शनिवार, 9 जुलाई 2011

मेट्रो में पिता

मेरे पिता जब मेट्रो में होते हैं...


तो उनकी नज़रें नीची होती हैं..


एक दुनिया जो छूटती जाती है मेट्रो से..

एक मीठी आवाज़, एक गंभीर आवाज़...

बताती है उन स्टेशनों के नाम....

‘अगला स्टेशन प्रगति मैदान’


पिता उन आवाज़ों से अनछुए..

निहारते हैं प्रगति मैदान के नीचे

एक गंदी बस्ती है शायद..

मुस्कुराते हैं पिता....

शायद याद आया हो गांव..

और बर्तन मांजती एक औरत...

शायद याद आए हों गांव के लोग....

जो नहीं दिखते कहीं मेट्रो में....


सब उदास लोग, सब अकेले...

और सबसे अकेले पिता..

जिनके मेट्रो में भी गांव है...

और शायद संतोष भी..

कि मेट्रो दिल्ली में ही है....

वरना गांव भी उदास हुआ करते...


निखिल आनंद गिरि

8 टिप्‍पणियां:

  1. सब उदास लोग, सब अकेले...

    और सबसे अकेले पिता..

    जिनके मेट्रो में भी गांव है...

    और शायद संतोष भी..

    कि मेट्रो दिल्ली में ही है....main to is blog per aaker tarotaja ho jati hun apne se ehsaason ke sang

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