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रविवार, 2 फ़रवरी 2014

अपने सम्मान की रक्षा स्वयं करें

उत्तर प्रदेश की पुलिस कमाल की है। आज़म खान की सात भैंसे खो गईं तो पूरा पुलिस डिपार्टमेंट ऐसे सक्रिय हो गया जैसे मुलायम सिंह सपरिवार खो गए हैं। यूपी पुलिस को इतना चौकन्ना पहले कम ही देखा सुना है। टी.वी., रेडियो के दौर में भैंस भी प्रोग्रामिंग के लिए कितना ज़रूरी हो सकती हैं, ये आज़म खान की भैंसो ने ही समझाया। ब्रेकिंग न्यूज़ में भैंसें, स्पेशल रिपोर्ट में भैंसें। टी.वी., फेसबुक स्पेस पर क्रांति मचा चुकी आम आदमी (पार्टी) को सबसे बड़ी चुनौती किसी मोदी या राहुल से नहीं भैंसों से ही मिल रही है। गंठबंधन के दौर में कोई भरोसा नहीं कि कोई चैनल ये ख़बर ब्रेक कर डाले कि आजम खान की सात भैंसे मफलर ओढ़कर आम आदमी पार्टी ज्वाइन करने जा रही हैं।
बात घूम-फिरकर आम आदमी पार्टी आ ही जाती है। वो हर काम में नमक की तरह मौजूद हो गई है। बिन्नी जैसों को नमक थोड़ा स्वादानुसार नहीं लगता तो वो आम आदमी पार्टी के भीतर ही कोहराम मचाने पर तुले हुए हैँ। कोई भरोसा नहीं कि अपनी नौटंकी, नाराज़गी और धरने को मज़बूती देने के लिए वो अचानक दो भैंसों को तोड़कर अपनी ओर मिला लें और प्रेस कांफ्रेंस कर डालें। इस पूरे दौर में किसी का कोई भरोसा नहीं। अंग्रेज़ी चैनल अचानक हिंदी बोलने-समझने लगे हैं और हिंदी चैनल हिंदी समाज के बजाय हिंदी समाज की गाय-भैंसों पर ब्रेकिंग चलाने लगे हैं। क्या करें, राहुल गांधी पहला इंटरव्यू देने के लिए अंग्रेज़ी चैनल के अर्णब गोस्वामी को चुनते हैं तो हिंदी वालों को ही गाय-भैंसों से ही काम चलाना पड़ेगा। वैसे, राहुल अपना पहला इंटरव्यू किसी हिंदी चैनल को देते तो उनका ज़्यादा फायदा होता। आम आदमी का साथ हिंदी चैनलों के साथ है, जिसके राजकुमार बनने का सपना राहुल देखते हैं। ट्विटर और फेसबुक की बकैती के ज़रिए कुछ लोकसभा सीटें जीती जा सकती हैं, पीएम की कुर्सी नहीं मिल सकती।
मोदी एक गुब्बारे की तरह फूले-फैले जा रहे हैं। ऐसा लगता है एक ही तरह का भाषण कई-कई जगहों से सुनाई देता है। जगह का नाम बदल दीजिए तो हर जगह एक ही बात। मैं, मैं, विकास, गुजरात, मैडम सोनिया जी, शहज़ादा और चायवाला। इतनी भाषणबाज़ी उनके लिए कहीं से अच्छी नहीं है। जिस तरह उनके विरोधी गोधरा से आगे नहीं जा पाते, वैसे ही मोदी अपनी ही तारीफ से आगे नहीं निकल पाते। उनका बस चले तो ख़ुद को ही भारत रत्न दे डालें।
डेमोक्रेसी में सब अच्छे हैं तो बुरा कौन है। शायद 19 साल का नीडो जिसे लाजपतनगर में दिल्ली ने पीट-पीट कर मार डाला? सिर्फ इसीलिए कि उसके बालों पर मज़ाक बना और फिर उसने उनका विरोध किया। नीडो कोई पहला बाहरी नहीं है जिसे ये सब झेलना पड़ा है। मैं भी रोज़ झेलता हूं। नीडो जिस दिन मरा, उसी दिन मेट्रो में तीन-चार दिल्ली वाले एक प्रेमी जोड़े को लगातार घूरे जा रहे थे। भद्दे ताने दे रहे थे, गंदे गाने गा रहे थे। ताज्जुब ये था कि मज़ाक उड़ाने वाले लफंगों के साथ उनके परिवार की महिलाएं भी थीं। फिर भी जितना लफंगों को मज़ा आ रहा था, उतना ही उनके घर की लड़कियां भी हंस रही थीं। उनकी हिम्मत बढ़ती रही फिर वो अपने आसपास सबको घूरने लगे। मुझे भी घूरना शुरू किया तो मैं भी उनकी आंखों में उन्हीं की तरह घूरने लगा। लगातार बिना पलक झुकाए। तब जाकर वो नरम पड़े। कोशिश करूंगा कि दिल्ली में हर रोज़ नीडो की मौत का इसी तरह बदला लूं। जिन्हें सिर्फ हंसना और आंखों से घूरना आता है, उन्हें भी उतना ही घूरूं और हंसता रहूं उन पर।
आपको भी जब, जहां मौका मिले, विरोध ज़रूर जताएं। यही नीडो जैसे तमाम शहीदों को श्रद्धांजलि होगी। पुलिस और सिस्टम जब तक नवाबों की भैंसे ढूंढने में लगा है, हमें अपने रास्ते खुद ही ढ़ूंढने होंगे। अपने सम्मान की रक्षा ख़ुद ही करनी होगी।

निखिल आनंद गिरि

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