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शनिवार, 27 जनवरी 2018

जब चित्तौड़ जल रहा था, एक ब्राह्मण बंसी बजा रहा था


जी हां। और बंसी पर बज रहा था ‘राग यमन। और वो ब्राह्मण था चित्तौड़ का पुरोहित राघव चेतन। राजपूतों ‘की, के लिए और द्वारा’ प्रचारित, पोषित, तोड़ित-फोड़ित इस फिल्म में मुझे इस ब्राह्मण का रोल सबसे ज़्यादा वज़नदार दिखा। आश्चर्य कि करणी सेना की जगह किसी ‘ब्राह्मण सेना’ का उदय फिल्म से पहले संजय लीला भंसाली नहीं जुगाड़ पाए। शायद इसीलिए क्योंकि करणी सेना के पास बचाने को दीपिका पादुकोण थी और ब्राह्मण सेना (जो पूरी तरह से काल्पनिक है) के पास एक निहायत कम पॉपुलर एक्टर।


इससे पहले कि फिल्म के कुछ मुद्दों पर कुछ कहूं, राजपूतों पर मेरा फ़िल्मी सामान्य ज्ञान ज़ाहिर करने का वक्त आ गया है। राजपूत (मर्द) दो प्रकार के होते हैं एक ‘भंसाली सेना’ के राजपूत और दूसरे ‘करणी सेना’ के राजपूत। भंसाली सेना के राजपूत बहुत अच्छे, मज़बूत उसूलों वाले होते हैं। वो एक बार दूसरी शादी कर लेते हैं, फिर अपनी पहली पत्नी से पूरी फिल्म के दौरान बात तक नहीं करते। अपनी औरतों को जौहर (सती) की परमिशन देकर युद्ध में लड़ने जाते हैं। जब भी युद्ध जैसी कुछ गंभीर परिस्थिति आती है वो लंबे-लंबे गाने गाते हैं और 'राजपूत ये-राजपूत वो' करते रहते हैं। करणी सेना के राजपूत को हम डिजीटल इंडिया में देख ही रहे हैं। वो जी डी गोयनका स्कूल की बस के शीशे तक तोड़ देते हैं। उनके डर से स्कूली बच्चे, महिलाएं दुबक कर बैठ जाती हैं। वो अर्नब गोस्वामी के शो में अंग्रेज़ी में बात करते हैं। और अपनी गुंडागर्दी का सही फिल्मांकन नहीं होने पर संजय लीला भंसाली को थप्पड़ भी मारते हैं। 

फिल्म के बारे मेंआप सब फिल्म की रिलीज़ से काफी पहले से हीसब कुछ सुन चुके हैं। इसीलिए मेरे पास बताने को कुछ भी नया नहीं है। हांकरणी सेना को मेरा ये लेख पढ़कर थोड़ा दुख और पहुंचेगा क्योंकि मैं चश्मदीद गवाह हूं कि लाख कोशिशों की बावजूद वो अपनी ‘आनबान और शान’ पद्मावती (दीपिका पादुकोण) को अंबा टॉकीज़ में घूमड़ नाचने से नहीं रोक सके। पद्मावती’ को देखने के लिए 2 D और 3 D ऑप्शन भी उपलब्ध थे। मगर मैंने 13वीं सदी का विकल्प चुना। पुलिस की पीसीआर वैन की निगरानी मेंलंबी लाइन मेंटिकट के लिए घंटो इंतज़ार वाला तरीका। मैं चाहता था कि महारानी पद्मावती का नाच मैं अंबा सिनेमा की फ्रंट लाइन में बैठकर देखूं ताकि करणी सेना के ज़ख्मों पर बोरी भर नमक और पहुंचे। 
रानी पद्मावती पर सब्ज़ी मंडी इलाके की हर जाति के दर्शकों ने तालियां बजाईंसीटियां बजाईहोली में उन्हें राजा रतन सिंह के साथ बहुत अंतरंग होते देखा। फिर भी करणी सेना सब्ज़ी मंडी थाने के पुलिसिया डंडे के डर से चूं तक नहीं बोलने आई। धिक्कार है ऐसे बहादुरों पर।
संजय लीला भंसाली की इस पौने तीन घंटे की फिल्म में ‘राजपूत’ शब्द हर दूसरे मिनट पर एक बार बोल दिया गया है। आज की तारीख में इससे मिलता-जुलता शब्द ‘विकास’ हैजो भक्त किस्म के लोग हर सांस के साथ बोलने के आदी हैं। 
फिल्म इतनी बुरी नहीं जितनी कुछ बुद्धिजीवी बता रहे हैं। और इतनी अच्छी तो बिल्कुल ही नहीं कि बार-बार देखी जाए। भंसाली की इस फिल्म में जहां खिलजी के ग़ुलाम या बेगम मेहरुन्निसा तक को बेहतर स्पेस मिला है, अमीर खुसरो को बेहद नालायक रोल मिला है। खिलजी के किरदार में रणबीर सिंह अच्छे तो हैं, मगर कभी-कभी वो क्रूरता की ओवरएक्टिंग में एक अय्याश जोकर जैसे लगने लगते हैं। जिस ‘पद्मावती’ के लिए पूरी कहानी रची गई, उसने फिल्म में बताया कि  रूप या गुण देखने वालों की आंखों में होता है। तो ‘रानी सा’ के मुताबिक अपनी नज़र से मैं अगर दीपिका पादुकोण को देखूं तो मुझे कहीं से भी वो इतनी सुंदर नहीं दिखतीं जिनके लिए अलाउद्दीन खिलजी तीन घंटे तक अंबा सिनेमा में तूफान मचाता रहे। राजा रतन (शाहिद कपूर) सेन इतने कृशकाय दिखते हैं (यह तेरहवीं सदी का एक शब्द है, जिसका मतलब ‘ज़ीरो फिगर’ होता है) कि उन्हें देखकर राजपूत खानपान शैली पर सहानुभूति ही ज़्यादा होती है।
खिलजी के डायलॉग, नाच-गाने की वजह से फिल्म मज़ेदार दिखती है। राजपूत सेनापति का वो शॉट जिसमें वो गर्दन कटने के बाद भी तलवार भांजता है, रोंगटे खड़े करने वाला है।मगर जैसे ही हम चित्तौड़ प्रवेश करते हैं, वहां एक छत से राजपूत बहादुर इतनी दूर तक देख लेता है, जितनी दूर से चित्तोड़ आने में खिलजी को सुबह से शाम हो जाए। ऐसे ‘दूरदर्शी’, बहादुर लोगों का इतिहास जौहर वाली रानियों के साथ ही लिखा गया, इसीलिए बार-बार इस काम के लिए भंसाली को कोसना ठीक नहीं।

हांसती प्रथा को जिस तरह से उन्होंने भव्य और ग्लैमर दिया है, वो इस निर्देशक की नीयत पर संदेह पैदा करता है। नीयत तो इतनी ख़राब है कि राजपूत (हिंदू) राजकुमार का दूसरी रानी लाना भी अच्छा और खिलजी (मुसलमान) का एक तंदूरी चिकेन खाना भी बुरा होने की निशानी बना कर रख दिया है। नीयत इतनी ख़राब कि राजपूताना का कबाड़ा किया एक ब्राह्मण ने और इल्ज़ाम आया एक मुसलमान (खिलजी) के सर। 

क्लाइमैक्स के नाम पर पूरी बेशर्मी से एक गर्भवती स्त्री, एक नाबालिग़ लड़की को जौहर के लिए जाते दिखाना लगभग अपराध जैसा है। जब तक रतन सिंह खिलजी से लड़ता रहा, पद्मावती का सती प्रथा पर लंबा लेक्चर ख़त्म ही नहीं होता।

अपने क्लाइमैक्स में एक कुप्रथा पर तालियां बजवाकर संजय लीला भंसाली करणी सेना के किसी एजेंट की तरह दिखने लगते हैं।  


(समीक्षा अगर अनावश्यक रूप से लंबी है, तो इसे भी इस फिल्म की राजपूती परंपरा का पालन समझा जाए। जय हो अन्नदाता की!)

निखिल आनंद गिरि 
(सभी तस्वीरें अंबा सिनेमा की)

सोमवार, 15 अगस्त 2011

प्रकाश झा का 'यूफोरिया' उर्फ आरक्षण...

अंग्रेज़ी में ‘यूफोरिया’ शब्द की तस्वीर में एक तरह के मानसिक उन्माद की स्थिति उभरती है जहां सावन के अंधे को सब हरा ही हरा लगता है...साइंसदानों की भाषा में इस परिस्थिति को Ideal state या आदर्श स्थिति भी कह सकते हैं जो असल में मुमकिन नहीं होती...आरक्षण के निर्देशन में प्रकाश झा फिलहाल उसी स्थिति के मारे दिखते हैं...ऐसी स्थिति तब आती है, जब आप ओशो या किसी और आध्यात्मिक गुरु की शरण में हों । प्रकाश झा शायद किसी ऐसे ही बॉलीवुडिया कहानी क्लब के मेंबर लगते हैं जहां होम्योपैथी की मीठी गोलियों की तरह मीठी-मीठी कहानियां बुनी जाती हैं। ‘राजनीति’ में इस मीठी गोली का असर कम था और ‘आरक्षण’ तक आते-आते साइड इफेक्ट भी ज़ाहिर होने लगे हैं। हालांकि, फिल्म का नाम बदल दिया जाए तो एक बार देखने में बुराई भी नहीं है।

आरक्षण जैसे विकराल, संवेदनशील और जटिलतम मुद्दे का इतना आसान समाधान निकालना प्रकाश झा की फिल्मी मजबूरी भी है और एक हद तक सफलता भी। सफलता इस मायने में कि वो बिना किसी पार्टी या विचारधारा पर चोट किए हुए अपनी कहानी का नाम भर ‘आरक्षण’ रख लेते हैं और इतने भर से उन्हें इतनी बदनामी मिलती है कि फिल्म आपकी-हमारी ज़ुबां पर चढ़ चुकी है। हालांकि, फिल्म रिलीज़ के तीसरे दिन ही हॉल इस क़दर ख़ाली था जैसे दिल्ली में कोई साउथ इंडियन मूवी लगी हो।

फिल्म की कहानी में आरक्षण का मुद्दा नमक जितना ही मौजूद है। बाक़ी तो अमिताभ ही अमिताभ हैं। वो अपने भारी-भरकम आवाज़ में जो भी कहते हैं, सच जैसा लगता है। हालांकि, उन्हें अब किसी सलीम-जावेद की ज़रूरत नहीं, मगर फिल्म में वो ‘एंग्री ओल्ड मैन’ बनकर उभरे हैं और केयरिंग ओल्ड मैन’ भी । उनके पास अब उम्र कम बची है वरना इस रोल की ताज़गी मुझे कई दिनों बाद अच्छी लगी। वैसे फिल्म के पहले हाफ में वो धृतराष्ट्र की तरह दिखते हैं, जहां सब कुछ होता जाता है और वो उसूलों का खूंटा गाड़े रहते हैं।

ख़ैर, प्रकाश झा की ‘आरक्षण’ में कुछ वैसी ही बुनियादी ख़ामिया हैं जैसी मजहर कामरान ‘मोहनदास’ बनाने में कर गए थे। विषय के मर्म से लगाव मेरी तरह का पाठक या छिटपुट कवि बना सकता है, बड़ा फिल्मकार नहीं। उसके लिए लंबा होमवर्क और फिर सही किरदार चाहिए जो मुझे नहीं दिखे। सैफ और दीपिका कहीं से भी इस फिल्म में नहीं लिए जाने चाहिए थे। अजय देवगन तो प्रकाश झा के फेवरेट थे, पर पता नहीं इस बार क्यों नहीं राज़ी हुए। और विद्या बालन की क़ीमत दीपिका से ज़्यादा तो नहीं। ऊपर से प्रतीक की एक्टिंग और उनके हिंदी में बोले डॉयलॉग्स ठीक वैसे ही नकली लगते हैं जैसे आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में ख़ेमों की राजनीति करते नेता। गाने प्रकाश झा की मजबूरी से बन गए हैं। फिल्म की शुरुआत में ज़बरदस्ती दो गाने टपक पड़ते हैं जब आप इसके लिए तैयार नहीं होते। ‘’एक चानस तो दे दे…’’ गाने के भाव गहरे हैं मगर प्रसून जोशी ने इसलिए तो नहीं ही लिखे होंगे कि प्रतीक छिछोरे अंदाज़ में इस जुमले का प्रयोग दीपिका पर लाइन मारने के लिए लुटा दें। हालांकि, छन्नूलाल जी की आवाज़ में ‘’सांस अलबेली..’’ लाजवाब गीत है।

अब कहानी पर आते हैं। ठीक वैसे ही भटकी हुई है, जैसे देश में आरक्षण का मुद्दा भटका हुआ है। फिल्म में बस शिक्षा के बाज़ार बनते जाने के बीच में आरक्षण को लेकर कुछ नाटकीय डायलॉग्स हैं जिन्हें हम बार—बार थियेटर में सुन चुके हैं। दलितों-वंचितों के दुख से अनजाने में आहत और ब्राह्मणवाद से त्रस्त इस पीढ़ी को ही हर क़ीमत चुकानी है और ये हर जाति-वर्ग की त्रासदी है। पटना के सुपर-30 से लेकर रांची, दिल्ली कोटा तक पसरे प्राइवेट कोचिंग संस्थानों के पीछे की दुकानदारी के बीच प्रकाश झा वैसी ही उम्मीद लेकर आए हैं, जैसे मजबूर मनमोहन के अंगूठे की छाप पर यूपीए ‘राइट टू एजुकेशन’ लेकर आई थी। इस बात के लिए प्रकाश झा को दाद मिलनी चाहिए कि उन्होंने अपनी तमाम क्षमताओं के साथ नई पीढ़ी को हर तरह से बराबर एक समाज का सपना दिखाया है। हालांकि, ऐसा उत्थान तो लालू यादव भी चरवाहा विद्यालय खोलकर चाहते थे मगर मंशा ठीक न हो तो फिल्म और हकीकत दोनों ही फालतू लगते हैं। प्रकाश झा को ऐसे मुद्दों पर किसी फिल्मी राइटर से अच्छा किसी पॉलिटिकल या कम से कम साहित्यिक राइटर से कहानी में मदद लेनी चाहिए थी ताकि फिल्म में मसाले के अलावा भी कुछ स्वाद आता।

अब एक सीन देखिए। आरक्षण के नाम पर अचानक बवाल कटा है और माहौल एकदम सीरियस है। इन सबके बीच दीपिका अपने दीपक के साथ मूवी देखने को बेकरार है। ये उतना ही गैर-ज़िम्मेदाराना था जितना उस मीडियाकर्मी का अमिताभ से सवाल कि आप प्रिंसिपल से अपराधी बन गए, क्या कहना चाहेंगे। या फिर उस पंडित छात्र का विशुद्ध हिंदी बोलना और बात-बेबात अमिताभ का फिलॉसॉफी झाड़ना। (दीपिका यूं ही नहीं ऊबकर कह देती है कि डैडी, आई हेट माई लाइफ)। मनोज वाजपेयी फिल्म-दर-फिल्म उम्दा होते जा रहे हैं, इसमें कोई शक नहीं। ठीक उसी स्पीड से जैसे प्रकाश झा स्तर खोते जा रहे हैं।

कुल मिलाकर आरक्षण की मूल व्यवस्था के खिलाफ लगती है प्रकाश झा की ‘आरक्षण’। पूरी तरह से नहीं, मगर इस मायने में कि मुद्दे की नस को समझ ही नहीं पाए प्रकाश झा। कोचिंग संस्थानों के बीच से गुदड़ी के लाल निकालने के लिए ही लड़ते रह गए पूरी फिल्म में। तभी तो हमारी जाननेवाली आंटी से मैंने जब पूछा कि फिल्म देखने क्यों नहीं गईं तो उन्होंने कहा कि मैंने वाशिंग मशीन में कपड़े डाले हुए थे और अगर मैं फिल्म में टाइम ख़राब करती तो कपड़े ख़राब हो जाते !!

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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