गुरुवार, 21 मई 2015

रेखाचित्र

कोई कहीं दौड़ता नहीं
फिर भी हारता कई बार।
कई बार दौड़ते कुछ लोग
पहुंच जाते किसी और रेस में
मैदान हरे-भरे, कंक्रीट के।

आसमान से कोई दागता गोली,
दौड़ पड़ते सब
जो लाशें बचतीं
जीत जातीं।
जीत ख़बर बनती
पदक बंटते लाशों को।

खोते जाते मैदानों में कुछ लोग
मिलते आपस में,
नई दौड़ के लिए।
हारे हुए लोगों की रेस चलती अनवरत
अंतरिक्ष के मैदानों तक
हार जाने के लिए।
विलुप्त होते रहे
थक कर बैठे
सुस्ताते लोग
ख़बर नहीं बन सके
थके-हारे लोगों को
प्याऊ का पानी पिलाते लोग।

पहले पानी लुप्त हुआ समुद्रों से
फिर गहराई का नाता टूटा पृथ्वी से
जैसे छत्तीसवीं मंजिल का रिश्ता
अपार्टमेंट के ग्राउंड फ्लोर से।

निखिल आनंद गिरि
(पाखी के 'मई 2015' अंक में प्रकाशित)

रविवार, 17 मई 2015

अपने समय के बारे में

आप जब कहते हैं,

कि यह एक ख़राब समय है
तब आप कोस रहे होते हैं सिर्फ वर्तमान को

अतीत के पक्षपाती चश्मे से,
संभव है आपकी ख़राब घड़ी भर ही ख़राब हो समय।

दरअसल वह एक ख़राब समय था जो,

वीर्य की तरह बहता चला आया वर्तमान की नसों में।



जिस क़ातिल की सज़ा बदली सज़ा-ए-मौत में

(इसे रिहाई भी समझा जा सकता है)

उसने अतीत में झोंकी थी एक औरत तंदूर में।

समय तंदूर में झुलसा था तब

और आप अब काला बता रहे हैं।

अंधेरा पैदा करने के लिए

बहुत से धुंधले उजाले भी काफी हैं।


जिन चेलों ने आज बटोरे प्रशस्ति पत्र

उनके पत्रों पर कहीं दर्ज नहीं

कहां और कितने गुरुओं को बांटी थी कल कौन-सी बोतलें।


संभव यह भी है कि अच्छा समय ढंक दिया गया हो

किसी लोकतांत्रिक ढक्कन से।

जैसे आप खिड़कियां ढंकते हैं कमरों की,

और सुरक्षित महसूस करते हैं

आपकी बच्चियां लूडो खेलती हैं आराम से।

ठीक उसी लोकतांत्रिक समय खिड़की के बाहर,

जहां जब बच्चियां पैदा हुईं

तो मांओं ने छातियां ढंक दी उनकी

और आसमान की तरफ अश्लील और डरावनी संभावनाओं से देखा।


दरअसल यह एक अश्लील समय है,

हत्या की खबरों में सिबाका गीतमाला की तरह

दलित नरसंहार में सवर्णों की सकुशल रिहाई जैसे

दिल्ली में दम तोड़ता उत्तर-पूर्व जैसे

पृथ्वी की छाती पर उग आए मकान जैसे

बकरों की जगह उल्टे लटके मुसलमान जैसे।


इस वक्त आपके रंगीन चश्मे के भीतर

अगर दिख रहा है सच जैसा कुछ

तो सबसे अश्लील है भगवान
जिसे पसंद है समय का नंगा नाच।।


('पहल' पत्रिका (98वें अंक) में प्रकाशित
निखिल आनंद गिरि

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