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शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

सुनो मठाधीश !


हिंदी की साहित्यिक मैगज़ीन पाखी के अक्टूबर अंक में प्रकाशित कविता।
रांची से एक पाठक और फेसबुक फ्रेंड प्रशांत ने ये कविता पढ़ी
और मुझे ये स्कैन कॉपी भेजी..उनका शुक्रिया..

ये कोई मठ तो नहीं

और आप मठाधीश भी नहीं...

कि जहां आने से पहले हम चप्पलें उतार कर आएं

और फिर झुक जाएं अपने घुटनों पर...

और आप तने रहें ठूंठ की तरह,

भगवान होना इस सदी का सबसे बड़ा बकवास है हुज़ूर !


काश! पीठ पर भी आंखे होती आपकी

मगर आपके तो सिर्फ कान हैं...

जिनमें भरी हुई है आवाज़

कि आप, सिर्फ आप महान हैं...


काश होती आंखे तो देख पाते

कि कैसे पान चबा-चबा कर चमचे आपके,

याद करते हैं आपकी मां-बहनों को...

क्या उन्हें लादकर ले जाएंगे साथ आखिरी वक्त में...

सब छलावा है, छलावा है मेरे आका !


वो कुर्सी जो आपको कायनात लगती है,

दीमक चाट जाएंगे उसकी लकड़ियों को,

और उस दोगली कुर्सी के गुमान में

आप घूरते हैं हमें..


हमारी पुतलियों के भीतर झांकिए कभी...

हमारे जवाब वहीं क़ैद हैं,

हम पलटकर घूर नहीं सकते।

अभी तो पुतलियों में सपने हैं,

मजबूरियां हैं, मां-बाप हैं...

बाद में आपकी गालियां हैं, आप हैं...


चलिए मान लिया कि सब आपकी बपौती है...

ये टिपिर-टिपिर चलती उंगलियां,

उंगलियों की आवाज़ें...

ये ख़ूबसूरत दोशीज़ा चेहरे

जिनकी उम्र आपकी बेटियों के बराबर है हाक़िम...

हमारी भी तो अरज सुनिएगा हुज़ूर...

हुकूमतें हरम से नहीं, सिपहसालारों से चलती हैं...

निखिल आनंद गिरि
(http://www.pakhi.in/oct_11/kavita_nikhil.php)

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

कह री दिल्ली.....

यहाँ हर ओर चेहरों की चमक जब भी है मिलती मुस्कुराती है,
यहाँ पाकर इशारा ज़िन्दगी लंबी सड़क पर दौड़ जाती है,
सुबह का सूर्य थकता है तो खंभों पर चमक उठती हैं शामें,
यहाँ हर शाम प्यालों में लचकती है, नहाती है...
दुःख ठिकाना ढूँढता है, सुख बहुत रफ़्तार में है..
माँ मगर वो सुख नही है जो तुम्हारे प्यार में है..............

यहाँ कोई धूप का टुकडा नही खेला किया करता है आंगन में,
सुबह होती है यूं ही, थपकियों के बिन,कमरे की घुटन में,
नित नए सपने बुने जाते यहां हैं खुली आंखों से,
और सपने मर भी जाएँ, तो नही उठती है कोई टीस मन में
घर की मिट्टी, चांद, सोना, सब यहाँ बाज़ार में है...
माँ मगर वो....................

मेरे प्रियतम! हमारे मौन अनुभव हैं लजाते,
हम भला इस शोर की नगरी में कैसे आस्था अपनी बचाते,
प्रेम के अनगिन चितेरे यहा सड़कों पर खडे किल्लोल करते
रात राधा,दिवस मीरा संग, सपनो का नया बिस्तर लगाते,
प्रेम की गरिमा यहाँ पर देह के विस्तार में है...
हाँ! मगर वो............

कह री दिल्ली? दे सकेगी कभी मुझको मेरी माँ का स्नेह-आँचल,
दे सकेंगे क्या तेरे वैभव सभी,मिलकर मुझे, दुःख-सुख में संबल,
क्या तू देगी धुएं-में लिपटे हुये चेहरों को रौनक??
थकी-हारी जिन्दगी की राजधानी,देख ले अपना धरातल,
पूर्व की गरिमा,तू क्यों अब पश्चिमी अवतार में है??
माँ मगर वो........................

निखिल आनंद गिरि
(दिल्ली आकर लिखी गई शुरूआती कविताओं में से एक)

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

लड़के सिर्फ जंगली...

क्या ऐसा नहीं हो सकता,

कि हम रोते रहें रात भर

और चांद आंसूओं में बह जाए,

नाव हो जाए, कागज़ की...

एक सपना जिसमें गांव हो,

गांव की सबसे अकेली औरत

पीती हो बीड़ी, प्रेमिका हो जाए....

मेरे हाथ इतने लंबे हों कि,

बुझा सकूं सूरज पल भर के लिए,

और मां जिस कोने में रखती थी अचार...

वहां पहुंचे, स्वाद हो जाएं....

गर्म तवे पर रोटियों की जगह पके,

महान होते बुद्धिजीवियों से सामना होने का डर

जलता रहे, जल जाए समय

हम बेवकूफ घोषित हो जाएं...

एक मौसम खुले बांहों में,

और छोड़ जाए इंद्रधनुष....

दर्द के सात रंग,

नज़्म हो जाए...

लड़कियां बारिश हो जाएं...

चांद हो जाएं, गुलकंद हो जाएं,

नरम अल्फाज़ हो जाएं....

और मीठे सपने....

लड़के सिर्फ जंगली....

निखिल आनंद गिरि

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ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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