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शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

माई गे माई..एफडीआई..

आई रे आई, एफडीआई...
माई गे माई, एफडीआई..
दादा रे दादा, एफडीआई..

हथिया पे आई..
साइकिल पे आई..
लल्लू के, कल्लू के
दुर्दिन मिटाई..
आई रे आई, एफडीआई..

बटुआ में आई,
जै काली माई
व्हाइट हाउस वाली
काली कमाई..
आई रे आई, एफडीआई...

अमरीकी राशन
जियो सुशासन
खेती लंगोटी में
बिक्री में टाई..
आई रे आईएफडीआई...

खुदरा किराना..
डॉलर खजाना..
चड्डी में, टट्टी में
सोना हगाई..
आई रे आई, एफडीआई...

उठा के कॉलर,
घूमेगा डॉलर..
खेलेगा रुपिया,
छुप्पम छुपाई
आई रे आई, एफडीआई...
 
माया रे माया
नाटक रचाया
दद्दा मुलायम
चाभो मलाई..
आई रे आई, एफडीआई..
समाजवाद माने एफडीआई...
दलितवाद याने एफडीआई...

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

नो 'हिंदी-विंदी', सिर्फ 'इंग्लिश-विंग्लिश'...

अगर विदेशी लोकेशन पर शूट करना हिंदी सिनेमा के निर्देशकों के लिए मुनाफा कमाने की मजबूरी है, तब तो ठीक है, वरना 'इंग्लिश-विंग्लिश' जैसी कहानी हिंदुस्तान के किसी भी शहर में शूट की जा सकती थी। शशि (श्रीदेवी) को अपने घर में सिर्फ इसीलिए इज़्ज़त नहीं मिलती क्योंकि उसकी हिंदी अंग्रेज़ी से ज़्यादा अच्छी है। लेकिन, अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में पढ़ रहे उसके बच्चों के लिए उनकी मम्मी का अच्छी हिंदी जानना (और अंग्रेज़ी नहीं जानना) लड्डू बनाने के काम जैसा मामूली और बेकार है।
स्कूल जाती बेटी मां को बार-बार ताने देकर एहसास दिलाती रहती है कि इस सदी में अंग्रेज़ी न जानना आपको तरक्की के सूचकांक में कितने साल पीछे कर देता है।

इस फिल्म में शुरु के कई हिस्से  अच्छे तो हैं, मगर फिल्म जिस उम्मीद से देखने गया था, वहां खरी नहीं उतरी। मुझे लगा था कि बढ़िया कहानी चुनने के बाद  निर्देशिका गौरी शिंदे इसकी कहानी को भाषा के मोर्चे पर आगे ले जाएंगी। हिंदी और दूसरी देसी भाषाओं को हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी के बराबर खड़ा करने की फिल्मी कोशिश की जाएगी। वो उद्दंड बेटी जो 'तुम पढ़ाओगी मुझे 'इंग्लिश लिटरेचर'! कहकर अपनी मां को बार-बार तार-तार कर देती है, आखिर-आखिर तक अपने अंग्रेज़ी घमंड और बड़बोलेपन के लिए मां से माफी मांगेगी, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। हिंदुस्तान के कई इलाकों में अंग्रेज़ी की दहशत (और श्रद्धा) में जी रहे करोड़ों हिंदी लोगों की कहानी न कहते हुए गौरी इस कहानी को सीधा अमरीका उड़ा ले गईं। फिर, अमरीका में अंग्रेज़ी सिखाने वाले एक कोचिंग सेंटर में नायिका को भर्ती करा दिया और फिल्म को ग्लोबल टच दे दिया। फिल्म हल्का-हल्का इमोशनल टच देती हुई निकल गई। एक हाउसवाइफ की कहानी बनकर रह गई जो आखिर-आखिर तक अंग्रेज़ी बोलना सीख ही जाती है और अपने घर में सम्मान पा जाती है। स्मार्ट मॉम के लिए तालियां...

मगर, हिंदी का क्या हुआ। सिर्फ टूल के तौर पर फिल्म में इसका इस्तेमाल हुआ। स्थापित तो अंग्रेज़ी ही हुई ना। और सिर्फ हिंदी ही नहीं। फ्रेंच, उर्दू जैसी दुनिया भर की तमाम ज़रूरी भाषाएं हांफती-दौड़ती,  फीस भरकर अंग्रेज़ी सीखती दिखीं। कुल मिलाकर फिल्म अंग्रेज़ी का प्रचार करती ही दिखी। किसी और भाषा को सम्मान देने के बजाय बाज़ार की उसी भाषा को सम्मान देती दिखी, जिसके आगे दुनिया भर की कई भाषाओं की बड़ी से बड़ी प्रतिभाएं पानी भरती दिखती हैं। हिंदी के दिग्गजों का तो हाल ही मत पूछिए। वो दिल्ली में हिंदी की खाते हैं और न्यूयॉर्क में हिंदी सम्मेलन के नाम पर ऐतिहासिक सेमिनार और फूहड़ बहसें करते हैं। ये फिल्म भी उसी बहस का एक विस्तार जैसा लगी। बस, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का ब्रिटेन में दिया वो असल बयान भी फिल्म में जोड़ देते जिनमें वो बहुत कृतज्ञ थे कि अंग्रेज़ों ने हमें इतनी महान भाषा सिखाई।

ऐसी फिल्में प्रोपैगेंडा फिल्मों की तरह लगती हैं। जैसे सिनेमा की शुरुआत में अमरीकी नस्लवाद पर मुहर लगाती फिल्में बनती थीं या फिर बाद में हिटलर और नाज़ी वैभव का प्रचार करती फिल्में। एक ख़ास सोच से निकली हुई निर्देशक के पास फिल्म बनाने को बजट तो था मगर कहानी का कैनवस बड़ा करने का साहस नहीं था। वरना, वो देश भर के अंग्रेज़ी सिखाने वाले कोचिंग संस्थानों का एक मोंटाज ज़रूर दिखातीं जो 100 रुपये में भी अंग्रेज़ी सिखा देने का दावा करते हैं, फरेब करते हैं। वो मेरे तेलुगु दोस्त प्रदीप या तमिल दोस्त राजगोपाल सुब्रह्मण्यम का वो दर्द भी दिखाती कि कैसे उनका अंग्रेज़ी ज्ञान भी हिंदी की दबंगई के आगे काम नहीं आता। जब वो रोज़ डीटीसी की बसों में हिंदी गालियां बकते कंडक्टरों से परेशान होते हैं और मुझे अफसोस होता है कि कम से कम देश की राजधानी में इन तमाम बसों, रास्तों और दफ्तरों के तमाम साइन बोर्ड्स संविधान में दर्ज सभी भाषाओं में क्यों नहीं हो सकते। वो हमारी मौक़ापरस्ती भी दिखातीं कि कैसे हिंदी के तमाम न्यूज़ चैनल, हिंदी सिनेमा के तमाम नायक, निर्देशक, हिंदी समाज के तमाम नेता, बुद्धिजीवी और तीसमारखां अंग्रेज़ी में बात करने पर कितना गर्व महसूस करते हैं। मुझे उदय प्रकाश की कविता 'एक भाषा हुआ करती है '  अचानक याद आ रही है -

दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर, सबसे गरीब और
सबसे खूंखार सबसे काहिल और सबसे थके-लुटे लोगों की भाषा
अस्सी करोड़ या नब्बे करोड़ या एक अरब भुक्खड़ों, नंगों और गरीब-लफंगों की जनसंख्या की भाषा
वह भाषा जिसे वक्त-जरूरत तस्कर, हत्यारे, नेता,
दलाल, अफसर, भंडुए, रंडियाँ और जुनूनी
नौजवान भी बोला करते हैं
वह भाषा जिसमें
लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है

बहरहाल, 'इंग्लिश-विंग्लिश' एक ठीकठाक फिल्म है। श्रीदेवी की वापसी है, मगर वो हवाहवाई नहीं हैं।
वो शशि हैं। हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी से ग्रस्त एक परिवार के बीच से बचकर अमरीका में वक्त गुज़ारने पहुंची एक एलीट हिंदी हाउसवाइफ। शशि अमरीका के किसी पार्क में बेंच पर बैठकर देखती हैं कि कैसे दोनों हाथों और मुंह से नोचकर बर्गर खाए जाते हैं। वो ये भी महसूस करती है कि उसका पति सिर्फ उसे 'हग' करने में हिचकिचाता है और बाक़ी सबसे अपनापन जताने के लिए शिद्दत से गले मिलता है।  हिस्सों में फिल्म अच्छी है, मगर फिल्म की टार्गेट ऑडिएंस शायद कोई और है। बाज़ार होती दुनिया में कमज़ोर अंग्रेज़ी की कुंठा के मारे शर्मिंदगी झेल रही हिंदुस्तानी ऑडिएंस तक ये फिल्म पहुंच भी पाएगी या नहीं, कहना मुश्किल है।

दिल्ली मेट्रो का एक वाकया याद आ रहा है। ट्रेन के भीतर एक बच्ची उछल-उछल कर मेट्रो के स्टेशनों के नाम पढ़ रही थी और अपनी मां को खुशी से सुना रही थी। मां खुश हो रही थी, मगर जैसे ही उसने देखा कि बेटी अंग्रेज़ी में नहीं, बल्कि हिंदी में लिखे नामों को पढ़ने की कोशिश पर खुश हो रही है, वो ज़ोर से हंसने लगी और बच्ची के पिता को बोली - 'हिंदी में पढ़ रही है, घंटे भर में  तो पढ़ ही लेगी।' मुझे लगता है, 'इंग्लिश-विंग्लिश' उस बच्ची की मां को भी दिखाई जानी चाहिए। दुनिया भर के उन तमाम स्कूलों को भी जहां मातृभाषाएं ज़बरदस्ती छुड़वाई जाती हैं। अंग्रेज़ी नहीं बोलने पर एक रुपये का जुर्माना लगाने की धमकियां दी जाती हैं।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 15 अगस्त 2012

आज़ाद भारत को महामहिम अमेरिका का संदेश !!


सारे जहां से अच्छा..
मैं अमेरिका हूं। मुझे गर्व है कि मैं भारत में भारत से ज़्यादा ज़रूरी और महत्वपूर्ण हूं। सिर्फ भारत ही क्यों, दुनिया भर में सारे देश मुझे अपनी-अपनी शिद्दत से याद करना नहीं चूकते। कुछ सिरफिरे लोग ऐसा समझते हैं कि कई देश मुझे नफरत के रिश्ते से याद करते हैं। मगर, मैं बता देना चाहता हूं कि ये सब कोरी अफवाहें हैं। नफरत प्यार का ही आखिरी सिरा है। नफरत करने वाले गुपचुप प्यार करते हैं,सच्चा प्यार करते हैं। कम से कम भारत जैसे महान देश ने तो ये साबित कर ही दिया है। अमेरिका के नाम पर गालियां लिखने वाले किसी अमेरिकी अख़बार में कॉलम भेजकर छपने का इंतज़ार करते हैं। स्वदेशी स्वदेशी की रट लगाने वाले हिंदुस्तानी एक बार अमेरिका आना मोक्ष से कम नही समझते। सारे हिंदुस्तानी बिस्मिल्लाह खान तो होते नहीं कि बनारस के नाम पर अमेरिका को ठुकरा दें। अब तो तुम्हारे यहां रामदेव है। हरिद्वार की रोटी खाता है और अमेरिका में योग सिखाने के सपने देखता है। हमने हर कदम पर तुम्हारा साथ दिया है। तुम्हें पहनने को कपड़े दिए हैं। तुम्हें खाने को नई दुकाने दी हैं। तुम्हारी हिंदी तुम जितना बोलते हो, उससे कहीं ज़्यादा तो अब हमारे यहां लोग बोलते हैं। तुम हिंदुस्तानी ख़ुद को गौर से देखो। अमेरिकन ही लगते हो कई एंगल से। तुम्हें खुश होना चाहिए। गर्व होना चाहिए खुद पर। सुपर पावर का हिस्सा हो तुम। भले ही तुम्हारे मुल्क में पावर नहीं है चौबीस घंटे। हमने जहां तक हो सका है, दुनिया का भला चाहा है। भला किया भी है। दुनिया भर में हमें हर तरह के फैसले लेने की नैतिक आज़ादी है।

अपने यहां की पॉलिटिक्स को देखो। क्या मिला तुम्हें 1947 की आज़ादी से। संसद भवन से पैदल दूरी पर रोज़ सांसदों को गाली पड़ती है। पीएम को खुलेआम गालियां पड़ती हैं। प्रेसि़डेंट को गाली पड़ती है। अंटशंट (अनशन) होते हैं। आंदोलन होते हैं। चलो, किसी को गालियां तो मिलती हैं, तुम आम लोगों को लोकतंत्र के नाम पर क्या मिलता है। अन्ना, खन्ना, रामदेव, कामदेव, कांडा, पांडा, सुज़ुकी, फुजुकी, राहुल, आउल, मोदी और बहुत सारी बकचोदी। पूछो ज़रा अपने देश में। सात समंदर पार की दूरी से कोई हमें गाली दे सकता है क्या। पूछो इन सबको एक लाइन में खड़ा करके पूछो। कौन नहीं जानता कि भारत में खाने को पूरा अन्न तक नहीं जुटता है। और जिन लोगों तक अनाज आसानी से पहुंच जाता है, उनके लिए हम बेहद फिक्रमंद हैं। वो चमचमाते लोग और वो मरियल-सा अनाज। तभी तो हमने वॉलमार्ट जैसी कई महान संस्थाएं वहां की देखभाल के लिए भेजने का मन बना लिया है।  जो सत्य है, उसे मान लेने में क्या बुरा है। हमारे बिना तुम्हारा काम चल ही नहीं सकता। हम भगवान न सही, अन्नदाता तो हैं हीं। अणुदाता भी हैं। तुम्हारे परमाणु दाता भी। और किसने देखा है कि भगवान कैसे होते हैं।

अपने न्यूज़ चैनलों को देखो। अपने अखबारों को देखो। अपने इंजीनियरों को देखो। अपने कॉल सेंटर्स को देखो। सब हमारे भरोसे चलते हैं। हमारे यहां जब सुबह होती है, तो हमारे टट्टी जाने से पहले तुम नाइट शिफ्ट में जुत जाते हो। हमारे यहां कॉल करते हो। हमें अपनी पॉलिसी बेचते हो। सॉफ्टवेयर बेचते हो। हमसे गालियां खाते हो। गालियां समझने के लिए हमारी अंग्रेज़ी ज़ुबान सीखते हो। वगैरह-वगैरह। हम चार-पांच-दस साल पहले जो प्रोग्राम या फिल्म बना चुके होते हैं, तुम उसे या तो खरीदते हो या फिर नकल करने की कोशिश करते हो। कमाते-खाते हो। इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। हम तो ऐसा ही चाहते हैं। सारे खंभे हमारे होंगे, तभी तो मकान हमारा होगा।

मैं 15 अगस्त के इस मौके पर इतना ही कहना चाहता हू कि एक दिन ख़ूब याद करो अपने देश को। अपने सच्च देशभक्तों को। मगर, साल के 364 दिन मुझे मत भूलना। देश भावनाओं से नहीं रोटी से चलता है। वो रोटी तुम्हें हम देंगे। देते हैं। देते रहेंगे। जाने-अनजाने।  तुम्हारी सात पुश्तों में से किसी एक छोरे-छोरी ने डॉलर कमा लिया तो तुम ही सोचो उसकी क्या कद्र होती है। और तुम हो कि नकली नोट के पीछे पड़े हो। जाली नोट। जाली आंदोलनों जैसे। जाली देशभक्तों जैसे। दुनिया ग्लोबल हो चुकी है। इस ग्लोबल दुनिया का एक ही लालकिला है। उसे व्हाइट हाउस कहते हैं। एक ही राष्ट्रपति है। सर्वसम्मति से। तो एक बार ज़ोर से जयकारा लगाओ इंडियावालों - ज़ुबां पे इंडिया, दिल में अमरीका

कम लिखा, जादा समझना
तुम्हारा,
'सबका मालिक एक है'

शनिवार, 12 नवंबर 2011

पटना..सॉरी..दिल्ली...सॉरी अमेरिका...बिहार की राजधानी है !!

मैथिली का आइटम लोकगीत (गाम के अधिकारी हमर बड़का भइया हो)
छठ पर इस बार बिहार जाकर ऐसा लगा कि हमारे गांव-कस्बों से सभी मर्द बिहार छोड़कर दिल्ली-मुंबई-पंजाब चले गए हैं और सिर्फ पर्व-त्योहारों पर मुंह दिखाने के लिए ही वापस लौटते हैं....इस आधार पर कहीं ऐसा न हो कि बिहार जाने के लिए आने वाले वक्त में हमें बिहार जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़े। और कहीं आने वाले वक्त में किताबों में कहीं हम ये न पढ़ें कि दिल्ली बिहार की राजधानी है (या फिर मुंबई)। मुझे हर घर का एक न एक आदमी बाहर ही नौकरी करता नज़र आता है। पहले भी ऐसा होता रहा है मगर फर्क ये आया है कि पहले मजदूरी के लिए लोग जाते थे और अब मजदूरों के बॉस बनकर भी जाते हैं।
'सामा-चकवा' की मूर्ति
दिल्ली में कल एक अलग तरह के कार्यक्रम में जाना हुआ। (मेरा पहला अनुभव था)। मंडी हाउस के पास त्रिवेणी ऑडिटोरियम में 'सामा चकेवा' कार्यक्रम का आयोजन था। दावे के साथ कहता हूं बहुत से बिहारियों को भी नहीं पता होगा कि इस नाम का कोई पर्व बिहार से ताल्लुक रखता है। नाम सुना भी होगा तो बाकी और कुछ भी नहीं पता होगा। छठ के बाद मिथिला के पूरे इलाके में भाई-बहनों का ये ख़ास पर्व कई दिनों तक 'खेला' जाता है। बचपन में गांव की बहनों को अक्सर सामा-चकवा की मूर्तियों के साथ गीत गाते देखा-सुना है मगर इस बार बिहार में भी सामा-चकेवा की उतनी धूम नहीं दिखी। दिल्ली आकर दिखी तो मन गदगद हो गया। वहां वरिष्ठ साहित्यकार और लोककर्मी मृदुला सिन्हा ने अपने किसी बरसों पुराने लेख का ज़िक्र किया जो उन्होंने बिहार से पलायन की स्थिति पर लिखा था। उस लेख का शीर्षक था...'दिल्ली बिहार की राजधानी है..'। मुझे लगा यही तो हम आज भी सोच रहे हैं और देख रहे हैं। कम से कम बिहार के मर्दों की राजधानी तो दिल्ली हो ही गई है। हां, बिहार की लड़कियों को दिल्ली भेजने में अभी भी दो-चार बार सोचा जाता है क्योंकि यहां का 'माहौल' अच्छा नहीं है।

ख़ैर, पर्व से खेल और अब खेल से भव्य समारोह तक का सफर करने वाले सामा चकवा (चकेवा, चकवा, चकबा सब एक ही हैं..) का दिल्ली में भव्य आयोजन देखकर सबसे अच्छा ये लगा कि आयोजन करने वाले लोग एकदम नई उम्र के थे। 25 से 30 साल वाले दर्जन भर बिहारी नौजवान। आधे लोगों से मेरा परिचय था और आधे से वहीं हुआ। युवाओं के हाथ में आयोजन का असर भी बड़ा ख़ूबसूरत दिखा। घर में पर्दे के पीछे या अकेले में औरतों के गाए जाने वाले मिथिला के लोकगीत दिल्ली के इस ऑडिटोरियम में ऐसे पेश किए जा रहे थे जैसे मुंबई या दिल्ली के चकाचौंध भरे माहौल में सुनिधि चौहान ''शीला की जवानी....'' या ''जलेबीबाई...'' गा रही हों।  सच कहूं तो मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। ये वही दिल्ली है जहां मेटालिका (कितने लोग इस बैंड से वाकिफ हैं, मुझे नहीं पता) का एक कन्सर्ट 2700 की टिकट पर आप देखने जाते हैं मगर हुड़दंग के डर से शो रद्द हो जाता है। लेडी गागा आती हैं तो धुएं वाली रातों को दिखा-दिखाकर टीवी वाले ऐसा समां बांधते हैं कि जैसे बस यही सुनकर हिंदुस्तानी संगीत को मोक्ष मिलना तय था। सामा चकेवा के 'आइटम लोकगीत' सुनकर न तो कोई शोर होता है और न ही इसका टिकट एक भी रुपये का है। फिर भी लोगों की भीड़ है, और समय पर तालियां बजती हैं। एक बार उन लोगों को भी त्रिवेणी का मुफ्त रुख ज़रूर करना चाहिए जिनके मन में बिहार का मतलब हिंदी और भोजपुरी फिल्मों में अक्सर बाज़ारू साज़िश के तौर पर फिल्माया जाने वाला एक फूहड़, निहायती बुद्धू (जिसकी बोली और लहजा देखकर सिर्फ हंसा या दुत्कारा जा सके), अधपका शहरी किरदार ही बैठा हुआ है। मैंने देखा कि दिल्ली की सभ्य सड़कों पर 'सामा चकवा' के गीत गाती महिलाएं चल रही थीं तो कारवाले रुककर फोटो खींच रहे थे, 'बिहारी' कहकर हंस नहीं रहे थे।   

क्या पता बिहार से निकलकर दिल्ली-मुंबई तक पलायन कर कब्ज़ा कर चुके लोग अमेरिका या लंदन के किसी शहर में भी इसी तादाद में नज़र आएं और वहां हमारा कलुआ (भोजपुरी लोकगीतों का नया रॉकस्टार, ज़्यादा जानने के लिए यूट्यूब की मदद ले सकतें हैं) ''कलुआ कन्सर्ट'' में इतनी भीड़ जुटाए कि हज़ारों डॉलर ब्लैक में टिकट बिकें।

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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