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गुरुवार, 15 अगस्त 2013

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है..

‘’1947 में भारत का बंटवारा इसलिए नहीं हुआ कि भारत की नियति के बारे में हिंदुओं और मुसलमानों के पास अलग-अलग ठंडे तर्क थे और वैज्ञानिक दृष्टियां थीं। वह इसलिए हुआ कि दोनों कौमों के जुनून अलग होते गये, आधी रात के सपने अलग होते गये, और उनके मिथक-विश्व वक्र और विपरीत बनते गये। अंधेरे में घट रहे इस रहस्यमय रसायन को निश्चय ही दिन भर की घटनाओं ने मदद पहुंचायी। दिन की घटना यह थी कि सिंहासन पर भारतवायों के बैठने का दिन नज़दीक आ रहा था। और रात का आतंक यह था कि इस सिंहासन पर कौन बैठेगा और कैसे बैठेगा ?’’

(राजेंद्र माथुर के लेख ‘’गहरी नींद के सपनों में बनता हुआ देश) का हिस्सा)

14 अगस्त को देश की राजधानी दिल्ली में कई जगहों पर झंडे फहराए गए। कई जगह तुड़े-मुड़े, मैले-कुचैले झंडे थे तो कई जगह राष्ट्रगान की जगह कोई और फिल्मी या देशभक्ति गाना बजाकर औपचारिकता पूरी कर ली गयी। एक ‘फंक्शन’ में तो मैं भी था जहां जो लोग झंडा फहरा रहे थे, क पीछे झुग्गी में रह रहे कुछ लोग अपना कामधाम छोड़कर ये सब ऐसे देख रहे थे जैसे उनके इलाके में बड़े दिन बाद मनोरंजन के लिए कोई तमाशा हो रहा हो। फेसबुक पर इसको लेकर स्टेटस डाला तो कई लोगों ने बताया कि ऐसा कई स्कूलों में होता रहा है कि 15 अगस्त की ‘छुट्टी’ की वजह से 14 तारीख को ही आज़ादी मना ली जाती है। मुझे 14 अगस्त को झंडा फहरा लिए जाने से कोई आपत्ति नहीं है। रोज़ ही फहराइए, मगर उस आज़ादी का मतलब ही क्या, जिसमें हम 15 अगस्त की सुबह देश की राजधानी में सुरक्षा के नाम पर खुलेआम घूम ही नहीं सकें, पूरी पुलिस और ट्रैफिक एक लालकिले का सालों साल पुराना और बोरिंग सरकारी फंक्शन कराने में खर्च हो जाए। अगर स्कूल-कॉलेजों में 14 अगस्त को ही झंडा फहराकर काम ‘निपटा’ लिया जाना है तो 15 अगस्त को सरकारी और 14 अगस्त को आम लोगों की आजादी का दिन घोषित कर दिया जाना चाहिए। अगर सुरक्षा सचमुच इतनी बड़ी समस्या है तो रात के बारह बजे ही क्यों नहीं समारोह मना लिए जाएं। आखिर आज़ादी का असली जश्न भी तो हमने रात ही में मनाया था।

उन झंडों को उतार फेंकना चाहिए जिन्हें कोई तानाशाह अपनी नापाक नज़र से घूरता है, सलाम करता है, हमें झूठी उम्मीदें देता है, चुनाव करीब आने पर हमारी सड़कें पक्की करवाता है, हमारी नालियां बनवा देता है और फिर हमें नाली का कीड़ा समझने लगता है। हम उसे खुशी-खुशी सत्ता का नज़राना सौंपते हैं। क्या आजादी सिर्फ वीआईपी लोगों की सरकारी फाइलों में झंडे के साथ फोटो खिंचवाने के लिेए कर्फ्यू लगा देने का दिन है। कोई देश अगर आगे न बढ़े तो थोडे दिन ठहरकर, चुप रहकर इंतज़ार किया जा सकता है । मगर कोई देश लगातार पीछे जाता दिखे, विकल्पहीनता की स्थिति में जाता दिखे तो फिर गुस्से में गालियां बकने की आज़ादी तो मिलनी ही चाहिए। विकल्पहीनता ऐसी कि देश शब्द कहते ही आप सांप्रदायिक समझे जाने लगें। हद है कि हम मजबूर हैं कि हमें एक उल्लू और भेड़िए में से ही किसी को जंगल का राजा चुन लेना है। विकल्पहीनता ऐसी कि प्राइवेट, सनसनीख़ेज़, तीसमारखां, सबसे तेज होते हुए भी तमाम अख़बारों और चैनलों को सब कुछ रोककर एक घिसे-पिटे भाषण का सीधा प्रसारण करना ही पड़ता है। राज्यों की असली तस्वीर के बजाय झांकियां ऐसी कि जैसे धो-पोंछ कर घर के बक्से से कोई पुरानी तस्वीर देख रहे हों। हद है। तेलंगाना, कश्मीर, झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, गुजरात को छूट दीजिए हुक्मरानों और फिर देखिए कैसी-कैसी झांकियां आपकी खिदमत में पेश होती हैं। दिल्ली को ही छूट देकर देख लीजिए।

आइए आजादी के मौके पर शर्म करें कि हम एक ऐसे मुल्क में रहते हैं जहां सबसे बड़ी आबादी युवाओं की है और फिर भी हम मान चुके हैं कि हमारी तरक्की प्रॉपर्टी डीलर्स के हाथ में है, घटिया हुक्मरानों के हाथ में है और अब इसका कुछ नहीं हो सकता। आइए 52 सेकेंड के राष्ट्रगान के बजाय दो मिनट का मौन रखें कि हमारे आगे जो कुछ ग़लत होता है, हम वहां सिर्फ मौन रह जाते हैं, भीतर-भीतर मरते जाते हैं। शर्म करें कि जो कुछ हमारे सामने होता है, उसके लिए सिर्फ और सिर्फ हम ही ज़िम्मेदार हैं। आइए शर्म करें कि हम वैसे हिंदू हैं जो देशभक्ति के नाम पर दिन-रात पाकिस्तान को गालियां देते हैं और देश के कोने-कोने में हमारी नफरत झेलता एक ‘मिनी-पाकिस्तान’ बसता है। आइए शर्म करें कि जिस तिरंगे को हम अपना झंडा कहते हैं उसके तीन रंगों के नाम हम अपनी मातृभाषा में लिख-बोल नहीं सकते। आइए शर्म करें कि हमें अब किसी बात पर शर्म नहीं आती। न विदेशी, न स्वदेशी..भिन्न-भिन्न प्रदेशी। ै .


राजेंद्र माथुर के शब्दों में -
‘’यह ज़रूरी नहीं कि देर रात के गहरे सपने स्वदेशी ही हों। वे मूलत: विदेशी हो सकते हैं, लेकिन फिर भी राष्ट्रीयता के जन्म और विकास में सहायक हो सकते हैं। इसलिए यह ज़रूरी नहीं कि भारत के अवचेतन-विश्व में सिर्फ रामायण और महाभारत ही हों। करबला और हुसैन भी हमारे मिथक-विश्व के अंग हो सकते हैं, और हिंदुओं को भी उनके सपने आ सकते हैं। जब सिंहासन के प्रश्न नहीं थे, तब ईद और ताजिए क्या हिंदू भागीदारी के त्योहार भी नहीं बनते जा रहे थे? आजकल की तरह नेताओं और अग्रणी नागरिकों की दिखाऊ फोटो खिंचाने वाली भागीदारी नहीं, बल्कि रेवड़ी वालों और कारीगरों की ईमानदार भागीदारी। क्या सारे ताजिए ठंडे कर, सारी मूर्तियों को तोड़कर और सारे सलीबों को जलाकर ही हिंदुस्तान बन सकता है?’’

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

माई गे माई..एफडीआई..

आई रे आई, एफडीआई...
माई गे माई, एफडीआई..
दादा रे दादा, एफडीआई..

हथिया पे आई..
साइकिल पे आई..
लल्लू के, कल्लू के
दुर्दिन मिटाई..
आई रे आई, एफडीआई..

बटुआ में आई,
जै काली माई
व्हाइट हाउस वाली
काली कमाई..
आई रे आई, एफडीआई...

अमरीकी राशन
जियो सुशासन
खेती लंगोटी में
बिक्री में टाई..
आई रे आईएफडीआई...

खुदरा किराना..
डॉलर खजाना..
चड्डी में, टट्टी में
सोना हगाई..
आई रे आई, एफडीआई...

उठा के कॉलर,
घूमेगा डॉलर..
खेलेगा रुपिया,
छुप्पम छुपाई
आई रे आई, एफडीआई...
 
माया रे माया
नाटक रचाया
दद्दा मुलायम
चाभो मलाई..
आई रे आई, एफडीआई..
समाजवाद माने एफडीआई...
दलितवाद याने एफडीआई...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 22 जनवरी 2012

पांड़े जी की प्रेमकथा और गांधी जी से सहानुभूति

कुछ लोग कहते हैं कि घर चलाना देश चलाने से भी ज़्यादा मुश्किल है। देश में आजकल कुछ भी अच्छा चल नहीं रहा। मां घर बहुत अच्छा चला लेती है। अगर मेरी मां के पास डिग्रियां होतीं तो वो शायद देश की राष्ट्रपति भी बन सकती थीं। अगर स्कूल में बच्चे बढ़ने लगें तो टीचर बढ़ा दिए जाते हैं। ज़्यादा टीचर ही नहीं, क्लास के भीतर भी दो-तीन मॉनिटर होते हैं। फिर देश तो इतना बड़ा है। जब मुल्क की आबादी तीस करोड़ थी तब भी देश में एक ही प्रधानमंत्री था। अब जब आबादी चार गुना बढ़ी है तो प्रधानमंत्री चार क्यों नहीं हुए। इतने बड़े देश में क्या आपको एक प्रधानमंत्री एक-चौथाई प्रधानमंत्री की तरह नहीं लगता। आप इसे किसी पार्टी के खिलाफ या पक्ष में चुनाव प्रचार का हिस्सा मत समझिए। इससे पहले कि चुनाव आयोग कोई कार्रवाई करे, मैं हाथ को दस्ताने से ढंककर घूमता हूं। भला हो दिल्ली की इस सर्दी का। वैसे, मेरा विचार है कि हाथी-बैल की मूर्तियां ढंकने से अच्छा, गांधीजी की ही मूर्तियां ढंक दी जाएं। सब प्रचार-दुष्प्रचार तो उन्हीं के नाम पर होता है और इतनी ठंड में भी उघाड़े बदन खड़े रहते हैं चौक-चौराहे पर।


मेरे एक दोस्त हैं। पांड़े जी। बड़े उदास, अकेले और अलग-थलग रहने वाले इंसान। इंटरनेट की दुनिया से कोसों दूर थे। हमने एक दिन चिकेन के लालच में उनके यहां वक्त गुज़ारा और फेसबुक का नया नया चस्का लगा दिया। तीन दिन बाद पूछा कि कैसे हैं पांड़े जी। तो बोले कि भाई आप महान हैं। इतने सारे दोस्त मिल गए हैं कि और कुछ सोचने का टाइम ही नहीं बचता। फिर शरमाते हुए बोले कि एक कन्या भी मिल गईं हैं फेसबुक पर। बस बात बढी ही है। मैंने कहा, मिल भी आइए। बोले, नहीं मिलने का कोई चांस नहीं। पासपोर्ट बनाना होगा। दो दिन बाद फिर फोन किया तो पता चला पासपोर्ट ऑफिस के पास खड़े हैं। फटाफट पासपोर्ट वाला जुगाड़ ढूंढ रहे हैं। सात दिन में पासपोर्ट हाथ में और फिर विदेश। हमने कहा कि विदेश जाने से पहले हमारे नाम पर एक मुर्गी की कुर्बानी तो बनती है। संडे को मुर्गी खाने पहुंचे तो देखा न मुर्गी है न पांड़े जी का रोमांटिक मूड। हमने पूछा क्या हुआ तो बोले कि अरे यार, ई फेसबुक अकाउंट डिलीट कर दीजिए हमारा। साला, बहुत गड़बड़ चीज़ है। एक हफ्ता टाइम बरबाद हो गया। जैसे ही प्रोपोज किए, ब्लॉक कर दिया हमको। हद्द है, बताइए, हम कोई ऐसा-वैसा आदमी हैं क्या। अगर कोई और है तो बता देती। हमको रोज़ चैट पर एतना टाइम क्यों देती थी। चूंकि पांड़े जी मुर्गी अच्छी पकाते थे, तो हमने उनका हौसला बढ़ाया और कहा, ‘’पांड़े जी, फेसबुक के आगे जहां और भी है...’’..

बहरहाल, पांड़े जी ने ठान लिया है कि अब इस फेसबुक पर अपनी प्रेम कथा की हैप्पी एंडिंग ढूंढ कर ही रहेंगे। हिंदुस्तान न सही, पाकिस्तान में ही सही। फेसबुक पर क्या पंडित, क्या मौलवी, सब एक ही स्टेटस के चट्टे-बट्टे हैं। यूं भी इस देश में धर्मनिरपेक्षता का आलम ये है कि 22 कैरेट पंडित के घर में भी बच्चे सलमान, आमिर या शाहरुख ख़ान बनने का सपना देखते हैं और मांएं फिर भी खुश होती हैं।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 28 अगस्त 2011

लोकतंत्र का अगला भाग...अंतराल के बाद

13 दिनों तक किसी सुपरहिट फिल्म की तरह हाउसफुल' चले अन्ना के 'सेलेब्रिटी' आंदोलन का ऐसा सुखांत (happy-ending) शायद पहले से ही सोचकर रखा गया था। आंदोलन की शुरुआत में जिस तरह के तेवर सरकार के थे, संसद की एक बहस में ही सब ऐसे मान गए कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। पूरी संसद में कोई मतभेद ही नहीं दिखा। क्या वाकई ये लोकतंत्र में संभव है, पता नहीं।
एक दलित और एक मुसलिम परिवार की बच्ची आती है और भगवान बन चुके अन्ना को दिल्ली जल बोर्ड का पानी पिलाकर अनशन तुड़वाती है। इसे फिल्मों की भाषा में poetic justice कह सकते हैं। यानी सबको खुश करने की कोशिश। मगर, लोकतंत्र इसमें भी नहीं दिखता। एक पूर्वनियोजित, सुसंयोजित, राजनैतिक कार्यक्रम ज़रूर दिखता है, जैसा कि लोकप्रिय मंच संचालक कुमार विश्वास अन्ना के मंच से बार-बार कह भी रहे थे।
ख़ैर, एक ग़रीब गांव के अन्ना ने जिस तरह से मेट्रो भारत की राजधानी दिल्ली में 13 दिनों तक समां बांधे रखा, वो काबिलेतारीफ है। एक युवा होने के नाते देश के बहरों को आवाज़ सुनाने के लिए किसी भी तरह की गूंज में शामिल होना बुरा नहीं है, मगर सवाल ये है कि क्या ये सिर्फ एक कार्यक्रम भर था, जिसकी तारीख और रूपरेखा पहले से तय थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि अब संसद के बजाय एनजीओ और दूसरे गुट सरकारें चलाएंगे। इस पर भी सोचना ज़रूरी है, नहीं तो डेमोक्रेसी की म्यूज़िकल चेयर के खेल में जो आखिर में हमेशा खड़ा रह जाएगा, वो हम-आप ही होंगे...

पहले गालियों में आती थी बहन-माएं...
आजकल आती हैं नारों में...
वंदे मातरम...

राजधानी में बढ़ गए हैं देशभक्त,
बढ़ गए हैं बुद्धिजीवी...
कार्यक्रमों की तरह आंदोलन भी...

वो मेट्रो में चढ़कर आते हैं
और एसी बसों में भी...
अधूरा काम छोड़कर दफ्तर का...
लड़कियां आती हैं बहाने छोड़कर..
सुना है स्वादिष्ट मिलते हैं गोलगप्पे
रामलीला मैदान में...
जहां होते हैं रोज़ आमरण अनशन

अदालतों में घिस गए हाथ...
घिस गए पन्ने,
गीता-कुरान के...
सच बोलने की झूठी कसमें खा-खाकर
अब कानून से बनेंगे इमानदार...
लोकतंत्र की सब बैसाखियां हमारे लिए...

सब रहनुमा हमारे लिए,
हमारे लिए सब बेईमान,
सब तालियां, सारे जयघोष
हमारे लिए सब भगवान...

सड़कें जाम, लब आज़ाद...
फिर आया पचहत्तर याद...
लोकतंत्र का अगला भाग..
छोटे से अंतराल के बाद...

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

26 जनवरी की झांकी का ब्लॉग प्रसारण LIVE


दो साल पहले हमारे दोस्त हार्दिक ने अंग्रेज़ी में ये मेल भेजा था। तब हम हिंदी के नाम पर कमाने-खाने वाली एक इंटरनेट संस्था से जुड़े हुए थे। उसी के ब्लॉग पर इस मेल का हिंदी अनुवाद छपा था, जिसे फिर से अपने निजी ब्लॉग पर शेयर कर रहा हूं...लेख के संदर्भ थोड़े पुराने लग सकते हैं, मगर सवाल वही हैं...आप चाहें तो अपने ब्लॉग पर भी इसे शेयर कर सकते हैं...दो कौड़ी के एसएमएस भेजकर देशभक्त बनने से बेहतर उपाय बता रहा हूं...इस पोस्ट के नीचे एक कविता भी है, पढ़ी जा सकती है...


गणतंत्र दिवस की परेड और झांकियां देखकर मेरा देशभक्त मन भी कुछ सोचने लगा.....सरकारें पांच सालों के लिए आती हैं (हालांकि ऐसा होना भी दुर्लभ ही है)....वही मंत्री, वही संतरी, वही परेड....बोर तो हो ही जाते होंगे पांचवा साल आते-आते....मुझे लगता हैं कि मुश्किल से मिली छुट्टी में टेलीविजन पर अपना कीमती समय ऐसे खर्च नहीं किया जा सकता....कुछ तो बदले भाई...

दिल्ली के राजपथ पर झांकिया तो निकलें मगर ज़रा हट के....चार सालों में जिस अवाम को सरकार नज़रअंदाज़ करती रही, पांचवे साल उनकी झांकी लगनी चाहिए....दर्शक दीर्घा में भी कैबिनेट और नौकरशाहों के अलावा कुछ और कुर्सियां लगायी जायें, जिनमें बिज़नेस व कारपोरेट के मसीहा बैठें....झांकियों में बेहद तैयारी के साथ हो रहे नाच-गाने में भी ज़रा सी तब्दीली आनी चाहिए....बदलनी चाहिए सीधा प्रसारण कर रही आवाज़ें भी...कुछ इस तरह से....

राष्ट्रपति भवन के दूर के छोर से मैं देख सकता हूं कि भोपाल गैस त्रासदी के शिकार चले आ रहे हैं...अद्भुत क्षण हैं...टेढी-मेढी शारीरिक संरचना, खून की बीमारियों और मानसिक रोगों से ग्रस्त असंख्य लोग....चूंकि, गणतंत्र का सबसे ख़ास अनुभव इन्होंने बटोरा है, तो पहली झांकी इनकी....आगे और भी मनोरम झांकिया हैं, जो आपका दिल गर्व से भर देंगी...वाह ! क्या बात है...

कैमरा अब कॉरपोरेट मसीहाओं की और घूमता है, फिर ज़रा-सा पैन करता है उन कुर्सियों की तरफ जो स्वास्थ्य मंत्रालय और मध्य प्रदेश सरकार के लिए आरक्षित है....

कमेंटरी चालू है-

मै देख पा रहा हू कि लंबे सफेद लिबासों में पूरी तरह से नग्न अवस्था में कुछ महिलाएं चली आ रही हैं...वो आर्म्ड फोर्स एक्ट में संशोधन या समाप्ति जैसे नारे भी लगा रही हैं.....मणिपुर की यह झांकी ऐतिहासिक भी है और मनोरम भी...वाह! क्या बात है...

कैमरा मुड़ता है सेना प्रमुख की तरफ, रक्षा मंत्री की तरफ और मुस्कान बिखेरते नॉर्थ इस्ट के अधिकारियों की तरफ....परेड जारी है और कमेंटरी भी....

अगली झांकी कुछ मैले-कुचैले लोगों की हैं....मैं अनुमान से कह सकता हूं कि ये केरल के एक गांव के किसान हैं, जो अपने गांव में कोका कोला का प्लांट लगाये जाने का विरोध कर रहे हैं.....उनके हाथ में कुछ बैनर तो हैं, मगर दिल्ली के अफ़सरों की कुछ समझ में नहीं आ रहा....क्षमा करें, मुझे भी कुछ समझ में नहीं आ रहा....वो इस बार भी चुपचाप दिल्ली के राजपथ से गुज़र जायेंगे, यूं ही....

अब हल्की-हल्की धूप बढने लगी है.....कैमरा पर्यावरण मंत्री की ओर घूमता है, जो कोका कोला पीकर गला तर कर रहे हैं....बीच-बीच में उठ-उठ कर किसानों को हाथ उठाकर अंगूठा भी दिखा रहे हैं.....

और अब अगली झांकी गुजरात से....गोधरा और आसपास के इलाकों से हुजूम शामिल है...और इन खूबसूरत घावों को देखिए, जो कभी नही भरने वाले...(कैमरा घावों के थोड़ा और नज़दीक जाता है)...ये दृश्य कभी नहीं भूले जा सकते....घाव अंदर से रिस रहे हैं.....राजपथ लाल हो गया है....सब प्रधानमंत्री को सलामी देते आगे बढते हैं.....

कैमरा अब भीड़ की तरफ घूम गया है, जो पूरी झांकी का आनंद ले रही है....गुज़रात के मुख्यमंत्री कुछ उद्योगपतियों के कान में फुसफुसा रहे हैं....उद्योगपति मुस्कुरा रहे हैं.....सब खुश हैं....ये खूबसूरत नज़ारा कभी-कभी ही नसीब होता है....वाह! क्या बात है.....”

कमेंटरी जारी है-

देवियों और सज्जनों, यह असली भारत की असली झांकी है....अद्भुत, अविश्वसनीय!! झांकी में आगे कुछ खनिज मजदूर हैं, अल्पसंख्यक भी और ओड़िशा या झारखंड के आदिवासी हैं.....ओड़िशा त्याग और सहनशीलता का राज्य रहा है.....इस राज्य ने हमेशा अपनी ज़मीन लुटाई है और खुद को गौरवान्वित महसूस किया है....ये भी बताते चलें कि हालिया सर्वेक्षण में सबसे “लुटे-पिटे” राज्यों की सूची में यही राज्य अव्वल आया है....हम ओड़िशा को उसकी इस उपलब्धि के लिए सलाम करते हैं.....

कैमरा अब ओड़िशा के राज्यपाल की तरफ पैन करता है, जो एक बुलेटप्रूफ़ कैबिनेट में बैठे हैं और लोगों को हाथ दिखा रहे हैं.....मुझे लगता है वो कुछ चेहरों को पहचान गये हैं......उनके अंगरक्षक भी बंदूक ताने हैं और मुस्कुरा रहे हैं.....

"और अब मैं......मैं क्या....हे भगवान....पूरी दर्शक दीर्घा स्तब्ध है........राजपथ की सड़कों पर मुंबई की एक लोकल ट्रेन आती दिख रही है.....इस ट्रेन की रफ़्तार बहुत कम है.....मैं देख रहा हूं कि 1500 लोगों की क्षमता वाली इस ट्रेन में 7000 लोग हैं.....हर दरवाज़े से लोगों की टांगें बाहर दिख रही हैं....कुछ लोग इसकी छत पर भी चढ़ गये हैं....खिड़कियों से झोले और बैग लटके हुए हैं.....विकलांगों का डिब्बा भी खचाखच भरा है.....

इस झांकी को देखकर विदेश से आये कुछ मेहमान दर्शक अचंभे में हैं....वो तालियां पीट रहे हैं....

और अब झांकी एक हैरतअंगेज क्लाइमेक्स की तरफ बढ़ रही है.....ट्रेन की रफ़्तार बढ़ी है....कुछ लोग ट्रेन से बाहर गिर गये हैं.....पूरा देश तालियां बजा रहा है.....वाह!! क्या बात है.....सचमुच भारत जादूगरी का देश है.... मुझे अरविंद अडिग की याद आ रही है....उनकी किताब के कुछ पन्नों से यह दृश्य मिलता है......मुझे आशा है कि आप अरविंद अडिग को जानते हैं, जिन्होंने इस साल का बुकर जीता है.... "

तो, ये था दिल्ली में आयोजित परेड का सीधा प्रसारण.....आशा है आपने झांकी का भरपूर मज़ा लिया होगा...ये सिर्फ झांकी थी, इसीलिए परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं....आशा है कल से फिर आपकी ज़िंदगी रफ़्तार पकड़ लेगी....आप हर रोज़ की तरह कदमताल करने लगेंगे....

जय हिंद......जय हो.....

हार्दिक मेहता
 
(हिंदी में अनुवाद : निखिल आनंद गिरि)

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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