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मंगलवार, 8 नवंबर 2022

मेट्रो से दुनिया

एक बांह सटे-सटे
हिचकोले खाते चली बोटैनिकल गार्डन से
बिछड़ी मंडी हाउस के आसपास शायद।

एक कंधा सटे-सटे 
बिन देखे बातें करता 
चलता रहा नोएडा से 
मुस्कुरा कर बिछड़ा शादीपुर में।

कई कपड़े सूखते रहे मेट्रो के उस पार
बालकनियों में, छज्जों पर
मन हुआ चिल्ला कर कह दूं
उड़ रहा है एक कपड़ा
क्लिप लगा दो।
 
गिरने-गिरने को है कोई ढंका हुआ बनियान 
निचले तल्ले पर
झट आकर लड़ पड़ेगी नीचे वाली मैडम
एक गुस्से को फूटता हुआ देख नहीं सकूंगा
रफ्तार भरी मेट्रो से।

एक भली-सी दिखती लड़की
बुरे नेटवर्क में मोबाइल लेकर बैठी है छज्जे पर
एक चश्मे वाले सज्जन अख़बार में घुसे हुए हैं
पूरा शहर धुएं में हैं, शोर में है
पानी की टंकी भर गई है
कोई देखने वाला नहीं।
मेट्रो के उस पार जैसे कोई फिल्म चल रही है
बिना टिकट। 

एक गंदे बालों वाला युवक
थूकने की जगह ढूंढता रहा प्लैटफॉर्म पर
फिर चोरी से ढूंढ ली एक साफ जगह।
मैं अपना गुस्सा दबाए बढ़ता जा रहा हूं 
ऐसे कई किस्सों को आधा-अधूरा छोड़कर।

एक बूढ़ा होता आदमी
झांकता ही जाता है एक लड़की के मोबाइल में
दो लड़के और झांकते हैं इधर-उधर
मेट्रो में सब झांकते बढ़े जाते हैं 
अपनी मंज़िल की ओर।

एक बच्चा उलट रहा है इधर-उधर
एक बच्चा प्यास से बिलट रहा है
उसकी चीख से टूट रहा है पूरे डिब्बे का सब्र
अच्छे-भले, संजे-संवरे दिखते लोग
अचानक बंजर होकर घूरने लगे हैं

बच्चा निडर रोए जा रहा है
मेट्रो इन सबको ढोती चलती ही जा रही है।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 17 दिसंबर 2016

‘कड़क चाय’ ही नहीं, ‘कड़क लौंडे’ भी हमें कंगाल कर देंगे

विविध भारती के ज़माने से रेडियो सुनता आ रहा हूं। अब तो ख़ैर विविध भारती भी एफएम पर दिल्ली में सुनाई दे जाती है। मगर दिल्ली में एफएम के तौर पर मिर्ची, रेड या गोल्ड ही मशहूर हैं। रौनक यहां बउआहै तो नावेद यहां मुर्गा बनाता है। सारे चैनल दिल्ली वालों की बैंडबजाते हैं और यही दिल्ली के रेडियो का आधार कार्ड यानी पहचान है। दिल्ली के मशहूर 93.5 ‘RED FM’ के दो कड़क लौंडे (रेडियो जॉकी) आशीष और किसना के साथ एक शाम गुज़ारने का मौक़ा मिला। उनके शो अगला शो तेरी कार सेमें उन्हें दिल्ली की सबसे भरोसेमंद कार के तौर पर दिल्ली मेट्रो में रिकॉर्डिंग करनी थी और मैं उनके साथ था। रेडियो कितना बदल गया है, ये एहसास उन तीन घंटों में मुझे ख़ूब होता रहा।     

युनूस ख़ान (विविध भारती वाले) मेरे साथी हैं और जब भी उनसे फोन पर बात होती है, उनकी गहरी आवाज़ ये बताती है कि रेडियो की पुरानी ब्रांड पहचान के तौर पर इस तरह की आवाज़ों का वो आखिरी दौर हैं। 2016 में विविध भारती के साठ साल पूरे होने पर भी उनके कार्यक्रमों में पुराने लोगों से बातचीत, रिसर्च किए हुए प्रोग्राम और ठहरी हुई आवाज़ों के सिलसिले थे। इधर RED FM उसका एकदम विलोम था। उसके दोनों एंकर (कड़क लौंडे) किसी जमूरे की तरह कूद-कूद कर दो घंटे का शो तैयार कर रहे थे। अगर मैं युनूस ख़ान को कड़क लौंडा जैसा कुछ बोल कर इंप्रेसकरने की कोशिश करूं तो मुझे नहीं लगता वो ज़्यादा दिन मेरे दोस्त रहना पसंद करेंगे। मगर दिल्ली अपने एफएम रेडियो के प्रेज़ेंटर का सम्मान ऐसे ही करना चाहती है। वो चाहती है कि रेडियो उनकी बजाता रहे। ऐसा रेडियो वालों को लगता है।

दो घंटे का शो बनाने के लिए इन दो लौंडो के पास आधे घंटे का मेट्रो सफर था। यानी बाक़ी डेढ़ घंटे में ठूंस-ठूंस कर गाने और विज्ञापन भरे जाने थे। इस आधे घंटे की स्क्रिप्ट (जो एक पेज पर दस प्वाइंट्स का प्रिंट आउट) में सिर्फ ये लिखा था कि इन्हें किसके साथ प्रैंक(बेवकूफ बनाकर मज़े लेना) करना था और किससे डीएमआरसीका फुल फॉर्म पूछ कर इनाम देना है। दोनों एंकर्स सचमुच बहुत फुर्ती के साथ सब कुछ मैनेजकर रहे थे। कैमरे के आगे पोल डांसकरना, लोगों से बात-बात में मज़े लेना, दोड़-दौड़ कर इस कोच से उस कोच तक लोगोंको पकड़ना वगैरह वगैरह। तो रेडियो के दो घंटे का मसाला ऐसे तैयार होता है कि इसमें सैंकड़ों ग़लतियों, गालियों और बेवकूफियों की भरपूर गुंजाइश होती है।
दिल्ली के दो कड़क लौंडे

मुझे आकाशवाणी में एक बार युववाणीमें अपनी कविताएं पढ़ने के लिए बुलाया गया था। सिर्फ एक बनियाशब्द पर पूरी कविता बदलने की सलाह दे दी गई। कार्यक्रम तक नहीं रिकॉर्ड हुआ। ये एक सरकारी रेडियो की ज़िम्मेदारी का पैरामीटर है जहां प्राइवेट रेडियो कुछ भी चला सकता है। उसके पास इसकी न तो फुर्सत है, न सलाहियत कि इन फालतू बातों पर सोच पाए।

ये सब कहते हुए मैं उन दोनों एंकर्स की तारीफ करना चाहता हूं जो अपनी तरफ से शरीफ रहने की हर कोशिश करते हैं, मगर उनका चैनल उन्हें बदतमीज़बनाकर पैसा वसूल शो चाहता है। अकेले में बातचीत पर पता चला कि आशीष (कड़क लौंडा) को पुराने गाने पसंद थे, मेरी आवाज़ में कोई रेट्रो शो सुनने की इच्छा थी, मगर ख़ुद रेडियो के सामने वो ऐसे प्रेज़ेंट हो रहे थे जैसे उनकी ट्रेन छूट रही हो और उनके पास WhatsApp के ज़माने में भी कोई सबसे नया या गंभीर चुटकुला हंसाने को बचा हो। उनकी ज़िंदगी रेडियो पर किसी सेलेब्रिटी जैसी होगी, मगर एक शो करने के लिए उन्हें बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। एक शो की भागमभाग रिकॉर्डिंग के बाद उनके चैनल की गाड़ी तक उनके पास टाइम से नहीं पहुंचती और उन्हें आज़ादपुर सब्ज़ी मंडी के किनारे भूखे-प्यासे घंटो इंतज़ार करना पड़ता है। आप मानेंगे ही नहीं।

इस तरह का रेडियो मुझे बहुत सुकून नहीं देता। बिना शक इस तरह के चैनल, जॉकी भी जल्दी ही मशहूर, फिर महान हो जाएंगे। मगर सच कहता हूं ये जो भी मेहनत करते हैं, उनकी वैल्यू गोलगप्पे के खट्टे पानी जितनी ही है। एक बार अंदर गया फिर फ्लश में बाहर। इस देश को न सिर्फ बेहतर मतदाता चाहिए, बल्कि बेहतर श्रोता भी चाहिए।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

लिपटकर रोने की सख्त मनाही है...

रात में सियारों की हुंआ-हुंआ की तरह
सुनाई देती है मेट्रो की हल्की आवाज़
पेड़-पौधों की तरह दिखते हैं
दूर-दूर तक वीरान मकान...
शिकार के लिए ढूंढने नहीं पड़ते शिकार
बाइज्ज़त होम डिलीवरी की भी व्यवस्था है...
और मुझे ये सच कहने पर चालान मत कीजिए
कि हम एक जंगल को शहर समझने लगे हैं....
ऐसा नहीं कि पहली बार लिखा गया हो ये सब
मगर ये हर भाषा में बार-बार बताया जाना ज़रूरी है

जैसे बार-बार बनाई जानी होती है दाढ़ी
याद किए जाने होते हैं आखिरी विलाप
छूने होते हैं पांव, बेमन से....
घर लौटना होता है नियम और शर्तों के बिना
बीमार होने पर वही कड़वी दवाईयां बार-बार
जैसे बार-बार बदलते बेटों के लिए
नहीं बदलते मां के व्रत
और सुनिए इस शहर के चरित्र के खिलाफ
आपको दुर्लभ दिखने के लिए रोना हो बार-बार...
तो ठूंठ पेड़ बचाकर रखिए दो-चार...
किसी से लिपटकर रोने की सख्त मनाही है...

इस शहर में छपने वाले अमीर अखबारों के मुताबिक
निहायती ग़रीब, गंदे और बेरोज़गार गांवों से...
वेटिंग की टिकट लेने से पहले मुसाफिरों को... 
ख़रीदने होते हैं शहर के सम्मान में
अंग्रेज़ी के उपन्यास...
गोरा होने की क्रीम..
सूटकेस में तह लगे कपड़े...
और मीडियम साइज़ के जॉकी....
हालांकि लंगोट के खिलाफ नहीं है ये शहर..
और सभ्य साबित करने के लिए
अभी शुरु नहीं हुआ भीतर तक झांकने का चलन...

यहां हर दुकान में सौ रुपये की किताब मिलती है
जिसमें लिखे हैं सभ्य दिखने के सौ तरीके
जैसे सभ्य लोग सीटियां नहीं बजाते
या फिर उनके घरों में बुझ जाती हैं लाइट
दस बजते-बजते...
या जैसे मोहल्ले की पुरानी औरतें कहती हैं
अच्छे या सभ्य नहीं होते 47 वाले पंजाबी..

बात-बात पर आंदोलन के मूड में आ जाता है जो शहर...
हमारे उसी शहर में थूकने की आज़ादी है कहीं भी...
गालियां बकना नाश्ते से भी ज़रूरी है हर रोज़...
और लड़कियों के लिए यहां भी दुपट्टा डालना ज़रूरी है..
जहां न बिजली जाती है कभी और न डर।

जिनकी राजधानी होगी वो जानें..
किसी दिन तुम इस शहर आओ
और कह दो कि मुझे सफाई पसंद है..
तो पूरे होशोहवास में सच कहता हूं,
डाल आऊंगा...कूड़ेदान में सारा शहर...

निखिल आऩंद गिरि

शनिवार, 2 जून 2012

मैं एक कूटभाषा में लड़ना चाहता हूं...

मुझे रह-रह कर अपना बचपन याद आ रहा है। एक स्कूल जहां रिक्शा घंटी बजाता आता तो हम पीछे वाले डिब्बे में बैठ जाते। रिक्शेवाला दरवाज़े की कुंडी लगा देता और हम चुपचाप शोर मचाते स्कूल पहुंच जाते। कोई हाय-हल्लो या हैंडशेक नहीं। सीधे-सीधे आंखो वाली पहचान। हम रिक्शे में बैठे होते और रास्ते के किनारे एक टूटी-सी कंटेसा कार खड़ी होती। हम रोज़ उसे देखा करते। वो कार आज कहीं नहीं दिखती, मगर वो है कहीं न कहीं। ऐसे फॉर्म (आकार) में नहीं कि उसे छू सकें, देख सकें, मगर एकदम आसपास है। ये कोड लैंग्वेज (कूटभाषा) बचपन की विरासत है हमारे साथ जो हर अच्छे-बुरे वक्त में काम आती है।

मेट्रो में एक चेहरे को देखकर मेरी निगाहें रुक गई हैं। उसके चेहरे में मेरी पहचान का कोई पुराना चेहरा नज़र आ रहा है। वो मुझसे कई क़दम के फासले पर है। मैं उसकी आवाज़ नहीं सुन सकता। मगर, वो चेहरा कुछ कह रहा है। मैं उसे एकटक देख रहा हूं। सामने एक आदमी आकर खड़ा हो गया है। हालांकि, उससे मेरी कोई पहचान नहीं है। मगर, उससे मुझे चिढ हो गई है। फिर कई सारे आदमी सामने आ गए हैं। मैं सबसे चिढ़ने लगा हूं। एक रिश्ते को ढंक दिया है इन सारे अनजान आदमियों ने, जिनसे दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं। मैं अगर लड़ना भी चाहूं तो किससे लड़ूं। किस कूटभाषा में लड़ूं। क्या लड़ाईयों की कूटभाषा नहीं होती।

स्कूल की एसेंबली में एक लड़की याद आती है। मुझसे बहुत लंबी। दरअसल, मैं ही क्लास में सबसे छोटा। क्लास की लाइन में मेरा हाथ पकड़कर सबसे आगे करती हुई। फिर चुपचाप लाइन में सबसे पीछे जाकर खड़ी होती। उसके सीने पर दाहिनी ओर मॉनिटर लिखा  हुआ। प्रार्थना शुरू होती तो मैं सबकी आंखे देखता, जो मुंदी हुई होतीं। मेरी आंखें लाइन में पीछे मुड़तीं। सबसे पीछे तक। वो लड़की अपने हाथ जोड़े, मगर आंखें खुली हुई। हम एक कूटभाषा में आज भी बात करते हैं, पता नहीं वो समझ पाती है कि नहीं।

मैं अब भी वो कूटभाषा सीख रहा हूं जब कीबोर्ड की दो बूंदों वाला एक बटन किसी ब्रैकेट वाले दूसरे बटन के साथ जुगलबंदी कर ले तो हम मुस्कुराने (स्माइली) लगते हैं या फिर उदास दिखने लगते हैं।  क्या ज़िंदगी में ऐसा नहीं हो सकता। हम जिन्हें चाहते हैं, वो दिखें, न दिखें। मिलें, न मिलें। बात करें, न करें। बस इतना कि ज़िंदगी में उनकी मौजूदगी का एहसास बना रहे। किसी भी आकार में। सॉलिड में न सही, लिक्विड या गैस में ही सही।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

अगला स्टेशन 'शादी'पुर है, कृपया सावधान रहें...

दिल्ली मेट्रो में वैशाली स्टेशन से लेकर द्वारका या द्वारका से नोएडा सिटी सेंटर स्टेशन तक का सफर कर लिया तो समझिए मिनी-भारत यात्रा कर ली। पर्यटकों के लिए चार्टर्ड बसों में यही यात्रा ज़्यादा पैसे देकर होती है, मेट्रो में 20-25 रुपये में। वैशाली से जब मेट्रो खुलती है (दिल्ली में ट्रेन 'खुलती' है बोलिए तो लोग समझ जाते हैं कि सामने वाला बिहार से है, यहां ट्रेन चलती है !) तो लगता है बिहार से चली है। झोरा, (झोला) बोरा, पेटी बक्सा, कार्टून सब के साथ पैसेंजर चढ़ता है। ठसाठस। 

चारों तरफ फोन बजता रहता है।

रिंगटोन 1 - चाल चले ली मतवाली बगलवाली....
आवाज़ एकदम तेज़, पूरी बोगी मुड़कर देखने लगती है तो रिंगटोन को साइलेंट पर लेकर नंबर देखा जाता है, फिर बात शुरू....
'हां, पहुंच गेली' ,
'टाइमे से पहुंचा दिया ट्रेन'
'आवाज झरझरा रहा है, पहुंच के फोन करइछी....'
'पहुंच के फोन करते हैं फेरु...'

रिंगटोन 2-  शुरू हो रही है प्रेम कहानी..
फिर शोर की हद तक गाना बजता है। सुबह-सुबह आधी नींद में बैठे यात्री अचानक रिंगटोन को घूरने लगते हैं। रिंगटोन अचानक चुप हो जाती है।

फिर एक 'बिग बॉस' नुमा आवाज़ गूंजती है...
''मेट्रो में अनजान लोगों से दोस्ती न करें.....'

मैं अपने पर्स पर हाथ डालता हूं, देखता हूं वो सही जगह पर ही है। मुझे सुकून होता है। सब एक-दूसरे को शक की निगाह से देखते हैं, संतुष्ट होते हैं। मेट्रो तुम कितनी अच्छी हो। शिष्टाचार से लेकर अच्छे-बुरे की पहचान का सारा ठेका तुम्हारा है। तुमने हमें दान करना सिखाया है। रक्तदान, जीवनदान, ये दान, वो दान के बाद अब 'सीट' दान। कहीं लिखा नहीं मगर हम जानते हैं..ज़रूरतमंद की सहायता करना हमारा धर्म है। .सीट देकर पुण्य के भागी बनें । बूढ़ी निगाहें युवा आंखों में झांककर कहती हैं 'तुम हमें सीट दो, हम तुम्हें थैंक्यू कहेगे'...ओह मेरी मेट्रो, तुम कितनी अच्छी हो।

मेट्रो से नीचे एक अलग ही दुनिया दिखती है। सड़कों पर कारों का मैराथन जैसा दिखता है। सामने एक सरकारी स्कूल भी है, बच्चे खेल रहे हैं। कल ये बच्चे इन्हीं कारों में आ जाएंगे। फिर इनके बच्चे इन स्कूलों में नहीं जाएंगे। मेट्रो के भीतर भी बच्चे खेल रहे हैं। मेट्रो की डंडी पकड़कर से गोल-गोल घूंम रहे हैं। बच्चों के चेहरे बदल जाते हैं, मगर वो घूमते एक ही तरह से हैं। एक बड़़ी-सी होटलनुमा बिल्डिंग दिखती है। फिर सामने उतना ही बड़ा नाला। नाले में बिल्डिंग ख़ूबसूरत लगती है। मेट्रो चली जाती है। पहला डिब्बा लेडीज़ का है। दूसरा डिब्बा भी लेडीज़ एक्सटेंशन बना हुआ है। कोई विरोध नहीं है। सब मज़े में हैं।

राजीव चौक से द्वारका की तरफ आते-आते मेट्रो का बिहार 'पंजाब' में तब्दील होने लगता है।
अगला स्टेशन शादीपुर है...कृपया सावधानी से उतरें। ये शादीपुर स्टेशन सचमुच डरावना लगता है।यहां कितनी शादियां होती होंगी, सोचता हूं। बड़ा मजबूर, लटका हुआ सा स्टेशन होगा ये शादीपुर। मुझे इस स्टेशन पर नहीं उतरना। मेट्रो, काश तुम असल ज़िंदगी में भी ऐसे ही सावधान कर पातीं।

फिर कीर्तिनगर, मोतीनगर, रमेशनगर। कोई रमेश नाम का आम आदमी यहां रहता होगा, जिसे मेट्रो ने सेलिब्रिटी बना दिया है। फिर जनकपुरी से लेकर सेक्टरमय द्वारका सब एक ही ट्रिप में दर्शन देते हैं। 'वैशाली' से खुलकर ट्रेन 'नवादा' पहुंच गई है। घूम-घूमकर बिहार, पंजाब सब दिखते हैं मेट्रो में, बस दिल्ली नहीं दिखती। ये दिल्ली अभी बहुत दूर है। कहीं खो गई है मेट्रो की भीड़ में। जैसे सौ साल की कोई बुढ़िया मेले में खो जाती होगी। 'बिग बॉस' , तुमने इस बुढ़िया को सावधान नहीं किया था क्या....

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 9 जुलाई 2011

मेट्रो में पिता

मेरे पिता जब मेट्रो में होते हैं...


तो उनकी नज़रें नीची होती हैं..


एक दुनिया जो छूटती जाती है मेट्रो से..

एक मीठी आवाज़, एक गंभीर आवाज़...

बताती है उन स्टेशनों के नाम....

‘अगला स्टेशन प्रगति मैदान’


पिता उन आवाज़ों से अनछुए..

निहारते हैं प्रगति मैदान के नीचे

एक गंदी बस्ती है शायद..

मुस्कुराते हैं पिता....

शायद याद आया हो गांव..

और बर्तन मांजती एक औरत...

शायद याद आए हों गांव के लोग....

जो नहीं दिखते कहीं मेट्रो में....


सब उदास लोग, सब अकेले...

और सबसे अकेले पिता..

जिनके मेट्रो में भी गांव है...

और शायद संतोष भी..

कि मेट्रो दिल्ली में ही है....

वरना गांव भी उदास हुआ करते...


निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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