौकरी, सपने, आज़ादी..


नौकरी सिर्फ वफादारी नहीं,

झूठ भी है, साज़िश भी...

उजले कागज़ पर सफेद झूठ...

और जी भरकर देह हो जाना भी..


देह बस देह नहीं है...

उम्र की मजबूरी है कहीं,

कहीं कोड़े बरसाने की लत है...

सच कहूं तो एक ज़रूरत है..


और सच, हा हा हा..

सच एक चुटकुला है....

भद्दा-सा, जो नहीं किया जाता

हर किसी से साझा...

बिल्कुल मौत की तरह,

उदास कविता की तरह....


और कविता...

...................

सिर्फ शब्दों की तह लगाना

नहीं है कविता,..

वाक्यों के बीच

छोड़ देना बहुत कुछ

होती है कविता...

जैसे तुम...

निखिल आनंद गिरि
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ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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