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सोमवार, 15 अगस्त 2011

प्रकाश झा का 'यूफोरिया' उर्फ आरक्षण...

अंग्रेज़ी में ‘यूफोरिया’ शब्द की तस्वीर में एक तरह के मानसिक उन्माद की स्थिति उभरती है जहां सावन के अंधे को सब हरा ही हरा लगता है...साइंसदानों की भाषा में इस परिस्थिति को Ideal state या आदर्श स्थिति भी कह सकते हैं जो असल में मुमकिन नहीं होती...आरक्षण के निर्देशन में प्रकाश झा फिलहाल उसी स्थिति के मारे दिखते हैं...ऐसी स्थिति तब आती है, जब आप ओशो या किसी और आध्यात्मिक गुरु की शरण में हों । प्रकाश झा शायद किसी ऐसे ही बॉलीवुडिया कहानी क्लब के मेंबर लगते हैं जहां होम्योपैथी की मीठी गोलियों की तरह मीठी-मीठी कहानियां बुनी जाती हैं। ‘राजनीति’ में इस मीठी गोली का असर कम था और ‘आरक्षण’ तक आते-आते साइड इफेक्ट भी ज़ाहिर होने लगे हैं। हालांकि, फिल्म का नाम बदल दिया जाए तो एक बार देखने में बुराई भी नहीं है।

आरक्षण जैसे विकराल, संवेदनशील और जटिलतम मुद्दे का इतना आसान समाधान निकालना प्रकाश झा की फिल्मी मजबूरी भी है और एक हद तक सफलता भी। सफलता इस मायने में कि वो बिना किसी पार्टी या विचारधारा पर चोट किए हुए अपनी कहानी का नाम भर ‘आरक्षण’ रख लेते हैं और इतने भर से उन्हें इतनी बदनामी मिलती है कि फिल्म आपकी-हमारी ज़ुबां पर चढ़ चुकी है। हालांकि, फिल्म रिलीज़ के तीसरे दिन ही हॉल इस क़दर ख़ाली था जैसे दिल्ली में कोई साउथ इंडियन मूवी लगी हो।

फिल्म की कहानी में आरक्षण का मुद्दा नमक जितना ही मौजूद है। बाक़ी तो अमिताभ ही अमिताभ हैं। वो अपने भारी-भरकम आवाज़ में जो भी कहते हैं, सच जैसा लगता है। हालांकि, उन्हें अब किसी सलीम-जावेद की ज़रूरत नहीं, मगर फिल्म में वो ‘एंग्री ओल्ड मैन’ बनकर उभरे हैं और केयरिंग ओल्ड मैन’ भी । उनके पास अब उम्र कम बची है वरना इस रोल की ताज़गी मुझे कई दिनों बाद अच्छी लगी। वैसे फिल्म के पहले हाफ में वो धृतराष्ट्र की तरह दिखते हैं, जहां सब कुछ होता जाता है और वो उसूलों का खूंटा गाड़े रहते हैं।

ख़ैर, प्रकाश झा की ‘आरक्षण’ में कुछ वैसी ही बुनियादी ख़ामिया हैं जैसी मजहर कामरान ‘मोहनदास’ बनाने में कर गए थे। विषय के मर्म से लगाव मेरी तरह का पाठक या छिटपुट कवि बना सकता है, बड़ा फिल्मकार नहीं। उसके लिए लंबा होमवर्क और फिर सही किरदार चाहिए जो मुझे नहीं दिखे। सैफ और दीपिका कहीं से भी इस फिल्म में नहीं लिए जाने चाहिए थे। अजय देवगन तो प्रकाश झा के फेवरेट थे, पर पता नहीं इस बार क्यों नहीं राज़ी हुए। और विद्या बालन की क़ीमत दीपिका से ज़्यादा तो नहीं। ऊपर से प्रतीक की एक्टिंग और उनके हिंदी में बोले डॉयलॉग्स ठीक वैसे ही नकली लगते हैं जैसे आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में ख़ेमों की राजनीति करते नेता। गाने प्रकाश झा की मजबूरी से बन गए हैं। फिल्म की शुरुआत में ज़बरदस्ती दो गाने टपक पड़ते हैं जब आप इसके लिए तैयार नहीं होते। ‘’एक चानस तो दे दे…’’ गाने के भाव गहरे हैं मगर प्रसून जोशी ने इसलिए तो नहीं ही लिखे होंगे कि प्रतीक छिछोरे अंदाज़ में इस जुमले का प्रयोग दीपिका पर लाइन मारने के लिए लुटा दें। हालांकि, छन्नूलाल जी की आवाज़ में ‘’सांस अलबेली..’’ लाजवाब गीत है।

अब कहानी पर आते हैं। ठीक वैसे ही भटकी हुई है, जैसे देश में आरक्षण का मुद्दा भटका हुआ है। फिल्म में बस शिक्षा के बाज़ार बनते जाने के बीच में आरक्षण को लेकर कुछ नाटकीय डायलॉग्स हैं जिन्हें हम बार—बार थियेटर में सुन चुके हैं। दलितों-वंचितों के दुख से अनजाने में आहत और ब्राह्मणवाद से त्रस्त इस पीढ़ी को ही हर क़ीमत चुकानी है और ये हर जाति-वर्ग की त्रासदी है। पटना के सुपर-30 से लेकर रांची, दिल्ली कोटा तक पसरे प्राइवेट कोचिंग संस्थानों के पीछे की दुकानदारी के बीच प्रकाश झा वैसी ही उम्मीद लेकर आए हैं, जैसे मजबूर मनमोहन के अंगूठे की छाप पर यूपीए ‘राइट टू एजुकेशन’ लेकर आई थी। इस बात के लिए प्रकाश झा को दाद मिलनी चाहिए कि उन्होंने अपनी तमाम क्षमताओं के साथ नई पीढ़ी को हर तरह से बराबर एक समाज का सपना दिखाया है। हालांकि, ऐसा उत्थान तो लालू यादव भी चरवाहा विद्यालय खोलकर चाहते थे मगर मंशा ठीक न हो तो फिल्म और हकीकत दोनों ही फालतू लगते हैं। प्रकाश झा को ऐसे मुद्दों पर किसी फिल्मी राइटर से अच्छा किसी पॉलिटिकल या कम से कम साहित्यिक राइटर से कहानी में मदद लेनी चाहिए थी ताकि फिल्म में मसाले के अलावा भी कुछ स्वाद आता।

अब एक सीन देखिए। आरक्षण के नाम पर अचानक बवाल कटा है और माहौल एकदम सीरियस है। इन सबके बीच दीपिका अपने दीपक के साथ मूवी देखने को बेकरार है। ये उतना ही गैर-ज़िम्मेदाराना था जितना उस मीडियाकर्मी का अमिताभ से सवाल कि आप प्रिंसिपल से अपराधी बन गए, क्या कहना चाहेंगे। या फिर उस पंडित छात्र का विशुद्ध हिंदी बोलना और बात-बेबात अमिताभ का फिलॉसॉफी झाड़ना। (दीपिका यूं ही नहीं ऊबकर कह देती है कि डैडी, आई हेट माई लाइफ)। मनोज वाजपेयी फिल्म-दर-फिल्म उम्दा होते जा रहे हैं, इसमें कोई शक नहीं। ठीक उसी स्पीड से जैसे प्रकाश झा स्तर खोते जा रहे हैं।

कुल मिलाकर आरक्षण की मूल व्यवस्था के खिलाफ लगती है प्रकाश झा की ‘आरक्षण’। पूरी तरह से नहीं, मगर इस मायने में कि मुद्दे की नस को समझ ही नहीं पाए प्रकाश झा। कोचिंग संस्थानों के बीच से गुदड़ी के लाल निकालने के लिए ही लड़ते रह गए पूरी फिल्म में। तभी तो हमारी जाननेवाली आंटी से मैंने जब पूछा कि फिल्म देखने क्यों नहीं गईं तो उन्होंने कहा कि मैंने वाशिंग मशीन में कपड़े डाले हुए थे और अगर मैं फिल्म में टाइम ख़राब करती तो कपड़े ख़राब हो जाते !!

निखिल आनंद गिरि

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