गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

एक 'लुल' दर्शक का मज़ाक उड़ाती एलियन आत्मकथा उर्फ 'पीके'

फिल्म के बारे में मेरी राय जानने से पहले इस बात के लिए दाद देनी चाहिए कि समस्तीपुर जैसे शहर में अपने घरवालों को बताकर’ सिनेमा ह़ॉल गया। इससे बड़ी दाद इस बात के लिए कि शहर के तीन बड़े सिनेमाघरों में से सिर्फ एक में ही ‘पीके’  लगी थी और वहां लगभग पांच किलोमीटर पैदल चलकर जाना पड़ा। फिल्म के पोस्टर पर कहीं भी शो का समय नहीं लिखा था मगर भला हो सुरेश जी पानवाले का जो मेरे बगल की सीट पर थे और  बिना पूछे ही बता दिया कि मैं जो पांच मिनट लेट पहुंचा हूं, उसमें ‘कोई मिल गया’ टाइप कोई जादू धरती पर उतरा है। मैं समस्तीपुर के अनुरूप टॉकीज के मालिक से अनुरोध करता हूं कि शो की टाइमिंग भी पोस्टर पर ज़रूर दिया करें कि मुझ-सा कोई एलियन भी आपके हॉल में बिना किसी पूर्व सूचना के टपक सकता है। अब बात पीके की..
एलियन कथाएं अचानक से ही बॉलीवुड की फेवरेट रेसिपी बन गई हैं, मगर आमिर खान भी इसमें कूद पड़ेंगे, उम्मीद नहीं थी। आप आमिर खान को ‘मिस्टर परफेक्शनिस्ट’ होने के लिए बेशक भारत रत्न’  दे डालिए मगर सच कहूं तो वो कहीं से इस रोल में जंचते नहीं हैं। अच्छा तो ये होता कि रणबीर कपूर ही शुरू में ‘जादू’ की गाड़ी से उतरते और अनु्ष्का से प्यार कर डालते मगर आमिर खान पता नहीं कैसे इस चक्कर में पड़ गए। जैसे संजय दत्त काम भर आए और चले गए। ‘सत्यमेव जयते’    के हैंगओवर से आमिर जितनी जल्दी बाहर आ जाते ठीक था। पूरी फिल्म देखकर यही लगा कि वो सत्यमेव जयते का ही कोई अगला एपिसोड कर रहे हों जिसमें नाटक थोड़ा ज़्यादा था और तथ्य बिलकुल कम। इतने लंबे प्रवचननुमा डायलॉग कि सुरेश जी पानवाले मेरे लिए बाहर से एक मीठा पान बनाकर ले आए और फिल्म वहीं की वहीं रही।
विश्व सिनेमा की एक बड़ी फिल्म है ‘BICYCLE THIEF’. इसमें नायक की साइकिल चोरी हो जाती है और पूरी फिल्म इस खोने की त्रासदी को लेकर ऐसी बनी कि मास्टरपीस बन गई। मगर इधर हिरानी एंड कंपनी को इतनी हड़बड़ी थी कि प्रेरणा लेने के लिए वो मास्टरपीस की तरफ न जाकर नाग-नागिन कथाओं की तरफ चले गए। एक एलियन किसी अनजान गोले (ग्रह) से उतरता है और उसका भी रिमोटकंट्रोल कही खो जाता है। इसके बाद की जो कॉमिक ट्रैजडी हम देखते हैं, वो पीके है। पागलों या बेवकूफों जैसी हरकतें और कान-मुंह लंबे करके एलियन बन जाना होता तो कपिल शर्मा से लेकर हनी सिंह सब एलियन होते। दिल्ली, भोजपुर या दुनिया का कोई ऐसा इलाका मुझे नहीं मिला जहां किसी बेवकूफ को झुंझलाकर पीकेकहते हों। कम से कम दर्शक तो एलियन नहीं है, बेवकूफ तो बिल्कुल नहीं। एक एलियन आपका हाथ पकड़ेगा तो आपकी भाषा उसके मेमरी कार्ड’  में उतर जाएगी, जैसे हिंदी सिनेमा का नाग आपकी आंखों में देखकर नागिन के कातिल का आधार कार्ड देख लेता था। ये हमारे समय के सिनेमा की Sci-fi  फिल्म है और आमिर खान जैसे महान अभिनेता उसके नायक हैं!  और एलियन ने भाषा भी सीखी तो क्या, मुंबई मिक्स भोजपुरी जिसका दूर-दूर तक बिहार या भोजपुरी की माटी से कोई संबंध नहीं। इतनी बुरी रिसर्च कि एक अंग्रेज़ी शब्द WASTE को बिगाड़कर भेस्ट’ कर दिया और पूरा गाना फिल्मा दिया। हमारे यहां V को ‘भ’ (जैसे ‘VIRUS’ को भायरस या FACEBOOK TRAVELS को ट्रैभल्स) चलता है मगर W को ज़्यादा से ज़्यादा ‘बकिया जा सकता था। कहां-कहां तक इस एलियन कॉमेडी पर हंसा जाए। पीके एक ऐसी कॉमेडी फिल्म (आमिर इसे सीरियस फिल्म कहें तो अलग बात) है जिसे देखने के बाद ही हंसी आती है। भोजपुरी इलाके का इतना भद्दा मज़ाक कि जिस सेक्स वर्कर से बिस्तर पर ये एलियन उसकी भाषा सीखता है उसे सुबह ‘सिस्टर’ कहता है। हमारे यहां प्रेम करने का कॉमन सेंस तो होता ही है सर।
दरअसल, मीडिया, न्यूज़ चैनल, एनजीओ, फेसबुक स्टेटस और आमिर खान टाइप समाज सुधारकों ने देश का भला करने के नाम पर इतना प्रवचन पहले ही दे दिया है कि इस पर कोई ओवरडोज़ प्रवचन करती फिल्म किसी मंचीय कविता जैसी लगती है। इस तरह की फिल्मों से जितना हो सके बचा जना चाहिए। कम से कम भगवान पर भरोसा करने वालों का मज़ाक उड़ाती ओ माई गॉडइस पीके से बेहतर इस मायने में थी कि फिल्म ईश्वर-अल्लाह से होते हुए भारत-पाकिस्तान की लव स्टोरी बनकर ख़त्म नहीं होती। ख़ुद भगवान पर इतना भरोसा करने वाली यह फिल्म दरअसल बाबाओं और मंदिरो-मस्जिदों से उनकी फैंचाइज़ी छीनकर ख़ुद हथियाना चाहती है।
जब कोई फिल्म तीन घंटे में ही सब कुछ पा लेना चाहती है तो या तो डायरेक्टर दर्शक को ‘लुल’ (पीके से उधार लिया शब्द) समझता है या फिर वो अपने हैंगओवर से बाहर नहीं आ सकने की बीमारी से ग्रस्त है। इस उपदेशात्मक फिल्म को अगर बच्चों की फिल्म कहकर प्रोमोट किया जाता तो ‘तारे ज़मीन पर’ के दीवाने बच्चे ज़रूर हॉल तक आ जाते मगर आपको तो राजस्थान के बीहड़ से लेकर दिल्ली की सड़कों तक डांसिंग कार (कार के भीतर लगे प्रेमी जोड़े) भी दिखानी है और इसे एक एडल्ट कॉमेडी बना देनी है। एलियन को सिर्फ उन्हीं कारों से कपड़े चुराने हैं। जिस मीडिया की गोद में बैठकर ज़रिए ये एलियन इन बाबाओं की खटिया खड़ी कर देता है, उस मीडिया पर भी सवाल उठाए होते तो मैं दोबारा पांच किलोमीटर चलकर आमिर खान साहब को देखने आता। चैनलों से पूछा जाता कि इन आसाराम-रामपाल-राम-रहीम बाबाओं का बिज़नेस आखिर जमाया किसने है। किसी सियावर रामचंद्र ने आशीर्वाद दिया है या ‘बाज़ार देवता की एजेंट मीडिया ने ही। मगर नहीं, पीके उर्फ आमिर खान को तो तीन घंटे में अपनी इमेज बनानी है, इंटरवल में स्वच्छता अभियान का एक विज्ञापन भी करना है और दर्शकों को ‘लुल बनाना है।
फिल्म के कुछ हिस्से बेहद अच्छे हैं मगर फिल्म कोई नींबू तो है नहीं कि निचोड़ कर रस निकाल लें और तरोताज़ा हो जाएं।  जहां मर्ज़ी गाना लगा दीजिए, कहीं बम ब्लास्ट करा दीजिए तो पब्लिक तो कनफ्यूजियाएगी ना कि हंसना किस पर है और सीरियस कहां होना है। हमारे हॉल में तो बम ब्लास्ट पर लोग हसते थे और हंसने वाली जगहों पर शांत रहते थे। दिल्ली पुलिस को इस फिल्म पर पांच सौ रुपये की मानहानि का केस ठोंक देना चाहिए। वो बिकती है मगर 2014 की किसी फिल्म की कहानी में इतने सस्ते में!!  छी.. अगर किसी दूसरे ग्रह से कोई एलियन इस लेख को पढ़ रहा हो तो उसे पीके की पूरी टीम पर मानहानि का केस कर देना चाहिए। वहां लोगों को पहनने के लिए आज भी कपड़े नहीं हैं मगर डिप्रेशन दूर भगाने के लिए लोग बॉलीवुड के ही स्टेप्स फॉलो करते हैं! देखिए न, फिल्म तब देखी और हंसी अब आ रही है। सारे कपड़े उतारने का मन कर रहा है। मैं कहीं एलियन न हो जाऊं।

नोट  जब फिल्म के क्लाइमैक्स में कोई ‘जग्गू साहनीअपनी कहानी सुनाए और बगल से कोई दर्शक पूछे- ‘ई साहनी कौन जात भेल’ (ये साहनी कौन-सी जात हुई) तो समझ लीजिए बिहार में फिल्म देखना् सफल हो गया। 

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

पसीने की गंध

मैं भीड़ में पसीने से तर खड़ा था
आपने अचानक कार का दरवाज़ा खोल दिया
मैं थोड़े वक्त आपके साथ हो लिया
जैसे धूल चिपकी होती है चमकीली कार के साथ
जैसे अचानक एसी बंद हो जाने पर
पसीना होता है कलफ वाली कमीज़ के साथ।
जैसे कोई बीमा पॉलिसी बेच रहा एजेंट होता है
आपके एकदम साथ होने का भरम बेचते।
आप खामखा भरम में फूल गए जिस वक्त
कि मैं भी हो जाऊंगा आप जैसा
मैं अपने पसीने की गंध में
परिचय खोज रहा था अपना
मैं जिस भाषा में बात करता हूं
आपके नौकर, ड्राइवर या बहुत हुआ तो
गालियों का ज़ायका बढ़ाने के लिए आप भी,
टिशू पेपर की तरह इस्तेमाल करते हैं।
मेरे साथ लंबा वक्त गुज़ारना मुनासिब नहीं
हालांकि दरकिनार भी नहीं किया जा सकता
जूते पर पालिश की तरह
आपके बंगले तक पहुंचने के लिए
कचरे वाली आखिरी गली की तरह
देश के नक्शे पर उत्तर-पूर्व की तरह
आप सड़क पर गंदगी देखकर उबकाते हैं
ग़रीबी देखकर मुंह बिचकाते हैं
दुख देखकर बुद्ध हुए जाते हैं
सड़क की चीख-पुकार सुनकर
कार का स्टीरियो तेज़ चलाते हैं
मिली के दर्द भरे गाने बजाते हैं।
आपने मेरा पता पूछा था हंसते हुए,
और मैं हंसते हुए टाल गया था
दरअसल, आप जिस दिल्ली में मेरा पता ढूंढेंगे
उस दिल्ली में नहीं मिलते हम जैसे लोग
धूप का चश्मा पहनकर सूरज नहीं ढूंढते
हम दोनों साथ हैं
या हो सकते हैं
ये एक राजनैतिक भ्रम है
समानांतर रेखाएं कभी साथ नहीं हो सकतीं
लेकिन ऐसी रेखाएं होती ज़रूर हैं
जो कभी-कभी आपके माथे पर नज़र आ जाती हैं।


निखिल आनंद गिरि
(कविताओं की पत्रिका 'सदानीरा', मार्च-अप्रैल-मई 2014 अंक में प्रकाशित)

रविवार, 14 दिसंबर 2014

नई प्रेमिका के लिए

1) संसार की सबसे मुलायम तस्वीर मेरे हाथ में है, 
बाइस प्रेमिकाओं का आकर्षण है उसमें,
कोई आग्रह नहीं फिर भी
मैं रात भर उसके करवट बदलने का इंतज़ार करता हूं
वो सरसों के तकिये पर आसमान से बतियाती है
एक निर्दोष हंसी हंसती है मुझ पर
कि उसे दे पाया नरक-सी ही दुनिया
अपनी पवित्र अंगुलियों से कोई रेखाचित्र बनाती है हवाओं में
शायद काट रही है दुनिया का घिसा-पिटा नक्शा
रच रही है अपनी अलग दुनिया
जिसे पढ़ने के लिए बरसों-बरस करनी होगी साधना
बरसों-बरस डूबना होगा प्रेम में

2) अथाह दर्द को चीरकर
यह मेरा ख़ून है जो शक्ल लेता है
दुनिया को निर्दोष, अबोध शक्ल देता
कोई अलौकिक घटना नहीं यह
होता आया सदियों से
फिर भी लगता है
अभी-अभी जीवन को महसूस किया है
अपनी हथेली पर
अगर हम आज से पहले जी रहे थे तो यह सरासर झूठ था
जीवन जितना मुलायम सुना
अभी-अभी देखा है एकदम पहली बार

3) रात के आखिरी पहर
दो बजकर सैंतीस मिनट पर
देवता करते हैं रखवाली रातों की
जो सो रहे होते हैं
मीठे सपने घोलते उनकी नींदो में
जगती आंखों में उम्मीद भरते शायद
और अंधेरी रातों में जो भूल चुके होते हैं रोशनी का चेहरा 
हमारी-तुम्हारी जैसी आंखों में नया उजाला भरते
यह उजाला सांस लेता है
जैसे सृष्टि ऊर्जा भरती हो धमनियों में
इस उजाले की आंखें हैं
जैसे रातों के देवता गूंथ गये हों मणि अपनी
इस उजाले को एक नाम दूंगा दीये-सा
टिमटिमाता रहे हर अंधेरे कोने में
अथाह संभावनाएं लिए


4)  मैं नही
  तुम नही
  जीवन नही
 जो था
 जीवन का भ्रम था
  दुनिया नही
  दुनिया का भ्रम था
  प्रेम नही
  प्रेम का भ्रम था

 मैं शर्तिया कहता हू
 ये घनी अंधेरी रात नही
 रात का भ्रम है
 ये दरअसल उजाले की शुरुआत है
 जो मेरी आँखों में साफ पढ़ा जा सकता है
 हथेलियों पर महसूस किया जा सकता है
 सब कुछ ख़त्म हो चुका है
 या हो रहा है
यह भी एक भ्रम था
इस नन्हे समय के टुकड़े के साथ
जिया जा सकता है पूरा जीवन



निखिल आनंद गिरि

रविवार, 19 अक्तूबर 2014

मॉडर्न दुनिया, मॉडर्न दादियां

छोटे पर्दे पर दादियों का क्रेज़ ऐसा है कि अली असगर जैसे टीवी एक्टर के लिए ‘कपिल की कॉमेडी नाइट्स’ में दादी का एक किरदार अलग से रखा गया और दादी के रोल में अली ऐसे पॉपुलर हुए कि हाल के चुनाव प्रचार में उन्हें स्टार प्रचारक के तौर पर न्योते मिलने लगे। करवा चौथ पर लुधियाना में उनका लाइव शो देखने, 'शगुन की पप्पी' लेने बड़ी तादाद में सुहागिनें आईं. उम्र के लिहाज से ‘कॉमेडी नाइट्स’ की दादी बूढ़ी तो लगती है, मगर घुटनों में दर्द की वजह से वो डांस करना नहीं छोड़ती और हर शो में जमकर ठुमके लगाती है।

सास-बहू सीरियल्स की सबसे ख़ास बात ये है कि अगर आप अपने रिमोट से चैनल बदलते रहें तो लगभग हर सीरियल के नाम, सेट, कमर्शियल ब्रेक, कहानियां, लड़ाइयां एक जैसी नज़र आयेंगी। पता ही नहीं चलेगा कि आप कब एक सीरियल से दूसरे में आ गए हैं। लेकिन इनमें कुछ दादियां ही हैं जो आपको अलग से याद रह जाती हैं। ये सबसे अलग हैं, कूल हैं और नए ज़माने की भी हैं। ये सिर्फ वैसी दादी नहीं है जो अपनी बहू को चाबियां सौंपकर तीर्थ यात्रा पर निकल जाती हैं। ये सेलेब्रिटी दादियां आज के ज़माने के डायलॉग बोलती हैं, गाती हैं और अपनी बची हुई ज़िंदगी भरपूर जीती हैं।

ज़ी टीवी के ‘कुमकुम भाग्य’ में एक नहीं, दो दादियां हैं। एक तो इतनी मॉर्डर्न है कि आपको ‘विकी डोनर’ की वो दादी याद आ जाएगी जो वक्त-बेवक्त छोटे पेग भी लगाती है। दूसरी दादी अपने रॉकस्टार पोते की बीवी को हर मुश्किल से बचाती रहती है। मगर कुछ दादियां वक्त के साथ आज भी नहीं बदलीं। स्टार प्लस के मशहूर सीरियल ‘सुहानी सी एक लड़की’ में एक दादी हैं जिनकी तीन बहुएं हैं। दो गोरी और एक सांवली। सांवली बहू को दादी घर का कोई शुभ काम नहीं करने देती। उसके लिए गोरा होने की महंगी से महंगी क्रीम और लोशन मंगवाती है। दादी की वजह से सांवली बहू घर में जगह बनाने के लिए संघर्ष करती रहती है। ज़ी टीवी के सीरियल ‘डोली अरमानों की’ में उर्मि की दादी बेटियों को घर का बोझ समझती है और उसे अपने सनकी पति सम्राट के पास भेजने के लिए तमाम हथकंडे अपनाती है। उधर सम्राट अपनी बीवी को सबक सिखाने के लिए अखबार में दादी की झूठी मौत की ख़बर तक छपवा देता है। तब भी दादी अपनी स्टीरियोटाइप इमेज से बाहर नहीं आती और दामाद जी को ही सही समझती है।

जो भी हो, लगातार सिकुड़ते जा रहे शहरी परिवारों में दादियां-नानियां ग़ायब होती जा रही हैं तो छोटा पर्दा ये कमी पूरी करता दिख रहा है। घर हो या पर्दा, दादियां जहां भी रहें, रौनक बनी रहती है।



निखिल आनंद गिरि
(यह लेख अमर उजाला के संडे मनोरंजन पेज के लिए लिखा गया है. )

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

कैसे-कैसे महानायक !

लेखक-पत्रकार अनिल यादव उत्तर-पूर्व पर लिखे गए अपने यात्रा संस्मरण वह भी कोई देस है महराज में असम के एक आदिवासी समुदाय का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि साल 2000 के दौरान जब कौन बनेगा करोड़पति लांच हुआ था तो इस प्रोग्राम में शामिल होने के लिए वहां के पीसीओ बूथ पर लंबी-लंबी लाइनें लगती थीं। उन लाइनों में गांवबूढ़ा (आदिवासी गांव का मुखिया) से लेकर पीठ पर बस्ते लटकाए स्कूली बच्चे भी किस्मत आज़माने के लिए शामिल रहते थे। उन्हीं लाइनों में अपने बेटे को खोजते साइकिल पर बांस की लंबी टहनियां (कईन) लादे एक आदिवासी ने अपने बेटे को वहां पाकर खीझते हुए विलाप किया जो अपने घर में लगी आग बुझाने के बजाय उस घोड़मुंहे अजनबी (अमिताभ) के साथ जुआ खेलने जा रहा हो उसके बाल-बच्चों के मुंह में तो भगवान भी दाना नहीं डालेगा। उस आदिवासी का गुस्सा सिर्फ अपने बेटे पर नहीं था बल्कि उस घोड़मुंहे अजनबी पर भी था जो अपने जादुई आकर्षण के नाम पर सुदूर असम के ग़रीब नौजवानों को भी भरमाए जा रहा था। ये सिलसिला आज भी जारी है। एक करोड़ की इनाम राशि से शुरु हुआ ये कार्यक्रम अब सात करोड़ का महाकरोड़पति बना रहा है। बीसवीं सदी का महानायक अब इक्कीसवीं सदी में भी उसी तमगे को ढो रहा है और उन पर दांव खेलने वालों को अरबपति बनाए जा रहा है। ठीक से याद नहीं कब दीमापुर के किसी आदिवासी ने इस खेल से अपनी किस्मत संवारी हो। चौदह सवालों के खेल में आलिया भट्ट को इन विकल्पों में किसने चुंबन लिया जैसे सवाल भी शामिल होते हैं। अमिताभ बच्चन अपनी अदायगी, अपनी चुप्पी में इतने प्रेडिक्टेबल होते जा रहे हैं कि उनका हर अंदाज़ एक दोहराव जैसा लगता है। हर हफ्ते इस शो का एक एपिसोड किसी नयी रिलीज़ होने वाली फिल्म से लेकर कॉमेडी शो, कपिल शर्मा, हनी सिंह जैसों के लिए प्रोमोशन का काम भी करता है जिसमें महानायक इनके साथ ठुमके लगाते हैं, टी.वी. देखने वाली आबादी का एक घंटे तक रसरंजन करते हैं और ख़ूब पैसे कमाते हैं।
मीडिया और बाज़ार ने महानायकों की परिभाषा इतनी विकृत और आसान कर दी है कि राह चलता कोई भी महानायक बन सकता है। इन छवियों को वो गले में लटकाए घूमते हैं और हम उन पर आंख मूंदे अपना  भरोसा करते हैं। इमेज यानी छवियों का यही खेल राजनीति से लेकर मीडिया, यहां तक कि अपराध जगत में भी महानायक बनाता है जिससे समाज का फायदा कम नुकसान ज़्यादा होता है। पप्पू यादव से लेकर डीपी यादव तक सब इसी इमेज के सहारे आज भी महापुरुष बनने की फिराक में लगे हुए हैं। ये मज़ाक नहीं तो और क्या है कि इलाज के नाम पर जेल से निकलकर कोई रसूख वाला आदमी हरियाणा में चुनाव प्रचार करे और कोई उफ्फ तक न करे।

अमिताभ बच्चन की अभिनय क्षमता पर शायद ही किसी को शक हो, मगर इतने लंबे सामाजिक जीवन के बाद उम्र के सातवें दशक उन्हें इस बात का हिसाब ज़रूर करना चाहिए कि उन्होंने अपनी आड़ में कितने अघोषित अपराध किए या करवाए हैं। एक ज़िम्मेदार वरिष्ठ नागरिक के तौर पर उन्हें उन सभी दुष्प्रचारों के लिए माफी मांगनी चाहिए जिससे जनता दिग्भ्रमित होती रही है। देश उनके लिए दुआएं करता है तो देश के प्रति इतनी ज़िम्मेदारी तो बनती ही है। ऐसा किसी किताब में लिखा भी नहीं कि महानायकों का आत्मचिंतन करना मना हो।


निखिल आनंद गिरि
(11 अक्टूबर को अमिताभ के बर्थडे का एडवांस गिफ्ट)

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

गांधी जी के नाम पर

हाथी घोड़ा पालकी
जय जय मोहन'लाल' की

गांधी जी गुजरात में
मोदी की हर बात में

गांधी जी अमरीका
मोदी के आगे फीका

गांधी जी के चेले,
नोट-लोट कर खेले

गांधी जी की लाठी
गुंडों की सहपाठी

गांधी जी की झाड़ू
झूमे पीकर दारू

गांधी जी की खादी
पहिने सब फ़सादी

सत्य अहिंसा नारा
मुल्क चीख कर हारा

गांधी जी के बंदर
घोटाले में अंदर

गांधी जी के नाम पर
छोड़ तमाशा काम कर

हाथी घोड़ा पालकी
जय जय मोहन'लाल' की

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 20 सितंबर 2014

एडहॉक ज़िंदगी के एडहॉक किस्से

कांट्रैक्ट, एडहॉक, टेंपररी एक ऐसा शब्द है जो इंसान अपने जन्म के साथ ही जीने लगता है। जैसे स्कूटर की स्टेपनी, घर की बालकनी या फिर आदमी की पैंट में चोर पॉकेट। यूं किसी काम के नहीं मगर इनके बिना किसी का काम ही नहीं चल सकता। जैैसे अंग्रेज़ी के फैशन वाले देश में हिंदी एडहॉक की ज़िंदगी काट रही है। जैसे बचपन ज़िंदगी की एडहॉक अवस्था है। जिस किसी का मूड ख़राब हुआ, किसी बच्चे को दो-चीन झापड़ रसीद कर दिए। जैसे देश की हर यूनिवर्सिटी में परमानेंट स्टाफ चौड़ा होकर घूमता है, मीटिंग-वीटिंग करता है और ऐडहॉक गदहे की तरह सारे काम करता है। देश का भविष्य एडहॉक लोग बना रहे हैं और क्रेडिट परमानेंट लोग ले जा रहे हैं।

दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसी देश की सबसे बड़ी दो मीडिया संस्थाएं टेंपररी और कांट्रैक्ट कर्मचारियों के भरोसे ही चलती आ रही हैं। ये बात मीडिया के सारे लोग जानते भी हैं और मानते भी हैं। मगर कभी कोई छोटी-मोटी गलती हो जाए तो कांट्रैक्ट वाले, एडहॉक वाले की एक ही सज़ा होती है। सीधा नौकरी से निकाला। दूरदर्शन की उस टेंपररी न्यूज़रीडर ने भी इतनी भर ही गुस्ताखी की थी। चीन के राष्ट्रपति के नाम के आगे 'ग्यारह' जैसा शुभ विशेषण लगा दिया। सोचा अतिथि आए हैं, पीएम के जन्मदिन के दिन आए हैं, ग्यारह की भेंट चढ़ाना तो ज़रूरी है। तो सी या ज़ी (XI) ज़िनपिंग या शिनपिंग की जगह ग्यारह कह दिया। बस नौकरी चली गई।

ये चीन सचमुच में बहुत चालाक देश है। देश का नाम ऐसा है कि हम रोगी होने की हद तक पिएं और डायबिटीज़ हो जाए और राष्ट्रपति का नाम ऐसा कि हमारा पीएम तो क्या पीएम का बाप भी नाम लेने के बजाय 'सर' 'सर' करने लगे। अब समय आ गया है कि भारत की विदेश नीति में पड़ोसी देशों के नेताओं से सिंपल निकनेम रखने का दबाव डाला जाए। चिंटू, मिंटू, सोनू, मोनू, पिंकू टाइप। हमारे यहां के टीवी एंकर कम से कम अपनी नौकरी तो बचा सकेंगे। पहले ही बात-बात पर नौकरी जाने का ख़तरा बना रहता है। एक एंकर की नौकरी तो सिर्फ इसीलिए चली गई थी कि उसने बॉस की पसंद का लिपस्टिक नहीं लगाया था। एक एंकर ने राष्ट्रपति के संबोधन पर अपनी टिप्पणी करते हुए पढ़ दिया कि राष्ट्रपति महोदय ने सफलता का 'मलमूत्र' दिया।

देश दस सालों तक एडहॉक पीएम के भरोसे चलता रहा। बीजेपी भी आरएसएस की एडहॉक पार्टी ही है। मीडिया भी कॉरपोरेट घराने के लिए एडहॉक की तरह है। एक शादीशुदा आदमी एक परमानेंट संबंध जीता है और कई एडहॉक संबंध छिपाता रहता है। ज़िंदगी में हर कोई किसी दूसरे के लिए एडहॉक की भूमिका ही निभा रहा है ।  उफ्फ!!

निखिल आनंद गिरि


शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

ख़ुद से ख़ुद तक सफर है इन दिनों

मोहल्ले के कई बच्चे ट्यूशन के लिए अचानक घर पर आने लगे हैं। पता नहीं उनके स्कूलों में पढ़ाई होती भी है या नहीं। मेरे पास फुर्सत होती नहीं फिर भी उनके साथ बैठना-बतियाना अच्छा लगता है। उनके समय को समझने में बहुत मदद मिलती है। उनकी बातों के आईने में अपने स्कूल के दिनों को भी चुपके से देख लेता हूं। कुछ ख़ास बदलता हुआ नहीं दिखता। सिवाय अपनी उम्र के। सिवाय मोबाइल और इंटरनेट के। उनकी पढ़ाई के बीच में अचानक से मोबाइल और इंटरनेट आते रहते हैं। ऐसे जैसे कभी इनके बिना पढ़ाई होती ही नहीं हो।

मैंने इंटरनेट स्कूल के दिनों में ही सीखा। लगभग पंद्रह साल पुरानी ईमेल आईडी ही आज भी चल रही है। इस तरह से सोचता हूं तो लगता है काफी बड़ा हो गया हूं। मेरे बाद की एक पूरी पीढ़ी तैयार हो गई। दिल मानता ही नहीं इस बात को। मेरे ख़याल से ऐसा सबके साथ होता होगा। एक लंबे समय तक पापा हमेशा एक ही उम्र के लगते रहे हैं। मैं भी एक ख़ास उम्र में फ्रीज होकर रह जाना चाहता हूं। उसके बाद की उम्र के साथ बहुत सी दुश्वारियां भी हैं।

बात इंटरनेट की चल रही थी। हाल ही में एक बार फेसबुक पर किसी अनजान लड़की के नाम से फ्रेंड रिक्वेस्ट आई। बहुत बातचीत के बाद भी वो बताने को तैयार नहीं थी कि कौन है, कैसे जानती है। अचानक चैट में उसने मेरा फेवरेट सिंगर पूछा और मैंने झट से कहा –मुकेश । उधर से जवाब आया मुकेश कौन?  मैं समझ गया कि लड़की (या लड़का) मेरी उम्र से काफी छोटा है। इसके बाद उस अनजान लड़की का कोई मेसैज वगैरह आज तक नहीं आया। मुझए उसकी याद आती है। उसे बताने का मन करता है कि मुकेश एक गायक रहे हैं और उन जैसा गाना कोई हंसी-मज़ाक नहीं है।

पिछले कुछ दिनों से अपने साथ एक एक्सपेरिमेंट कर रहा था। ख़ुद को फेसबुक, ब्लॉगिंग से दूर रखने की कोशिश चल रही थी। करीब डेढ महीने से फेसबुक पर कोई पोस्ट नहीं डाली। अगस्त के महीने में सिर्फ एक पोस्ट डाली, वो भी अपने बर्थडे पर। सोचा था कि जो लोग लाइक-कमेंट वगैरह करते हैं, मेरे सोशल मीडिया की दूरी को महसूस करेंगे, हाल-चाल पूछेंगे। महसूस हुआ कि मेरे सोशल मीडिया पर रहने-ना रहने का किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा। हां, एकाध लोग हैं जो सचमुच मुझे सोशल मीडिया पर मिस करते हैं।

अखिलेंद्र उनमें सबसे ख़ास है। मेरी कई कविताएं, कई ब्लॉग-पोस्ट उसे ठीक-ठीक याद हैं। उससे बात करके इतना अपनापन महसूस होता है जैसे हम सोशल मीडिया पर नहीं मोहल्ले की छत पर मिल रहे हों। मेरी शादी में सिर्फ 16 मेहमान बाराती थे। उनमें से एक अखिलेंद्र भी था। उसकी और हमारी पहचान सिर्फ इतनी थी कि सोशल मीडिया पर एक-दूसरे को हम जानते थे। उसने सीधा आज़मगढ़ से ट्रेन पकड़ी और समस्तीपुर चला आया। बिना किसी कार्ड-न्योते के। ब्लॉगिंग और सोशल मीडिया से हो रहे मेरे मोहभंग को भी अखिलेंद्र ने ही तोड़ा। रात के ग्यारह बजे अचानक मेरी ढाई साल पुरानी एक पोस्ट को याद करते हुए फोन कर दिया तो मुझे लगा कि ब्लॉगिंग करते रहना चाहिए। ऐसा वो कई बार कर चुका है। आज उसका जन्मदिन है तो ये ब्लॉग पोस्ट उसके लिए। और भी कई दोस्तों के लिए जिनसे मिला ही नहीं, मगर लगता है कि कई-कई बार मिला हूं। शायद मिलता तो किसी न किसी बात को लेकर खटास आ जाती। वो मेरा 'ब्लॉगभाई' है, जैसे गुरुभाई या असली भाई होता है।



हैप्पी बर्थडे अखिलेंद्र
अखिलेंद्र के बहाने उन सबका शुक्रिया जो इस नई दुनिया से मेरी दुनिया का हिस्सा बने। किसी एक का नाम लेना ठीक नहीं। हमने एक-दूसरे को देखा नहीं है। मगर उन्होंने कई बार हथेली थामकर मुश्किलों में रास्ता पार कराया है और मुड़ गए। हम शुक्रिया नहीं कह पाए। ये पोस्ट उन्हीं के लिए, इस भरोसे के साथ कि लाख नाउम्मीदी के बीच नये अनजान रास्तों पर चलने का हौसला बचा है, बना रहेगा। बचपन में एक ख़ास दोस्त ने डायरी में कुछ लिखा था, अचानक याद आ गया -
'हैं कुछ ऐसी बातें,
हैं कुछ ऐसी यादें,
जो धुंधली न होंगी,
न होंगी पुरानी
हंसायेगी हमको, रुलायेगी हमको
कहीं बीच में जो रुकी है कहानी.
 
निखिल आनंद गिरि  

शनिवार, 9 अगस्त 2014

बर्थडे डायरी..

 पापा फेसबुक नहीं करते। इसीलिए उनके दिमाग से बर्थडे रखना निकल गया। मुझे ख़ुद ही फोन करना पड़ा। मां की नींद रात ढाई बजे खुली तो फोन किया। मां फोन करना भी मुश्किल से सीख पाई है। अखबार-किताब-फोन-फेसबुक-नोटबुक जैसे झमेले उसकी ज़िंदगी में नहीं हैं तो सब कुछ याद रख लेती है। सबके जन्मदिन। बस मां को अपना ही जन्मदिन नहीं पता है। किसी को नहीं पता घर में। कई बार पूछा मगर कुछ और बोल कर टाल गई। जब वो सब को फोन कर के विश करती है तो मन तो उसका भी करता होगा कि कोई उसे विश करे।


फर्स्ट फ्लोर के ऊपर तीन लोग रहते हैं। सुबह उठते ही फेसबुक का नोटिस दिखा होगा तो बर्थडे विश करने के लिए फोन किया। नीचे उतर कर आ नहीं सके। अगल-बगल तीन पड़ोसी रहते हैं। तीनों ने एसएमएस किया। फोन नहीं कर पाए। पड़ोस के घर तक चलकर आने में तो सचमुच बहुत वक्त लग जाता होगा। हर बीस मिनट के अंतराल पर एक कॉल या एसएमएस आता रहा। पूरा दिन मोबाइल फोन के आसपास बीता। अमेरिका, कनाडा, रांची, जमशेदपुर, बिहार उत्तरप्रदेश, भोपाल, नेपाल और पता नहीं कहां-कहां से। दिल्ली में तो रह ही रहा हूं। जिसे भी जैसे ही फेसबुक पर दिखा, फट से फोन किया। कुछ लोगों को घर आने के लिए कहा भी, मगर उन्होंने इतने ज़रूरी बहाने बताए कि कोई नहीं आया।

शुक्रिया फेसबुक। कई जाने-अनजाने लोगों को मेरा बर्थडे याद दिलाने के लिए। कई बड़े लोग (किसी एक का नाम लिया तो बाक़ी लोग छोटा महसूस करने लगेंगे) जो फ्रेंड लिस्ट में हैं, उन्होंने भी टाइमलाइन पर विश किया तो मन हरा हो गया। कई महिला मित्रों के भी फोन आते रहे। कई-कई साल पुरानी दोस्त। कुछ ने प्यार किया। कुछ से प्यार रहा। सबसे नई प्रेमिका ने सबसे पहले फोन किया। सबसे पुरानी प्रेमिका का अब तक फोन नहीं आया। आने की उम्मीद भी नहीं है। पहले अफसोस करूं या खुश हो लूं, पता नहीं। ये सब आपकी ज़िंदगी में भी होता होगा। 
शादी के बाद का ये जन्मदिन एकदम अकेले गुज़रा। दो अकेले लोगों ने एक साथ गुब्बारे लगाए, केक काटा, फोटो भी खींची। महसूस भी किया कि बड़े होने का मतलब और अकेला होते जाना होता है। मेरी पत्नी कभी-कभी प्रेमिका की तरह पेश आने लगी हैं। फिलहाल आप सबके लिए दो-चार तस्वीरें शेयर कर रहा हूं। अपना ब्लॉग है तो कभी-कभी कविता-कहानी से हटकर भी कुछ बांटा जा सकता है। बचपना ही सही। है ना?


निखिल आनंद गिरि  

गुरुवार, 31 जुलाई 2014

'सबसे अच्छी हत्याओं' का सीधा प्रसारण देखिए

 क्या कभी कोई और ज़माना ऐसा रहा होगा जिसमें आपकी ज़िंदगी से जुड़ी सभी बड़ी और ज़रूरी चीज़ें या तो चौराहे पर तमाशा देखते या फिर बेडरूम में लेटे-लेटे तय हो जाती हों। मेरी जानकारी में तो नहीं है। जैसे हमें क्या खाना है या क्या पहनना है, ये सब टीवी तय कर देता है। और हमें कहां-कहां से बचकर निकलना है, ये सड़क पर हो रहे लाठीचार्ज, ट्रैफिक जाम, गाली-गलौज या पागल भीड़ तय कर देती है। कई बार सोचता हूं कि मैं उस ज़माने में क्यूं आया जब हर चीज़ अपने सबसे बिकाऊ और भ्रष्ट दौर में है।

'लाइफ ओके है. हत्यारे टीवी पर हैं'
टेलीविज़न सिर्फ सबसे बिकाऊ, भ्रष्ट ही नहीं सबसे हिंसक दौर में भी है। कानपुर में एक पति ने अपने ड्राइवर को सुपारी देकर अपनी पत्नी की हत्या करवाई और चूंकि पति करोड़पति था तो टी.वी. के न्यूज़ चैनल कुत्ते की तरह ख़बर पर लपक पड़े। कमाल तो ये था कि कानपुर का आईजी अपनी पूरी पलटन के साथ टीवी कैमरे के सामने आता है और छप्पन इंच के सीने के साथ बताता है कि मेरे साथ हत्यारा पति और उसका ड्राइवर भी है जो पूरे मर्डर को 'विस्तार' से समझाएंगे। आईजी मुश्किल से दो-चार मिनट बोलता है और माइक ड्राइवर को देता है जो हत्या में शामिल था। इतनी शर्मनाक प्रेस कांफ्रेंस मैंने पहले कभी नहीं देखी। हत्यारे पति का जिस महिला से अफेयर था, उसका नाम कई बार आईजी की ज़ुबान पर आता है और वो 'इसे एडिट कर लीजिएगा' कहते हुए पूरे मर्डर की गाथा चाव से सुनाता जाता है। क्या टेलीविज़न का आविष्कार इसीलिए हुआ था कि हत्यारों की हत्या का वर्णन सुनने के लिए पूरा बुद्धि्जीवी मीडिया जुटा रहे और पुलिसवाले अपनी कामयाबी का सर्टिफिकेट बटोरें। टेलीविज़न को कुछ दिनों की छुट्टी पर चले जाना चाहिए।

एक चैनल है लाइफ ओके। जिस पर ज़िंदगी कहीं से भी ठीकठाक नज़र नहीं आती। चौबीस घंटे में कम से कम दस घंटे 'बेस्ट ऑफ सावधान इंडिया' चल रहा होता है। मतलब 'सावधान इंडिया' नाम के उन एपिसोड का दोबारा प्रसारण जिसने सबसे ज़्यादा टीआरपी बटोरी थी। इन एपिसोड्स में देश भर में घटी बड़ी वारदातों को मसालेदार बनाकर दिखाया जाता है। बचपन में सड़क किनारे की दुकानों पर बेस्ट ऑफ किशोर कुमार, मुकेश वगैरह बिकते थे और हम ख़रीदते भी थे। कुछ दिन बाद रेलेवे स्टेशन पर लाइफ ओके के सौजन्य से बेस्ट ऑफ मर्डर एपिसोड्स, बेस्ट ऑफ रेप एपिसो़ड्  सड़क किनारे बिकते दिख जाएं तो ताज्जुब मत कीजिएगा। बाज़ार में जो चीज़ बिक जाए, वो ही सही।

सड़क पर चलते हुए या मेट्रो में सफर करते हुए अचानक किसी का पैर पड़ जाए या कंधे सट जाएं तो गाली-गलौज शुरु हो जाती है। अगली बार ऐसा हो तो सारा दोष उसे ही मत दीजिएगा। कुछ दोष उनका भी है जो इस लाइव टेलीविज़न की हिंसक होती बॉडी लैंग्वेज को जान-बूझकर शह दे रहे हैं। शुक् है रेडियो फिर भी बचा हुआ है। अपने आखिरी वक्त में अगर मेरे पास रेडियो या टीवी में से किसी एक को चुनने का मौका मिले तो मैं रेडियो चुनना चाहू्ंगा। इसके पास आंखे पहले से ही नहीं हैं और ज़बान अभी भी अश्लील नहीं हुई है।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

मजबूरी का नाम प्रभाष जोशी

एक थे प्रभाष जोशी और एक है प्रभाष परंपरा न्यास। इन्हीं के सौजन्य से राजघाट के पास गांधी स्मृति परिसर में वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी की याद में सालाना आयोजन होता है। इस बार भी हुआ। कार्यक्रम के लिए निमंत्रण भेजने वाले सज्जन ने आखिर में ये भी लिख दिया था कि डिनर की भी व्यवस्था है। उन्हें डर रहा होगा कि आजकल बिना खाने-पीने के कौन गांधी टाइप सीधे-सादे कार्यक्रमों में जाता है। प्रभाष जोशी एक बड़े पत्रकार थे। उनके नाम पर हर तरह के लोगों को जुटते देखना अच्छा लगता है। नामवर सिंह से लेकर राजनाथ सिंह तक। सोचता हूं कितने पत्रकार ऐसे बचे हैं, जिनके जाने के बाद बाघ-बकरी जैसे लोग एक ही सभा में इकट्ठा होने को समय निकाल पायेंगे।  

डेढ़ घंटे की देरी से कार्यक्रम इसीलिए शुरु हुआ कि राजनाथ सिंह नहीं पहुंचे थे। गांधी के सत्याग्रह मंडप में हर आदमी गांधी से बड़ा लग रहा था। सब सलाम-दुआ में ही व्यस्त थे। एक-दूसरे को  बड़ा बनाने में। कुर्सी पर बिठाने में। जान-पहचान निकालने-बढ़ाने में। ज़िंदगी भर मीडिया के भीतर-बाहर की बुराइयों पर लिखते रहने वाले प्रभाष जी की सभा में मंच पर सबसे आगे इंडिया टीवी का भी माइक था जहां एक एंकर को बड़े लोगों के पास जानेको इतनी बार उकसाया गया कि उसे आत्महत्या की कोशिश करनी पड़ी।

सभा में डिनर के अलावा सबसे असरदार रहा वरिष्ठ पत्रकार बीजी वर्गीज का संबोधन। उनके बारे में अब तक सिर्फ किताबों में पढ़ा था। हिंदी के पत्रकारों और तमाम वक्ताओं को उनसे सीखना चाहिए कि समय-सीमा में बोलना भी कला होती है। साढ़े चार पन्नों का लिखा हुआ भाषण जिसमें एक शब्द भी फालतू का नहीं। कह के लेने वाला अंदाज़। तीस मिनट में ही तीन सौ सालों के मीडिया के बदलते माहौल पर सब कुछ कह डाला। आरुषि से लेकर वैदिक तक। प्रेस कमीशन की ज़रूरत से लेकर रेडियो की हालत तक। हिंदी वाले तो भाषण कंबोडिया पर बात शुरू करते हुए कंब ऋषि तक पहुंच जाते हैं। राजनाथ सिंह को तो छोड़िए, पता नहीं नामवर सिंह को इस कार्यक्रम में क्यूं बुलाया गया था जब उन्हें सिर्फ तुलसीदास की चौपाई सुनाकर ही बात ख़त्म करनी थी। इससे बढ़िया तो रामबहादुर राय ही अपनी बात थोडा विस्तार से रखते।

कई बार सोचता हूं कि देश भर में जो सभाएं, गोष्ठियां, सेमिनार वगैरह होते हैं उसमें काम की कितनी बातें निकलकर आ पाती होंगी। काम की बातें आ भी जाती हों तो कितने लोग अमल करते हैं। जिनके लिए बातें होती हैं, उनमें से कितने लोगों तक ये पहुंच पाती हैं। जो लोग जुटते हैं, उसमें कितने लोगों का मकसद सचमुच सभा में शामिल होना होता है। कहना मुश्किल है।
क्या ऐसी सभाएं बड़े स्तर पर नहीं हो सकतीं जिसमें सिर्फ छोटे लोग आए हों। क्या प्रभाष जोशी की पहचान सिर्फ बड़े नेताओं या लोगों से ही थी। आम लोगों के बीच रहकर उन्होंने जो रिपोर्टिंग की, उन्हें बुलाकर मंच पर सबसे आगे क्यों नहीं बिठाया जाता। उन्हें ख़ास तौर पर डिनर के लिए क्यों नहीं निमंत्रण भेजा जाता।

तरह-तरह के पत्रकार इस कार्यक्रम में मौजूद थे। ख़बरों की दलाली के नाम पर नौ हजार चूहे खाकर शायद हज करने पहुंचे थे। इन जैसे नकली चेलों से ये पूछा जाना चाहिए कि अपने-अपने चैनल का कौन सा स्पेशल शो ड्रॉप करके इस कार्यक्रम की रिपोर्ट दिखाई गई। कितने मिनट दिखाई गई। सिर्फ माइक ही दिखाने को रखा था या कैमरे के साथ जोड़ा भी था। इस कार्यक्रम की बातें सुनकर कितने लोगों ने अपने चैनल में अनाप-शनाप चलाना बंद कर दिया। नहीं किया तो इन सभाओं में जुटकर क्या मिल जाता है।


सबसे बुरा होता है परंपरा के नाम पर किसी की याद को ढोते रहना। जैसे अध्यक्ष के तौर पर कोई बूढ़ा आदमी ढोया जाता है। जैसे ख़बरों के नाम पर अफवाहें और दुनिया भर का कूड़ा ढोया जाता है।

निखिल आनंद गिरि 

शनिवार, 12 जुलाई 2014

एक टीवी दर्शक का टाइमपास दर्द

टीवी एक धोखेबाज़ माध्यम(मीडियम) है। किसी पैनल डिस्कशन में लांग शॉट (जिसमें स्टूडियो का बड़ा हिस्सा दिखता है) में साफ दिख रहा होता है कि चार-पांच-दस लोग एक ही टेबल के आसपास एक ही स्टूडियो में बैठे हैं मगर क्लोज़ अप (जिसमें एक ही चेहरा दिखे) में हर गेस्ट कैमरे की तरफ देखकर बात करता है। वो आपस में एक-दूसरे से सवाल-जवाब कर रहे होते हैं मगर आंख मिलाकर बात नहीं करते, कैमरे से आंख मिलाते हैं। अजीब लगता है। एक आम दर्शक के लिहाज से बहुत ही बेतुका लगता है। जब दो लोग अगल-बगल बैठकर एक-दूसरे की आंख में आंख डालकर बात नहीं कर सकते तो उन बातों पर किसी और (दर्शकों) को कैसे भरोसा हो सकता है। वो राजेंद्र प्लेस मेट्रो के नीचे सीढ़ियों पर बैठे भिखारियों की तरह लगता है जो अचानक किसी को देखकर अपना मुंह बना लेते हैं और हाथ फैला लेते हैं। टीवी पर आजकल भरोसा नहीं होता। वो आंखों में गड़ता है।
इससे कहीं बेहतर रेडियो है। आपको पता होता है कि सिर्फ एक आवाज़ है जिसे सुनकर आपकी आंखों के आगे तरह-तरह की तस्वीरें उभरती हैं। कोई झूठ नहीं है कि दस लोग बैठे भी हैं और एक-दूसरे को देखकर बात भी नहीं कर सकते। रेडियो पर अगर चार-पांच लोगों का कोई शो है तो ज़रूर वो एक-दूसरे को देखकर रिकॉर्डिंग करते होंगे। कैमरे के नाम पर कोई दिखावा नहीं कि आसपास हैं भी मगर सिर्फ कैमरे के आगे बकबक करने के लिए। रेडियो पर समाचार और बढ़ने चाहिए। उस पर भरोसा अब भी कायम है। वो कानों में चुभता नहीं है।
सिनेमा पर सबसे ज़्यादा भरोसा होता है। बावजूद इसके कि न तो उसमें असल ज़िंदगी होती है, न असल घटनाओं के वीडियो जो न्यूज़ चैनल में होते हैं। मगर सिनेमा ज़िंदगी की बुनियादी शर्त को समझता है। अगर दो लोग दिख रहे हैं और बात कर रहे हैं तो एक-दूसरे की आंखों में आंखे डालकर बात करेंगे।
किसी भी मास मीडियम को ज़िंदगी के बुनियादी नियम तो मानने ही होंगे। आम ज़िंदगी में भी किसी रिश्ते में जब आमने-सामने देखकर बातें करना बंद हो जाए तो रिश्ते के बीच का भरोसा टूटता है। हम दीवारों से बातें करने लगते हैं। फिर दीवारें सुनना बंद कर देती हैं। फिर ख़ुद से बातें करने लगते हैँ। फिर रिश्ता टूटने की वजह से खुद पर भरोसा जाता रहता है। बहुत कमज़ोर महसूस करने लगते हैं। कमज़ोरी में किसी ऐसे मज़बूत सहारे को ढूंढते हैं जो हौसला दे, भीतर से मज़बूत करे। सबसे नज़दीक यही टीवी, अखबार या रेडियो होते हैं। अफसोस, लाख कोशिशों के बावजूद टीवी वो काम नहीं कर पाता। हर महीने तीन सौ रुपये की क़ीमत चुकाने के बावजूद। अंग्रेज़ी दवा की तरह असर कम, साइड इफेक्ट ज़्यादा। लाख चाहकर भी टीवी किसी इंसानी रिश्ते की जगह नहीं ले सकता।

मां दिखने में बहुत कमज़ोर है। बहुत दूर रहती है। उसका वजन 40 किलो के आसपास होगा। मगर उससे चालीस सेकेंड भी मोबाइल पर बात करके वज़न चालीस किलो बढ़ जाता है। भरोसा इसे कहते हैं..
निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

दुनिया से लड़ती अकेली लड़की

एक लड़की अकेली है जैसे
पत्थरों के हज़ारों देवता और एक अकेला याचक
सैंकड़ों सड़कें सुनसान, गाड़ियां, धुएं और एक विशाल पेड़
हज़ारों मील सोया समुद्र और एक गुस्ताख कंकड़
इन सबसे बहत-बहुत अकेली है एक लड़की
मुकेश के हज़ार दर्द भरे गानों से भी ज़्यादा..
उस लड़की से उनको बात करनी चाहिए
फिलहाल जो सेमिनारों में व्यस्त हैं
स्त्रीवादी संदर्भों की सारगर्भित व्याख्याओं में
आंचल, दूध, पानी की बोरिंग कहानियों में
उनको बात करनी चाहिए
जो ज़माने को दो गालियां देकर ठीक कर देते हैं
क्रांति की तमाम पौराणिक कथाओं में खुद को नायक फिट करते हुए
जो 'ब्रेक के बाद दुनिया बदल जाएगी'
इस सूत्र में भरोसा रखते हैं
उन्हें ब्रेक भर का समय देना चाहिए लड़की के लिए
लड़की के पास इतना भर ही है समय
जिसमें ठहर कर ली जा सकती है
एक गुस्से भरी सांस
और मौन को पहुंचाया जा सकता है
उस अकेली लड़की के पास
वो आपके-हमारे बीच की ही लड़की है
थोड़ा-थोड़ा घूरा था जिसे सब ने
पीठ पीछे गिनाए थे उसके नाजायज़ रिश्ते
मजबूरन जिसे करनी पड़ी थी आत्महत्या
आपकी दुआओं से बची हुई है आज भी
एक लड़की एफआईआर से लड़ रही है
एफआईआर से लड़ते-लड़ते अचानक वो दुनिया से लड़ने लगी है
दुनिया उसे हरा देगी देखना
जो उसके खिलाफ गवाही देंगे
उसमें भी कई लड़कियां हैं
जो आज मजबूर हैं
कल अकेली पड़ जाएंगी
निखिल आनंद गिरि
(मीडिया में और दबाव के हर पेशे में जूझ रही हर अकेली लड़की के लिए)

सोमवार, 23 जून 2014

धरती के सबसे बुरे आदमी के बारे में..

जबकि हर सेकेंड हर कोई ख़ुद को अच्छा होने या साबित करने में जुटा हुआ है, दुनिया दिन ब दिन और बुरी होती जा रही है. क्या कमाल है कि कोई बुरा होना नहीं चाहता. बुरा आदमी चाहे कितना भी बुरा हो कभी न कभी तो अच्छा रहा होगा. मगर बुराई का वज़न कम ही सही कद बहुत बड़ा होता है. अच्छा है मैं बुरा होना चाहता हूं

एक कहानी सुनिए. एक बुरे आदमी को ये तो पता था कि उसने कुछ ग़लत किया है मगर जज के सामने वो क़ुबूल करने को तैयार ही नहीं था. दरअसल जज पहले ही ये मान कर आया था कि इसे सज़ा सुनानी है तो सफाई में उस बुरे आदमी को कुछ भी कहने का मौका ही नहीं मिला. तो उसे बहुत कड़ी सज़ा सुनाई गई. इतनी कड़ी कि जज भी अपना फैसला सुनाकर रो पड़ा. ये जज का रोना सिर्फ बुरा आदमी ही देख पाया क्योंकि बुरा होने में रोने को समझना होता है. ख़ैर, सज़ा सुनाने के बाद जज और मुजरिम आपस में कभी नहीं मिले. बुरे आदमी को यकीन था कि जज कभी न कभी छिप कर उसे देखने ज़रूर आएगा.

जज इतना अच्छा था कि उसे हर मुजरिम बहुत प्यार करता था. जज के लिए सभी बुरे लोग एक जैसे थे जिनमें ये बुरा आदमी भी था. यही बात बुरे आदमी को नागवार गुज़रती थी और वो सबसे बुरा आदमी बन जाना चाहता था. यही बात जज को नागवार गुज़रती थी कि वो जिसे सबसे अच्छा आदमी बनाना चाहता था, वो सबसे बुरा होता जा रहा था. ये कहानी जज की नहीं उस बुरे आदमी की है इसीलिए जज के बारे में इतनी ही जानकारी दी जाएगी.

तो उस बुरे आदमी को अपनी सज़ा काटते कई बरस बीत गए. धीरे-धीरे वह भूलने लगा कि उसे किस बात की सज़ा मिली है. उसे लगा कि वह जब से जी रहा है, ऐसे ही जी रहा है. उसे अपने बुरे होने पर कोई मलाल नहीं था, कोई सज़ा उसे कतई परेशान नहीं करती थी. वह भूल गया था कि कोई था जो उसे धरती का सबसे अच्छा आदमी बनाना चाहता था. वह अपना चेहरा तक भूल गया था.

उसका आइना कहीं खो गया था और उसे यह भी याद नहीं था. वह धीरे-धीरे दुनिया का सबसे बुरा आदमी बनता जा रहा था. सारे मौसम, सारे फूल, सारे रंगों से उसे नफरत थी.उसके सपने सबसे बुरे थे. उसकी सुबहें बहुत बुरी थीं. अंधेरे में वह ज़ोर ज़ोर से चिल्लाता था. लोग उसके आसपास भी जाने से डरने लगे थे.
वह दरअसल दुनिया का सबसे अकेला आदमी होता जा रहा था.
(कहानी अभी ख़त्म नहीं होनी थी मगर बुरे आदमियों के बारे में किसी अच्छे दिन ज़्यादा नहीं पढ़ा जाना चाहिए)

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 17 जून 2014

देने दो मुझको गवाही, आई-विटनेस के खिलाफ

बहुत पुराने मित्र हैं मनु बेतख़ल्लुस..फेसबुक पर उनकी ये ग़जल पढ़ी तो मन हुआ अपने ब्लॉग पर पोस्ट की जाए.आप भी दाद दीजिए.

अपने पुरखों के, कभी अपने ही वारिस के ख़िलाफ़
ये तो क्लीयर हो कि आखिर तुम हो किस-किस के ख़िलाफ़

इस हवा को कौन उकसाता है, जिस-तिस के ख़िलाफ़
फिर तेरा वो दैट आया है, मेरे दिस के ख़िलाफ़

मैंने कुछ देखा नहीं है, जानता हूँ सब मगर
देने दो मुझको गवाही, आई-विटनस के ख़िलाफ़

जब भी दिखलाते हैं वो, तस्वीर जलते मुल्क की
दीये-चूल्हे तक निकल आते हैं, माचिस के ख़िलाफ़

उस चमन में बेगुनाह होगी, मगर इस बाग़ में
हो चुके हैं दर्ज़ कितने केस, नर्गिस के ख़िलाफ़

कोई ऐसा दिन भी हो, जब इक अकेला आदमी
कर सके जारी कोई फरमान, मज़लिस के ख़िलाफ़

कितने दिन परहेज़ रखें, तौबा किस-किस से करें
दिलनशीं हर चीज़ ठहरी, अपनी फिटनस के ख़िलाफ़ 

हर जगह चलती है उसकी, आप गलती से कभी
दाल अपनी मत गला देना, कहीं उसके ख़िलाफ़

मनु बेतखल्लुस

रविवार, 8 जून 2014

दुनिया की आंखो से उसने सच देखा

दरवाज़े पर आया, आकर चला गया
सांसे मेरी सभी चुराकर चला गया.
मेरा मुंसिफ भी कैसा दरियादिल था,
सज़ा सुनाई, सज़ा सुनाकर चला गया.
दुनिया की आंखो से उसने सच देखा,
मुझ पे सौ इल्ज़ाम लगाकर चला गया.
अच्छे दिन आएंगे तो बुझ जाएगी,
बस्ती सारी यूं सुलगाकर चला गया.
उम्मीदों की लहरों पर वो आया था,
बची-खुची उम्मीद बहाकर चला गया.
ये मौसम भी पिछले मौसम जैसा था,
दर्द को थोड़ा और बढ़ाकर चला गया.

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 12 मई 2014

एक देश था, जहां मस्तराम की लहर भी थी..

मस्तरामको आप सिर्फ एक फिल्म की तरह देखने जाएंगे तो बहुत अफसोस के साथ बाहर आना पड़ सकता है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है कि आप इसे किसी महान फिल्म की तरह याद कर सकें। सिवाय फिल्म के नाम के। फिर भी आज तक मैंने कोई ऐसी फिल्म नहीं देखी जिसमें से बाहर कुछ भी साथ नहीं आया हो। ये तो फिर भी मस्तराम है। मस्तराम एक लंबे समय तक दबी-कुचली हसरतों के महानायक रहे हैं। एक बहुत बड़े समाज या सब-कल्चर के। तब तक, जब तक साइबर कैफे में पर्दे नहीं लग गए या फिर ऑरकुट से होते हुए व्हास ऐप तक लड़के लड़कियों को प्रेम पत्रों के बजाय नॉन वेज मैसेज और पॉर्न वीडियो शेयर नहीं करने लगे। अगर आप भी कभी इस मस्तराम परंपरा के ज़रिए शब्दों की ताक़त पर अपनी बहुत सी ताकत बहाते आए हों तो ये फिल्म देखना उन गुमनाम पलों को एक तरह का ट्रिब्यूट देने जैसा है। बहुत मुमकिन है कि आप इस फिल्म में अपने साथ अपनी गर्लफ्रेंड को साथ ले जाने का ऑफर दें, तो वो शुरुआती कुछ सीन्स तक फिल्म देखने के बजाय टेंपल रन खेलती दिखे।
आम आदमी की तरह मैं मस्तराम हूंटोपी लगाए एक आदमी हाथ जोड़े पोस्टर में खड़ा दिखता है। और उस तस्वीर के साथ फिल्म का प्रोमो कहता है कि अगर आप मस्तराम को नहीं जानते तो अपने पिता या ताऊ से ज़रूर पूछें। तो मस्तराम पोस्टर पर आम आदमी जैसा दिखता है  मगर उसकी लहर ऐसी है कि कई मोदी इसके आगे फेल हैं। सिनेमा के पर्दे पर अगर इस कहानी को भी कोई शाहरुख या सलमान या कोई बेहतर निर्देशक मिल जाता तो फिल्म कमाल की पॉपुलर भी हो जाती। लेकिन सलमान दबंग जैसी कूड़ा फिल्म में दबंग हो सकता है, मस्तराम नहीं। ऐसा होने के लिए उन्हें किसी फिल्म में अपना नाम राजाराम वैष्णव उर्फ हंसरखना पड़ेगा। फिल्म की कहानी जिस तरह शुरू होती है, मैं कई बार इसके नायक में बड़े अदब और उम्मीद के साथ ‘’प्यासा का गुरुदत्त ढूंढ रहा था। 2014 की किसी कहानी में नायक हिंदी का एक दुखियारा लेखक बनकर पर्दे पर आए तो उम्मीद लाज़िम भी है। दाद की बात भी है कि फिल्म हमारे समय के सिनेमा में एक भुला दी गई सच्चाई के साथ सामने आती है। हिंदी साहित्य की मठाधीशी के बीच कितने प्रतिभाशाली लेखक आज भी लुगदी साहित्यकार या मस्तराम होकर रह जाते हैं, इस पर अलग से रिसर्च होनी चाहिए। इस पर भी कि जेएनयू से हिंदी में एम. फिल करने की हसरत पाले कितने नौजवान ऐसे हैं जिसके घरवाले शादी को सबसे ज़्यादा ज़रूरी चीज़ समझते हैं।   और इस पर भी कितने लेखकों को उनके दफ्तरों में सिर्फ इस बात के लिए ताने सुनने पड़ते हैं कि वो ऑफिस की फाइलों में कोई सुंदर कविता छिपाकर रखते हैं। इस पर भी कि हिंदी के कितने प्रकाशक ऐसे हैं जिन्होंने अपना बिज़नेस बढ़ाने के लिए ऐसी कहानियों को समाज की इकलौती ज़रूरत बताकर प्रोमोट किया है।
फिल्म में सेक्स और हनी सिंह एक ज़रूरत की तरह हैं, इसीलिए अश्लील नहीं लगते। सिवाय नर्स के साथ मस्तराम के उस सीन के जिसमें चारपाई ऊपर-नीचे होती दिखती है। लिखी हुई कहानियों में मस्तराम के शब्दों का स्तर नीचे होने की वजह उसकी एक ख़ास तरह की ऑडिएंस है मगर पर्दे पर उसे ख़ूबसूरती से रचा जा सकता था। फिल्म का स्क्रीनप्ले कई बार किसी थियेटर जैसा लगता है। कई बार बहुत सूखा, कई बार बहुत प्रेडिक्टेबल। मस्तराम उर्फ राजाराम का बार-बार ये कहना कि ये सब कहानियां हमारे इर्द-गिर्द की हैं, हिंदी साहित्य के समकालीन कई लेखकों की याद दिलाता है जिनकी भाषा मस्तराम की कहानियों से अलग है, मगर सभ्य साहित्य में उन्हें पूरा सम्मान मिला है। कहने का मतलब ये कि हिंदी साहित्य के ए और बी या सी वर्जन में नयापन सिर्फ शैली में है, कंटेट में बहुत हटकर सोचा जाना बाक़ी है।
मस्तराम जब अपने ही दोस्त और बीवी के अवैध रिश्ते के कहानी लिखता है तो उसके पास घर चलाने तक के पैसे नहीं होते। ऐसे में फिल्म अच्छे क्लाईमैक्स पर जाकर छूटती है। जहां उसकी सक्सेस पार्टी में उसकी असलियत खुलते ही लोग उससे किनारा करने लगते हैं। वो कामयाब तो है मगर मिसफिट है। बिल्कुल मस्तराम की कहानियों की तरह। बिल्कुल इस फिल्म की तरह, जो शायद ग़लत समय पर बनी लगती है। इसे कम से कम दस साल पहले आना था, जब मल्टीप्लेक्स नहीं थे और मस्तराम के पाठक और दर्शक एक थे।    

चलते-चलते : हो सके तो फिल्म किसी सिंगल स्क्रीन थियेटर में देखें। मस्तराम की कहानियों को सुनते-देखते फ्रंट स्टॉल के दर्शक जब सीटियां बजाएंगे तो आपको लगेगा कि ये कोई नई कहानी नहीं। बहुत लोग बहुत बरसों से इसे जानते हैं, बस एक-दूसरे से कहने में कतराते हैं।

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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