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शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

उसे बचपन में सपने देखने की बीमारी थी..

एक दिन मेरी उम्र ऐसी थी कि मुझे बस प्यार करने का मन होता था। तब तुमसे मिलना हुआ और उस एक दिन हमने बहुत प्यार किया था। फिर वो दिन कभी नहीं आया। हमने उस रिश्ते का कोई नाम तो दिया था। क्या दिया था, ठीक से याद नहीं। उस नाम पर तुम्हें बहुत हंसी आई थी। तुम्हारा हंसना ऐसे था जैसे कोई मासूम बच्चा गिर पड़े और उसकी चोट पर मां खिलखिलाकर हंसती रहे। जैसे कोई रोटी मांग रहा हो और आप उसकी पेट पर लात मारकर हंसते रहें। फिर मैंने तुम्हें यूं देखा जैसे कोई कोमा में चला जाए और किसी के होने न होने से कोई फर्क ही नहीं पड़े। मैं तुमसे नफरत नहीं करता। नफरत करने में भी एक रिश्ता रखना पड़ता है। मैं तो तुमसे नफरत भी नहीं करना चाहता। यानी कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता।


उसे सपने बहुत आते थे। उसके सपनों में एक पेड़ आता जिस पर कई तरह के फूल होते थे। वो सभी फूल एक ही रंग के होते थे। वो रोज़ सारे फूल तोड़कर तेज़ी से कहीं भागती थी। रास्ते में रेल की एक पटरी होती थी जहां अक्सर उसे इसी पार रुक जाना पड़ता। वो झुंझला कर फूल को पटरी के नीचे रख देती। सारी खुशबू कुचल कर ट्रेन जैसे ही आगे बढ़ती, सपना ख़त्म हो जाता था। लड़की की शादी तय हो चुकी थी। उसकी मां उसे तरह-तरह की नसीहतें देने लगी। मां ने कहा कि अब तुम्हें कम सोने की आदत डाल लेनी चाहिए। लड़की ने चुपचाप हामी भरी। जबकि असलियत ये थी कि लड़की को रात में नींद ही नहीं आती थी।

मैंने बचपन में एक गुल्लक ख़रीदी थी। मासूमियत देखिए कि जब उसमें खनकने भर पैसे इकट्ठा हो गए तो मैं अमीर होने के ख़्वाब देखने लगा। मैंने और भी कई ख़्वाब देखे। जैसे मैं अंधेरों के सब शहर ख़रीद लूंगा और गोदी में उठाए समंदर में बहा आऊंगा। जैसे मुझे ज़िंदगी जीने के कई मौके मिलेंगे और मैं उसे बीच सड़क पर नीलाम कर दूंगा। फिर किसी बूढ़े आदमी पर तरस खाकर उसे एकाध टुकड़ा उम्र सौंप दूंगा।

मुझे बूढे लोग अच्छे नहीं लगते। क्योंकि वो इतने सुस्त दिखने के बावजूद मुझसे पहले मौत के इतने करीब पहुंच चुके होते हैं जहां पहुंचने का मेरा बहुत मन करता है।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

मां-बाप की उम्र और प्यार...

आठ महीने के बाद पहली बार नौकरी लगी थी। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था। बीएड का प्लान, सिविल सर्विस की तैयारी और पता नहीं किन-किन नौकरियों के सपने इन आठ महीनों में उसकी आंखों के सामने से गुज़र गए थे। जब नौ हज़ार रुपये की नौकरी लगी तो उसने घूम-घूम कर मिठाईयां बांटी और शाही ऐलान किया कि सबसे पहले नई चड्डियां ख़रीदेगा..

रात को सोते वक्त मोबाइल सिर के पास रखा होना परंपरा की तरह ज़रूरी था। अचानक फोन की घंटी बजती तो वो कितनी भी गहरी नींद में उठकर बातें करने लगते। हालांकि गहरी नींद बस एक आदर्श वाक्य की तरह थी जिसे पीढी दर पीढ़ी आगे सरका दिया जाता है मगर समझना या अमल करना कोई नहीं चाहता।

कुछ लड़कियों के बारे में पूरे शहर का एक ही ख़याल होता था। वो कब क्या हो जाएं, कोई नहीं जानता। उनसे बात करने से पहले ये देखना पड़ता है कि वो शादीशुदा हैं, किसी परिचित की प्रेमिका हैं या फिर अनजान चेहरा जहां संभावना बची हुई है। दोस्त की प्रेमिका से देर तक बात तो की जा सकती है, मगर कुंठाएं शालीनता के लिबास में हमेशा ओढ़े रहनी चाहिए।

ये मेरी निजी और शायद इकलौती राय होगी कि दोस्त को समझना लड़कियों को समझने से ज़्यादा मुश्किल है। वो देर तक लड़ते रहे कि पांच रुपये की झालमुड़ी के पैसे कौन देगा। एक का कहना था कि वो कमाता है इसीलिए उसे ही देना चाहिए। दूसरा कह रह था कि उसने झालमुड़ी ऑफर की है तो पैसे देने का हक़ उसका है। आधे घंटे की लड़ाई के बाद झालमुड़ी वाले ने कहा जाने दीजिए, मत दीजिए पैसे।

कुछ लोगों के बारे में राय बनाना बेहद मुश्किल होता है। वो इतने शातिर होते हैं कि आपके लाख चाहने पर भी शातिर नहीं लगते। उसके दोस्त उसे इतना प्यार करते थे कि जब उसका जन्मदिन होता तो आधी रात को इतनी तेज़ आवाज़ में गाने बजा देते कि मोहल्ले भर में लोग उन्हें गालियां बकते। उसकी प्रेमिका उससे इतना प्यार करती कि उसके मां-बाप उसे ज़िंदगी भर मरा हुआ मान बैठने पर आमादा हो जाते। हालांकि, वो अपनी प्रेमिका से इतना प्यार करता था कि इतना प्यार मां-बाप से किया होता तो उनकी उम्र पांच साल शर्तिया बढ जाती।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 5 जनवरी 2011

ठूंठ पीढ़ियां, बेबस माली...

जिन पेड़ों ने फल नहीं दिए,

उन्हें भी सींचा गया था सलीके से

भरपूर खाद-पानी और देखभाल के साथ..

हवा भी उतनी ही मिली थी उन्हें,

जितनी बाक़ी पेड़ों के नसीब में थी....

उम्मीद के लंबे अंतराल ने दिया

माली को ठूँठ पेड़ों का दुख..


ये दुख नहीं बना चर्चा का विषय

बुद्धू बक्से के बुद्धिजीवियों के बीच

या किसी भी अखबार के पन्ने पर,


पीढ़ी दर पीढ़ी उगते रहे ठूंठ

और घेरते रहे जगह,

फलदार पेड़ों के बरक्स....


फलदार पेड़ों को क्या था..

झूमकर लहराते रहे अपनी किस्मत पर....

ठूंठ पेड़ों से बिना उलझे,

मुंह घुमाकर समझते रहे,

कि हर ओर हरी है दुनिया....


उधर मालियों ने फिर भी सींचा,

नए बीजों को, नई उम्मीद से...

जब तक नीरस नहीं हुई पूरी पीढ़ी...


फिर बेबस मालियों ने सोचा उपाय

ठूंठ पेड़ों से कुछ काम निकाला जाये..

गर्दन में फंसाकर फंदे,

वो झूल गए इन्हीं पेड़ों पर...

और थोड़े-से फलदार पेड़ देखते रहे

अपनी तयशुदा मौत का पहला भाग...


काश! फलदार पेड़ों ने किया होता प्रतिरोध

ज़रा-सा भी,

तो ठूंठ पेड़ों में फल तो नहीं आते,

मगर वो समय रहते शर्म से

टूटकर गिर ज़रूर जाते,


ज़िंदा रहते माली

ताकि,

फलदार पेड़ों की भी हरी रहती डाली....


निखिल आनंद गिरि

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