गुरुवार, 31 जुलाई 2014

'सबसे अच्छी हत्याओं' का सीधा प्रसारण देखिए

 क्या कभी कोई और ज़माना ऐसा रहा होगा जिसमें आपकी ज़िंदगी से जुड़ी सभी बड़ी और ज़रूरी चीज़ें या तो चौराहे पर तमाशा देखते या फिर बेडरूम में लेटे-लेटे तय हो जाती हों। मेरी जानकारी में तो नहीं है। जैसे हमें क्या खाना है या क्या पहनना है, ये सब टीवी तय कर देता है। और हमें कहां-कहां से बचकर निकलना है, ये सड़क पर हो रहे लाठीचार्ज, ट्रैफिक जाम, गाली-गलौज या पागल भीड़ तय कर देती है। कई बार सोचता हूं कि मैं उस ज़माने में क्यूं आया जब हर चीज़ अपने सबसे बिकाऊ और भ्रष्ट दौर में है।

'लाइफ ओके है. हत्यारे टीवी पर हैं'
टेलीविज़न सिर्फ सबसे बिकाऊ, भ्रष्ट ही नहीं सबसे हिंसक दौर में भी है। कानपुर में एक पति ने अपने ड्राइवर को सुपारी देकर अपनी पत्नी की हत्या करवाई और चूंकि पति करोड़पति था तो टी.वी. के न्यूज़ चैनल कुत्ते की तरह ख़बर पर लपक पड़े। कमाल तो ये था कि कानपुर का आईजी अपनी पूरी पलटन के साथ टीवी कैमरे के सामने आता है और छप्पन इंच के सीने के साथ बताता है कि मेरे साथ हत्यारा पति और उसका ड्राइवर भी है जो पूरे मर्डर को 'विस्तार' से समझाएंगे। आईजी मुश्किल से दो-चार मिनट बोलता है और माइक ड्राइवर को देता है जो हत्या में शामिल था। इतनी शर्मनाक प्रेस कांफ्रेंस मैंने पहले कभी नहीं देखी। हत्यारे पति का जिस महिला से अफेयर था, उसका नाम कई बार आईजी की ज़ुबान पर आता है और वो 'इसे एडिट कर लीजिएगा' कहते हुए पूरे मर्डर की गाथा चाव से सुनाता जाता है। क्या टेलीविज़न का आविष्कार इसीलिए हुआ था कि हत्यारों की हत्या का वर्णन सुनने के लिए पूरा बुद्धि्जीवी मीडिया जुटा रहे और पुलिसवाले अपनी कामयाबी का सर्टिफिकेट बटोरें। टेलीविज़न को कुछ दिनों की छुट्टी पर चले जाना चाहिए।

एक चैनल है लाइफ ओके। जिस पर ज़िंदगी कहीं से भी ठीकठाक नज़र नहीं आती। चौबीस घंटे में कम से कम दस घंटे 'बेस्ट ऑफ सावधान इंडिया' चल रहा होता है। मतलब 'सावधान इंडिया' नाम के उन एपिसोड का दोबारा प्रसारण जिसने सबसे ज़्यादा टीआरपी बटोरी थी। इन एपिसोड्स में देश भर में घटी बड़ी वारदातों को मसालेदार बनाकर दिखाया जाता है। बचपन में सड़क किनारे की दुकानों पर बेस्ट ऑफ किशोर कुमार, मुकेश वगैरह बिकते थे और हम ख़रीदते भी थे। कुछ दिन बाद रेलेवे स्टेशन पर लाइफ ओके के सौजन्य से बेस्ट ऑफ मर्डर एपिसोड्स, बेस्ट ऑफ रेप एपिसो़ड्  सड़क किनारे बिकते दिख जाएं तो ताज्जुब मत कीजिएगा। बाज़ार में जो चीज़ बिक जाए, वो ही सही।

सड़क पर चलते हुए या मेट्रो में सफर करते हुए अचानक किसी का पैर पड़ जाए या कंधे सट जाएं तो गाली-गलौज शुरु हो जाती है। अगली बार ऐसा हो तो सारा दोष उसे ही मत दीजिएगा। कुछ दोष उनका भी है जो इस लाइव टेलीविज़न की हिंसक होती बॉडी लैंग्वेज को जान-बूझकर शह दे रहे हैं। शुक् है रेडियो फिर भी बचा हुआ है। अपने आखिरी वक्त में अगर मेरे पास रेडियो या टीवी में से किसी एक को चुनने का मौका मिले तो मैं रेडियो चुनना चाहू्ंगा। इसके पास आंखे पहले से ही नहीं हैं और ज़बान अभी भी अश्लील नहीं हुई है।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

मजबूरी का नाम प्रभाष जोशी

एक थे प्रभाष जोशी और एक है प्रभाष परंपरा न्यास। इन्हीं के सौजन्य से राजघाट के पास गांधी स्मृति परिसर में वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी की याद में सालाना आयोजन होता है। इस बार भी हुआ। कार्यक्रम के लिए निमंत्रण भेजने वाले सज्जन ने आखिर में ये भी लिख दिया था कि डिनर की भी व्यवस्था है। उन्हें डर रहा होगा कि आजकल बिना खाने-पीने के कौन गांधी टाइप सीधे-सादे कार्यक्रमों में जाता है। प्रभाष जोशी एक बड़े पत्रकार थे। उनके नाम पर हर तरह के लोगों को जुटते देखना अच्छा लगता है। नामवर सिंह से लेकर राजनाथ सिंह तक। सोचता हूं कितने पत्रकार ऐसे बचे हैं, जिनके जाने के बाद बाघ-बकरी जैसे लोग एक ही सभा में इकट्ठा होने को समय निकाल पायेंगे।  

डेढ़ घंटे की देरी से कार्यक्रम इसीलिए शुरु हुआ कि राजनाथ सिंह नहीं पहुंचे थे। गांधी के सत्याग्रह मंडप में हर आदमी गांधी से बड़ा लग रहा था। सब सलाम-दुआ में ही व्यस्त थे। एक-दूसरे को  बड़ा बनाने में। कुर्सी पर बिठाने में। जान-पहचान निकालने-बढ़ाने में। ज़िंदगी भर मीडिया के भीतर-बाहर की बुराइयों पर लिखते रहने वाले प्रभाष जी की सभा में मंच पर सबसे आगे इंडिया टीवी का भी माइक था जहां एक एंकर को बड़े लोगों के पास जानेको इतनी बार उकसाया गया कि उसे आत्महत्या की कोशिश करनी पड़ी।

सभा में डिनर के अलावा सबसे असरदार रहा वरिष्ठ पत्रकार बीजी वर्गीज का संबोधन। उनके बारे में अब तक सिर्फ किताबों में पढ़ा था। हिंदी के पत्रकारों और तमाम वक्ताओं को उनसे सीखना चाहिए कि समय-सीमा में बोलना भी कला होती है। साढ़े चार पन्नों का लिखा हुआ भाषण जिसमें एक शब्द भी फालतू का नहीं। कह के लेने वाला अंदाज़। तीस मिनट में ही तीन सौ सालों के मीडिया के बदलते माहौल पर सब कुछ कह डाला। आरुषि से लेकर वैदिक तक। प्रेस कमीशन की ज़रूरत से लेकर रेडियो की हालत तक। हिंदी वाले तो भाषण कंबोडिया पर बात शुरू करते हुए कंब ऋषि तक पहुंच जाते हैं। राजनाथ सिंह को तो छोड़िए, पता नहीं नामवर सिंह को इस कार्यक्रम में क्यूं बुलाया गया था जब उन्हें सिर्फ तुलसीदास की चौपाई सुनाकर ही बात ख़त्म करनी थी। इससे बढ़िया तो रामबहादुर राय ही अपनी बात थोडा विस्तार से रखते।

कई बार सोचता हूं कि देश भर में जो सभाएं, गोष्ठियां, सेमिनार वगैरह होते हैं उसमें काम की कितनी बातें निकलकर आ पाती होंगी। काम की बातें आ भी जाती हों तो कितने लोग अमल करते हैं। जिनके लिए बातें होती हैं, उनमें से कितने लोगों तक ये पहुंच पाती हैं। जो लोग जुटते हैं, उसमें कितने लोगों का मकसद सचमुच सभा में शामिल होना होता है। कहना मुश्किल है।
क्या ऐसी सभाएं बड़े स्तर पर नहीं हो सकतीं जिसमें सिर्फ छोटे लोग आए हों। क्या प्रभाष जोशी की पहचान सिर्फ बड़े नेताओं या लोगों से ही थी। आम लोगों के बीच रहकर उन्होंने जो रिपोर्टिंग की, उन्हें बुलाकर मंच पर सबसे आगे क्यों नहीं बिठाया जाता। उन्हें ख़ास तौर पर डिनर के लिए क्यों नहीं निमंत्रण भेजा जाता।

तरह-तरह के पत्रकार इस कार्यक्रम में मौजूद थे। ख़बरों की दलाली के नाम पर नौ हजार चूहे खाकर शायद हज करने पहुंचे थे। इन जैसे नकली चेलों से ये पूछा जाना चाहिए कि अपने-अपने चैनल का कौन सा स्पेशल शो ड्रॉप करके इस कार्यक्रम की रिपोर्ट दिखाई गई। कितने मिनट दिखाई गई। सिर्फ माइक ही दिखाने को रखा था या कैमरे के साथ जोड़ा भी था। इस कार्यक्रम की बातें सुनकर कितने लोगों ने अपने चैनल में अनाप-शनाप चलाना बंद कर दिया। नहीं किया तो इन सभाओं में जुटकर क्या मिल जाता है।


सबसे बुरा होता है परंपरा के नाम पर किसी की याद को ढोते रहना। जैसे अध्यक्ष के तौर पर कोई बूढ़ा आदमी ढोया जाता है। जैसे ख़बरों के नाम पर अफवाहें और दुनिया भर का कूड़ा ढोया जाता है।

निखिल आनंद गिरि 

शनिवार, 12 जुलाई 2014

एक टीवी दर्शक का टाइमपास दर्द

टीवी एक धोखेबाज़ माध्यम(मीडियम) है। किसी पैनल डिस्कशन में लांग शॉट (जिसमें स्टूडियो का बड़ा हिस्सा दिखता है) में साफ दिख रहा होता है कि चार-पांच-दस लोग एक ही टेबल के आसपास एक ही स्टूडियो में बैठे हैं मगर क्लोज़ अप (जिसमें एक ही चेहरा दिखे) में हर गेस्ट कैमरे की तरफ देखकर बात करता है। वो आपस में एक-दूसरे से सवाल-जवाब कर रहे होते हैं मगर आंख मिलाकर बात नहीं करते, कैमरे से आंख मिलाते हैं। अजीब लगता है। एक आम दर्शक के लिहाज से बहुत ही बेतुका लगता है। जब दो लोग अगल-बगल बैठकर एक-दूसरे की आंख में आंख डालकर बात नहीं कर सकते तो उन बातों पर किसी और (दर्शकों) को कैसे भरोसा हो सकता है। वो राजेंद्र प्लेस मेट्रो के नीचे सीढ़ियों पर बैठे भिखारियों की तरह लगता है जो अचानक किसी को देखकर अपना मुंह बना लेते हैं और हाथ फैला लेते हैं। टीवी पर आजकल भरोसा नहीं होता। वो आंखों में गड़ता है।
इससे कहीं बेहतर रेडियो है। आपको पता होता है कि सिर्फ एक आवाज़ है जिसे सुनकर आपकी आंखों के आगे तरह-तरह की तस्वीरें उभरती हैं। कोई झूठ नहीं है कि दस लोग बैठे भी हैं और एक-दूसरे को देखकर बात भी नहीं कर सकते। रेडियो पर अगर चार-पांच लोगों का कोई शो है तो ज़रूर वो एक-दूसरे को देखकर रिकॉर्डिंग करते होंगे। कैमरे के नाम पर कोई दिखावा नहीं कि आसपास हैं भी मगर सिर्फ कैमरे के आगे बकबक करने के लिए। रेडियो पर समाचार और बढ़ने चाहिए। उस पर भरोसा अब भी कायम है। वो कानों में चुभता नहीं है।
सिनेमा पर सबसे ज़्यादा भरोसा होता है। बावजूद इसके कि न तो उसमें असल ज़िंदगी होती है, न असल घटनाओं के वीडियो जो न्यूज़ चैनल में होते हैं। मगर सिनेमा ज़िंदगी की बुनियादी शर्त को समझता है। अगर दो लोग दिख रहे हैं और बात कर रहे हैं तो एक-दूसरे की आंखों में आंखे डालकर बात करेंगे।
किसी भी मास मीडियम को ज़िंदगी के बुनियादी नियम तो मानने ही होंगे। आम ज़िंदगी में भी किसी रिश्ते में जब आमने-सामने देखकर बातें करना बंद हो जाए तो रिश्ते के बीच का भरोसा टूटता है। हम दीवारों से बातें करने लगते हैं। फिर दीवारें सुनना बंद कर देती हैं। फिर ख़ुद से बातें करने लगते हैँ। फिर रिश्ता टूटने की वजह से खुद पर भरोसा जाता रहता है। बहुत कमज़ोर महसूस करने लगते हैं। कमज़ोरी में किसी ऐसे मज़बूत सहारे को ढूंढते हैं जो हौसला दे, भीतर से मज़बूत करे। सबसे नज़दीक यही टीवी, अखबार या रेडियो होते हैं। अफसोस, लाख कोशिशों के बावजूद टीवी वो काम नहीं कर पाता। हर महीने तीन सौ रुपये की क़ीमत चुकाने के बावजूद। अंग्रेज़ी दवा की तरह असर कम, साइड इफेक्ट ज़्यादा। लाख चाहकर भी टीवी किसी इंसानी रिश्ते की जगह नहीं ले सकता।

मां दिखने में बहुत कमज़ोर है। बहुत दूर रहती है। उसका वजन 40 किलो के आसपास होगा। मगर उससे चालीस सेकेंड भी मोबाइल पर बात करके वज़न चालीस किलो बढ़ जाता है। भरोसा इसे कहते हैं..
निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

दुनिया से लड़ती अकेली लड़की

एक लड़की अकेली है जैसे
पत्थरों के हज़ारों देवता और एक अकेला याचक
सैंकड़ों सड़कें सुनसान, गाड़ियां, धुएं और एक विशाल पेड़
हज़ारों मील सोया समुद्र और एक गुस्ताख कंकड़
इन सबसे बहत-बहुत अकेली है एक लड़की
मुकेश के हज़ार दर्द भरे गानों से भी ज़्यादा..
उस लड़की से उनको बात करनी चाहिए
फिलहाल जो सेमिनारों में व्यस्त हैं
स्त्रीवादी संदर्भों की सारगर्भित व्याख्याओं में
आंचल, दूध, पानी की बोरिंग कहानियों में
उनको बात करनी चाहिए
जो ज़माने को दो गालियां देकर ठीक कर देते हैं
क्रांति की तमाम पौराणिक कथाओं में खुद को नायक फिट करते हुए
जो 'ब्रेक के बाद दुनिया बदल जाएगी'
इस सूत्र में भरोसा रखते हैं
उन्हें ब्रेक भर का समय देना चाहिए लड़की के लिए
लड़की के पास इतना भर ही है समय
जिसमें ठहर कर ली जा सकती है
एक गुस्से भरी सांस
और मौन को पहुंचाया जा सकता है
उस अकेली लड़की के पास
वो आपके-हमारे बीच की ही लड़की है
थोड़ा-थोड़ा घूरा था जिसे सब ने
पीठ पीछे गिनाए थे उसके नाजायज़ रिश्ते
मजबूरन जिसे करनी पड़ी थी आत्महत्या
आपकी दुआओं से बची हुई है आज भी
एक लड़की एफआईआर से लड़ रही है
एफआईआर से लड़ते-लड़ते अचानक वो दुनिया से लड़ने लगी है
दुनिया उसे हरा देगी देखना
जो उसके खिलाफ गवाही देंगे
उसमें भी कई लड़कियां हैं
जो आज मजबूर हैं
कल अकेली पड़ जाएंगी
निखिल आनंद गिरि
(मीडिया में और दबाव के हर पेशे में जूझ रही हर अकेली लड़की के लिए)

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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