मंगलवार, 11 जनवरी 2011

सौ बार मर गया...

इस बार कुछ उम्मीद से मैं अपने घर गया...

वीरान चेहरे देखकर, चेहरा उतर गया..


बाबूजी थे खामोश, मां अजनबी लगी,

हर एक पल में सच कहूं, सौ बार मर गया...


ज़ख्मों को देख और भी नमकीन हुए लोग,

ऐ ज़िंदगी, मैं तेरे तिलिस्मों से डर गया..


ये पीठ थी, रक़ीब के खंजर के वास्ते

शुक्रिया ऐ दोस्त, ये अहसान कर गया...


सब झूठ है कि रूह को देता है सुकूं इश्क,

मैं जिस्म तक गया, वो तल्खी से भर गया....


सर्दी पड़ी, अमीरी रज़ाई में छिप गई...

फिर मौत का इल्ज़ाम ग़रीबी के सर गया...

निखिल आनंद गिरि
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10 टिप्‍पणियां:

  1. सर्दी पड़ी, अमीरी रज़ाई में छिप गई.

    फिर मौत का इल्ज़ाम ग़रीबी के सर गया

    बांकी तो ठीक, लेकिन यह सरोकारी बात जाती नहीं...

    जवाब देंहटाएं
  2. बाबूजी थे खामोश, मां अजनबी लगी,

    हर एक पल में सच कहूं, सौ बार मर गया...
    सशक्त रचना।

    जवाब देंहटाएं
  3. ऐ ज़िंदगी, मैं तेरे तिलिस्मों से डर गया..
    sach bhaut darati hai ye dilfaink dilfareb jindagi

    जवाब देंहटाएं
  4. निखिल शेर तो सब बढ़िया हैं पर शायद बाहर का ख्याल नहीं रख पाए. और तीसरा शेर स्पष्ट नहीं है मुझे.

    जवाब देंहटाएं
  5. बहर की तो समस्या है ही प्रेम अंकल,आप थोड़ा कस दीजिए शेरों को...अच्छा रहेगा...तीसरा शेर इतना मुश्किल तो नहीं लग रहा मुझे...

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  6. बाबूजी थे खामोश, मां अजनबी लगी,

    हर एक पल में सच कहूं, सौ बार मर गया...
    mujhe to ye line touching lagi..... aapko padhna achha lagta hai...

    aur aap hamare blog par bhi kabhi aaiye!

    जवाब देंहटाएं
  7. Rashmiji,zarur aayenge aapke blog par...shukriya neeraj ji ko bhi

    जवाब देंहटाएं
  8. bhai likha to aapne achha hai lekin pehle do ashaar ko hi aage badha paate to aur bhi achha hota............regards......bob

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