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गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

हमारी रातों में सपने हैं, नींद नहीं...

तुम्हारे बाद भी भूख लगती है पेट को,
और आंखों को आंसू आते हैं...
देश में कहीं कोई हड़ताल भी नहीं हुई,
और आप कहते हैं बेवफाई बड़ी चीज़ है...

जहां राजनीति नहीं, वहां सिर्फ प्यार  है..
और प्यार से कवि बना जा सकता है
लेखक बना जा सकता है...
बहुत हुआ तो वैज्ञानिक भी,
मगर एक ऐसा आदमी नहीं,
जिसे गणमान्य समझा जाए।

मेरे पिता से पूछिए,
उन्हें गणमान्य आदमी कितने पसंद हैं..
वो चाहते रहे हमें एक ख़ास आदमी बनाना...
लाल बत्ती न सही, गाड़ी ही कम से कम...
और हम पैदल चलते रहे सड़कों पर,
पांच रूपये की मूंगफली और हथेली थामे...

हम दोनों एक ही अखबार पढ़ते हैं...
अलग-अलग शहरों में....
पिता का समाज और है,
हमार समाज कुछ और...
फिर भी हम एक परिवार के सदस्य तो हैं....
जहां मां जोड़ती है दोनों को..
और बालों का ख़ालीपन भी...

उन्हें नींद नहीं आती हमारी फिक्र में ...
हमें नहीं आती कि हमारे पास सपने हैं...
जो पूरे नहीं होंगे कभी...
और देखिए किसी सरकारी दफ्तर की तरह,
हर तरफ रातें हैं,
मगर किसी काम की नहीं....

वो सुबह का वक्त था
कि एक दिन पटरियों के दोनों ओर,
पांव फैलाकर चल रहे थे हम
और तुम्हारी हथेली थी मेरी आंखों पर..
मैंने पहली बार एक सपने की आवाज़ सुनी थी...

देखना एक दिन हम भी अमीर हो जाएंगे
और हमारे बच्चे आवारा....
उन्हें मालूम होगा सिर्फ ख़ून का रंग
और फिर भी शरीफ कहे जाएंगे
उस सपने को चुराकर बनेगी फिल्म
तो नाम क्या रखा जाएगा ?

निखिल आनंद गिरि
(संवदिया पत्रिका में प्रकाशित)

रविवार, 19 जून 2011

पापा के नाम...

मुझे याद है,

जब मेरी ठुड्डी पर थोडी-सी क्रीम लगाकर,

तुम दुलारते थे मुझे,

एक उम्मीद भी रहती होगी तुम्हारे अन्दर,

कि कब हम बड़े हों,

और दुलार सकें तुम्हे,


आज भी ठीक से नहीं बन पता शेव,

ठुड्डी पर उग आई है दाढी,

उग आए हैं तुम्हारे रोपे गए पौधे भी,

(भइया और मैं...)

मैं बड़ा होता रहा तुम्हे देखकर,

तुम्हारी उम्र हमेशा वही रही...


तुमने कभी नहीं माँगा,

मेरे किए गए खर्च का हिसाब,

एक विश्वास की लकीर हमने,

खींच-ली मन ही मन,

कि,

जब कभी कोई नहीं होता मेरे साथ,

मेरे आस-पास,

तुम दूर से ही देते हो हौसला,

साठ की उम्र में भी तुम,

बन जाते हो मेरे युवा साथी,

पता नहीं मैं पहुँच पाता हूँ कि नहीं,

तुम तक,

जब सो जाती है माँ,

और तुम उनींदे-से,

बतिया रहे होते हो अपनी थक चुकी पीठ-से,

काश, मैं दबा पाता तुम्हारे पाँव हर रोज़!!



अक्सर मन होता है कि,

पकड़ लूँ दिन की आखिरी ट्रेन

और अगली सुबह हम खा सकें,

एक ही थाली में...



तुम कभी शहर आना तो

दिखलाऊं तुम्हे,

कैसे सहेज रहे हैं हम तुम्हारी उम्मीदें,

धुएं में लिपटा शहर किसे अच्छा लगता है...


मैं सोचता हूँ,

कि मेरा डॉक्टर या इंजीनियर बनना,

तुम्हे कैसे सुख देगा,

जबकि हर कोई चाहता है कि,

कम हो मेरी उपलब्धियों की फेहरिस्त.....

मैं सोचता हूँ,

हम क्या रेस-कोर्स के घोडे हैं,

(भइया और मैं...)

कि तुम लगाते हो हम पर,

अपना सब कुछ दांव..


तुम्हारी आँखें देखती हैं सपना,

एक चक्रवर्ती सम्राट बनने का,

तुमने छोड़ दिए हैं अपने प्रतीक-चिन्ह,

(भइया और मैं....)

कि हम क्षितिज तक पहुँच सकें,

और तुम्हारी छाती चौड़ी हो जाए

क्षितिज जितनी..


रोज़ सोचता हूँ,

भेजूँगा एक ख़त तुम्हे,

मेरी मेहनत की बूँद से चिपकाकर,

और जब तुम खोलो,

तुम्हारे लिए हों ढेर सारे इन्द्रधनुष,

कि तुम मोहल्ले भर में कर सको चर्चा...

और माँ भी बिना ख़त पढे,

तुम्हारी मुस्कान की हर परत में,

पढ़ती रहे अक्षर-अक्षर....

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

सौ बार मर गया...

इस बार कुछ उम्मीद से मैं अपने घर गया...

वीरान चेहरे देखकर, चेहरा उतर गया..


बाबूजी थे खामोश, मां अजनबी लगी,

हर एक पल में सच कहूं, सौ बार मर गया...


ज़ख्मों को देख और भी नमकीन हुए लोग,

ऐ ज़िंदगी, मैं तेरे तिलिस्मों से डर गया..


ये पीठ थी, रक़ीब के खंजर के वास्ते

शुक्रिया ऐ दोस्त, ये अहसान कर गया...


सब झूठ है कि रूह को देता है सुकूं इश्क,

मैं जिस्म तक गया, वो तल्खी से भर गया....


सर्दी पड़ी, अमीरी रज़ाई में छिप गई...

फिर मौत का इल्ज़ाम ग़रीबी के सर गया...

निखिल आनंद गिरि
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रविवार, 17 अक्तूबर 2010

प्यारी झुकी हुई रीढ़ के नाम....

हे ईश्वर!

हम तुम्हारी दी हुई रीढ़ से परेशान हैं....

गाहे-बगाहे झुक जाती है,

या झुका दी जाती है...

गलत उम्र में....

जिस उम्र में पिता के पांव छूने थे...

और बहुत से बुद्धिजीवी मुच्छड़ों के...

दिमाग ने कहा,

रीढ़ बन जा ढ़ीठ

तो तनी रही पीठ...

जिस उम्र में पढ़नी थी किताबें...

और रटने थे उबाऊ पहाड़े....

या फिर कंठस्थ करने थे सूत्र

कि ज़हरीली गैसों के निकनेम कैसे पड़े.....

हम खड़े रहे स्कूल  की बालकनी में...

घंटों संभावनाएं तलाशते...

बांहों में बांहे पसारे....

इसी तनी रीढ़ के सहारे..

हम चले थे लेकर रौशनी की तरफ...

मां के कुछ मीठे पकवान,

और छटांक भर ईमान.....

जो शहर के लिए अनजाने थे...

अब ठीक से याद नहीं,

मगर तब भी रीढ़ तनी हुई थी...

फिर अचानक...

कुछ लोग थे जो गड़ेरिए नहीं थे...

वो शर्तिया पहली नज़र का धोखा रहा होगा..

मगर उन्हें चाहिए थे खच्चर...

कि जिनकी पीठ पर लाद सकें...

वो अपनी तरक्की का बोझ..

उन्होंने छुआ हमारी सख्त पीठ को...

और एक सफेद कागज़ पर लिए नमूने....

हमारी भोली ख्वाहिशों का....

वो ज़ोर से हंसे...

और हमने अपनी आंखे मूंद ली...

(और हमें दिखा अपने मजबूर पिताओं का चेहरा)

फिर अचानक झुक गई रीढ़...

और हम उम्र से काफी पहले...

हे ईश्वर! बूढ़े हो गए...

 
निखिल आनंद गिरि
 
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ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

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