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सोमवार, 1 जून 2020

मेरे 'बंधु' प्रेम भारद्वाज का जाना..

इन दिनों जिस पीड़ा और हताशा से गुज़र रहा हूंं, उसे कोई बिना कहे ठीकठीक समझ सकता था, तो वो प्रेम भारद्वाज ही थे। अपनी सेहत के सबसे बुरे दिनों में भी वो मुझे फोन करके हिम्मत देना नहीं भूलते थे।  नोएडा के मेट्रो अस्पताल में जब उनके कैंसर का पता चला तो बड़े मस्त अंदाज़ में बोले - 'बंधु, गांंठ शरीर में हो या मन में,  अच्छी नहीं होती।'   सच कहूं तो हम समझ चुके थे कि हमारा साथ बहुत लंबा नहीं रहने वाला है, मगर एक-दूसरे से ऐसा कहने से डरते थे।  
मैं कोई दावा नहीं करता कि उन्हें सबसे बेहतर समझता था मगर ये दावा है कि मुझ पर आंख मूंदकर वो यकीन करते थे। अपनी कमज़ोरियों पर इतना खुलकर बात करते थे कि मुझे डर लगता था कि ये भरोसा कितना रख पाऊंगा। उनके आसपास उन्हें इत्मीनान से सुनने वाला कोई नहीं था। न घर में, न बाहर। जितना भी समय हम साथ गुज़ारते, वो खुलकर बोलते जाते। मुझे उनको सुनना अच्छा लगता था। इस बातचीत में साहित्यिक बातचीत, उनके आसपास के मौकापरस्त लोगों पर कम ही चर्चा होती। कभी-कभी हंसने का मन होता तो मैं ही चुटकी लेने के लिए कोई नाम छोड़ देता।  हमारे पास कई बेहतर बातें होतीं। जैसे कोई स्कूल या कॉलेज के बिछड़े दोस्त आपस में किया करते हैं। मुझे लगता है वो जिस किसी से मिलते होंगे, इसी अपनेपन से मिलते होंगे। 
जब भी अपनी खटारा कार में मुझसे कहीं भी मिलते, थोड़ी देर रोकते, कार का दरवाज़ा खोलते और 'पाखी' की कॉपी या कोई और मैगज़ीन या किताब ज़रूर पकड़ा देते।कम लिखने और ज़्यादा पढ़ने के लिए हमेशा उकसाते रहते।
लता जी (उनकी पत्नी) के जाने के बाद वो बहुत अकेले हो गए थे। उन्होंने बहुत दिनों बाद बताया था कि लता जी की अस्थियां चुराकर उन्होंने अपने घर की दराज़ में छिपा ली थीं। उनका प्रेम ऐसा ही था। अतिभावुक, अति निश्छल। लता जी के जाने के बाद कई महिलाएं भी उनके क़रीब आईं। अधिकतर छपास की उम्मीद में। प्रेम जी सब समझते थे। कहते ज़्यादा नहीं थे।
पाखी में वो लंबे समय तक रहे, मगर आखिरी कुछ महीनों ने उन्हें बहुत दुख दिया। अपूर्व जोशी को उन्होंने कभी अश्लील तरीके सेे नहीं कोसा। हरदम एक दोस्त की तरह याद किया जिसने अपने माथे पर अचानक ;शुभ-लाभ' पोत लिया।लाइलाज बीमारी में कष्ट झेलते रहने से बेहतर शरीर की मुक्ति है। मुझे उनकी मौत पर बहुत अफसोस नहीं है। उनके अकेलेपन पर जीते-जी ही बहुत अफसोस रहा। उन्हें सब लोगों ने थोड़ा-थोड़ा पहले ही मार दिया था।
सुना कि आपकी याद में शोकसभाएं हो गईं। लोगों ने तरह-तरह से आपको याद किया। आपको बहुत अच्छा इंसान बताया होगा।
मुझे अब भी अभी यक़ीन नहीं है कि आप चले गए हैं। जब यकीन होगा तो फूटकर रोऊंगा। ऐसे बुरे दिनों में आपसे लिपटकर रोने का मन था। मगर इस शहर में लिपटकर रोने की सख्त मनाही है।
अलविदा 'बंधु' !

(बंधु-यही उनका संबोधन हुआ करता था)

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 12 मार्च 2012

मुस्कुराइए कि आप स्टूडियो में हैं...

ये उन दिनों की बात नहीं है जब घरों की छत पर एंटीना हिलाकर टीवी ठीक कर देना बुद्धिमान होने का सबूत दिया करता था। लड़कों को ज़्यादा दूध और लड़कियों को होशियार कहकर पुचकार दिया जाता था ताकि वो आगे भी इसी तरह एंटीने के साथ दोस्ती बढ़ाकर स्वेटर बुनती मांओं के लिए टीवी का बेहतरीन इंतज़ाम करते रहें। उसी दौर में कुछ होशियार लड़कियां टीवी देखकर बदमाश ख्वाब भी बुना करती थीं कि एक दिन वो भी टीवी पर दिखेंगी और लोग उन्हें देखने के लिए एंटीने हिलाया करेंगे। शुक्र है कि अब टीवी एंटीने से नहीं चलता और न ही मांएं स्वेटर बुनती हैं मगर उनमें से कुछ लड़कियों ने अपने ख्वाब पूरे कर लिए थे।


वो जब कैमरे के सामने आती तो उसे लगता कि सारी दुनिया उसे ही देखने के लिए टीवी खोलती है। उसकी आंखे बहुत खूबसूरत थी और इतना काफी था कि उससे हर बड़ी खबर पढ़वाई जाए। राघवेंद्र मिश्रा का सख्त आदेश था कि जब भी वो टीवी खोले तो पर्दे पर दीपाली ही दिखनी चाहिए। कभी दीपाली ऑफिस में नहीं होती और मिश्रा के केबिन का टीवी ऑन होता तो आउटपुट हेड श्यामल किशोर जानबूझकर दीपाली का रिकॉर्डेड प्रोग्राम चलवा देता। 21 साल की नौकरी में उसका सीधा उसूल था कि कुर्सी पर कोई भी गधा बैठा हो, हुक्म की तामील हमेशा की जानी चाहिए। यही वजह थी कि पिछले आठ साल में उसने अब तक 12 चैनल देख लिए थे मगर उसकी कुर्सी आउटपुट हेड की ही रही थी। न ऊपर, न नीचे। न्यूज़रूम में सबको लगता कि उसे किसी और योनि में पैदा होना चाहिए था, मगर वो गलती से आउटपुड हेड बन गया था। राघवेंद्र मिश्रा इस चैनल का एडिटर था जिसने अपने करियर में इतना पैसा कमा लिया था कि बिहार से लेकर दिल्ली तक के हर बड़े शहर में उसका एक घर था। दिल्ली में तो उसके तीन-तीन घर थे और किसी की कीमत तीन करोड़ से कम की नहीं थी। उसने रिपोर्टिंग के दम पर इतनी पहचान बना ली थी कि उसके बेटे को नौकरी के लिए सिफारिश या बायोडाटा की ज़रूरत नहीं थी। राघवेंद्र मिश्रा को लड़कियों का शौक था और वो हर तीसरे हफ्ते में एक नई एंकर ज़रूर ले आता था। मगर, फिर भी दीपाली उसकी पहली पसंद थी। दीपाली की उम्र उतनी ही होगी जितना राघवेंद्र मिश्रा के बेटे की। मगर, राघवेंद्र और दीपाली अक्सर साथ-साथ ही कॉफी पीते। कभी-कभी केबिन में भी, एक ही पाइप से।

दफ्तर जिसे न्यूज़रूम भी कहते हैं, वहां कैमरे के सामने जब रिपोर्टर कभी-कभी अंग्रेज़ी में धड़ाधड़ लाइव बोल रही होती तो सबकी नज़रें उसे ही देखतीं। कुर्सियों पर बैठे हुए लोगों के आसपास खड़े उस(उन) स्टाफ के पास भी तब काफी समय होता कि वो सब कामधाम छोड़कर उसे ही एकटक देख रहे होते। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि उस वक्त उनके दिमाग में क्या चलता होगा। क्या उन्हें डर नहीं लगता कि आज वक्त पर मिश्रा के कमरे में चाय नहीं पहुंची तो उनकी नौकरी जा सकती है। क्या नहीं समझ आने वाली उस बोली को सुनना उनके लिए इतना ज़रूरी है। क्या लड़की कोई चुंबक है जहां उनके भीतर का कोई लोहा चिपक जाता है। क्या ये लोहा हर मर्द के भीतर होता है। अगर हां तो फिर मिश्रा के भीतर भी यही लोहा था, जो उम्र के साथ घिसता नहीं था?

मोहित दीपाली से बहुत चिढ़ता था। उसे लगता कि एक दिन जब दीपाली कैमरे के सामने खड़ी होगी, वो टेलीप्रांप्टर से सारे अक्षर गायब कर देगा। उसे लगता जब कैमरे के आगे कुछ लिखा नहीं होगा, तो दीपाली टीवी पर वही दिखेगी जैसा उसे दिखना चाहिए, एकदम भद्दी और बेवकूफ। फिर देखेगा कि राघवेंद्र मिश्रा दीपाली का मुंह नोंचता है कि चूमता है। वो जब भी दीपाली को मेकअप के साथ न्यूज़रूम में चलते देखता, उसे लगता जैसे जेमिनी सर्कस की कोई लड़की दर्शक दीर्घा में फ्लाइंग किस लिए मुस्कुराते घूम रही है और लोग उसे स्माइल पास कर रहे हैं। उसे लगता कि लिपस्टिक लगाने वाली लड़कियां सिर्फ नफरत के काबिल होती हैं। उसका मन होता कि राघवेंद्र मिश्रा के सारे बाल झड़ जाएं और उसके गंजे सिर को देखकर दीपाली पागलों की तरह हंसे। फिर पूरा न्यूज़रूम हंसे और मिश्रा झुंझलाहट में पागल हो जाए। दीपाली मोहित से कम ही बोलती थी मगर जब भी बोलती, मोहित की बोर्ड पर ज़ोर-ज़ोर से उंगलियां फिराने लगता।

मोहित पिछले दो साल से एक ही शिफ्ट में ऑफिस पहुंचता था। उसने दो सालों में दिल्ली की कोई शाम नहीं देखी थी। हफ्ते में जिस दिन छुट्टी होती, वो शाम को सोना पसंद करता। उसे लगता दुनिया का हर आदमी नौकरी करने के बाद अपनी सुबह या शाम खो देता है। शाम का रंग कैसा होता है, शाम को लोग क्या पहनते हैं, खाते क्या हैं, वो जानना चाहता था। उसके कंप्यूटर पर गूगल खुलता था मगर शाम की कोई तस्वीर वहां उपलब्ध नहीं थी। उसे ऐसी शामों को और गुस्सा आता जब वो भाग-भागकर सात बजे का बुलेटिन तैयार करता और अचानक उसे मालूम पड़ता कि दीपाली इसे पढ़ेगी। वो जानबूझकर एकाध गलतियां छोड़ देता था ताकि दीपाली अटके, झुंझलाए और बुलेटिन के बाद मिश्रा के केबिन में मुस्कुराती हुई न घुसे। उसे शायद जेमिनी सर्कस से चिढ रही होगी। दीपाली पढ़ती –

‘’इससे पहले कि पुलिस वहां आ पाती, लुटेरे फरा...री हो चुके थे। माफ कीजिएगा, फरार हो चुके थे। ‘’

बढ़ते हैं अगली ख़बर की ओर...

‘’गोरखपुर में इं..से..फ्लाटी....माफ कीजिएगी....इफ्लेसाइटिस...सॉरी....इंसेफटाइसिस...फिर दीपाली संभलती और जैसे तैसे कहती कि गोरखपुर में एक बीमारी ने कहर बरपा रखा है....फिर वो हड़बड़ी में मुस्कुराकर ब्रेक लेती।‘’

अभी एक छोटा-सा ब्रेक लेते हैं, कहीं मत जाइएगा...

दीपाली चिल्लाती – मोहित, व्हाट रब्बिश....कांट यू राइट ए सिंपल वन....दिस इज़ कंपलीट शिट...

मोहित कहता, मुझे क्या पता तुम्हारी अंग्रेज़ी इतनी बुरी है। चलो, दिमागी बुखार कह लो।

दीपाली और झुंझलाई कि मेरी अंग्रेज़ी ख़राब नहीं, तुम्हारा दिमाग खराब है। फिर, तकरार और बढ़ती ब्रेक खत्म हो गया और दीपाली पर्दे पर मुस्कुराने लगती। फिर, मोहित भी मुस्कुराता। हालांकि, उसे पता था कि मिश्रा दीपाली की खुन्नस में उसकी जमकर क्लास लेने वाला है कि वो जानबूझकर चैनल को सबोटाज कर रहा है। फिर मोहित चुपचाप केबिन में खड़ा होगा और मिश्रा आंयबांय बकता रहेगा।

‘तुम हमको नहीं जानते कि हम कौन हैं....अभी सैक करा देंगे स्साले...जानबूझकर टफ बुलेटिन बनाते हो कि दीपाली को प्रॉब्लम हो...’

‘नहीं सर, हमको तो पता ही नहीं था कि दीपाली पढ़ने वाली है, नहीं तो हम दिमागी बुखार ही लिखते सर..’

‘देखो, जादा राजनीति मत पादो....हम सब जानते हैं स्साले.....जादा ही गरम खून है तुम्हारा, कंट्रोल में रहा करो, समझा..’

‘जी सर...’

.........

कभी-कभी टीवी के बारे में सोचता हूं तो बहुत कुछ सोचने का मन करता है। ज़रा सोचिए, टीवी पर दिखने वाले चेहरे कहां-कहां किस-किस मूड में देखे जाते होंगे। कहीं पान की दुकान में 14 इंच के छोटे ब्लैक एंड व्हाइट पोर्टेबल टीवी और उसमें दिखने वाले ख़ूबसूरत चेहरों से न जाने कितनों के दिन और दिल बहलाते होंगे। हां, ब्लैक एंड व्हाइट को किसी कलर टीवी के आगे शर्म ज़रूर आती होगी कि वो लाख चाहकर भी ख़बर की ख़ूबसूरती नहीं बढ़ा सकता। फिर कहीं टीवी पर गलत-सलत पढ़ रही एंकर को सही-सही समझकर सामान्य ज्ञान बढ़ा रही एक आबादी भी होगी जो एक बार, बस एक बार इस चेहरे से मिलना चाहती होगी। वो इसी भरम में जीते रहना चाहते होंगे कि उनके इस 14 या 16 या 21 इंच के टीवी के भीतर के चेहरे किसी देवलोक का हिस्सा हैं जहां सिर्फ दूध-घी की नदियां बहती होंगी और इन चेहरों की तनख़्वाह और रसूख इतना ज़्यादा होगा कि अंदाज़ा लगा पाना भी मुश्किल है। जबकि, असलियत ये थी कि इन टीवी के भीतर दिखने वाले चेहरों से मेकअप उतरता तो जो असली दुनिया इनके सामने होती वहां लार टपकाते कुछ लोग होते, सौ-दो सौ की इन्क्रीमेंट के लिए साथी को वेश्या घोषित करने वाली ज़ुबानें होतीं और चकाचौंध के भ्रमजाल के बीच चारों तरफ मौत जितना अंधेरा और अकेलापन।

(साहित्य की मैगज़ीन 'पाखी' के मार्च अंक में प्रकाशित)
(कहानी का बाक़ी हिस्सा  यहां पढें  मुस्कुराइए कि आप स्टूडियो में हैं-2)

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 26 सितंबर 2011

हर एक सम्मान ज़रूरी होता है....

24 सितंबर की शाम यादगार थी। दिल्ली के हिंदी भवन में एक सामाजिक संस्था 'अंजना' ने अपने सालाना साहित्यिक कार्यक्रम के दौरान पांच युवा रचनाकारों को सम्मानित किया। तीन कहानीकार विवेक मिश्र, मनीषा कुलश्रेष्ठ और दो कवि विपिन चौधरी, निखिल आनंद गिरि (यानी मैं)। दिल्ली में किसी मंच पर कविताओं के लिए सम्मान लेने का ये पहला मौका था। अच्छा लगा। कुछ तस्वीरें बांट रहा हूं, अपने ब्लॉग के दोस्तों के लिए....आपको भी अच्छा लगेगा।
 मैं, मशहूर कथाकार मैत्रेयी पुष्पा और सम्मान.. 

कविताओं के लिए दाद देतीं मैत्रेयी

मंच पर (बाएं से) युवा आलोचक दिनेश, कथाकार मैत्रेयी पुष्पा, कथाकार और संपादक प्रेम भारद्वाज, युवा कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ, युवा कथाकार अनुज

ज़रा फोटो छप जाने दे...

कार्यक्रम में मौजूद दर्शक..सबसे आगे मि. एंड मिसेज़ प्रेमचंद सहजवाला, जिनकी फुर्ती से उम्र का पता ही नहीं चलता..

सोमवार, 27 जून 2011

रो चुके बहुत...

प्यार हमें कहीं भी हो सकता है...

उन लड़कियों से भी जिनसे कभी मिले नहीं...

और मिलना संभव भी नहीं...


जहां हम नहाते हैं,

उसकी दीवारों पर एक बिंदी देखती है लाल रंग की...

शर्म से लाल है शायद...

बताइए क्या प्यार करने को इतनी वजह काफी नहीं...


क्या हंसना सिर्फ इसीलिए नहीं होता

कि रो चुके होते हैं हम बहुत....

बहुत रो चुके होते हैं हम....

और भूल जाते हैं अगली बार रोना।


कभी-कभी अकेले में

हम सबसे बुरे होते हैं...

और तब मरने के लिए इतनी वजह काफी होती है कि

जीने का तरीका ही नहीं आया

कभी-कभी मरना शौक की तरह ज़रूरी लगता है...

कोई डांटे इस बुरी लत पर

और हम आधा छोड़कर मरना, जी उठें...


और सुनिए, यहां गोली मार देने के लिए

ये ज़रूरी नहीं कि आपका झगड़ा हो...

इतनी वजह काफी है कि

आपके पास बंदूक है...
 
निखिल आनंद गिरि
 
(इस कविता को हिंदी मैगज़ीन पाखी के जून अंक में भी जगह मिली है)

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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