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सोमवार, 15 मई 2023

'बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ' के शोर के बीच देखिए स्त्री होने की 'दहाड़'

'दहाड़' देखने लायक वेबसीरीज़ है। तब भी जब पहला एपिसोड अंत आते-आते तक पकाऊ है। हर एपिसोड इतना लंबा  है कि आप एकाध झपकी मारकर फिर से देखने बैठ जाएं तब भी कुछ नया नहीं होता। तब भी जब इसमें लीड रोल में सोनाक्षी सिन्हा हैं, जिनकी एक्टिंग अपनी उम्र के हिसाब से मुझे कभी मेल खाती नहीं दिखी। तब भी जब पूरी कहानी में कई झोल हैं। जैसे पूरे राजस्थान में एक ही थाना इतनी बड़ी मर्डर मिस्ट्री सुलझा रहा है और राष्ट्रीय राजनीति या मीडिया में कहीं कोई चर्चा तक नहीं। तब भी जब पुलिस वाले और अपराधी का बेटा एक ही स्कूल में पढ़ते हैं और आगे जाकर इन्हीं दोनों को आपस में टकराना होता है। तब भी जब आपको लगता है कि ये कोई हरियाणवी ज़बान है लेकिन नहीं ये तो राजस्थान है।

इस तरह से लगेगा कि मैं सीरीज़ नहीं देखने के कारण ज़्यादा गिना रहा हूं। सबसे अच्छी बात जो इस सीरीज़ में है, वो है इसकी डिटेलिंग। कहानी में सिर्फ मर्डर मिस्ट्री नहीं है। कई परते हैं। जात-पात, पुलिस व्यवस्था, इंटरनेट की गिरफ्त में हम-आप, प्रेम संबंधों के बदलते रूप, 'बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ' प्रधान देश में बेटियों की स्थिति चाहे वो एक बैकवर्ड बहू हो, स्कूल जाती बच्ची हो या फिर एक दबंग पुलिस वाली। पूरी कहानी को लीड करती है पुलिस अफसर भाटी जो पिछड़े समुदाय से है। बड़ी जात वाले खाकी वर्दी में भी जात देखकर अपनी कोठी के भीतर घुसने की इजाज़त नहीं देते। बाकी पुलिस अफसर भी सिर्फ पुलिस अफसर नहीं हैं, बाप हैं, पति हैं, छोटी-छोटी कुंठाओं वाले सहकर्मी भी।

कहानी में इतने मुद्दे एक साथ हैं कि सबसे मुख्य कहानी जिसके आसपास बाकी कहानियां बुनी गई हैं, चुपचाप अपना काम करती रहती है। आप देखना चाहते हैं कि हिंदी का एक सीधा-सादा प्रोफेसर, जिसकी बीवी और एक बेटा है, कैसे अब अपना अगला शिकार किसी लड़की को बनाएगा। शुक्र है कि प्रोफेसर के साइकोपैथ होने में कोई बचपन का हादसा या फैमिली हिस्ट्री सीधे तौर पर ज़िम्मेदार नहीं ठहराए गए। बस वो बड़े इत्मीनान से हिंदी की कविताएं पढ़ता है, लड़कियां फंसाता है, हत्या की साज़िश रचता है और फिर किसी अगली हत्या के लिए तैयार होता है। 

प्रोफेसर आनंद के रोल में विजय वर्मा में कई बार मनोज वाजपेयी जैसी कसावट और इरफान ख़ान जैसी गहराई दिखती है। आजकल के अख़बार लगातार जिन सेक्सटॉर्शन, इंटरनेट ठगी, हनीट्रैप जैसी ख़बरों से लदे रहते हैं, ये सीरीज़ उन्हीं ख़बरों के पीछे का एक किरदार लेकर सामने आती है, जिसमें सादगी इतनी है कि कोई भी फिदा हो जाए और साइनाइड खाकर मर जाए। वो किसी पर रहम नहीं करता। न अपने बेटे पर, न भाई पर, न बाप पर। हिंदी साहित्य का इतना क्रूर प्रोफेसर क्या हमने अपने सिनेमा में कभी देखा है, मुझे तो याद नहीं आता।

ये सीरीज़ उन मां-बाप को भी देखनी चाहिए, जिनके घर में स्कूल जाते बड़े होते बच्चे हैं। उन मासूम बच्चों से कब, कैसे, कितनी बात की जाए, उसकी तमीज़ इसके कई किरदार सिखाते हैं। एक एपिसोड में कपीश, प्रोफेसर आनंद के लापता होने पर, इतनी मासूमियत से अपनी मां से पूछता है - 'घर के बाहर पुलिस क्यों आई है, क्या पापा खो गए हैं' कि दिल धक से हो उठता है। एक एपिसोड में थाने का इंचार्ज देवी सिंह अपने स्कूल जाते बेटे को जिस संजीदगी से मोबाइल पर अच्छा-बुरा देखने के बारे में समझाता है, वो हम सबके सीखने लायक है। एक बेटी, जो किसी काम्पटीशन में दिल्ली जाना चाहती है, मगर मां रोकती है, तो बाप बेटी का हौसला बढ़ाता है। 

'दहाड़' की सबसे अच्छी बात ये रही कि इसके सीक्वेल की कोई गुंजाइश कम ही दिखती है। मुझे सीक्वल बोर करते हैं, सोनाक्षी सिन्हा की तरह। माधुरी दीक्षित के जन्मदिन पर सोनाक्षी सिन्हा को देखकर काम चलाना बदनसीबी नहीं तो और क्या है। फिर भी, सोनाक्षी ने अपने करियर का सबसे अच्छा काम इसी सीरीज़ में किया है। शाहिद कपूर वाली सीरीज़ 'फर्ज़ी' से कम फर्ज़ी है, इसीलिए भी देखनी चाहिए।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

साल 2018 की सबसे अच्छी फिल्म है 'बागली टॉकीज़'

जब हम साल 2018 को याद करेंगे तो बेशक पद्मावत, संजू, राज़ी, अंधाधुन, स्त्री और केदारनाथ का नाम सबसे अच्छी फिल्मों के तौर पर याद आएगा, मगर मेरे लिए इस साल की सबसे अच्छी और दिल के क़रीब फिल्म है बागली टॉकीज़

ये फिल्म मध्यप्रदेश के ही बागली क़स्बे में रहने वाले अनिरुद्ध शर्मा ने बनाई है। ये फिल्म महज़ 15 मिनट की है, मगर अच्छी फिल्मों का लंबा होना ज़रूरी है, ये कहां लिखा है। फिल्म लंबी भी हो सकती थी, मगर अनिरुद्ध ने कम बजट में बागली के सिंगल स्क्रीन थियेटर के ज़रिए पूरे देश के सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों का जो दुख सामने रखा है, वो लाजवाब है। अनिरुद्ध की फिल्म इस मायने में बहुत ख़ास है कि वो इस फिल्म के लिए न मुंबई-दिल्ली गए, न ही कोई बड़ा स्टारकास्ट किया। फिल्म के लिए जितने पैसे जुटे, उसके हिसाब से बागली में रहते हुए ही पूरी फिल्म बनाई। इंदौर में मशहूर फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे को बुलाकर पहली स्क्रीनिंग रखी और अब कई फिल्म फेस्टिवल में फिल्म पहुंच ही रही है।
अनिरुद्ध ने एक साथ दो शॉर्ट फिल्में रिलीज़ की हैं। दूसरी फिल्म का नाम है इबादत। ये फिल्म भी अपने कंटेंट के लिहाज़ से कई बड़ी फिल्मों पर भारी पड़ती है। देश में धर्म किस तरह सियासी धंधा बन चुका है और उसका हर आम नागरिक पर किस तरह असर पड़ने वाला है, उसे पर्दे पर उतारने की अनिरुद्ध की कोशिश कमाल की है।
फिल्म समीक्षाओं में फिल्म की कहानियां बताना ठीक नहीं। उम्मीद है कि अनिरुद्ध का सिनेमा देश-दुनिया में पहुंचे और आप भी सिर्फ अनिरुद्ध को बधाई देने के अलावा अपने आसपास के सिंगल स्क्रीन थियेटर को बचाए रखने के लिए वहां फिल्में ज़रूर देखें। अनिरुद्ध जैसे नए फिल्मकारों को इससे बहुत हौसला मिलेगा, जो बड़ी फिल्में बनाने का हौसला रखते हैं, मगर ऐंठ बिल्कुल नहीं। ठीक किसी सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर की तरह।
इसी बहाने मैंने अपने सिंगल स्क्रीन सिनेमा के कुछ अनुभव भी लिखे हैं। इसे भी पढ़िए और आप भी लिखिए ।
सिनेमा को लेकर मेरी जो भी समझ बनी है, उसमें सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों का बहुत बड़ा योगदान है। पापा बिहार-झारखंड के जिन-जिन कस्बों में रहे, वहां के सिनेमाघरों में नागिन से लेकर सूरज से लेकर मोहरा तक की फिल्में देखने का जो अनुभव है, वो शब्दों में बयान नहीं कर सकता। लखीसराय में एक बार पिक्चर देखने गया तो सीट फुल हो गई थी। सिनेमा हॉल का सुपरवाइज़र एक लकड़ी की बेंच उठाकर ले आया और हमने पिक्चर देखी। अगल-बगल बैठे लोग जब पान मसाला थूकते तो पहले ही बता देते, फिर हमें पैर ऊपर करके बैठना पड़ता। रांची में उपहार सिनेमा में कंधे पर चढ़कर कई बार टिकट लेकर फिल्म देखी।
जमशेदपुर के बसंत टॉकीज़ का अनुभव बड़ा यादगार है। हॉल के ठीक सामने एक आदर्श हिंदू भोजनालय हुआ करता था। वहां सात रुपये में भात-सब्ज़ी मिल जाती थी (साल 2003-2005)। हमारे एक मित्र रोज़ वहीं खाना खिलाने ले जाते थे। हमारे खाने की टाइमिंग कुछ ऐसी थी कि जैसे ही खाना ख़त्म होता, बसंत टॉकीज़ में दोपहर के शो का इंटरवल होता। हॉल का दरवाज़ा थोड़ी देर के लिए खुलता। हम खाना ख़त्म करके दौड़ते हुए इंटरवल के बाद वापस फिल्म देखने के लिए लौट रही भीड़ के साथ चिपक लेते। जैसे-तैसे हॉल के भीतर घुस जाते और जो भी फिल्म लगी होती, उसे इंटरवल के बाद देख लेते। अक्षय कुमार की अंदाज़ऐसे में कम से कम चार-पांच बार देखी थी। जमशेदपुर के स्टार टॉकीज़ में बाग़बानलगी थी तो अमिताभ भक्त हॉल मालिक ने सभी दर्शकों को लड्डू भी बांटे थे।
समस्तीपुर के भोला टॉकीज़ में एक बार लुटेरादेखने गया तो लोग बहुत कम थे। बातों-बातों में प्रोजेक्टर चलाने वाले को बताया कि इस फिल्म के डायरेक्शन में मेरा एक दोस्त भी है तो उसने खुशी-खुशी पूरी फिल्म अपने साथ ही बिठाकर दिखाई।
फिर जब दिल्ली आए तो देखा हमारे महीने भर की फिल्म का ख़र्च पॉपकॉर्न पर लोग ख़र्च कर देते हैं। बड़ी मुश्किल से दिल्ली के सिंगल स्क्रीन हॉल ढूंढे और आज भी कई फिल्में वहीं देखता हूं। जामिया से पैदल चलकर नेहरू प्लेस के पारस में दिल्ली की पहली फिल्म ओंकारादेखी। हाल के कुछ दिनों में नॉर्थ दिल्ली के अंबा टॉकीज़की आदत लगी। फिर एक दिन देखा कि अंबा पर कोई फिल्म नहीं लगी है। उनके ऑफिस में लगातार कॉल किया लेकिन कोई जवाब नहीं। फिर देखा कि अंबाका फेसबुक पेज भी है। उन्हें फेसबुक पर इनबॉक्स मैसेज भेजा तो तुरंत जवाब आ गया कि जल्दी ही वापस अंबा में फिल्में लगेंगी, कुछ दिनों से मरम्मत का काम चल रहा है। बड़ी खुशी हुई कि सिंगल स्क्रीन थियेटर भी ख़ुद को अपडेट किए हुए हैं।

हम सब जिन्होंने सिंगल स्क्रीन में फिल्में देखी हैं, उन्हें आज सिंगल स्क्रीन के ख़त्म होने का अफसोस ज़रूर होता होगा। मल्टीप्लेक्स बढ़िया है, मगर सिंगल स्क्रीन की क़ीमत पर बने, ये ठीक नहीं।  

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 27 जनवरी 2018

जब चित्तौड़ जल रहा था, एक ब्राह्मण बंसी बजा रहा था


जी हां। और बंसी पर बज रहा था ‘राग यमन। और वो ब्राह्मण था चित्तौड़ का पुरोहित राघव चेतन। राजपूतों ‘की, के लिए और द्वारा’ प्रचारित, पोषित, तोड़ित-फोड़ित इस फिल्म में मुझे इस ब्राह्मण का रोल सबसे ज़्यादा वज़नदार दिखा। आश्चर्य कि करणी सेना की जगह किसी ‘ब्राह्मण सेना’ का उदय फिल्म से पहले संजय लीला भंसाली नहीं जुगाड़ पाए। शायद इसीलिए क्योंकि करणी सेना के पास बचाने को दीपिका पादुकोण थी और ब्राह्मण सेना (जो पूरी तरह से काल्पनिक है) के पास एक निहायत कम पॉपुलर एक्टर।


इससे पहले कि फिल्म के कुछ मुद्दों पर कुछ कहूं, राजपूतों पर मेरा फ़िल्मी सामान्य ज्ञान ज़ाहिर करने का वक्त आ गया है। राजपूत (मर्द) दो प्रकार के होते हैं एक ‘भंसाली सेना’ के राजपूत और दूसरे ‘करणी सेना’ के राजपूत। भंसाली सेना के राजपूत बहुत अच्छे, मज़बूत उसूलों वाले होते हैं। वो एक बार दूसरी शादी कर लेते हैं, फिर अपनी पहली पत्नी से पूरी फिल्म के दौरान बात तक नहीं करते। अपनी औरतों को जौहर (सती) की परमिशन देकर युद्ध में लड़ने जाते हैं। जब भी युद्ध जैसी कुछ गंभीर परिस्थिति आती है वो लंबे-लंबे गाने गाते हैं और 'राजपूत ये-राजपूत वो' करते रहते हैं। करणी सेना के राजपूत को हम डिजीटल इंडिया में देख ही रहे हैं। वो जी डी गोयनका स्कूल की बस के शीशे तक तोड़ देते हैं। उनके डर से स्कूली बच्चे, महिलाएं दुबक कर बैठ जाती हैं। वो अर्नब गोस्वामी के शो में अंग्रेज़ी में बात करते हैं। और अपनी गुंडागर्दी का सही फिल्मांकन नहीं होने पर संजय लीला भंसाली को थप्पड़ भी मारते हैं। 

फिल्म के बारे मेंआप सब फिल्म की रिलीज़ से काफी पहले से हीसब कुछ सुन चुके हैं। इसीलिए मेरे पास बताने को कुछ भी नया नहीं है। हांकरणी सेना को मेरा ये लेख पढ़कर थोड़ा दुख और पहुंचेगा क्योंकि मैं चश्मदीद गवाह हूं कि लाख कोशिशों की बावजूद वो अपनी ‘आनबान और शान’ पद्मावती (दीपिका पादुकोण) को अंबा टॉकीज़ में घूमड़ नाचने से नहीं रोक सके। पद्मावती’ को देखने के लिए 2 D और 3 D ऑप्शन भी उपलब्ध थे। मगर मैंने 13वीं सदी का विकल्प चुना। पुलिस की पीसीआर वैन की निगरानी मेंलंबी लाइन मेंटिकट के लिए घंटो इंतज़ार वाला तरीका। मैं चाहता था कि महारानी पद्मावती का नाच मैं अंबा सिनेमा की फ्रंट लाइन में बैठकर देखूं ताकि करणी सेना के ज़ख्मों पर बोरी भर नमक और पहुंचे। 
रानी पद्मावती पर सब्ज़ी मंडी इलाके की हर जाति के दर्शकों ने तालियां बजाईंसीटियां बजाईहोली में उन्हें राजा रतन सिंह के साथ बहुत अंतरंग होते देखा। फिर भी करणी सेना सब्ज़ी मंडी थाने के पुलिसिया डंडे के डर से चूं तक नहीं बोलने आई। धिक्कार है ऐसे बहादुरों पर।
संजय लीला भंसाली की इस पौने तीन घंटे की फिल्म में ‘राजपूत’ शब्द हर दूसरे मिनट पर एक बार बोल दिया गया है। आज की तारीख में इससे मिलता-जुलता शब्द ‘विकास’ हैजो भक्त किस्म के लोग हर सांस के साथ बोलने के आदी हैं। 
फिल्म इतनी बुरी नहीं जितनी कुछ बुद्धिजीवी बता रहे हैं। और इतनी अच्छी तो बिल्कुल ही नहीं कि बार-बार देखी जाए। भंसाली की इस फिल्म में जहां खिलजी के ग़ुलाम या बेगम मेहरुन्निसा तक को बेहतर स्पेस मिला है, अमीर खुसरो को बेहद नालायक रोल मिला है। खिलजी के किरदार में रणबीर सिंह अच्छे तो हैं, मगर कभी-कभी वो क्रूरता की ओवरएक्टिंग में एक अय्याश जोकर जैसे लगने लगते हैं। जिस ‘पद्मावती’ के लिए पूरी कहानी रची गई, उसने फिल्म में बताया कि  रूप या गुण देखने वालों की आंखों में होता है। तो ‘रानी सा’ के मुताबिक अपनी नज़र से मैं अगर दीपिका पादुकोण को देखूं तो मुझे कहीं से भी वो इतनी सुंदर नहीं दिखतीं जिनके लिए अलाउद्दीन खिलजी तीन घंटे तक अंबा सिनेमा में तूफान मचाता रहे। राजा रतन (शाहिद कपूर) सेन इतने कृशकाय दिखते हैं (यह तेरहवीं सदी का एक शब्द है, जिसका मतलब ‘ज़ीरो फिगर’ होता है) कि उन्हें देखकर राजपूत खानपान शैली पर सहानुभूति ही ज़्यादा होती है।
खिलजी के डायलॉग, नाच-गाने की वजह से फिल्म मज़ेदार दिखती है। राजपूत सेनापति का वो शॉट जिसमें वो गर्दन कटने के बाद भी तलवार भांजता है, रोंगटे खड़े करने वाला है।मगर जैसे ही हम चित्तौड़ प्रवेश करते हैं, वहां एक छत से राजपूत बहादुर इतनी दूर तक देख लेता है, जितनी दूर से चित्तोड़ आने में खिलजी को सुबह से शाम हो जाए। ऐसे ‘दूरदर्शी’, बहादुर लोगों का इतिहास जौहर वाली रानियों के साथ ही लिखा गया, इसीलिए बार-बार इस काम के लिए भंसाली को कोसना ठीक नहीं।

हांसती प्रथा को जिस तरह से उन्होंने भव्य और ग्लैमर दिया है, वो इस निर्देशक की नीयत पर संदेह पैदा करता है। नीयत तो इतनी ख़राब है कि राजपूत (हिंदू) राजकुमार का दूसरी रानी लाना भी अच्छा और खिलजी (मुसलमान) का एक तंदूरी चिकेन खाना भी बुरा होने की निशानी बना कर रख दिया है। नीयत इतनी ख़राब कि राजपूताना का कबाड़ा किया एक ब्राह्मण ने और इल्ज़ाम आया एक मुसलमान (खिलजी) के सर। 

क्लाइमैक्स के नाम पर पूरी बेशर्मी से एक गर्भवती स्त्री, एक नाबालिग़ लड़की को जौहर के लिए जाते दिखाना लगभग अपराध जैसा है। जब तक रतन सिंह खिलजी से लड़ता रहा, पद्मावती का सती प्रथा पर लंबा लेक्चर ख़त्म ही नहीं होता।

अपने क्लाइमैक्स में एक कुप्रथा पर तालियां बजवाकर संजय लीला भंसाली करणी सेना के किसी एजेंट की तरह दिखने लगते हैं।  


(समीक्षा अगर अनावश्यक रूप से लंबी है, तो इसे भी इस फिल्म की राजपूती परंपरा का पालन समझा जाए। जय हो अन्नदाता की!)

निखिल आनंद गिरि 
(सभी तस्वीरें अंबा सिनेमा की)

शुक्रवार, 23 जून 2017

इस देश का हर दर्शक ‘ट्यूबलाइट’ है, जिसे सलमान खान पसंद है

जिस तरह गांधीगिरी पर संजय दत्त का कॉपीराइट है, परफेक्शन वाली भूमिकाओं पर आमिर खान का, हाथों के विस्तार से प्रेम रचने पर शाहरूख ख़ान का, उसी तरह बेसिरपैर की फिल्मों का कॉपीराइट सिर्फ और सिर्फ सलमान खान पर है। आप दबंग देख लें, दबंग-2 देख लें या कोई भी सलमान की फिल्म, बंदे को यक़ीन है कि फिल्म में कहानी का लेवल गिरता जाएगा और दर्शक झक मार कर आते रहेंगे।

तो इस तरह ट्यूबलाइटसलमान के यक़ीन की फिल्म है, जिसे इस बार ईद तो क्या नरेंद्र मोदी भी फ्लॉप होने से नहीं बचा पाएंगे, ऐसा मेरा यक़ीन है। फ्लॉप-हिट तो ख़ैर अपनी जगह है, फिल्म में बेवकूफी का भी एक लॉजिक होता है, जो सलमान की फिल्मों में नहीं है। अच्छा हुआ कि वो इस फिल्म के प्रोड्यूसर ही बने, निर्देशक नहीं वरना एकाध अच्छे गाने और सुंदर कैमरा भी दर्शकों को नसीब नहीं होता।

फिल्म की कहानी कुछ नहीं है। आप सलमान को देखने जा रहे हैं और आधे घंटे में ही फिल्म में शाहरूख खान नज़र आने लगते हैं।  फिर शाहरूख एक बोतल को लेकर अटक जाते हैं कि सलमान की फिल्म है तो वो इस बोतल को भी नचा सकता है। जब तक बोतल नहीं नाचती, शाहरूख फिल्म से जाते ही नहीं। फिल्म में गांधीजी भी आ जाते हैं। वो फिल्म से अंत तक नहीं जाते। सलमान ने उनकी कही बातों की चिट बना ली है और वो गांधी जी के नाम पर दर्शकों के साथ वही करता है जो देश की हर बड़ी हस्ती आम लोगों के साथ करती आई है। गांधी के नाम पर उल्लू बनाने के क्रम में सलमान ख़ान इतनी बार भारत माता की जय चिल्लाता है कि दोबारा भी अगर हिरण को मारने का मुकदमा चले तो वो बाइज्ज़त बरी कर दिया जाए।

अब आते हैं फिल्म की बची-खुची कहानी पर। 1962 के दौरान भारत-चीन के बीच जंग में कुमाऊं के एक पहाड़ी गांव से भरत सिंह बिष्ट सेना में शामिल होकर लड़ने जाता है। उसका भाई, यानी सलमान खान, जो दिमाग से थोड़ा कमज़ोर है, अपने भाई के लौटने का इंतज़ार करता है। इस बीच एक चीनी मूल के मां-बेटे उसी गांव में रहने आ जाते हैं। सलमान को उनमें दुश्मन दिखते हैं, मगर ओम पुरी गांधी के पक्के चेले हैं, सो सलमान को चीनी दुश्मनमें भी दोस्त देखने पर यक़ीन करवाते हैं। यहां पर मुझे जितेंद्र की एक फिल्म हातिमताईयाद आती है, जिसमें राजकुमार हातिम सात सवालों की खोज में निकलता है और एक-एक सवाल को डीकोड करते हुए एक परी को मुक्त करता जाता है। यहां सलमान वो ट्यूबलाइटहातिम है और गांधी जी के वचन को डीकोड करता जाता है।

‘FAITH MOVES MOUNTAINS’ जैसी कहावत की बत्ती बनाती हुई सलमान की इस फिल्म में दिखाया गया है कि अगर कुंग फू वाले पोज़ में कोई पहाड़ों की तरफ घूर कर देखता रहे तो भूकंप भी ला सकता है। और तो और पूरब दिशा की तरफ इसी पोज़ में देखते रहने की वजह ही भारत-चीन की जंग भी ख़त्म हुई थी। यक़ीन न हो तो 1962 के दैनिक जागरण का कुमाऊं संस्करण देख लीजिए। मुझे यकीन है इसी दैनिक जागरण में ख़बर छपेगी कि एक दिन किसी हिंदू हृदय सम्राट ने सलमान वाले पोज़ में संसद की छत पर खड़े होकर भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया है।

सलमान खान जब फिल्म के अंत में एक भावुक सीन में रोते हैं तो इस नादान दर्शक को भी रोना आता है। मगर वो खुशी के आंसू हैं कि जैसे-तैसे ये फिल्म ख़त्म तो हुई। मुझे यक़ीन है कि इसी फिल्म में काम करने की वजह से ओम पुरी को दिल का दौरा पड़ा और वो फिल्मी ही नहीं पूरी दुनिया को छोड़ गए।

अंत में मैं उस प्रोमोकोड का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं जिसकी वजह से इस फिल्म को देखने के लिए कम पैसे देने पड़े। 

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 1 अप्रैल 2017

देश के लिए ही सही, 'अनारकली ऑफ आरा' ज़रूर देखिए

आरा एक आदर्श शहर है। खाँटी लोग अगर इस धरती पर जहाँ कहीं भी बचे हुए हैं तो उनमें से एक आरा भी है। यहाँ के लोगों के स्वभाव में अदम्य साहस और दुस्साहस का मणिकांचन योग मिलता है। आरा के लोगों को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने बदलाव को बहुत धीरे-धीरे आने दिया है। पतलून सिलाने के बाद भी अपनी लुंगी को खूँटी पर टाँगे रखा और टी शर्ट के आ जाने को बाद भी गंजी का परित्याग नहीं गया। अंग्रेज़ी भाषा को भोजपुरी के फार्मेट में स्वीकार किया। हिन्दी को भोजपुरी पर हावी होने नहीं दिया।
आरा के बारे में ये सब बातें टीवी पत्रकार रवीश कुमार ने 10 फरवरी 2017 को अपने ब्लॉग पर पोस्ट की थीं। रवीश का ज़िक्र इसीलिए क्योंकि फिल्म अनारकली ऑफ ऑराके क्रेडिट में पहला नाम उन्हीं का आता है। पता नहीं उनका इस फिल्म से या फिल्म के डायरेक्टर अविनाश दास से कितना गहरा नाता रहा मगर आरा के बारे में ये सब फिल्म में कहीं नहीं है। रवीश आगे लिखते हैं -
‘’इस फ़िल्म से एक नया आरा सामने आएगा? मुझे नहीं पता कि अनारकली आरा पर ग़ज़ब ढाएगी या क़हर ढाएगी लेकिन इतना पता है कि आरा आगे निकल चुका है। वो अब लड़ाकू नहीं,पढ़ाकू शहर है।’’

एक नया आरा अविनाश दास ने दिखलाया तो है, मगर वो न तो पढ़ाकू दिखता है, न लड़ाकू। अविनाश दास का आरा एक ठरकी शहर है। जहां के सारे पढ़ाकू छात्र अनारकली का नाच देखते हैं, उन छात्रों के भविष्य का मालिक वाइस चांसलर नाच के वक्त दारू भी पीता है और स्टेज पर चढ़कर अनारकली को छेड़ता है, थप्पड़ खाता है। इस तरह से फिल्म को देखें तो आरा शहर को अविनाश दास के खिलाफ मानहानि का मुकदमा कर देना चाहिए। आरा टाउन थाना के दारोगा को तो अविनाश दास को जेल में डाल देना चाहिए। फिल्म बनाने की छूट में एक पूरे शहर को इस तरह बदनाम कर देना ठीक बात नहीं।
मगर अविनाश दास दुनिया को शायद इसी तरह देखते हैं। यही उनकी ख़ूबी है। यही उनका परिचय। उनका अपना पक्ष इतना लाउड है कि कोई और पक्ष बौना ही नज़र आता है उनके सामने। इस तरह से फिल्म पर अविनाश दास की पकड़ भी ज़बरदस्त है। वो फिल्म को अपनी कल्पना के हिसाब से आगे ले जाते हैं। सभी स्थापित सत्ता-केंद्रों पर हमला बोलते हुए। एकदम लाउड।
फिल्म की कहानी बहुत छोटी है, मगर गीत-संगीत ने उसे संवार दिया है। फिल्म में आरा जितना द्विअर्थी और बुरा नज़र आता है, गीत उतने ही तरल और पवित्र सुनाई देते हैं। रोहित शर्मा का संगीत लाजवाब है। कहीं से नहीं लगता कि ये अविनाश दास की पहली फिल्म है। उन्होंने इस फिल्म की बारीकियों पर बहुत मेहनत की है। जब दिल्ली के एक ढाबे में हिरामन तिवारी अनारकली से कहता है कि देश के लिए बुनिया खा लीजिए तो लगता है अनारकली को देश के लिए अपना दिल हिरामन को दे देना चाहिए। या फिर अविनाश दास को। जिनके लिए दिल्ली घूमने की शुरुआत यमुना के गंदे किनारे से भी हो सकती है।
फिल्म के डायलॉग और गाने बहुत दिनों तक याद रखे जाने चाहिए। मगर वो इतने ज़्यादा हैं कि फिल्म की छोटी सी कहानी पर भारी पड़ते हैं। फिल्म का पहला आधा घंटा तो भारी-भरकम डायलॉग्स और लोकगीतों का चित्रहार जैसा है, जिसमें कहानी अचानक से एंट्री मारती है। हिंदी फिल्मों को अनारकली ऑफ आरासे क्या मिला पता नहीं, मगर भोजपुरी सिनेमा को इस फिल्म के सामने कान पकड़कर माफी मांगनी चाहिए। याद नहीं मुझे कि हाल की कोई भोजपुरी फिल्म इस तरह के सरोकारों के साथ सफलता से आई हो। फिल्म का आखिरी शॉट जहां अनारकली हिसाबबराबर कर कैमरे की तरफ अकेली लौट रही है, न्यू फ्रेंच सिनेमाके क्लाइमैक्स की याद दिलाता है। भोजपुरी के निर्देशकों को भी ये सब सीखना चाहिए।
फिल्म अनारकली पर इतना फोकस करती है कि बाकी सब कुछ गायब हो जाता है। ये नई तरह की फिल्मों में ज़रूरी भी है। अपनी बात को इतना मज़बूती से कहो कि लगे कुछ कहा है। नये निर्देशक ऐसे ही जमते हैं। नई फिल्में ऐसे ही याद रह पाती हैं।
चलते-चलते –
मैं दिल्ली के जिस हॉल में फिल्म को देखने गया था वहां फिल्म लगी तो थी मगर फिल्म का एक भी पोस्टर नहीं था। इस तरह से बिना पोस्टर वाली कोई फिल्म अपने दम पर दूसरे हफ्ते में प्रवेश कर जाए तो बधाई की हक़दार है। मेरे मित्र दिलीप गुप्ता को अनारकली फिल्म में एक्टिंग भी नसीब हुई है, और अनारकली की चप्पलें भी। उनको अलग से बधाई।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 8 मार्च 2017

विशाल भारद्वाज को ‘रंगून’ हो जाए तो बचना मुश्किल है

रंगून मैंने गुजरात के वापी शहर में देखी। मुंबई यहां से बहुत नज़दीक है, मगर सिनेमा हॉल अब भी दो-चार ही। विशाल भारद्वाज का सिनेमा देखने वाले उससे भी कम। देश की इंडस्ट्रीज़ से फैलने वाले केमिकल प्रदूषण में वापी का बहुत बड़ा योगदान है। यहां जितने गुजराती हैं, उससे ज़्यादा बिहार-यूपी के मजदूर लोग। लिहाज़ा शाहरूख-सलमान की नाच-गाने वाली फिल्मों के कद्रदान यहां ज़्यादा हैं, रंगून के बिल्कुल नहीं। रिलीज़ के दूसरे दिन ही हॉल में मुश्किल से 20-25 लोग थे।

पहले फिल्म का एक सीन। हीरोइन पर सैनिकों का हमला हुआ है और उस पार ले जाने के लिए गदहे बुलाए गए हैं। हीरोइन हीरो को गधाबुलाकर मज़ाक करती है तो हीरो बताता है कि ये गधी है। इत्तेफाक देखिए कि राजनीति के जिस गदहाकालमें गुजरात से आने वाले पीएम भी ज़ोर-शोर से लगे हुए हैं, ‘रंगूनमें भी गधे दिख गए तो अचानक ही हंसी आ गई। रंगून विशाल भारद्वाज की सबसे कमज़ोर फिल्म है। जैसे प्रकाश झा परिणति, दामुलसे होते हुए आरक्षणतक आ गए हैं, विशाल भारद्वाज भी अपने ही पुराने फॉर्मूले में उलझ गए हैं। जब फिल्म कमज़ोर पड़ने लगे, फिर गुलज़ार के गीत भी फार्मूला से ज़्यादा नहीं लगते। मेरे पिया गए इंग्लैंड, बजा के बैंड, करेंगे लैंड.. जैसे गीत गुलाल वाले पीयूष मिश्रा के गीतों का एक्सटेंशन भर लगते हैं।

ऐसा नहीं कि फिल्म में कोई कहानी नहीं है। फिल्म विशाल भारद्वाज की है तो कहानी के कई लेयर हैं। मगर इस बार एक परत देशभक्ति की भी है जो विशाल भारद्वाज का असली फ्लेवर नहीं लगता। लगता है जैसे वो किसी दबाव में फिल्म बना रहे हैं। फिल्म शुरू होने से पहले एक राष्ट्रगानऔर फिर बीच-बीच में आज़ाद हिंद फौज का राष्ट्रगान। नवाब (शाहिद कपूर) कहता है कि अपनी जान से कीमती वो होता है जिसके लिए मरा जा सके यानी देश, मातृभूमि। ये उस निर्देशक का स्टेटमेंट है जो ओंकारा, मकबूल, सात ख़ून माफमें प्यार के हज़ारों सैंपल दिखा चुका है।

इसके अलावा फिल्म में मांभी है। एक बंधक जापानी सैनिक हीरो-हीरोइन को रास्ता दिखाते हुए एक दिन इन्हें मारने को ही होता है कि रो पड़ता है। उसे सिखाया गया है कि जापान में युद्ध से हारकर ज़िंदा लौटने का रिवाज नहीं है। कोई ये नहीं मानेगा कि दुश्मनने उन्हें ज़िंदा जाने दिया। शाहिद कपूर कहते हैं कि कोई समझे, न समझे- मां समझेगी। इतना संवेदनशील सैनिक ऊपरवाला ख़ूबसूरत लड़कियों को इतना बेवकूफ क्यूं बनाता है जैसा हल्का डायलॉग मारता है तो लगता है ये व्हाट्सऐप के दौर की ही कोई फिल्म है। फिल्म के कई हिस्से बहुत भी अच्छे हैं। मगर पूरी फिल्म एक साथ अच्छी नहीं हो पाई। हिटलर की मिमिक्री, प्यार किया अंग्रेज़ी में जैसे गाने और अंग्रेज़ अफसर हार्डिंग की वो बात कि अगर कभी अंग्रेज़ हिंदुस्तान को छोड़ के गए भी तो ये दुनिया के सबसे करप्ट समाज में से एक होगा।

क्लाइमैक्स इतना लंबा है जैसे एडिटर को फिल्म काटने के बजाय रंगून भेज दिया गया हो। एक पुल है जिस पर फिल्म के पंद्रह मिनट लटके हैं। पुल के उस पार कंगना हैं। इस पार उनका पीछा कर रहे अंग्रेज़, उससे प्यार करने वाला रूसी (सैफ) और उसे देशभक्ति का दिव्य ज्ञान देने वाला आज़ाद हिंद फौज का नवाब (शाहिद)। बीच में बहुत से गोले-बारुद हैं जो सबका सबकुछ बिगाड़ सकते हैं, मगर हीरो-हीरोइन का नहीं। विलेन भी इस नाज़ुक पुल पर तभी मरेगा जब हीरो (एंटी-हीरो) उछल कर एक तलवार से उसकी गर्दन उड़ाएगा। यकीन कीजिए आप विशाल भारद्वाज जैसे निर्देशक की ये फिल्म 2017 में देख रहे हैं!


सैफ अली ख़ान पूरी फिल्म में फ्रस्ट्रेटेड नज़र आते हैं। लगता है आधे मन से एक्टिंग कर रहे हैं। शायद विशाल भारद्वाज से नाराज़ हैं कि उनका ख़ानदानी टाइटल नवाबफिल्म में शाहिद कपूर को दे दिया। कंगना और शाहिद ने बढ़िया एक्टिंग की है। मगर विशाल भारद्वाज ने इन्हें इश्क के नाम पर नंगे बदन से आगे नहीं जाने दिया है। ये बॉलीवुड की सीमा है, जो रंगून जाकर भी बदल नहीं पाती। 

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 28 जनवरी 2017

शाहरूख ही सनी लियोनी है, शाहरूख ही सनातन सत्य है !

अगर आप पिछले दस सालों की भोजपुरी फिल्में देखें तो एक जैसी ही नज़र आएंगी। जैसे भोजपुरी फिल्म का नायक कोई देहाती मूर्खजैसा होगा, आइटम सांग गाएगा, शहरी हो जाएगा, हीरोइन खुश हो जाएगी वगैरह वगैरह। ऐसे ही बॉलीवुड की डॉन-आधारित फिल्मों का भी इतिहास देखें तो फॉर्मूला ही सनातन सत्य है। अमिताभ बच्चन से लेकर अजय देवगन से लेकर शाहरूख खान तक सब इस फॉर्मूले के आगे कठपुतलियां हैं। कौन कब और किस नाम से रिलीज़होगा, कोई नहीं जानता। और अगर फिल्म में शाहरूख हैं तो ये फॉर्मूला भी एमडीएच मसाले में लिपटा होगा। लेख के अगले हिस्सों में स्वादानुसार इसका विवरण मिलेगा।
डियर ज़िंदगीके बाद अगर आप शाहरूख खान से बहुत ज़्यादा उम्मीदें लगाए बैठे थे तो आप अत्यंत भोले दर्शक हैं। शाहरूख इस फिल्म में वही करते नज़र आते हैं जो हर दौर में हिट होने के लिए नौसिखिए लोग करते रहे हैं। फिर 50 साल के बाद शाहरूख को ऐसा करने की ज़रूरत क्यूं पड़ी, ख़ुदा जाने! एक ऐसा डॉन जो मरते-मरते भी तीन-चार बेस्टसेलर डायलॉग मारकर जाएगा और फिल्म इंडस्ट्री पर एहसान कर जाएगा।
कहते हैं कि रईसगुजरात के बड़े डॉन अब्दुल लतीफ की असली कहानी पर आधारित है। गुजरात में क़रीब दो दशक पहले जिस तरह बीजेपी ने कुर्सी हथियाई, उसमें वहां के वांटेड गुंडों को शरण देने में उस वक्त के मुख्यमंत्री की चमचई और मौकापरस्ती ही फिल्म का सबसे साहसी कदम है। इसके अलावा आदि से अंत तक बस शाहरूख ही शाहरूख है।
बॉलीवुड की फिल्म का नायक कोई मोस्ट वांटेड क्रिमिनल हो या महापुरुष, उसका बचपन नैतिक शिक्षा से ही शुरू होना है। मां थोड़ा ग़रीब ही होनी है और बहुत इंसाफ पसंद। वो बेटे की कमज़ोर नज़र के लिए दो रुपये की उधारी भी बर्दाश्त नहीं करती। और चूंकि भविष्य के डॉन की मां है तो ऐसे नाज़ुक मौक़ों पर भी ब्रह्मवाक्य की तरह के डायलॉग मारनी नहीं भूलती - 'मैं इसे उधार का नज़रिया नहीं, चौकस नज़र देना चाहती हूं डॉक्टर साहब।' और फिर बेटे की चौकस नज़र सबसे पहले गांधी जी की मूर्ति से चश्मा चुराती है, पुलिस की गाड़ी के आगे आकर शराब के माफियाओं को बचा लेती है वगैरह वगैरह।
फिर जैसे अमिताभ दौड़ते-दौड़ते या राजेश खन्ना रोटी को लेकर भागते-भागते बड़े होते रहे हैं, ये 'रईस' भी मोहर्रम के कोड़े खाते-खाते बड़ा हो जाता है। फिर एक मोहर्रम में जब इस रईस को मारने का प्लान बनता है तो बंदूक वाले शूटर भैया ठीक वहीं खड़े होते हैं जहां से 'चौकस' नज़र वाले रईस की नज़र पड़ जाए। आप एक कॉमेडी नहीं, ख़तरनाक डॉन की फिल्म देख रहे हैं। फिर रईस अचानक शाहरूख खान से शक्तिमान बन जाता है। दीवारों पर चढ़कर, छतों पर गुलाटियां मार-मारकर अपने जानी दुश्मन को मार डालता है। उसे अभी फिल्म में सवा घंटे और बने रहना है।
उसे अभी सबसे अच्छे पुलिस अफसर को ख़ाली ट्रक दिखाकर चकमा देना है। खाली ट्रक में अपने माल की जगह चाय का एक कप छोड़ना है। एक बेवकूफ लड़की से प्रेम करना है। एक ऐसी लड़की जो डॉन की सभी बदमाशियों को गाने गाकर भूल जाती है। वक्त-वक्त पर डॉन की फिल्म में गाने का ब्रेक लेती है। जेल जाने पर रईस जैसे बड़े डॉन को भी पहला कॉल रोमांस के लिए करने पर मजबूर करती है। ख़ुदा बचाए ऐसी प्रेमिकाओं से।
हम 'रईस' को क्यूं याद रखें। क्योंकि 'परज़ानिया' जैसी गंभीर फिल्म देने वाले निर्देशक राहुल ढोलकिया को इस बार शाहरुख ही चाहिए। क्योंकि हम इस तरह की छप्पन हज़ार फिल्में पहले भी देख चुके हैं और इस बार शाहरूख खान है। क्यूंकि आपकी फ्रेंड लिस्ट में आज भी पंद्रह लड़कियां ऐसी हैं जो शाहरूख खान के नाम पर करवा चौथ का व्रत रख सकती हैं। क्योंकि दिन और रात लोगों के लिए होते हैं, शाहरूख जैसे शेरों का तो ज़माना होता है। ओवर एंड आउट!
चलते - चलते : ''पाबंदी ही 'बग़ावत' की शुरुआत है।'' फिल्म का शुरुआती डायलॉग शराबबंदी फेम बिहार सरकार के लिए चेतावनी की तरह है। यानी नए ज़माने के किसी डॉन का बिहार से उदय होने ही वाला है। इंतज़ार कीजिए।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

‘डियर 2016’ के ‘दंगल’ में ‘उड़ता’ बॉलीवुड

साल 2016 में मेरे सिनेमा देखने की शुरुआत एक ऐसी फिल्म से हुई जिसका पहला शो देखने लगभग पांच-छह लोग आए थे। ये फिल्म थी चौरंगाजिसे मेरे कॉलेज के डबल सीनियर (जमशेदपुर और जामिया) बिकास रंजन मिश्रा ने बनाई थी। फिल्म में नाम बड़ा नहीं था, इसीलिए एक बेहतरीन कहानी भी एकाध शो बाद ही भुला दी गई। समाज की लगभग हर समस्या का कॉपीबुक ट्रीटमेंट थी चौरंगाजैसे आप कोई फीचर फिल्म नहीं, किसी फिल्म स्कूल के स्टूडेंट की डिप्लोमा फिल्म देख रहे हों। फिल्म के शुरुआती क्रेडिट्स में ये बताया जाना कि ये एक हिंदी नहीं खोरठा फिल्म है, मेरे लिए पहला अनुभव था।
वज़ीरअमिताभ बच्चन के लिए एक और शानदार फिल्म रही। कोरियन फिल्म मोंटाजमैं देख चुका था इसीलिए इसकी हिंदुस्तानी नकल में मेरी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी। फिर भी महिला मित्र के साथ हॉल जाने का सुख मैं कभी मिस नहीं करता।
साला खड़ूसऔर मस्तीज़ादेएक ही भाषा में अच्छी-वाहियात फिल्मों के विलोम की तरह एक ही हफ्ते में रिलीज़ हुए। मैंने दोनों देखी और अपना विश्वास मज़बूत किया कि राजनीति से लेकर नई हिंदीके लेखक हों या हिंदी फिल्में, सनसनी हो तो दर्शक, पाठक या मतदाता सब जेब में होते हैं। फितूरएक ओवररेटेड फिल्म साबित हुई और अगर ये 1990’s के दौर में आती तो कुमार सानू जैसा कोई सिंगर इसे हिट करा सकता था। नीरजाएक शहीद एयर होस्टेस की सच्ची घटना पर आधारित फिल्म थी और ठीकठाक बनी थी।
हंसल मेहता की अलीगढ़साल की सबसे अलग फिल्म रही मगर दर्शक इसे भी नहीं मिले। ऐसी फिल्मों से बॉलीवुड का क़द पता चलता है। की एंड कामुझे एक मैच्योर फिल्म लगी और मुझे फिर लगा कि मल्टीप्लेक्स का दर्शक ही आने वाले वक्त का सिनेमा तय करता रहेगा। शाहरूख की फैनएक अलग कोशिश तो थी मगर अंत तक आते-आते आप शाहरुख के फैन होने की बजाय किसी पंखे से लटक जाना पसंद करेंगे।
अश्विनी तिवारी की नील बट्टे सन्नाटाने इस साल सबसे अधिक चौंकाया। एक मां और बेटी एक ही स्कूल की एक ही क्लास में पढ़ने जाते हैं। ये सोच कर ही फिल्म देखने का मन कर जाएगा। एक शानदार फिल्म को बार-बार देखा जाना चाहिए। ऐसी गंभीर फिल्म उसी वक्त में हिट होती है जब सनी लियोनी की वन नाइट स्टैंडको भी ठीकठाक दर्शक मिलते हैं। इमरान हाशमी अज़हरमें कॉलर तो सही उठाते रहे मगर फिल्म मीठा-मीठा सच का जाल बनाती रही और उलझ कर रह गई। एक और भारतीय कप्तान धोनीभी इसी साल पर्दे पर उतारे गए और अज़हर से ज़्यादा इमानदारी से उतारे गए।   
धनकनागेश कुकनूर स्टाइल की एक और बेहतरीन फिल्म थी। हालांकि मैं अपने परिवार के जिन बच्चों के साथ फिल्म देखने गया था उन्हें बजरंगी भाईजान भी बच्चों की ही फिल्म लगती है, इसीलिए इस फिल्म का पसंद न आना लाज़मी था। तीन’, ‘रमन राघव-2’ एक्टिंग पर आधारित फिल्में रहीं जिन्हें देखने में पैसे बर्बाद नहीं हुए।
इन सबसे अलग 2016 को याद रखा जाना चाहिए उड़ता पंजाबके लिए। भविष्य में हम किस तरह का सिनेमा चाहते हैं, ये फिल्म उस का एक बयान समझा जाना चाहिए। फिल्म की बहादुरी इसी में समझ आनी चाहिए कि सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म पर तलवार जितनी कैंची चलाई, एक दिन पहले फिल्म लीक भी कर दी गई और फिर भी लोग सिनेमा हॉल तक देखने पहुंचे।
आशुतोष गोवारिकर की मोहनजोदड़ोउनके फिल्मी करियर का बड़ा रिस्क थी। एक तरह की चेतावनी भी कि हर बार एक ही फॉर्मूला लगाने से लगाननहीं बनती। फिल्म में ग्लैमर ज़्यादा था और इतिहास कम इसीलिए वर्तमान के दर्शक उसे ज़्यादा पचा नहीं पाए। मुदस्सर अज़ीज़ की फिल्म हैप्पी भाग जाएगीएक नई तरह की कॉमेडी थी। लड़की अपनी शादी से भागकर जिस ट्रक में कूदती है, उसे सीधा पाकिस्तान पहुंचना होता है। इस तरह पाकिस्तान से रिश्ते तीन घंटे मीठा बनाए रखने के लिए फिल्म का योगदान नहीं भुलाया जा सकता।
साल 2016 के सितंबर का महीना बॉलीवुड के लिए सबसे अच्छा रहा जब पिंक और पार्च्ड जैसी दो साहसी फिल्में पर्दे पर आईं।आने वाले समय में इन फिल्मों को पूरे दशक की सबसे अच्छी फिल्मों में भी गिना जाए तो मुझे ताज्जुब नहीं होगा।
डियर ज़िंदगीइस साल की उपलब्धि कही जा सकती है। सिर्फ इसीलिए नहीं कि फिल्म अच्छी है, मगर इसीलिए भी भी कि शाहरूख अपनी उम्र के हिसाब से रोल करने लगे हैं। आप आलिया भट्ट की तारीफ में इस फिल्म पर बहुत कुछ पढ़ चुके हैं। मगर ये कहानी अकेलेपन के डॉक्टर जहांगीर खान की भी थी। जिनके पास दुनिया को ठीक करने की दवा तो होती है, उनकी अपनी दुनिया बहुत बीमार होती है। क्या हम सब ऐसे ही नहीं होते जा रहे। अकेले लोगों का ऐसा समाज जिनका इलाज किसी छप्पन इंच के डॉक्टर के पास नहीं।

दंगल इस साल की आखिरी बड़ी हिट थी। हिट नहीं भी होती तो भी इस फिल्म का चर्चा में आना तय था। ये फिल्म हमें आश्वस्त करती है कि 16 दिसंबर वाली भयानक राजधानी दिल्ली के बहुत पास लड़कियां समाज के अखाड़े में ख़ुद को बारीकी से तैयार भी कर रही हैं। इसीलिए समाज को थोड़ा विनम्र और महिलाओं के प्रति थोड़ा भावुक हो जाना चाहिए। 

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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