सोमवार, 11 अप्रैल 2011

उन्हें सुबह उठना था कि मुर्गियों की गर्दन काट सकें...

एक छत के नीचे कई घरों के मर्द रहते थे। सिर्फ मर्द। औरतें उनके गांव रहा करती थीं और चादर के भीतर से रात को अपने मजदूर पतियों को मिस कॉल दिया करती थीं। पति उन्हें वादा करते कि इस बार वापस आकर उन्हें सोने के गहने ज़रूर देंगे। पत्नियां जानती थीं कि पति जब भी आएंगे सोने के गहने लाना भूल जाएंगे। फिर भी वो अपने पतियों पर गुस्सा करने के बजाय इंतज़ार ही करती थीं। रिमोट वाले टीवी पर जब परदेस की ख़बरें आतीं तो उनके चेहरे खिल जाते। उन्हें लगता टीवी में कभी न कभी उनके पति की तस्वीर भी ज़रूर दिख जाएगी। उन्हें लगता टीवी की आंखे बहुत महीन हैं और वो सब कुछ देखती हैं। उन्हें टीवी में कोई भगवान विश्वकर्मा नज़र आते थे। किसी ने विश्वकर्मा को देखा नहीं था मगर लोहे के सब सामानों का ज़िम्मा इन्हीं भगवान के भरोसे था। मर्दों को शादियां सोने के बैसाखी की तरह लगतीं जिसे टांग टूटने के बाद सहारे की तरह ही इस्तेमाल किया जा सकता है।
दातुन करने के वक्त उसे एक धुन याद आई। वो गुनगुनाने लगा। इस धुन को सुनकर उसका साथी रोने लगा। उसे अपने गांव की याद आ गई। वो पहली बार शहर आया था, इसीलिए उसके भीतर का गांव अभी मरा नहीं था। उसने बीए पास करने के बाद कई फॉर्म भरे मगर एडमिट कार्ड तक नहीं आय़ा। उसे लगा कि सरकारी नौकरियां सिर्फ खास लोगों की किस्मत में होती हैं और वो इस कैटेगरी में नहीं आता। उसे शादी भी करनी थी, मगर सरकारी नौकरी नही मिलने की वजह से शादी में भी दिलचस्पी खत्म होती जा रही थी। उसने रातों को छत पर चांद निहारना शुरू कर दिया था। हालांकि, उसे मालूम था कि चांद पर पहुंचना भी कुछ किस्मत वालों के हाथ में ही है।

अफसोस एक ऐसी सदाबहार चीज़ है कि हर सुबह चाय की तरह साथ देती है। उन मुर्गियों को देखकर भी अफसोस होता है जो कटने के लिए ही आंखे खोलती हैं। उन दुकानदारों को देखकर भी जो हर सुबह मुर्गियों की गर्दन काटने के लिए ही सुबह का इंतज़ार करते हैं। टीवी देखकर भी कम अफसोस नहीं होता। जो लोग कैमरे पर नज़र आते हैं, ज़रूरी नहीं कि सिर्फ उन्हीं की बात सुनी जाए। कोई एक शहर किसी एक जश्न में खुश है तो भी शहर के दुख खत्म नहीं हो जाते। पहली बार कोई इंसान कैमरे के आगे दुख भरा गाना गा रहा हो तो उस आदमी का भी शुक्रिया अदा करना चाहिए जो कैमरे के पीछे खड़ी भीड़ को तालियां बजाने के लिए उकसा रहा है। उन्हें हर हाल में कैमरे पर अच्छा-अच्छा देखने की आदत पड़ी हुई है। साफ-सुथरे चेहरे और ताली बजाने वाले हाथ।

निखिल आनंद गिरि

7 टिप्‍पणियां:

  1. ज़बरदस्त भाई.....आप की हर छोटी छोटी चेज़ों की व्याख्या करने की कला सीखने की कोशिश कर रहा हू आपसे.....

    जवाब देंहटाएं
  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  3. mera janam khud bhi ek shahar mein hua hai...magar fir bhi mere andar ka gaon nahi mara...beautiful post.

    जवाब देंहटाएं
  4. अफसोस एक ऐसी सदाबहार चीज़ है कि हर सुबह चाय की तरह साथ देती है।
    .
    .
    .
    .और हर रात नींद की तरह साथ छोड़ देती है

    जवाब देंहटाएं
  5. नींद साथ छोड़ देती है, मगर अफसोस साथ नहीं छोड़ता..

    जवाब देंहटाएं
  6. try to learn frm u ....how do u describle these subtle sensations in sentences. gazab.

    जवाब देंहटाएं
  7. निखिल जी, मात्र बेहतरीन नहीं कहूँगा...
    आपने ये जो किस्से गढे हैं, इनकी हुक कहीं न कहीं दिल में पहुँचती हैं..

    बढिया लेखन के लिए शुभकामनायें.

    जवाब देंहटाएं

इस पोस्ट पर कुछ कहिए प्लीज़

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

भोजपुरी सिनेमा के चौथे युग की शुरुआत है पहली साइंस फिक्शन फिल्म "मद्धिम"

हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि - कथाकार विमल चंद्र पांडेय की भोजपुरी फिल्म "मद्धिम" शानदार थ्रिलर है।  वरिष्ठ पत्रकार अविजित घोष की &...