मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

इश्क गोदाम में सड़ गया..

जो उजालों में छाए रहे,
उनके ख़ामोश साए रहे..
इन हवाओं से बचपन भला,
कोई कितना बचाए रहे,
एक अंधी से इंसाफ की,
टकटकी-सी लगाए रहे..
इश्क गोदाम में सड़ गया,
फिर भी पहरे बिठाए रहे..
कैसी रिश्वत शहर से मिली,
बस्तियों को भुलाए रहे..
ज़िंदगी तक धुआं हो गई,
आग दिल में छिपाए रहे..
महफिलों में भी इतना किया,
हाशिए को बचाए रहे..
जिनको यादों में पूजा किये
उनसे मिल कर पराए रहे..
निखिल आनंद गिरि

2 टिप्‍पणियां:

  1. शहरों में पनपने वाला इश्क कई बार यूं ही सड़ जाता है, होता भी निम्न क्वालिटी का है न....

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  2. जिनको यादों में पूजा किये
    उनसे मिल कर पराए रहे.. क्‍या बात कही है।

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