रविवार, 23 मार्च 2014

कौन कहता है कि साला मुल्क ये मुश्किल में है..

वोदका हाथों में है, योयो हमारे दिल में है,
कौन कहता है कि साला मुल्क ये मुश्किल में है..
गोलियां सीने पे खाने का ज़माना लद गया,
गोलियां खाने-खिलाने का मज़ा आई-पिल में है..
झोंपड़ी में रात काटें, बेघरों के रहनुमा,
कोठियां जिनकी मनाली या कि पाली हिल में है..
एक ही झंडे तले 'अकबर' की सेना, 'राम' की,
रंगे शेरों का तमाशा, अब तो मुस्तकबिल में है.
वक्त आया है मगर हम क्या बताएं आसमां,
कौन सुनता है हमारी, क्या हमारे दिल है..

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 2 मार्च 2014

बहुरूपिये पिताओं के बारे में

उम्र के उस किनारे
किसी विशाल और सजीव मूरत की तरह
खड़ा है जैसे कोई सदियों से।
मैं समंदर की तरह बहता हूं
और पांव छूकर लौट आता हूं।
पूछूंगा कभी उन पांवों से
भीतर तक महसूस हुआ कि नहीं।

सबसे अधिक बातें करना चाहता हूं पिता से
असंख्य तारों से भी ज़्यादा
उन-उन भाषाओं में जो गढ़ी नहीं गईं
उन लिपियों में जिनका नाम तक नहीं मालूम
ऐसे ही संभव हैं कुछ बातें
तुम्हारी आंखों में धंसे दुख के बारे में
जो उतर आता है मेरी नसों में भी
बिना किसी मुहूर्त के
मेरे माथे पर उग आती हैं
तुम्हारे चेहरे की सब झुर्रियां।


मिलना चाहता हूं उन सब पिताओं से

जो दिखते हैं मुझमें
प्रेमिकाओं की आंखों से।
मैं पिता से प्रेमिकाओं की तरह मिलना चाहता हूं
देवताओं की तरह नहीं।

गले में कसकर हाथ डाले
बीच सड़क पर किसी नई फिल्म का
गाना गाते, भूलते बीच-बीच में।
सर्दियों में ज़बरदस्ती आइसक्रीम खिलाते
सबसे असभ्य गालियां बकते
सबसे सभ्य दिखते लोगों को
झट खड़े हो जाते मेट्रो में
किसी पिता जैसे चेहरे को देखकर
उम्र के सब मचान लांघते
तुम्हारे बेहद क़रीब आना चाहता हूं।

तुम्हारी बांहों में मछलियां नहीं हैं
फिर कैसे लड़ लेते हो हम सबके लिए
तुम्हारी आंखों में पावर वाला चश्मा है
फिर कैसे देख लेते हो सबसे दूर तक
तुम कोई बहुरूपिए हो पिता
एक सच्चे मिथक की तरह
तुम शक्तिपुंज हो पिता मेरे लिए

किसी मैग्निफआइंग लेंस के सहारे
सहेज लूंगा तुम्हारी सब ऊर्जा
जो एक दिन जला देगी देखना
संसार के सब दुख, छल और नकलीपन।

निखिल आनंद गिरि
(पिता के जन्मदिन पर..
)

शनिवार, 1 मार्च 2014

नकली इंद्रधनुष

अगर बाज़ार सचमुच आपकी जेब में है..
हमारे कमरे में थोड़ी घास भर दीजिए...
कि हमें सोना है आकाश तले..
हम अपनी प्रेमिकाओं संग मुस्कुराएंगे
उस नकली घास पर लेटकर
और ज़मीनें बिक जाने का दुख भूल जाएंगे

बस ज़रा और इंतज़ार कीजिए
हम आते हैं डिग्रियां ही डिग्रियां लेकर
आपको मालामाल कर देंगे एक दिन
बारह घंटे धूप में बैठकर
और अपने प्रेम छुपा लेंगे कहीं

हम छुपा लेंगे आपकी ख़ातिर,
तमाम सिलवटें बिस्तर की
आखिरी चुंबन छिपा लेंगे कहीं..
कोई तोहफा जो ख़रीदा ही नहीं

इस बोनस में ख़रीदेंगे तोहफे
मंदी से ठीक पहले
छंटनी से ठीक पहले
किसी डिब्बे मे लपेटकर दीजिए दिलासे
हम सौंपेंगे अपनी पीढियों को..

उन्हें नहीं बताएंगे कभी भगवान कसम,
कि जिन्हें टिमटिम करता देख
तुतलाते रहे वो उम्र भर
और गाते रहे कोई किताबी धुन

वो दरअसल तारे नहीं बारूद हैं
फट पड़ेंगे किसी रोज़
वैज्ञानिकों की मोहब्बत में.

किसी फीके धमाके में उड़ जाएं पीढ़ियां
इससे पहले हमें सौंपने हैं उन्हें आसमान
नकली इंद्रधनुषों वाले..
('दूसरी परंपरा' पत्रिका में प्रकाशित)

निखिल आनंद गिरि


ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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