रविवार, 22 जनवरी 2012

पांड़े जी की प्रेमकथा और गांधी जी से सहानुभूति

कुछ लोग कहते हैं कि घर चलाना देश चलाने से भी ज़्यादा मुश्किल है। देश में आजकल कुछ भी अच्छा चल नहीं रहा। मां घर बहुत अच्छा चला लेती है। अगर मेरी मां के पास डिग्रियां होतीं तो वो शायद देश की राष्ट्रपति भी बन सकती थीं। अगर स्कूल में बच्चे बढ़ने लगें तो टीचर बढ़ा दिए जाते हैं। ज़्यादा टीचर ही नहीं, क्लास के भीतर भी दो-तीन मॉनिटर होते हैं। फिर देश तो इतना बड़ा है। जब मुल्क की आबादी तीस करोड़ थी तब भी देश में एक ही प्रधानमंत्री था। अब जब आबादी चार गुना बढ़ी है तो प्रधानमंत्री चार क्यों नहीं हुए। इतने बड़े देश में क्या आपको एक प्रधानमंत्री एक-चौथाई प्रधानमंत्री की तरह नहीं लगता। आप इसे किसी पार्टी के खिलाफ या पक्ष में चुनाव प्रचार का हिस्सा मत समझिए। इससे पहले कि चुनाव आयोग कोई कार्रवाई करे, मैं हाथ को दस्ताने से ढंककर घूमता हूं। भला हो दिल्ली की इस सर्दी का। वैसे, मेरा विचार है कि हाथी-बैल की मूर्तियां ढंकने से अच्छा, गांधीजी की ही मूर्तियां ढंक दी जाएं। सब प्रचार-दुष्प्रचार तो उन्हीं के नाम पर होता है और इतनी ठंड में भी उघाड़े बदन खड़े रहते हैं चौक-चौराहे पर।


मेरे एक दोस्त हैं। पांड़े जी। बड़े उदास, अकेले और अलग-थलग रहने वाले इंसान। इंटरनेट की दुनिया से कोसों दूर थे। हमने एक दिन चिकेन के लालच में उनके यहां वक्त गुज़ारा और फेसबुक का नया नया चस्का लगा दिया। तीन दिन बाद पूछा कि कैसे हैं पांड़े जी। तो बोले कि भाई आप महान हैं। इतने सारे दोस्त मिल गए हैं कि और कुछ सोचने का टाइम ही नहीं बचता। फिर शरमाते हुए बोले कि एक कन्या भी मिल गईं हैं फेसबुक पर। बस बात बढी ही है। मैंने कहा, मिल भी आइए। बोले, नहीं मिलने का कोई चांस नहीं। पासपोर्ट बनाना होगा। दो दिन बाद फिर फोन किया तो पता चला पासपोर्ट ऑफिस के पास खड़े हैं। फटाफट पासपोर्ट वाला जुगाड़ ढूंढ रहे हैं। सात दिन में पासपोर्ट हाथ में और फिर विदेश। हमने कहा कि विदेश जाने से पहले हमारे नाम पर एक मुर्गी की कुर्बानी तो बनती है। संडे को मुर्गी खाने पहुंचे तो देखा न मुर्गी है न पांड़े जी का रोमांटिक मूड। हमने पूछा क्या हुआ तो बोले कि अरे यार, ई फेसबुक अकाउंट डिलीट कर दीजिए हमारा। साला, बहुत गड़बड़ चीज़ है। एक हफ्ता टाइम बरबाद हो गया। जैसे ही प्रोपोज किए, ब्लॉक कर दिया हमको। हद्द है, बताइए, हम कोई ऐसा-वैसा आदमी हैं क्या। अगर कोई और है तो बता देती। हमको रोज़ चैट पर एतना टाइम क्यों देती थी। चूंकि पांड़े जी मुर्गी अच्छी पकाते थे, तो हमने उनका हौसला बढ़ाया और कहा, ‘’पांड़े जी, फेसबुक के आगे जहां और भी है...’’..

बहरहाल, पांड़े जी ने ठान लिया है कि अब इस फेसबुक पर अपनी प्रेम कथा की हैप्पी एंडिंग ढूंढ कर ही रहेंगे। हिंदुस्तान न सही, पाकिस्तान में ही सही। फेसबुक पर क्या पंडित, क्या मौलवी, सब एक ही स्टेटस के चट्टे-बट्टे हैं। यूं भी इस देश में धर्मनिरपेक्षता का आलम ये है कि 22 कैरेट पंडित के घर में भी बच्चे सलमान, आमिर या शाहरुख ख़ान बनने का सपना देखते हैं और मांएं फिर भी खुश होती हैं।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

चांद किसी काले चेहरे का सफेद दाग़ है

उसके पास उम्र के तीन हिस्से थे। एक हिस्सा थोड़ा छोटा था, मगर उसे बेहद पसंद था। जैसे घर के छोटे बेटे अमूमन सबको बहुत पसंद होते हैं। ये बस घर में ही मुमकिन है कि कोई छोटा हो और फिर भी बहुत पसंद हो। ज़रा घर से बाहर की दुनिया में निकलिए तो पता चले कि छोटे आदमी की औकात क्या होती है। मज़े की बात ये है कि यहां कोई ख़ुद को छोटा मानने को तैयार ही नहीं होता। सबको बड़ा बनना है। बहुत बड़ा। दुनिया बड़े लोगों की कद्र करती है। ज़रा सोचिए, जिस बड़ी-सी दुनिया में हमारा छोटा-सा घर है, उसके बाहर की दुनिया कितनी अलग है। मुझे आप बेवकूफ कह सकते हैं मगर मैं छोटे-से घर के लिए इस बड़ी दुनिया को कौड़ियों के दाम बेच देना चाहूंगा।


ख़ैर, उसके पास उम्र के तीन हिस्से थे। उस छोटे से हिस्से में दुनिया बिल्कुल नहीं थी, शायद इसीलिए उसे वो हिस्सा बेहद पसंद था। उसमें एक आईना था। एक रात थी, एक तारीख भी। उस रात को वो सिरहाने के नीचे रखकर सोता था। उस तारीख को वो हर दिन रात के माथे पर टांक देता और देर तक निहारता रहता। फिर आईने के सामने खड़े होकर वो घंटो रोता था। वो तब तक रोता जब तक तारीख धुंधली न पड़ जाती। उन धुंधली आंखों से उसे उम्र का दूसरा हिस्सा दिखाई पड़ता जहां आसमान एक वीरान खंडहर की तरह नज़र आता। रात उसे किसी काले चेहरे की तरह नज़र आती और चांद उस पर सफेद दाग़ की तरह। इन्हीं नज़रों से उसने दुनिया देखनी शुरू की थी।

दुनिया को देखकर कभी-कभी लगता है कि अब बनाने वाले से भी उसकी दुनिया संभाले नहीं संभलती। मुझे ये दुनिया उसकी उम्र का तीसरा हिस्सा लगती है। पहला हिस्सा संभल-संभल कर गुज़ार लिया, दूसरे तक आते-आते दम फूलने लगा तो तीसरे हिस्से को छोड़ गया किसी तरह गुज़र जाने के लिए। मुझे अचानक एक रिश्ता याद आ रहा है जिसमें ठीक ऐसे ही तीन हिस्से थे। रिश्ते का तीसरा हिस्सा किसी तरह गुज़र जाने के लिए बेताब है, बेबस है। ठीक उतना ही बेबस जितना दुनिया को बनाने वाला।

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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