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बुधवार, 29 जून 2022

दीवारें

हरा बतियाता है केसरिया रंग से
काला सबसे सुंदर लगता है सफ़ेदी पर
लाल सबकी जगह बनाता हुआ थोड़े में ही खुश है
नीला रंग कमरे में आसमान उतार लाया है
दीवार रंगे हैं लोई के सतरंगी प्रयोगों से। 

उसे डराता हूँ तो नहीं करती दीवारों को गंदा कुछ क्षण के लिए, 
मगर चूंकि उसका मन साफ है
फिर-फिर उभर आती है कोई पवित्र तस्वीर उसके भीतर। 
और फिर दीवारें भी तो इंतज़ार करती होंगी
एक कोमल स्पर्श का। 

वो चोरी-चुपके रंगती जाती है कोना-कोना
जैसे कोई महान चित्रकार अपना कैनवस रंगता है। 
जैसे किसी ने रंग दिये हैं तमाम धरती के कोने
पेड़, समुद्र और पहाडों से
कोई ईश्वर बैठा है लोई के भीतर 
जो सिर्फ रचना जानता है
डरना नहीं। 

सहम जाती है कभी-कभी 
पिता का मान रखने के लिए
मगर जानती है पिघल जायेंगे पिता
जब देखेंगे दीवारों पर
उसकी रची एक नई भाषा को। 

ठीक है कि मेहमान घर को विस्मय से देखते हैं
क्लास टीचर भी ताना मारती हैं दीवारें देखकर
ऑनलाइन पीटीएम में 
ढूँढने पर भी नहीं मिलता कोई साफ कोना
गिटिर पिटिर करते ही होंगे पड़ोसी। 

बहरहाल 
वो जानती है
क्यूँ भरा मिलता है 
कलर पेंसिल का डिब्बा अक्सर?

रात जब सो जाती है लोई
कौन भरता है चुपके से दीवारों में छूट चुके रंग
और डांट से उपजा उसके भीतर का खालीपन भी।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 1 जनवरी 2017

तीस की उम्र


चांद तक जाती हुई एक सीढी
टूट जाती है शायद
टूट जाते हैं सब संवाद
चांद जैसी धवल प्रेमिकाओं से
तीस की उम्र तक आते-आते।

अकेले कमरे में सिर्फ सिगरेट ही नहीं जलती
पुरानी उम्र जलती है कमरे में
भूख जलती है पेट में,
बिस्तर पर
यादें जलती हैं
ज़िंदगी जलकर सोना हो जाती है
तीस की उम्र तक आते-आते।

समय इतनी तेज़ी से घूमता है
इस उम्र में
कि सब कुछ थम-सा जाता है
आंखें नाचती हैं केवल।
बहुत-सी सांसे भरकर
रोकना होता है भीतर का ज्वार
बहुत तो नहीं रुक पाता फिर भी।

कंधे पर एक तरफ होता है
तमाम ज़िम्मेदारियों का बोझ
बेटी जागती है रात भर
तो प्रेमगीत लोरियां बनते हैं।
पिता पहली बार लगते हैं बूढे
मां किसी खोई हुई चाबी का उदास छल्ला।
दूसरे कंधे पर झूलता है ऐसे में
सूखी पत्तियों की तरह हरा प्रेम।

दुनिया में सब कुछ हो रहा होता है पूर्ववत
कुछ भी नया नहीं
सड़क पर लुटते रहते हैं मोबाइल
बहकते रहते हैं नए लौंडे
कानून तब भी अंधा
एक ही तराज़ू पर तोलता रहा है
उम्र और जुर्म के बटखरे।

सिर्फ नया होता है
एक उम्र का दूसरी उम्र में प्रवेश
अपनी-अपनी बालकनी में खड़े सब भाई-बंधु
युद्ध के मैदान में अचानक जैसे।
तीस की उम्र का रथ होता है एक
कोई सारथी नहीं
जिसके पहिए घिसने लगते हैं पहली बार।

('तद्भव' पत्रिका में प्रकाशित)

निखिल आनंद गिरि

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