शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

परछाईयों से प्यार और आखिरी सांस

मां से कभी कोई ऐसी चीज़ मांगी है आपने जो पूरी ही न का जा सके। दरअसल, ऐसा कुछ है ही नहीं जो मां के लिए मुमकिन नहीं। मासूम बच्चे का भरोसा कुछ ऐसा ही होता है। वो रात में सूरज और दिन में चांद मांग सकता है और मां उसकी आंखें बंदकर हथेली सहला दे तो लगता है सचमुच चांद ही होगा। हालांकि, आप भी जानते हैं कि ऐसा कुछ होता नहीं है। मां भी जानती है, मगर मासूम बच्चा नहीं जानता। जानता भी हो शायद मगर ऐसा मानना उसकी ज़िंद ने उसे सिखलाया नहीं है । प्यार में कोई तर्क नहीं काम करता कि आप क्या मांगते हैं और क्या चाहते हैं।

परछाईयों से प्यार किया है आपने। कितना क़रीब लगती हैं ना । जैसे बस हाथ बढ़ाया और छू लिया। मैंने एक बार हाथ बढ़ाकर सचमुच देखना चाहा तो फिर कोशिश ही करता रहा । फिर वो अचानक ग़ायब हो गई और फिर कभी नहीं लौटी। परछाईयों को दरअसल ये बिल्कुल पसंद नहीं कि कोई उन्हें छुए । वो सुबह की धूप में आपके साथ होने का भरम पैदा करती हैं और अंधेरे से पहले ही सच सामने होता है। अगर ये मान भी लें कि परछाई आपको खुशी देना चाहती है तो क्या ये सच झुठलाया जा सकता है कि आप और आपकी परछाई दो अलग-अलग ज़िंदगियां हैं, दो सीधी रेखाओं की तरह, जो हमेशा साथ-साथ तो हैं, मगर कभी मिल नहीं सकते।

उसके आंगन में दुख का पौधा इतना बड़ा हो गया था कि उसके फल खाकर ताउम्र गुज़ारा किया जा सकता था। एक बार सुख ने उसके दरवाज़े पर दस्तक दी तो वो पहली नज़र में उसे पहचान ही नहीं पाया। । उसका चेहरा तो वही था मगर उम्र की धूल और दुख के घने साए में वो सब कुछ भूल बैठा था। सुख घड़ी भर को आया था मगर उसे लगा कि कहीं रह जाए । कहीं रुक जाए । दोनों अंदर आए, एक-दूसरे का हाथ पकड़े। दुख वाले पौधे के नीचे दोनों घंटों बैठे रहे। हालांकि, उन्होंने ज़्यादा बात नहीं की मगर सिर्फ बात करना ही बात करना नहीं होता।। कई बार जिस्म के रोएं भी बात करते हैं। आंखों की पुतलियां भी बात करती हैं। अहसास बात करते हैं। और वो बात साफ सुनी जा सकती थी। जाने का वक्त हुआ तो सुख की आंखें नम हो गईं। उसने अपनी हथेली में दो-चार बूंद आंसू भरे और दुख की जड़ में गिरा दीं। उसने देखा कि जड़ों में लिपटा कोई बहुत पुराना रिश्ता आखिरी सांसें गिन रहा है। चार बूंदों से उसे जी जाना चाहिए था मगर उसने आखिरी करवट ली और फिर हमेशा के लिए ख़ामोश हो गया।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 28 सितंबर 2011

वो भी मुझको रोता है !

हम-तुम ऐसे रुठे हैं,
जैसे कि मां-बेटे हैं...

सब में तेरा हिस्सा है,
मेरे जितने हिस्से हैं...

मस्जिद भी, मैखाना भी,
तेरी दोनों आंखें हैं...

मंज़िल भी अब भरम लगे,
बरसों ऐसे भटके हैं...

अब जाकर तू आया है,
मुट्ठी भर ही सांसे हैं...

नींद से अक्सर उठ-उठ कर,
ख़्वाब का रस्ता तकते हैं...

वो भी मुझको रोता है !
सब कहने की बातें हैं..

हर शै में तू दिखता है,
तेरे कितने चेहरे हैं?

सागर कितना खारा है
अच्छा है हम प्यासे हैं...
निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 26 सितंबर 2011

हर एक सम्मान ज़रूरी होता है....

24 सितंबर की शाम यादगार थी। दिल्ली के हिंदी भवन में एक सामाजिक संस्था 'अंजना' ने अपने सालाना साहित्यिक कार्यक्रम के दौरान पांच युवा रचनाकारों को सम्मानित किया। तीन कहानीकार विवेक मिश्र, मनीषा कुलश्रेष्ठ और दो कवि विपिन चौधरी, निखिल आनंद गिरि (यानी मैं)। दिल्ली में किसी मंच पर कविताओं के लिए सम्मान लेने का ये पहला मौका था। अच्छा लगा। कुछ तस्वीरें बांट रहा हूं, अपने ब्लॉग के दोस्तों के लिए....आपको भी अच्छा लगेगा।
 मैं, मशहूर कथाकार मैत्रेयी पुष्पा और सम्मान.. 

कविताओं के लिए दाद देतीं मैत्रेयी

मंच पर (बाएं से) युवा आलोचक दिनेश, कथाकार मैत्रेयी पुष्पा, कथाकार और संपादक प्रेम भारद्वाज, युवा कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ, युवा कथाकार अनुज

ज़रा फोटो छप जाने दे...

कार्यक्रम में मौजूद दर्शक..सबसे आगे मि. एंड मिसेज़ प्रेमचंद सहजवाला, जिनकी फुर्ती से उम्र का पता ही नहीं चलता..

बुधवार, 21 सितंबर 2011

ऐसा भी क्या हुआ कि उसे इश्क हो गया...

खुशबू के नाम पर हुए सौदे बहार में
छुपना पड़ा गुलों को भी दामाने-ख़ार में

बरसों के बाद टूटा वो तारा फ़लक से रात,
फिर से हुआ सुकून बहुत, इंतज़ार में...

ऐसा भी क्या हुआ कि उसे इश्क हो गया
कुछ तो कमी ही थी मां के दुलार में...

एक रोज़ ख़ाक होंगे सभी जीत के सामान
रखा नहीं है कुछ भी यहां जीत-हार में...

वहशी हुए तो घर में ही करने लगे शिकार
जंगल से ही उसूल भी लेते उधार में..

सब रहनुमाओं ने किए अपने पते भी एक
मिलना हो आपको तो पहुंचिए तिहाड़ में...

जिस फूल की तलब में गुज़री तमाम उम्र
वो फूल ही आया मेरे हिस्से, मज़ार में...

निखिल आनंद गिरि

 

शनिवार, 17 सितंबर 2011

मुझे बार-बार ठुकराया जाना है...

चांद को आज होना था अनुपस्थित 
मगर वो उगा, आकाश में...

जैसे मुझे धोनी थी एड़ियां,
साफ करने थे घुटने, रगड़ कर...
तुमसे मिलने से पहले,
मगर हम मिले यूं ही....

हमारे गांव नहीं आने थे, उस रात
शहर की बातचीत में
मगर आए...

तुम्हारी हंसी में छिप जाने थे सब दुख,
मगर मैं नीयत देखने में व्यस्त था..

हमारी उम्र बढ़ जानी थी दस साल,
मगर लगा हम फिसल गए..
अपने-अपने बचपन में...
जहां मेरे पास किताबें हैं
और गुज़ार देने को तमाम उम्र
तुम्हारे पास जीने को है उम्र..
जिसमें मुझे बार-बार ठुकराया जाना है..
सांस-दर-सांस

हमें बटोरने थे अपने-अपने मौन
और खुश होकर विदा होना था...

मुझे सौंपनी थी आखिरी बरसात
तुम्हारे कंधों पर,
मगर तुम्हारे पास अपने मौसम थे...

मुझे तुमसे कोई और बात कहनी थी,
और मैं अचानक कहने लगा-
कि ये शहर डरावना है बहुत
क्योंकि रात को यहां कुत्ते रोते हैं
और मंदिरों के पीछे भी लोग पेशाब करते हैं..
इसीलिए रिश्तों से बू आती है यहां...

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

पत्थर से कुचल दी जाएं प्रेम कहानियां...

शादियों को लेकर मुझे सिर्फ इस बात से उम्मीद जगती है कि इस दुनिया में जितने भी सफल पति दिखते हैं वो कभी न कभी एक असफल प्रेमी भी ज़रूर रहे होंगे। गलियों में, मंदिरों में या फिर मेट्रो में जाने वाली लड़कियों के चेहरे कभी गौर से देखे हैं आपने। एक-एक चेहरे के पीछे एक दर्जन कहानियां ज़रूर होती हैं। दुनिया का कोई भी वैज्ञानिक अब तक ये डिकोड नहीं कर सका कि लड़की जब खुश है तो क्या सचमुच खुश है या फिर दुखी है तो क्या सचमुच दुखी है। दरअसल, लड़की जब वर्तमान में जी रही होती है तो एक साथ भूत और भविष्य में भी जी रही होती है। और यही वजह है कि अक्सर लड़कों की प्रेम कहानियां चाहे-अनचाहे ठोंगे बनाने के काम आती हैं। 

मुझे लगता है कि बड़ी कंपनियां सिर्फ इसीलिए बड़ी नहीं होतीं कि उनकी सालाना आमदनी बड़ी होती है। कई बार तो सेक्यूरिटी गार्ड का रौब भी कंपनी को बड़ा बना देता है। आप चाहें फलां कंपनी में फलां टाइप ऑफिसर ही क्यों न हों, दूसरी फलां कंपनी में पैदल या रिक्शे उतरकर घुसिए, गार्ड आपको आपकी औकात बता देगा। ये उनके प्रति कोई दुर्भावना नहीं, कंपनी राज में उनकी क़ीमत का नमूना है।

आपने अगर प्रेम किया होगा, तो पत्थर भी देखे होंगे। ये वाक्य अगर दूसरी तरह से बोला जाए तो शायद उतना सच नहीं लग सकता है। मैंने प्रेम किया है और पत्थर भी देखे हैं। यानी प्रेम पहले आपके भीतर से तरल बनाता है, बाहर से सरल बनाता है और फिर जब आप समर्पण की मुद्रा में होते हैं तो पत्थर से कुचल दिए जाते हैं। ये एक ऐसी प्रक्रिया है जिसने दुनिया के सभी मर्दों को भीतर से और मज़बूत बनाया है। मैं अपवाद कहा जा सकता हूं

एक प्रेमकथा सुनाता हूं। छोटी-सी है। शहर के बीचों बीच गांव नाम का एक गांव था जिसमें गांव के अवशेष तक नहीं बचे थे। चूंकि वो शहर था, इसीलिए वहां एक बार प्रेमिका अपने प्रेमी से मिलने आई। और चूंकि वो गांव था इसीलिए प्रेमी के घर बिजली रहती नहीं थी। वो अंधेरे में देख सकने का आदी था, मगर प्रेमिका नहीं थी। वो थोड़ी देर बैठे और एक-दूसरे को चूमने लगे। फिर, प्रेमिका ने एक चाकू प्रेमी की गर्दन पर रख दिया। प्रेमी को अपने ख़ून का रंग साफ दिख रहा था, मगर वो अनजान बना रहा, जब तक उसकी जान नहीं चली गई। हालांकि, प्रेमिका को कोई इल्ज़ाम नहीं दिया जा सकता क्योंकि अंधेरे में उसे कुछ भी दिखाई नहीं देता था। ये सरासर प्रेमी की गलती थी कि उसने अंधेरे में चीखना भी ज़रूरी नहीं समझा क्योंकि उसका ध्यान सिर्फ चुंबन पर था। और अंधेरे में उस चूमने की आवाज़ सुनी जा सकती थी।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

अंधेरे में सुनी जाती हैं सिर्फ सांसें...

एक सांस का मतलब एक सांस ही नहीं होता हर बार...
और ये भी नहीं कि आप जी रहे हैं भरपूर

मोहल्ले का आखिरी मकान
जहां बंद होती है गली
जहां जमा होता है कचरा
या शहर के आखिरी छोर पर
जहां जमा होता है डरावना अकेलापन
वहां जाकर पूछिए किसी से एक सांस की क़ीमत

या फिर वहां जहां जात पूछ कर रखे जाते हैं किराएदार
और ग़लती से आपका मकान मालिक
एक दिन पूछ देता है नाम
और जब आप सांसे भर कर बताते हैं सिर्फ नाम
तो अगली सांस भरने से पहले ही 'बाप' का नाम
यानी जन्म लेने भर से ही ज़रूरी नहीं
कि आप जब तक जिएं हर जगह सांस ले सकें...

पिता जब ताकते हैं आखों में
शाम को देर से आने पर
या मां पकड़ लेती है कोई गलती
जो नहीं की जाती हर किसी से साझा
सांसें हो जाती है सोने-चांदी से भी क़ीमती

अगर भूल गए हों आप कोई नाम
या भूलने लगे हों खुश रहने के तरीके
तो बंद आंखों से एक सांस भरना
ज़रूरी हो जाता है बहुत

सांसें तब भी ज़रूरी हैं
जब ज़रूरी नहीं लगता जीना
या फिर सबसे ज़्यादा ज़रूरी लगता हो
यानी तब जब आप सच के साथ हों
एकदम अकेले....एक तरफ
और पूरी दुनिया दूसरी तरफ

या तब भी जब आखिरी कुछ सांसे ही बची हों
और मिलना बाकी हो उनसे
जिन्होंने आपके साथ बांटी हो सांसें....
एकदम अंधेरे में...
जब दिखता नहीं कुछ भी
और सिर्फ सुनी जा सकती हो सांसें...

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह  लटकी थी देह उधर लुढ़क गई। मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने एक शरीर ...

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