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सोमवार, 16 जनवरी 2017

पुस्तक मेला हो तो दिल्ली में हो वरना नहीं हो

प्रगति मैदान मेट्रो स्टेशन से ही मुंह में भोंपू (लाउडस्पीकर) लगाकर सीआईएसएफ का जवान जब दाएं जाएं-बाएं जाएं करता है तो एहसास हो जाता है कि कितनी भीड़ होगी मेले में। नीचे उतरिए तो मेले के बाहर भी मेला। फुचके का, गुब्बारे का, मोबाइल कवर का, 80 प्रतिशत छूट वाली डिक्शनरी का। फिर भीतर सारे स्टॉल।

हिंदी के हॉल में मिलने वाले ज्यादा, ख़रीदने वाले कम। लिखने वाले ज़्यादा पढ़ने वाले कम। हिंदी वाले हॉल में किसी राजा बुकस्टॉल पर नज़र गई और वहां अंग्रेज़ी की किताबों पर मछली ख़रीदने जैसी भीड़ दिखी तो मन रुक गया - ‘अंग्रेज़ी की किताबें 100 रुपये, सौ-सौ रुपये। जो मर्ज़ी छांट लो।एक दुबला-सा लड़का एक स्टूल पर खड़ा होकर लोगों को बुलाए जा रहा था। लोग किताबें छांट रहे थे। जैसे पालिका मार्केट में लोअर छांटते हैं, लड़कियां जनपथ में ऊनी चादरें छांटती हैं।
मैंने धीरे से पूछा-हिंदी की किताबें?  तो उसी सुर में बोला – ‘’उधर। पच्चास रुपये, पच्चास रुपये।‘’ उधर नज़र गई तो एक तरफ सुख की खोजथी, एक तरफ कॉल गर्लऔर बीच में भगत सिंह की अमर गाथा’! सब पचास रुपये में। मैंने सोचा कि हिंदी की किताबों को सम्मान से रख तो लेते कम से कम। भगत सिंह के साथ कॉल गर्ल को बेच रहे हैं, वो भी अंग्रेज़ी से आधे दाम पर। शर्म आनी चाहिए। फिर आगे बढ़ा तो एक बाबा चिल्ला-चिल्ला कर सत्यार्थ प्रकाशबेच रहे थे। बोल रहे थे आधे घंटे में जीवन नहीं बदला तो पैसे वापसी की पूरी गारंटी। मैंने चुपके से रास्ता ही बदल लिया। सिर्फ स्टॉल ही नहीं पूरी हॉल ही छोड़ आया।
अंग्रेज़ी वाले हॉल में घुसा तो वहां पेंग्विन और नेशनल बुक ट्रस्ट पर भारी भीड़ थे। लोग वहीं बैठकर पूरी-पूरी किताब पढ़ रहे थे। मुझे बढ़िया आइडिया लगा। सात दिनों में कम से एक किताब तो पूरी की ही जा सकती है। साल में कम से कम एक किताब तो पढ़नी ही चाहिए। वहां भी ‘’किताबों का पालिका बाज़ार’’ लगा हुआ था। अंग्रेज़ी वाले नए पाठकों की भीड़ उस दुकान पर थी। बिना जाने-सुने-पहचाने लेखकों की सुंदर किताबें 100 रुपये में ख़रीदना अंग्रेज़ी वालों के लिए मोज़े ख़रीदने जैसा रहा होगा। हिंदी वाले तो इतना जेब में रखे-रखे नई हिंदी वाले स्टॉल पर चार दिन घूम आते हैं।
ज़्यादा नहीं लिखूंगा। आप बस तस्वीरों को देखकर फील कीजिए। दिल्ली की सबसे ख़ास बात ये है कि ये सबको बराबर दिखने-महसूस करने के पूरे मौके देती है। किताबों की इतनी दुकानों में आप सिर्फ घूम कर लौट आते हैं या एकाध किताबें ख़रीदते भी हैं, क्या फर्क पड़ता है। सबके साथ मेले में रहने का भरम अकेले लौटने से ही पूरा होता है। जैसे हम दुनिया से लौटते हैं एक दिन। 
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 21 दिसंबर 2016

नोटबंदी पर कुछ नोट्स - YearEnder

दिल्ली मेट्रो के दफ्तर के पास एक बैंक अपनी नोटों की गाड़ी लेकर आया था ताकि कर्मचारियों को नोटबंदी से राहत मिल सके। मैं तीन घंटे की लंबी लाइन के बाद जब सबसे आगे पहुंचा तो बिल्कुल हीरो की तरह अपना कार्ड आगे किया। वो एटीएम कार्ड नहीं, मेरा मेट्रो स्मार्ट कार्ड था। डेबिट कार्ड पता नहीं कहां छूट गया था। पीछे की लंबी लाइन देखकर आगे से हटने की हिम्मत नहीं हो रही थी। सारी जेबों में लाइट की स्पीड से ढूंढने पर एटीएम कार्ड मिला तो लगा किसी जानलेवा दुर्घटना से बच गया। ऐसी भूल लाइन में लगा हुआ हर भारतीय कर सकता है। लाइन में लगना शायद ही किसी नागरिक की प्राथमिकता हो। वो या तो अपना ऑफिस छोड़ कर आया है, या किसी बेहद ज़रूरी काम को टालकर या फिर अपने मालिक का कार्ड लेकर लाइन में खड़ा है।

नोटबंदी पर तमाम तरह के  अच्छे-बुरे ओपिनियन सुनता रहता हूं। हो सकता है किसी छोटे शहर में स्थिति कम बुरी भी हो, मगर मानने का मन नहीं करता। रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया से पैदल की दूरी पर है कनॉट प्लेस। यहां भी एटीएम में पैसे नहीं हैं। जहां है वहां इतनी लंबी लाइन है कि बिहार से आए हम जैसे मामूली लोगों का दम फूलने लगता है। हमने बचपन से इतनी लाइनें देखी हैं कि कहीं सिर्फ चार-पांच लोग ही एटीएम की लाइन में खड़े हों तो भरोसा ही नहीं होता कि वहां पैसे होंगे। ये उस एटीएम के खिलाफ नहीं, इस सरकार के खिलाफ विश्वास समझा जाए।

तमाम मीडिया चैनल्स, अखबार आजकल टॉप टेन, टॉप 50 जैसे इयर-एंडर में लगे होंगे। मेरा दावा है कि नोटबंदी की लाइनों के भी टॉप टेन किस्से ज़रूर शामिल किए जाएं। हर किस्से के बाद राष्ट्रगान चलाया जाए। भयानक टीआरपी आएगी। जितनी लाइनें हैं, उतने किस्से हैं।

बाराखंभा रोड पर सौ लोगों की लाइन से आगे पहुंचते-पहुंचते एक सज्जन जब एटीएम के मुंह तक पहुंचे तो कार्ड का पिन नंबर ही भूल गए। अब वहीं अपनी पत्नी से पूछने लगे। पत्नी कोई डायरी खोजने लगी। फिर उनके घर कोई कूरियर वाला आ गया। और यहां लाइन में पीछे लोग राष्ट्रगान’ गाने लगे। समझ गए ना..
एक माली अपने दूसरे रिक्शेवाले भाई के साथ लाइन में सौवें नंबर पर खड़ा था। अचानक पर्स खोला तो उसका एटीएम कार्ड ज़रा-सा टूटा हुआ था। उसने रिक्शेवाले भाई से इस कार्ड के चलने-न चलने पर एक्सपर्ट ओपिनियन मांगी। दूसरे वाले भाई ने भी आरबीआई गभर्नर की तरह बढ़िया सुझाव दिया कि किस तरह से अंदर घुसाने पर काम कर जाएगा।  

कभी-कभी सोचता हूं कि कवियों, शायरों का इस नोटबंदी में क्या हाल होगा। क्या उनके लिए कविताओं में एटीएम की मशीन चांद का टुकड़ा नज़र आता होगा। क्या नोट की भूख अब पेट की भूख से ज़्यादा बड़ा सवाल होने लगी होगी। फटाफट प्रेम के ज़माने में नोटबंदी ने हम सबको ठहर कर सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। हम एक-दूसरे को समय देना भूल गए हैं। तो सरकार इस तरह से एक अच्छे गुण को दोबारा हमारे भीतर रोपना चाहती है। इन दिनों कई घंटे लेट चल रही ट्रेनें भी हमसे हमारा ख़ूब समय मांगती हैं। इसके लिए सरकार की जितनी तारीफ की जाए कम है। बाक़ी जो है, सो तो हइये है।


चलते-चलते - एक आदमी एटीएम की कतार में तीन घंटे खड़ा होकर अपने आगे खड़े आदमी को बोलकर गया कि भाई थोड़ी देर में लौटता हूं। फिर पास ही पीवीआर में पिक्चर देखने चला गया और जैसे ही आराम से बैठने को हुआ, वहां राष्ट्रगान शुरु हो गया। आप बताइए उसे खड़ा होना चाहिए या अपने हिस्से की देशभक्ति का दैनिक कोटा वो पूरा कर चुका है।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

हमारी रातों में सपने हैं, नींद नहीं...

तुम्हारे बाद भी भूख लगती है पेट को,
और आंखों को आंसू आते हैं...
देश में कहीं कोई हड़ताल भी नहीं हुई,
और आप कहते हैं बेवफाई बड़ी चीज़ है...

जहां राजनीति नहीं, वहां सिर्फ प्यार  है..
और प्यार से कवि बना जा सकता है
लेखक बना जा सकता है...
बहुत हुआ तो वैज्ञानिक भी,
मगर एक ऐसा आदमी नहीं,
जिसे गणमान्य समझा जाए।

मेरे पिता से पूछिए,
उन्हें गणमान्य आदमी कितने पसंद हैं..
वो चाहते रहे हमें एक ख़ास आदमी बनाना...
लाल बत्ती न सही, गाड़ी ही कम से कम...
और हम पैदल चलते रहे सड़कों पर,
पांच रूपये की मूंगफली और हथेली थामे...

हम दोनों एक ही अखबार पढ़ते हैं...
अलग-अलग शहरों में....
पिता का समाज और है,
हमार समाज कुछ और...
फिर भी हम एक परिवार के सदस्य तो हैं....
जहां मां जोड़ती है दोनों को..
और बालों का ख़ालीपन भी...

उन्हें नींद नहीं आती हमारी फिक्र में ...
हमें नहीं आती कि हमारे पास सपने हैं...
जो पूरे नहीं होंगे कभी...
और देखिए किसी सरकारी दफ्तर की तरह,
हर तरफ रातें हैं,
मगर किसी काम की नहीं....

वो सुबह का वक्त था
कि एक दिन पटरियों के दोनों ओर,
पांव फैलाकर चल रहे थे हम
और तुम्हारी हथेली थी मेरी आंखों पर..
मैंने पहली बार एक सपने की आवाज़ सुनी थी...

देखना एक दिन हम भी अमीर हो जाएंगे
और हमारे बच्चे आवारा....
उन्हें मालूम होगा सिर्फ ख़ून का रंग
और फिर भी शरीफ कहे जाएंगे
उस सपने को चुराकर बनेगी फिल्म
तो नाम क्या रखा जाएगा ?

निखिल आनंद गिरि
(संवदिया पत्रिका में प्रकाशित)

रविवार, 4 नवंबर 2012

एक डरे हुए आदमी का शब्दकोष

मेरा परिचय एक ऐसे आदमी से है,
जिसकी प्रेमिका मेज़ पर पड़ा ग्लोब घुमाती है
तो वो भूकंप के डर से
भागता है बाहर की ओर
पसीने से तरबतर,

बाहर खुले मैदान नहीं है...
बाहर लालची जेबें हैं लोगों की
जेब में ज़बान है और मुंह में पिस्तौलें...
बाहर कहीं आग नहीं है
मगर बहुत सारा धुंआ है..
गाड़ियों का बहुत सारा शोर है
जैसे पूरा शहर कोई मौत का कुंआ है...

मेरा परिचय एक ऐसे आदमी से है
जो शहर में अपनी पहचान बताने से डरता है
और गांव में अब कोई पहचानता नहीं है....
सिर्फ इसीलिए बचा हुआ है वह आदमी
कि नहीं हुए धमाके समय पर इस साल...
कि कुछ दिन और मिले प्यार करने को...
कुछ दिन और भूख सताएगी अभी...

उसने हाथ से ही उखाड़ लिया है
दाईं ओर का आखिरी दुखता दांत
सही समय पर दफ्तर पहुंचना मजबूरी है
और दानव डाक्टर की फीस से बचना भी ज़रूरी है....
दुखे तो दुखे थोड़ी देर आत्मा...
बहे तो बहे थोड़ी देर खून....
अपरिचित नहीं है ख़ून का रंग

अभी कल ही तो कूदा था एक स्टंटमैन
पंद्रह हज़ार करोड़ में बने एक मॉल से...
और उसकी लाश ही वापस आई थी ज़मीन पर...
पंद्रह हज़ार के गद्दे बिछे होते ज़मीन पर
तो एक स्टंटमैन बचाया जा सकता था...
मगर छोड़िए, इस बेतुकी बहस को
कविता में जगह देने से
शिल्प बिगड़ने का ख़तरा है...

तो सुनिए, इस बुरे समय में...
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोष में
लोकतंत्र किसी दूसरी ग्रह का शब्द है...
तो सुनिए, इस बुरे समय में...
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोष में
लोकतंत्र किसी दूसरी ग्रह का शब्द है...
जिसका अर्थ किसी हिंदू हिटलर की मूंछ है....
और उसके दांतों से वही महफूज़ है...
जिसके शरीर पर जनेऊ है
और पीछे एक वफादार पूंछ है...

डरा हुआ आदमी सड़क पर देखता सब है
कह पाता कुछ भी नहीं शोर में
सड़क पर जल उठी लाल बत्ती
एक भूखा, मासूम हाथ
काले शीशे के भीतर घुसा
भीतर बैठे कुत्ते ने काट खाया हाथ
कब कैसे पेश आना है
ख़ूब समझते हैं एलिट कुत्ते

एक डरे हुए आदमी के शब्दकोश में
गांव सिर्फ इसीलिए सुरक्षित है
कि वहां अब भी लाल बत्ती नहीं है
दरअसल उस डरे हुए आदमी की ज़िंदगी
भिखारी की फटी हुई जेब है
ख़ाली हो रहे हैं दिन-हफ्ते
और भरे जाने का फरेब है...

एक डरे हुए आदमी की ज़िंदगी
उस आदिवासी औरत के पेट में
पल रहे बच्चे का पहला रुदन है...
जो गांव की सब ज़मीन बेचकर
पालकी में लादकर
उबड़-खाबड़ रास्तों से लाया गया
शहर के इमरजेंसी वार्ड में
जिसने एक बोझिल जन्म लेकर आंखे खोलीं
ख़ूब रोया और मर गया....
उस डरे हुए आदमी के दरवाज़े पर
हर घड़ी दस्तक देता बुरा समय है
जो दरवाज़ा खुलते ही पूछेगा
उसी भाषा, गांव और जाति का नाम
फिर छीन लेगा पोटली में बंधा चूरा-सत्तू
और गोलियों से छलनी कर देगा...

इस बुरे समय की सबसे अच्छी बात ये है कि
एक डरा हुआ आदमी अब भी
सुंदर कविता लिखना चाहता है...

निखिल आनंद गिरि
(यह कविता पाखी के अक्टूबर-नवंबर अंक में छपी है। इसके साथ ही एक और कविता  ''लिपटकर रोने की सख्त मनाही है'' को भी पत्रिका में जगह मिली है।)

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

दारू और बंदूक के बीच बापू की याद...


अक्टूबर के पहले हफ्ते की बात है। दिल्ली में क़ुतुब मीनार के पास एक क्लब में भारतीय मूल की ब्रिटिश लेखिका मोनिषा राजेश की पहली क़िताब 'अराउंड इंडिया..इन 80 ट्रेन्स' के लांच पर जाना हुआ। चार महीने तक भारत की अलग अलग ट्रेनों में लेखिका के सफ़र का अनुभव इस क़िताब की ख़ासियत थी। मौके पर बतौर मुख्य अतिथि पहुंचे एक पूर्व रेलमंत्री ने बातों बातों में अपनी तुलना महात्मा गांधी से कर दी। उन्होंने कहा कि जैसे गांधी को ट्रेन से उतार दिया गया था, वैसे ही उन्हें भी उतार दिया गया और फिर दोनों 'आज़ाद' हुए। गांधी को इस तरह चटखारे लेकर याद कर रहे मंत्रीजी को सुनने वालों में कुछ वरिष्ठ पत्रकारों के अलावा 25-30 बुलाए गए मेहमान थे। उनके हाथों में बियर की बोतलें भी थी।


गांधी कथा कहते नारायण देसाई
इस कार्यक्रम के चंद दिन बाद ही दिल्ली महात्मा गांधी को एक और ढंग से याद कर रही थी। महात्मा गांधी के प्रिय सचिव रहे महादेव भाई देसाई के पुत्र नारायण भाई देसाई के चिर-परिचित अंदाज़ में चार दिनों की 'गांधी कथा' का आयोजन किया गया था। एक विशाल सभागार में गांधी कथा सुनने का ये अनुभव जितना अनूठा था, उतना ही यादगार भी। दरअसल, ये दिल्ली में नारायण देसाई की आखिरी 'गांधी कथा' थी। सुनने वालों में कुछ नेता, बुद्धिजीवी, पत्रकार और सैंकड़ों लोग मौजूद रहे। हालांकि, पीने को यहां भी बोतलबंद पानी ही था, मगर 'गांधी कथा' के ज़रिए गांधी को दोबारा जीवंत करने की कोशिश काबिल-ए-तारीफ थी।

हम जैसे कोई युवाओं को गांधी का युग देखना नसीब नहीं हुआ। हां, गांधी का इस्तेमाल जगह-जगह देखते आए हैं। सेलेब्रिटी आंदोलनों में गांधी टोपी पहनने से लेकर घूस के लिए गांधी के नोट धराते लोग। आख़िरी आदमी का दुख बांटने के नाम पर लाखों-करोड़ों का फर्ज़ीवाड़ा करते लोग। ऐसे में नारायण देसाई की कही हर बात किसी दस्तावेज़ की तरह ज़रूरी हो जाती है, जिन्होंने सचमुच बापू के साथ लंबा समय गुज़ारा है। आज के संदर्भों के साथ दिल्ली की इस गांधी कथा को जोड़ना बहुत ज़रूरी और दिलचस्प हो जाता है। नारायण देसाई के मुताबिक उस वक्त भी गांधी के साथ आंदोलन में जुड़ने वाले 'चुनिंदा सक्रिय' (एक्टिव फ्यू) युवा ही थे। उन युवाओं के पास समाज के लिए एक विज़न था। वो 'व्यावहारिक आदर्शवादी' थे। मतलब ख़ुद को बदलकर समाज में वांछित बदलाव का सपना देखने वाले। आज हमारे आसपास टीवी या मीडिया ने जिस तरह के 'एक्टिव युवा' खड़े किए हैं, उनके सर पर भी आम आदमी की टोपी दिखती है। मगर, उनका चंपारण कैमरे से दिखाई देने वाली दिल्ली से ज़्यादा दूर नहीं जा पाता और नील के किसान भी बिजली बिल फाड़ने वाले मिडिल क्लास चेहरों से अलग नहीं हो पाते। वो कई रसूख वाले नेताओं पर उंगली उठाते हैं, फिर अचानक शांत हो जाते हैं फिर अचानक आंदोलन का नया शेड्यूल तय कर देते हैं। पुराना आंदोलन चार दिन में ही पुराना पड़ जाता है।

जिस कांग्रेस को खरी-खोटी सुनाने के नाम पर ही कई पार्टियां या लोग सियासत के हसीन सपने देखते नहीं थक रहे हैं, उस पार्टी का मूल चरित्र गांधी के वक्त कैसा था, ये भी जानना ज़रूरी है। लखनऊ अधिवेशन में जब कांग्रेस का अधिवेशन दूसरे कई 'संवेदनशील' मुद्दों पर रखा गया, तब बिहार से आए किसान राजकुमार शुक्ल की बात किस तरह गांधी ने सुनी और बाद में उन्हें मदद देने के आश्वासन को पूरा भी किया, उसकी तुलना मौजूदा राजनीतिक पतन को समझने में मदद करती है। इतिहास की किताबों में ये बातें कई जगह कई बार लिखी हैं। मगर, गांधी कथाओं जैसे आयोजन के ज़रिए उस दौर की प्रासंगिकता पर बहस हो और बिना ज़्यादा प्रचार-प्रायोजन के लोग सुनने भी आएं तो आश्चर्य और खुशी दोनों होती है।

गांधी ने सत्य के साथ किए अपने प्रयोगों में जो भी क़दम उठाए, उसका एक प्रतीकात्मक महत्व भी रहा। उनके आश्रम में तीन चीज़ें ज़रूरी थीं। प्रार्थना, स्वच्छता और चरखे से सूत कातना। प्रार्थना अगर आध्यात्मिक क्रांति का प्रतीक था, तो साफ-सफाई सामाजिक क्रांति का। ठीक ऐसे ही चरखे का प्रयोग स्वावलंबन और आर्थिक आज़ादी का प्रतीक कहा जा सकता है। मौजूदा राजनीति में ऐसे प्रतीक कम से कम मेरे लिए ढूंढ पाना थोड़ा मुश्किल है। ताज़ा प्रतीक लाल बत्ती और बंदूक ही नज़र आते हैं जिससे गांधी की अहिंसा के सिद्धांत का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। मसलन, बापू की जन्मभूमि पोरबंदर का ही ताज़ा उदाहरण सामने है जब वहां के कांग्रेसी सांसद विट्ठल रठाड़िया ने 50 रुपये का टोल टैक्स मांगे जाने पर बंदूक तान कर अपनी 'सहनशीलता' का परिचय दिया। चाल, चरित्र और चिंतन में सभी पार्टियों में ऐसे सांसद रोज़ देखने-सुनने को मिल रहे हैं।

गांधी कथा के दौरान खादी के ज़रिए चले देशव्यापी आंदोलन को भी समझने का मौका मिला। एक बार जब विदेशी सामान का विरोध कर रहे सत्याग्रहियों को पुलिस पकड़कर ले जाने लगी तो एक महिला ने यूं ही एक अजनबी सत्याग्रही को पास बुलाकर अपने शरीर से तमाम गहने उतारकर थमा दिए और कहा कि इसे उसके घर पहुंचा दे। सत्याग्रही ने चौंककर पूछा कि उसे एक अजनबी पर इतना अटूट विश्वास कैसे है। महिला ने हंसते हुए कहा कि ये विश्वास मेरे और तुम्हारे शरीर पर पहनी गयी खादी ने दिया है। और किसी प्रमाण पत्र की ज़रूरत नहीं है। क्या आज खादी पर आम आदमी रत्ती भर भरोसा कर सकता है। जब खादी पहने एक केंद्रीय मंत्री ये कहता मिले कि घोटाले लाखों के नहीं करो़ड़ों के हों, तब मीडिया को उस पर ध्यान देना चाहिए।

क्या आज कोई आंदोलन या कोई हुजूम एक-दूसरे पर इतना भरोसा कर सकता है। हो सकता है, नारायण देसाई की बातें उनके निजी या काल्पनिक अनुभव भर ही हों, मगर हम जिस समाज में विकसित होने का दावा कर रहे हैं, क्या ये भरोसा या सामुदायिक निर्भरता कल्पना से ज़्यादा लग भी नहीं सकते। वो भी उस दिल्ली में जहां छह महीने बाद दो अकेली बहनें मरणासन्न हालत में कमरे से निकाली जाएं या फिर किसी बुज़ुर्ग दंपती के घर में दिनदहाड़े घुसकर उन्हें गोली मार दी जाए और सब कुछ लूट लिया जाए।

गांधीजी ने कहा था कि अगर स्वराज हासिल नहीं हुआ तो वो वापस अपने आश्रम में कभी क़दम नहीं रखेंगे। 15 अगस्त 1947 के बाद गांधी कभी वापस अपने आश्रम में नहीं लौटे। शायद जिस स्वराज का सपना गांधी ने देखा था, उन्हें वो पूरा होता नहीं दिखा। मगर, दिल्ली में उनके नाम पर होने वाली गांधी कथाएं और उन्हें सुनने आने वाली दिल्ली एक उम्मीद जैसी हैं। इन्हें और प्रचार दिए जाने की ज़रूरत है। कला के दूसरे माध्यमों के ज़रिए भी गांधी कथाएं कही-सुनी जानी चाहिए। जैसे महमूद फारूक़ी या दूसरे कलाकार दिल्ली के छोटे-बड़े मंचों पर दास्तानगोई के ज़रिए मंटो या दूसरे मुद्दों को ज़िंदा रखे हुए हैं। नारायण देसाई के साथ मंच पर मौजूद संगीत मंडली ने भी कमाल की मेहनत की थी। तीन घंटे की गांधी कथा को रोचक बनाए रखने के लिए नुक्कड़ शैली में लिखे 'गांधी गीतों' को सुनना बेहद ताज़ा अनुभव था। जहां साबरमती के नीर बधाई देते, जहां खरहा डट कर लोहा ले कुत्ते से...वहां पराक्रमी बापू का आश्रम स्थित है, गांधी का आश्रम स्थित है। क्या ऐसे कठिन गीत लिखना और कंपोज़ करना कोई आसान काम हैं।

आख़िर में एक बात और पूछने या कहने का मन कर रहा है। दिल्ली में कैसे भी साहित्यिक, राजनैतिक या सांस्कृतिक कार्यक्रम हों, दर्शक दीर्घा में कुछ बुद्धिजीवियों के चेहरे कभी नहीं बदलते। वो हर जगह नज़र आ जाते हैं। या तो उन्हें दिल्ली में रहते हुए भी फुर्सत बहुत है या फिर बुद्धिजीवी बने रहना उनकी हॉबी बन गई है।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

लिपटकर रोने की सख्त मनाही है...

रात में सियारों की हुंआ-हुंआ की तरह
सुनाई देती है मेट्रो की हल्की आवाज़
पेड़-पौधों की तरह दिखते हैं
दूर-दूर तक वीरान मकान...
शिकार के लिए ढूंढने नहीं पड़ते शिकार
बाइज्ज़त होम डिलीवरी की भी व्यवस्था है...
और मुझे ये सच कहने पर चालान मत कीजिए
कि हम एक जंगल को शहर समझने लगे हैं....
ऐसा नहीं कि पहली बार लिखा गया हो ये सब
मगर ये हर भाषा में बार-बार बताया जाना ज़रूरी है

जैसे बार-बार बनाई जानी होती है दाढ़ी
याद किए जाने होते हैं आखिरी विलाप
छूने होते हैं पांव, बेमन से....
घर लौटना होता है नियम और शर्तों के बिना
बीमार होने पर वही कड़वी दवाईयां बार-बार
जैसे बार-बार बदलते बेटों के लिए
नहीं बदलते मां के व्रत
और सुनिए इस शहर के चरित्र के खिलाफ
आपको दुर्लभ दिखने के लिए रोना हो बार-बार...
तो ठूंठ पेड़ बचाकर रखिए दो-चार...
किसी से लिपटकर रोने की सख्त मनाही है...

इस शहर में छपने वाले अमीर अखबारों के मुताबिक
निहायती ग़रीब, गंदे और बेरोज़गार गांवों से...
वेटिंग की टिकट लेने से पहले मुसाफिरों को... 
ख़रीदने होते हैं शहर के सम्मान में
अंग्रेज़ी के उपन्यास...
गोरा होने की क्रीम..
सूटकेस में तह लगे कपड़े...
और मीडियम साइज़ के जॉकी....
हालांकि लंगोट के खिलाफ नहीं है ये शहर..
और सभ्य साबित करने के लिए
अभी शुरु नहीं हुआ भीतर तक झांकने का चलन...

यहां हर दुकान में सौ रुपये की किताब मिलती है
जिसमें लिखे हैं सभ्य दिखने के सौ तरीके
जैसे सभ्य लोग सीटियां नहीं बजाते
या फिर उनके घरों में बुझ जाती हैं लाइट
दस बजते-बजते...
या जैसे मोहल्ले की पुरानी औरतें कहती हैं
अच्छे या सभ्य नहीं होते 47 वाले पंजाबी..

बात-बात पर आंदोलन के मूड में आ जाता है जो शहर...
हमारे उसी शहर में थूकने की आज़ादी है कहीं भी...
गालियां बकना नाश्ते से भी ज़रूरी है हर रोज़...
और लड़कियों के लिए यहां भी दुपट्टा डालना ज़रूरी है..
जहां न बिजली जाती है कभी और न डर।

जिनकी राजधानी होगी वो जानें..
किसी दिन तुम इस शहर आओ
और कह दो कि मुझे सफाई पसंद है..
तो पूरे होशोहवास में सच कहता हूं,
डाल आऊंगा...कूड़ेदान में सारा शहर...

निखिल आऩंद गिरि

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

दिल्ली एक उलझन है, एक वेटिंग रूम है...

मुझे कई बार लगता है कि मैं किसी दिल्ली-विल्ली में नहीं रहता। मैंने आज तक लालकिला नहीं देखा, कुतुबमीनार नहीं घूमा और न ही ट्रेड फेयर में टिकट कटाकर घूमने गया हूं। मैं तो सिर्फ दो-तीन घंटे रोज़ाना मेट्रो में रहता हूं, फिर एक दफ्तर में और फिर अपने कमरे में। बाकी कब, क्या, कौन-सी दिल्ली में होता है, मुझे नहीं पता। टीवी पर आग-वाग दिखती है तो हम दिल्ली के दफ्तर में ही बैठकर एक-दूसरे से पूछते हैं कि ये कहां का सीन है। तो कोई कहता है दिल्ली का है। आज दिल्ली बंद है ना, भारत भी बंद है आज ! मैं शर्मिंदा होता हूं और खुश भी कि मेरे रास्ते में ये दिल्ली नहीं आती। मेरे रास्ते में तो एक हवाई दिल्ली आती है। ज़मीन पर पांव रखूं तो सीढ़ियां आती हैं और फिर आधे आकाश में सफर कर सीधा रिक्शे वाले के पास जा पहुंचता हूं जो शर्तिया दिल्ली का नहीं होता।  ये दिल्ली रहती किधर है भाई, मुझे इस दिल्ली से मिला दो कोई।

एक बार घर में बैठे तो बिहार से पापा का फोन आया कि ठीक तो हो। मैंने कहा, हां....आप ही ठीक नहीं लग रहे। तो बोले, टीवी पर दिखा रहा है कि दिल्ली में ब्लास्ट हो गया है। फिर मैंने दिल्ली के अपने कमरे में इंटरनेट पर देखा तो पता चला सचमुच दिल्ली में ब्लास्ट हो गया है। फिर मैंने पापा से कहा कि पापा दिल्ली बहुत बड़ी है और जहां ब्लास्ट हुआ है, वो दिल्ली तो मुझसे बहुत दूर है।
पापा खुश हुए और बोले अच्छा है उस दिल्ली से दूर ही रहो।

हालांकि, मैं जिस दिल्ली के करीब हूं, उसे देखकर भी पापा खुश होंगे, कहना मुश्किल है। हवाई चप्पल में ही सवेरे-सवेरे उठकर सबसे सस्ती फिल्म देखने का जुगाड़ दिल्ली ने ही सिखाया।  क्या ज़रूरी है कि रॉकस्टार देखने के लिए आप वीकेंड की किसी गोधूलि वेला में किसी के साथ का इंतज़ार करें। क्यों न ब्रह्म मुहूर्त में उठें (दिल्ली में ब्रह्म मुहूर्त 7-8 बजे को मान सकते हैं) और चल पड़े पास के मॉलनुमा मंदिर में दर्शन करने नरगिस फाख़री का। या फिर साहिब, बीवी और गैंगस्टर वाली माही गिल का।  40-50 रुपये में प्यार, ज़िंदगी का तमाम दर्शन जिन गद्दीदार कुर्सियों पर मिलता है, मेरी दिल्ली वहीं है। जहां मैं ख़ुद को कभी रॉकस्टार तो कभी दबंग समझने लगता हूं। अगर प्यार उलझन के अलावा कुछ नहीं है तो हिंदुस्तान का हर प्रेमी एक  'रॉकस्टार' है।

एक वक्त और पक्के तौर पर लगता है कि हम दिल्ली में ही हैं। जब छुट्टियों के मौके पर तीन महीने पहले भी घर जाने को सारे टिकट फुल हो जाते हैं और ज़िंदगी अटक-सी गई लगती है। तब लगता है दिल्ली एक वेटिंग रूम है जहां हर किसी को यहां से बाहर जाने का इंतज़ार है।

''जब हम बड़े होते हैं,
हमारे साथ बड़ी होती है उम्र...
और धुंधली होती है याद..
बीत चुके उम्र की...
हमारे साथ बड़ा होता है खालीपन....
छूट चुके रिश्तों का...
और बड़ा होता है खारापन,
आंसूओं का...
चुप्पियां बड़ी होती हैं,
और उनमें छिपा दर्द भी..
ये तमाम शहर बड़े होते हैं हमारे साथ...
हमारे-तुम्हारे शहर...
शहरों की दूरियां घटती हैं,
रिश्तों की नहीं घटती...''
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 12 नवंबर 2011

पटना..सॉरी..दिल्ली...सॉरी अमेरिका...बिहार की राजधानी है !!

मैथिली का आइटम लोकगीत (गाम के अधिकारी हमर बड़का भइया हो)
छठ पर इस बार बिहार जाकर ऐसा लगा कि हमारे गांव-कस्बों से सभी मर्द बिहार छोड़कर दिल्ली-मुंबई-पंजाब चले गए हैं और सिर्फ पर्व-त्योहारों पर मुंह दिखाने के लिए ही वापस लौटते हैं....इस आधार पर कहीं ऐसा न हो कि बिहार जाने के लिए आने वाले वक्त में हमें बिहार जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़े। और कहीं आने वाले वक्त में किताबों में कहीं हम ये न पढ़ें कि दिल्ली बिहार की राजधानी है (या फिर मुंबई)। मुझे हर घर का एक न एक आदमी बाहर ही नौकरी करता नज़र आता है। पहले भी ऐसा होता रहा है मगर फर्क ये आया है कि पहले मजदूरी के लिए लोग जाते थे और अब मजदूरों के बॉस बनकर भी जाते हैं।
'सामा-चकवा' की मूर्ति
दिल्ली में कल एक अलग तरह के कार्यक्रम में जाना हुआ। (मेरा पहला अनुभव था)। मंडी हाउस के पास त्रिवेणी ऑडिटोरियम में 'सामा चकेवा' कार्यक्रम का आयोजन था। दावे के साथ कहता हूं बहुत से बिहारियों को भी नहीं पता होगा कि इस नाम का कोई पर्व बिहार से ताल्लुक रखता है। नाम सुना भी होगा तो बाकी और कुछ भी नहीं पता होगा। छठ के बाद मिथिला के पूरे इलाके में भाई-बहनों का ये ख़ास पर्व कई दिनों तक 'खेला' जाता है। बचपन में गांव की बहनों को अक्सर सामा-चकवा की मूर्तियों के साथ गीत गाते देखा-सुना है मगर इस बार बिहार में भी सामा-चकेवा की उतनी धूम नहीं दिखी। दिल्ली आकर दिखी तो मन गदगद हो गया। वहां वरिष्ठ साहित्यकार और लोककर्मी मृदुला सिन्हा ने अपने किसी बरसों पुराने लेख का ज़िक्र किया जो उन्होंने बिहार से पलायन की स्थिति पर लिखा था। उस लेख का शीर्षक था...'दिल्ली बिहार की राजधानी है..'। मुझे लगा यही तो हम आज भी सोच रहे हैं और देख रहे हैं। कम से कम बिहार के मर्दों की राजधानी तो दिल्ली हो ही गई है। हां, बिहार की लड़कियों को दिल्ली भेजने में अभी भी दो-चार बार सोचा जाता है क्योंकि यहां का 'माहौल' अच्छा नहीं है।

ख़ैर, पर्व से खेल और अब खेल से भव्य समारोह तक का सफर करने वाले सामा चकवा (चकेवा, चकवा, चकबा सब एक ही हैं..) का दिल्ली में भव्य आयोजन देखकर सबसे अच्छा ये लगा कि आयोजन करने वाले लोग एकदम नई उम्र के थे। 25 से 30 साल वाले दर्जन भर बिहारी नौजवान। आधे लोगों से मेरा परिचय था और आधे से वहीं हुआ। युवाओं के हाथ में आयोजन का असर भी बड़ा ख़ूबसूरत दिखा। घर में पर्दे के पीछे या अकेले में औरतों के गाए जाने वाले मिथिला के लोकगीत दिल्ली के इस ऑडिटोरियम में ऐसे पेश किए जा रहे थे जैसे मुंबई या दिल्ली के चकाचौंध भरे माहौल में सुनिधि चौहान ''शीला की जवानी....'' या ''जलेबीबाई...'' गा रही हों।  सच कहूं तो मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। ये वही दिल्ली है जहां मेटालिका (कितने लोग इस बैंड से वाकिफ हैं, मुझे नहीं पता) का एक कन्सर्ट 2700 की टिकट पर आप देखने जाते हैं मगर हुड़दंग के डर से शो रद्द हो जाता है। लेडी गागा आती हैं तो धुएं वाली रातों को दिखा-दिखाकर टीवी वाले ऐसा समां बांधते हैं कि जैसे बस यही सुनकर हिंदुस्तानी संगीत को मोक्ष मिलना तय था। सामा चकेवा के 'आइटम लोकगीत' सुनकर न तो कोई शोर होता है और न ही इसका टिकट एक भी रुपये का है। फिर भी लोगों की भीड़ है, और समय पर तालियां बजती हैं। एक बार उन लोगों को भी त्रिवेणी का मुफ्त रुख ज़रूर करना चाहिए जिनके मन में बिहार का मतलब हिंदी और भोजपुरी फिल्मों में अक्सर बाज़ारू साज़िश के तौर पर फिल्माया जाने वाला एक फूहड़, निहायती बुद्धू (जिसकी बोली और लहजा देखकर सिर्फ हंसा या दुत्कारा जा सके), अधपका शहरी किरदार ही बैठा हुआ है। मैंने देखा कि दिल्ली की सभ्य सड़कों पर 'सामा चकवा' के गीत गाती महिलाएं चल रही थीं तो कारवाले रुककर फोटो खींच रहे थे, 'बिहारी' कहकर हंस नहीं रहे थे।   

क्या पता बिहार से निकलकर दिल्ली-मुंबई तक पलायन कर कब्ज़ा कर चुके लोग अमेरिका या लंदन के किसी शहर में भी इसी तादाद में नज़र आएं और वहां हमारा कलुआ (भोजपुरी लोकगीतों का नया रॉकस्टार, ज़्यादा जानने के लिए यूट्यूब की मदद ले सकतें हैं) ''कलुआ कन्सर्ट'' में इतनी भीड़ जुटाए कि हज़ारों डॉलर ब्लैक में टिकट बिकें।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

मुझे ये शहर तो ख़्वाबों का कब्रिस्तान लगता है..

जो पत्थर की तरह बस बेहिस-ओ-बेजान लगता है
वही चेहरा मुझे अक्सर मेरा भगवान लगता है..

हमारे गांव यादों में यहां हर रोज़ मरते हैं,
मुझे ये शहर तो ख़्वाबों का कब्रिस्तान लगता है..

ज़रा फुर्सत मिले तो देखिए उसको अकेले में,
वो गोया भीड़ में अच्छा-भला इंसान लगता है..

उजाले ही उजाले हों तो कुछ घर सा नहीं लगता..
अंधेरों के बिना भी घर बहुत वीरान लगता है..

मेरे ख्वाबो की गठरी को समंदर में बहा डालो,
मेरे कमरे में रद्दी का कोई सामान लगता है..

मैं किसको उम्र के इस कारवां में हमसफर समझूं.
मुझे हर शख्स बस दो दिन यहां मेहमान लगता है..

ज़रा मेरी तरह पत्थर पे सजदे करके भी देखे
जिसे भी इश्क नन्हें खेल सा आसान लगता है....

मैं ज़िंदा हूं तुम्हारे बिन, यक़ीं ख़ुद भी नहीं होता,
यहां पहचान साबित ना हो तो चालान लगता है..

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 26 सितंबर 2011

हर एक सम्मान ज़रूरी होता है....

24 सितंबर की शाम यादगार थी। दिल्ली के हिंदी भवन में एक सामाजिक संस्था 'अंजना' ने अपने सालाना साहित्यिक कार्यक्रम के दौरान पांच युवा रचनाकारों को सम्मानित किया। तीन कहानीकार विवेक मिश्र, मनीषा कुलश्रेष्ठ और दो कवि विपिन चौधरी, निखिल आनंद गिरि (यानी मैं)। दिल्ली में किसी मंच पर कविताओं के लिए सम्मान लेने का ये पहला मौका था। अच्छा लगा। कुछ तस्वीरें बांट रहा हूं, अपने ब्लॉग के दोस्तों के लिए....आपको भी अच्छा लगेगा।
 मैं, मशहूर कथाकार मैत्रेयी पुष्पा और सम्मान.. 

कविताओं के लिए दाद देतीं मैत्रेयी

मंच पर (बाएं से) युवा आलोचक दिनेश, कथाकार मैत्रेयी पुष्पा, कथाकार और संपादक प्रेम भारद्वाज, युवा कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ, युवा कथाकार अनुज

ज़रा फोटो छप जाने दे...

कार्यक्रम में मौजूद दर्शक..सबसे आगे मि. एंड मिसेज़ प्रेमचंद सहजवाला, जिनकी फुर्ती से उम्र का पता ही नहीं चलता..

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

कहीं बीच में जो रुकी है कहानी...

राशि मेरी ज़िंदगी में थोड़े वक्त के लिए ही आई....आप हमारे छोटे-से रिश्ते को दोस्ती कह सकते हैं या ज़्यादा समझ रखने वाले प्यार भी समझ सकते हैं...अगर ये प्यार है, तो मुझे प्यार कई बार हो चुका है...(प्रेमिकाएं मुझे गालियां दे सकती हैं...)..जिस तरह अचानक ज़िंदगी में आई, चली भी गई...हमारी मुलाकात न तो दोबारा हुई और न ही ऐसी कोई संभावना है...फ्रेंडशिप डे के ठीक पहले अचानक एक चिट्ठी आई तो सोचा यहीं शेयर कर लूं...बहुत दिन हुए, दिल्ली में किसी से इतना प्यार पाए...अगर आप भी किसी अच्छे दोस्त को याद करना चाहते हैं तो टूटी-फूटी नज़्म ही लिख कर भेज दें....प्यार में डूबे हर कच्चे-पक्के शब्द को नोबेल दिया जाना चाहिए..दिल से ही सही..

प्रिय निखिल,

आपसे वादा किया था कि आपके लिए कुछ लिखेंगे, तो बस आँखें बंद करके कुछ यादें इकठ्ठा करके, उनको तोड़ मरोड़ के, एक कविता लिखने का प्रयास किया मैंने... लिखते चले गए, ख्याल आया काफी लम्बी हो गयी है कविता पर कहने को अभी भी काफी कुछ बाकी है...जो कहना बाकी है वो आपको पता है और हमको भी तो फिर कहने की क्या ज़रुरत और फिर कुछ बातों सिर्फ हम दोनों के बीच राज़ है, वह मैं औरों से बांटना नहीं चाहती...आशा है आपको पसंद आएगा ये प्रयास...

ऐसे तो और भी बहुत कुछ है लिखने को,
लेकिन जिस पर लिखने जा रही हूं, वो भी कुछ कम नहीं है...
आज ही सवेरे फिर मिल गया...
जब भी मिलता है मुझको,
अपने आप से मिलवा देता है....
ऐसे बड़ा ज़िंदादिल है मगर,
कहीं कुछ छिपा है...

कॉलेज के एकमात्र खंडहर-से पुस्तकालय में.
चुड़ैल-सी शक्ल बनाए बैठा था वो..
जैसे निखिल आनंद गिरि नहीं हिंदी का रचयिता हो...
ऐसे हर वक्त ऐँठता है वो...
मौका मिलते ही शेखी बघारने से बाज़ नहीं आते जनाब,
उनके हिसाब से दुनिया में उनको छोड़कर बाक़ी सब हैं ख़राब
इन सब के पीछे मगर एक शांत, थोड़ा शैतान-सा बच्चा है...
उस काली कलूटी शक्ल के पीछे मगर जो दिल है, वो अच्छा है....

दोस्ती करमे में तो माहिर हैं हुजूर,
दिल तोड़ने का फन भी जानते हैं ज़रूर
इतना सोचते हैं कि ख़ुद को खो दिया है...
कोई पूछ ले कान ऐंठ के..
मुंह फुला के कहता है 'मैंने क्या किया है...'

अंग्रेज़ी अच्छी है लेकिन अंग्रेज़ी से ख़ास लगाव नहीं है...
उनके हिसाब से नदी का आजकल सीधा बहाव नहीं है...
एक वो है बाहर से तो दुनिया से रुठे हुए-से हैं...
पर लगता है जनाब अंदर से ख़ुद टूटे हुए-से हैं...

पीछे पड़ जाना इनकी आदत में शामिल है,
और बात का बतंगड़ बनाने में इन्हें महारत हासिल है...
मिट्टी की खुशबू आती है जब भी ये बोलते हैं,
न जाने अनजाने में ये ऐसे कितनों के पोल खोलते हैं...

एक रास्ता मुझे भी दिखाया था कभी,
वहीं भूल आयी थी अपना एक हिस्सा
याद आया अभी...

एक दुनिया दिखाई थी उम्मीद की,
सपनों की और  विश्वास की...
आज वही उम्मीद, सपने और विश्वास...
वजह हैं हमारी सांस की....

सिखाया था मुझे विश्वास करना अपने ख़्वाबों पर,
सिखाया था मुझे दिल जीतना किसी का सिर्फ बातों पर....

आज देखती हूं तो लगता है,
अपनी ज़िंदगी की ही एक ख़ूबसूरत झांकी है..
हां, तुम ठीक कहते थे निखिल आनंद गिरि
सिर्फ नाम ही काफी है...

राशि

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

हम भी कई रोज़ से जिए ही नहीं...

तमाम राहें जो हमारी न हुईं...

तमाम किस्से जो हमारे न हुए...

और वो चेहरे जो अजनबी ही रहे...

छोड़ आएंगे कहीं धोखे से....


अपनी ही छत पे सभी चांद उगें,

अपने उजालें हों, सूरज भी सभी...

आसमां पर हो सिर्फ अपना हक़...

ज़िंदगी नज़्म से भी हो सुरमई...


एक कप चाय जो कभी पी नहीं

और वो गीत जिनकी धुन भूले

एक वो ख़त जिसमें अधूरा-सा कुछ

उस एक शाम....सब बांटेगे हम...


एक तारीख में लिपटी हुई यादें सारी

एक मुस्कान में लिपटे हुए सब मौज़ूं...

तेरी नाराज़ नज़र, मेरी गुस्ताख ज़बां...

सब अदालत तेरी, गुनाह सब मेरे..


जैसे जन्नत मिले है मौत के बाद..

तुझसे मिलना है कई साल के बाद

तुझसे मिलकर ही मेरे सरमाया

तय करेंगे इस रिश्ते की मियाद...


आओ कि इस शहर में जान आए

हम भी कई रोज़ से जिए ही नहीं....

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 9 जुलाई 2011

मेट्रो में पिता

मेरे पिता जब मेट्रो में होते हैं...


तो उनकी नज़रें नीची होती हैं..


एक दुनिया जो छूटती जाती है मेट्रो से..

एक मीठी आवाज़, एक गंभीर आवाज़...

बताती है उन स्टेशनों के नाम....

‘अगला स्टेशन प्रगति मैदान’


पिता उन आवाज़ों से अनछुए..

निहारते हैं प्रगति मैदान के नीचे

एक गंदी बस्ती है शायद..

मुस्कुराते हैं पिता....

शायद याद आया हो गांव..

और बर्तन मांजती एक औरत...

शायद याद आए हों गांव के लोग....

जो नहीं दिखते कहीं मेट्रो में....


सब उदास लोग, सब अकेले...

और सबसे अकेले पिता..

जिनके मेट्रो में भी गांव है...

और शायद संतोष भी..

कि मेट्रो दिल्ली में ही है....

वरना गांव भी उदास हुआ करते...


निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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