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शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

चिरईं का दाना

चिरईं ने बहुत ही मशक्कत और मेहनत के बाद पाया था
दाल का एक दाना
वह दाना भी जा गिरा था
दुर्भाग्य से
एक खूँटे की दरार में
उसने दाना को दुबारा पाने के लिए
की पहले ख़ूब आरजू -मिन्नत
खूँटे से ही
पर जैसा कि अक्सर होता है
वह खूँटा भी
बेईमान निकला
चिरईं पाने के लिए इंसाफ़
बढ़ी आगे और एक बढ़ई से कहा कि
खूँटे को दंडित करो
ताकि मिले मेरी मेहनत का दाना
जो अपने धारदार वसूले से
काट रहा था
गुट्ठल -गिरहदार लकड़ी
बढ़ई भी गया मुकर
फिर क्या था चिरईं ने
बिना देर किए
राजा के दरबार में लगाई गुहार
राजा ने भी बढ़ई को
बक़्श दिया
उसे दंडित करने की बात तो
बहुत दूर की बात थी
चिरईं राजा की फ़रियाद लेकर
रानी के पास गई
रानी भी चुप रहीं
राजा के नाम पर
चिरईं बहुत आक्रोश में थी
वह पहुँच गई फन काढ़े
गेहुँअन साँप के पास
कहा कि रानी ने इंसाफ़ नहीं किया
पूरा सुनाया पिछला क़िस्सा
कहा उससे कि रानी को डँसो
ताक़ि खुले राजा की
आँखों की पट्टी
मिले मेरा इंसाफ़
साँप भी सच में दोमुँहा ही हुआ
साबित
अनसुनी कर दी
चिरईं की बात
चिरईं अब पहुँची डंडे के पास
कहा उससे पिछला हाल
डंडे को कहा कि
मेरे साथ आओ
इंसाफ़ पाने की मुहिम में
हो जाओ शामिल
चलकर पीटो
फन काढ़े गेहुँअन साँप को
डंडा भी डरा हुआ था
बेबस था
था लाचार
किसी ताक़तवर या दबंग के इशारे पर ही
चलता था
करता था किसी पर
वार पर वार
इतने के बाद भी चिरईं
न रुकी
न विचलित हुई
न तनिक निराश
इंसाफ़ पाने की उसकी इच्छा
होती गयी बलवती
वह आगे
आग के पास गयी
और पूरा वृतांत सुनाकर
डंडे को भस्मीभूत कराना चाहा
पर आग में शेष नहीं बची थी
आग
आग के ख़िलाफ
चिरईं गयी समुद्र के पास
समुद्र चुप रहा
दिखा तटस्थ
चिरईं के पास राजा राम की तरह
तीर-धनुष नहीं था
कि वह डरता
चिरईं ने बिना विश्राम के
जारी रखा
अपना सफ़र इंसाफ़ का
वह विशालकाय श्यामवर्ण हाथी के पास
जाकर बोली
कि चलो सोख लो
बेईमान और जड़बुद्धि समुद्र को
जैसा कि चलन था
उस दौर में
किसी बेबस...
ग़रीब के लिए पाना इंसाफ़
था बेहद मुश्किल
हाथी भी भाग खड़ा हुआ ... तो
चिरईं गयी जाल के पास
जाल भी पड़ा रहा
निश्चेष्ट ...
अंत में थक -हारकर चिरईं गयी
एक निबल चूहे के पास
चूहा सहर्ष तैयार हो गया
बिना वक़्त गँवाये
कहा चलकर काटेंगे
जाल को
गुदरी -गुदरी बना डालेंगे
कमबख़्त को...
उसकी बता देंगे
औकात
फिर तो चूहे से डरकर
जाल ने कहा कि
छानेंगे विशालकाय श्यामवर्ण हाथी को
हाथी तैयार हुआ जब डरकर जाल से
सोखने को समुद्र
तो समुद्र ने कहा भयभीत होकर कि
चलो चिरईं चलकर बुझाते हैं
दुष्ट आग को
आग तैयार हुआ डरकर
जब डंडे को जलाने के लिए
तो डंडा तत्पर होकर निकल पड़ा
पीटने के लिए
गेहुँअन साँप को
गेहुँअन साँप ने डरकर पहले तो
प्रणाम किया
डंडे को
और निकल पड़ा
रनिवास की तरफ़
रानी को डँसने
रानी ने चीखकर साँप को
ठहरने के लिए कहा
और चिरईं को दिलाने इंसाफ़
पहुँची राजदरबार में
राजा ने कहा कि जब बात
इतनी संगीन है और
रानी को अचानक आना पड़ा
दरबार में तो वे ज़रूर बढ़ई को कहेंगे कि
जाकर अपने धारदार वसूले से
फाड़ दो खूँटा बाँस का
जिसमें फँसा है
चिरईं की मेहनत का दाना
दाल का
बढ़ई को देखते ही
भय से खूँटा तैयार हो गया
ख़ुद से फटने के लिए ...
इस तरह चिरईं ने पाया
अपना दाना मेहनत का
पाया इंसाफ़ ...
और फुर्र होकर निकल पड़ी
अपने घोंसले की तरफ़
जहाँ उसके चूजे दाने के इंतज़ार में थे
भूख से व्याकुल होकर !

( भोजपुरी अंचल की एक बहुश्रुत और प्रसिद्ध लोककथा से प्रेरित कविता। चंद्रेश्वर जी की फेसबुक पोस्ट से साभार )


सोमवार, 14 नवंबर 2016

'हॉनर किलिंग' के ज़माने में भाई-बहन की प्रेम कथा - सामा चकवा

फेसबुक के साथी पुष्यमित्र जी ने बिहार में छठ पर्व के बाद होने वाले 'सामा-चकवा' पर्व पर बड़ी अच्छी जानकारी दी है। बहुत लोगों ने शायद ही सुना हो इस लोककथा के बारे में। फेसबुक की उनकी टाइमलाइन से ही उड़ाकर ये लेख 'आपबीती' के दोस्तों के लिए..
एक चुगलखोर व्यक्ति राजा कृष्ण से कहता है कि तुम्हारी पुत्री साम्बवती चरित्रहीन है. उसने वृंदावन से गुजरते वक्त एक ऋषि के साथ संभोग किया है. कृष्ण अपनी पुत्री के बारे में यह खबर सुनकर गुस्से में आग-बबूला हो जाते हैं. वे यह पता करने की भी कोशिश नहीं करते कि इस बात में कितनी सच्चाई है. वे तत्काल अपनी पुत्री और उस ऋषि को शाप देते हैं कि दोनों मैना में बदल जाये. पुत्री मैना बन जाती है तो उसके पति चक्रवाक को भी वियोग सहा नहीं जाता है. वह भी मैना का रूप धर लेता है. उसे अपनी पत्नी पर पूरा भरोसा है. वह नहीं मानता कि उसकी पत्नी उसे धोखा दे सकती है.
अब तीन प्राणी चिड़िया में बदल गये हैं. यह देख कर उस युवती का भाई साम्ब परेशान हो जाता है. वह तय करता है कि इन लोगों को पक्षी योनि से मुक्ति दिलाये. वह अपने पिता को यह भरोसा दिलाने की कोशिश करता है कि ये तीनों लोग निर्दोष हैं. वह इन तीनों को फिर से मनुष्य बनाने के लिए तपस्या करता है. पिता को मनाता है, तब पिता तीनों को शाप मुक्त करते हैं. अहा, क्या कथा है? यह सामाचकेवा लोकपर्व की कथा है, जिसका आज विसर्जन होना है.
भारतीय लोकमानस में बसी इस कथा के बारे में सोचिये और वर्तमान परिदृश्य पर गौर कीजिये. आज अगर किसी भाई को पता चल जाये कि उसकी बहन का किसी पर पुरुष से यौन संबंध है, किसी पति को यह भनक लग जाये... तो ये भाई और पति कितनी देर अपने गुस्से पर काबू रख पायेंगे. वे उक्त महिला को कितना बेनिफिट ऑफ डाउट देंगे. मगर लोक मानस में बसी इस कथा के भाई और पति न सिर्फ उक्त स्त्री पर भरोसा रखते हैं, बल्कि उसे दोष मुक्त साबित करने के लिए हर तरह का कष्ट उठाते हैं.
और बहनें अपने भाई के इस त्याग का बदला चुकाने के लिए हर साल #सामाचकेवा का पर्व मनाती हैं. वे मिट्टी की चिड़िया बनाती हैं, गीत गाते हुए उन्हें रोज खेतों में(वृंदावन में) चराने ले जाती हैं. आखिरी रोज कार्तिक पूर्णिमा के दिन इनका विसर्जन करती हैं, बहनें चुगलखोर चुगला की दाढ़ी में आग लगा देती हैं और भाइयों से कहती हैं कि मिट्टी की बनी चिड़ियों को तोड़ दें ताकि सामा, उसके पति चक्रवाक(चकेवा) और शापित ऋषि फिर से मानव रूप में आ सकें. कोसी और मिथिलांचल के इलाके में इस पर्व को लेकर काफी उल्लास रहता है. आज रात के वक्त लड़कियां और महिलाएं खेतों में जाकर खूब गीत गायेंगे और भाइयों का शुक्रिया अदा करेंगे. इन गीतों में जिस भाई का नाम आता है वह अह्लादित हो जाता है.
इन मधुर गीतों को स्वर कोकिला शारदा सिंहा ने अपनी आवाज दी है. इनमें से "गाम के अधिकारी" और "सामा खेलै चललि" वाले गीत काफी लोकप्रिय हैं. अक्सर इन्हें लोग गलती से छठ गीत समझ लेते हैं. इस लोकपर्व की मधुरता का सबसे सजीव वर्णन फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने दूसरे सबसे पापुलर उपन्यास परती परिकथा में किया है. जिन्होंने उस प्रकरण को पढ़ा है, वे इस पर्व की मधुरता का अंदाज लगा सकते हैं.
कथा जो भी हो, मगर वस्तुतः यह पर्व उत्तरी बिहार में हर साल साइबेरिया से आने वाले प्रवासी पक्षियों के स्वागत में मनाया जाता है. इस दौरान पूरे इलाके में साइबेरियन क्रेन समेत कई पक्षी प्रवास करने आते हैं. मगर अक्सर ये पक्षी शिकारियों के हाथों मारे चले जाते हैं. जबकि इलाके की औरतों को इन पक्षियों के मारे जाने से दुख होता है. इस पर्व के जरिये वे इन पक्षियों की सुरक्षा का भी संदेश देती हैं. हालांकि मौजूदा वक्त में यह संदेश गुम सा हो गया है. अब सामा चकेवा को चराने के लिए न वन(वृंदावन) हैं, न गीत गाने वाले मधुर कंठ, न मूर्तियां बनाने में कुशल महिलाएं. छठ के बाद सबकुछ आपाधापी में होता है. मगर फिर भी यह पर्व हर साल हम जैसों के मन में मधुर स्मृतियां छोड़ जाता है.


शनिवार, 12 नवंबर 2011

पटना..सॉरी..दिल्ली...सॉरी अमेरिका...बिहार की राजधानी है !!

मैथिली का आइटम लोकगीत (गाम के अधिकारी हमर बड़का भइया हो)
छठ पर इस बार बिहार जाकर ऐसा लगा कि हमारे गांव-कस्बों से सभी मर्द बिहार छोड़कर दिल्ली-मुंबई-पंजाब चले गए हैं और सिर्फ पर्व-त्योहारों पर मुंह दिखाने के लिए ही वापस लौटते हैं....इस आधार पर कहीं ऐसा न हो कि बिहार जाने के लिए आने वाले वक्त में हमें बिहार जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़े। और कहीं आने वाले वक्त में किताबों में कहीं हम ये न पढ़ें कि दिल्ली बिहार की राजधानी है (या फिर मुंबई)। मुझे हर घर का एक न एक आदमी बाहर ही नौकरी करता नज़र आता है। पहले भी ऐसा होता रहा है मगर फर्क ये आया है कि पहले मजदूरी के लिए लोग जाते थे और अब मजदूरों के बॉस बनकर भी जाते हैं।
'सामा-चकवा' की मूर्ति
दिल्ली में कल एक अलग तरह के कार्यक्रम में जाना हुआ। (मेरा पहला अनुभव था)। मंडी हाउस के पास त्रिवेणी ऑडिटोरियम में 'सामा चकेवा' कार्यक्रम का आयोजन था। दावे के साथ कहता हूं बहुत से बिहारियों को भी नहीं पता होगा कि इस नाम का कोई पर्व बिहार से ताल्लुक रखता है। नाम सुना भी होगा तो बाकी और कुछ भी नहीं पता होगा। छठ के बाद मिथिला के पूरे इलाके में भाई-बहनों का ये ख़ास पर्व कई दिनों तक 'खेला' जाता है। बचपन में गांव की बहनों को अक्सर सामा-चकवा की मूर्तियों के साथ गीत गाते देखा-सुना है मगर इस बार बिहार में भी सामा-चकेवा की उतनी धूम नहीं दिखी। दिल्ली आकर दिखी तो मन गदगद हो गया। वहां वरिष्ठ साहित्यकार और लोककर्मी मृदुला सिन्हा ने अपने किसी बरसों पुराने लेख का ज़िक्र किया जो उन्होंने बिहार से पलायन की स्थिति पर लिखा था। उस लेख का शीर्षक था...'दिल्ली बिहार की राजधानी है..'। मुझे लगा यही तो हम आज भी सोच रहे हैं और देख रहे हैं। कम से कम बिहार के मर्दों की राजधानी तो दिल्ली हो ही गई है। हां, बिहार की लड़कियों को दिल्ली भेजने में अभी भी दो-चार बार सोचा जाता है क्योंकि यहां का 'माहौल' अच्छा नहीं है।

ख़ैर, पर्व से खेल और अब खेल से भव्य समारोह तक का सफर करने वाले सामा चकवा (चकेवा, चकवा, चकबा सब एक ही हैं..) का दिल्ली में भव्य आयोजन देखकर सबसे अच्छा ये लगा कि आयोजन करने वाले लोग एकदम नई उम्र के थे। 25 से 30 साल वाले दर्जन भर बिहारी नौजवान। आधे लोगों से मेरा परिचय था और आधे से वहीं हुआ। युवाओं के हाथ में आयोजन का असर भी बड़ा ख़ूबसूरत दिखा। घर में पर्दे के पीछे या अकेले में औरतों के गाए जाने वाले मिथिला के लोकगीत दिल्ली के इस ऑडिटोरियम में ऐसे पेश किए जा रहे थे जैसे मुंबई या दिल्ली के चकाचौंध भरे माहौल में सुनिधि चौहान ''शीला की जवानी....'' या ''जलेबीबाई...'' गा रही हों।  सच कहूं तो मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। ये वही दिल्ली है जहां मेटालिका (कितने लोग इस बैंड से वाकिफ हैं, मुझे नहीं पता) का एक कन्सर्ट 2700 की टिकट पर आप देखने जाते हैं मगर हुड़दंग के डर से शो रद्द हो जाता है। लेडी गागा आती हैं तो धुएं वाली रातों को दिखा-दिखाकर टीवी वाले ऐसा समां बांधते हैं कि जैसे बस यही सुनकर हिंदुस्तानी संगीत को मोक्ष मिलना तय था। सामा चकेवा के 'आइटम लोकगीत' सुनकर न तो कोई शोर होता है और न ही इसका टिकट एक भी रुपये का है। फिर भी लोगों की भीड़ है, और समय पर तालियां बजती हैं। एक बार उन लोगों को भी त्रिवेणी का मुफ्त रुख ज़रूर करना चाहिए जिनके मन में बिहार का मतलब हिंदी और भोजपुरी फिल्मों में अक्सर बाज़ारू साज़िश के तौर पर फिल्माया जाने वाला एक फूहड़, निहायती बुद्धू (जिसकी बोली और लहजा देखकर सिर्फ हंसा या दुत्कारा जा सके), अधपका शहरी किरदार ही बैठा हुआ है। मैंने देखा कि दिल्ली की सभ्य सड़कों पर 'सामा चकवा' के गीत गाती महिलाएं चल रही थीं तो कारवाले रुककर फोटो खींच रहे थे, 'बिहारी' कहकर हंस नहीं रहे थे।   

क्या पता बिहार से निकलकर दिल्ली-मुंबई तक पलायन कर कब्ज़ा कर चुके लोग अमेरिका या लंदन के किसी शहर में भी इसी तादाद में नज़र आएं और वहां हमारा कलुआ (भोजपुरी लोकगीतों का नया रॉकस्टार, ज़्यादा जानने के लिए यूट्यूब की मदद ले सकतें हैं) ''कलुआ कन्सर्ट'' में इतनी भीड़ जुटाए कि हज़ारों डॉलर ब्लैक में टिकट बिकें।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 17 जनवरी 2011

मूरख मिले 'बलेसर', पढ़ा-लिखा गद्दार ना मिले...

कौन कहता है कि बालेश्वर यादव गुज़र गए....बलेसर अब जाके ज़िंदा हुए हैं....इतना ज़िंदा कभी नहीं थे मन में जितना अब हैं....मन करता है रोज़ गुनगुनाया जाए बलेसर को....कमरे में, छत पर, नींद में, सड़क पर, संसद के सामने, चमचों के कान में, सभ्य समाज के हर उस कोने में जहां काई जमी है...आज, कल, परसों, बरसों....इंटरनेट पर शायद ही कहीं बलेसर के वीडियो उपलब्ध हैं...मुझे चैनल के लिए आधे घंटे का प्रोग्राम बनाने का मौका मिला था, तो उनके कुछ वीडियो मऊ से मंगाए गए, जहां के थे बलेसर....वो अपलोड कर पाऊंगा कि नहीं, कह नहीं सकता मगर, इन गीतों के बोल डेढ़ घंटे बैठकर कागज़ पर नोट किए.....हो सकता है, लिखने में कुछ शब्द गच्चा खा रहे हों, मगर जितना है, वो कम लाजवाब नहीं....भोजपुरी से रिश्ता रखने वाले तमाम इंटरनेट पाठकों के लिए ये सौगात मेरी तरफ से....जो भोजपुरी को सिर्फ मौजूदा अश्लील दौर के चश्मे से देखते-समझते हैं,  उनके लिए इन गीतों में वो सब कुछ मिलेगा, जिससे भोजपुरी को सलाम किया जा सके....रही बात अश्लीलता की तो ये शै कहां नहीं है, वही कोई बता दे...जिय बलेसर, रई रई रई....  


दुनिया झमेले में, दो दिन के मेले में...

दुनिया झमेले में, दो दिन के मेले में...

मेला है मेला बाबू, मेला है मेला...

दो दिन की दुनिया है, दो दिन झमेला..

दो दिन का हंसना है, दो दिन का मेला...

आना अकेला और जाना अकेला...

साथ न जाएगा, गुरु संग चेला

दुनिया ये दुनिया, दो दिन की दुनिया...

दो दिन की दुनिया में लड़े सारी दुनिया...

दुनिया झमेले में, दो दिन के मेले में...

हिटलर रहा नहीं, न रहा सिकंदर..

दारा रहा नहीं, रहा कलंदर...

राम रहे नहीं, न रहा सिकंदर....

सब ही को जाना है, दो दिन के अंदर..

कोई रहेगा ना, कोई रहा है...

बेद-पुरान में ये ही कहा है...

दुनिया झमेले में, दो दिन के मेले में...

मेला है मेला बाबू, मेला है मेला...

कोई ना बोलावे, बस पइसा बोलावे ला..

कोई ना नचावे, बस पइसा नचावे ला...

देस-बिदेस, बस पईसवे घुमावेला

ऊंच आ नीच सब पईसवे दिखावेला...

साथ न जाएगा, पईसा ई ढेला

पीड़ा से उड़ जाई, सुगना अकेला....

दुनिया झमेले में...

रोज-रोज-रोज कोई आग लगावेला...

बांटे-बंटवारे का नारा लगावेला

पुलिस, पेसी, मलेटरी जुटावेला,,,

गोला-बारुद के ढेर लगावेला....

रूस से कह दो, हथियार सारा छोड़ दे,

कह दो अमरीका से, एटम बम फोड़ दे...

दुनिया झमेले में....


आजमगढ़ वाला पगला झूठ बोले ला...

समधी के मोछ जइसे कुकुरे के पोंछ साला झूठ बोले ला...

समधिनिया के बेलना झूठ बोले ला...साला झूठ बोले ला..

समधिनिया के पेट जइसे इंडिया के गेट, साला झूठ बोले ला...

अलीगढ़ वाला बकरा झूठ बोले ला...

अरे झूठ बोले ला...साला झूठ बोले ला...

बभना के कईले धईले, कुछहु न होले जाला-2,

धोबिया के अइले गइले, चले लाठी भाला, साला झूठ बोले ला...

कलकत्ता वाला चमचा, झूठ बोले ला....

अपने त बोले, साला हमके न बोले देला-2

तीनों चारों भाई-बाप, सर्विस कुर्ता वाला, साला झूठ बोले ला...

बिना मोछ वाला मोटका, झूठ बोले ला...

बाहर बिलार, घर में शेर का शिकार करे-2

हमरी कमाई बैला, बैठल-बैठल खाला, साला झूठ बोले ला...

ई चवन्नी छाप हिजरा, झूठ बोले ला...

कल-करखाना, साला टिसनो से बोले-बोले-2

खाया है माल. किया लाखों का दीवाला, साला झूठ बोले ला..

नई दिल्ली वाला गोरका झूठ बोले ला...

दिल का है काला साला, बगुला के चाल चले-2

बिदेसी दलाल है, कमाया धन काला, साला झूठ बोले ला...

समधिनिया के बेलना झूठ बोले ला...

श्यामा गरीब के, सोहागरात आई आई..

श्यामा औसनका के, सोहागरात आई आई..

जे दिन ‘बलेसरा’ पाएगा, ताली-ताला, साला झूठ बोले ला...

आजमगढ़ वाला पगला झूठ बोले ला...


हिटलरशाही मिले, चमचों का दरबार न मिले...

ए रई रई रई...

दुश्मन मिले सवेरे, लेकिन मतलबी यार ना मिले...

दुश्मन मिले सवेरे...

कलियन संग भंवरा मिले, बन मिले बनमाली...

ससुरारी में साला मिले, सरहजिया और साली...

तिरिया गोरी हो या काली, लेकिन छिनार ना मिले...

हाथी मिले, घोड़ा मिले; मिले कोठा-कोठी...

सोना मिले, चांदी मिले, मिले हीरा-मोती...

ईंटा-पत्थर मिले, नीच कली कचनार ना मिले...

सागर से जा मिले सुराही, धरती से असमान,

होली से जा मिले दीवाली, मिले सूरज से चांद,

मरदा एक ही मिले, हिजरा कई हजार ना मिले....

सरबन अइसन बेटा मिले, मिले भरत सा भाई,

मोरध्वज सा पिता मिले, मिले जसोदा माई...

पांचो पंडा मिले, कौरव सा परिवार ना मिले...

चित्तू पांडे, मंगल पांडे, मिले भगत सिंह फांसी..

देस के लिए जान लुटा दी, मिले जो लोहिया गांधी...

हिटलरशाही मिले, चमचों का दरबार ना मिले...

बांझिन को जो बेटा मिले, मिले भक्त को राम,

प्रेमी संग में श्यामा आ मिले गुरू से ज्ञान..

मूरख मिले ‘बलेसर’, पढ़ा-लिखा गद्दार ना मिले....

दुश्मन मिले सबेरे, लेकिन मतलबी यार ना मिले...


कुछ सस्ता शेर
बुढापा के सहारा, लाठी-डंडा चाहिए...

जवानी में लड़की को लवंडा चाहिए...

और ये भी...

सासु झारे अंगना, पतोहिया देखे टीभी....

बदला समाज, रे रिवाज बदल गईले...

भईया घूमे दुअरा, लंदन में पढ़े दीदी....

सासु झारे अंगना, पतोहिया देखे टीभी....

अगर गीत अच्छे लगे हों तो ये भी बताइए कि ढोल-मंजीरे के साथ कब बैठ रहे हैं खुले में....मिल बैठेंगे दो-चार रसिये तो जी उठेंगे बलेसर

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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