आज बहुत दिनों बाद लौटा हूँ घर,
एक बीत चुके हादसे की तरह मालूम हुआ है
की मेरी बंद दराज की कुछ फालतू डायरियां
(ऐसा माँ कहती है, तुम्हे बुरा लगे तो कहना,
कविता से हटा दूंगा ये शब्द....)
बेच दी गयी हैं कबाडी वाले को....
मैं तलाश रहा हूँ खाली पड़ी दराज की धूल,
कुछ टुकड़े हैं कागज़ के,
जिनकी तारीख कुतर गए हैं चूहे,
कोइ नज़्म है शायद अधूरी-सी...
सांस चल रही है अब तक...
एक बोझिल-सी दोपहर में जो तुमने कहा था,
ये उसी का मजमून लगता है..
मेरे लबों पे हंसी दिखी है...
ज़ेहन में जब भी तुम आती हो,
होंठ छिपा नहीं पाते कुछ भी....
खैर, मेरे हंस भर देने से,
साँसे गिनती नज़्म के दिन नहीं फिरने वाले..
वक़्त के चूहे जो तारीखें कुतर गए हैं,
उनके गहरे निशाँ हैं मेरे सारे ज़हन पर..
क्या बतलाऊं,
जिस कागज़ की कतरन मेरे पास पड़ी है,
उस पर जो इक नज़्म है आधी...
उसमे बस इतना ही लिखा है,
"काश! कि कागज़ के इस पुल पर,
हम-तुम मिलते रोज़ शाम को...
बिना हिचक के, बिना किसी बंदिश के साथी...."
नज़्म यहीं तक लिखी हुई है,
मैं कितना भी रो लूं सर को पटक-पटक कर,
अब ना तो ये नदी बनेगी,
ना ये पुल जिस पर तुम आतीं...
माँ ने बेच दिया है अनजाने में,
तुम्हारे आंसू में लिपटा कागज़ का टुकडा...
पता है मैंने सोच रखा था,
इक दिन उस कागज़ के टुकड़े को निचोड़ कर....
तुम्हारे आंसू अपनी नदी में तैरा दूंगा,
मोती जैसे,
मछली जैसे,
कश्ती जैसे,
बल खाती-सी..
खैर, माँ तो माँ ही है ना..
बहुत दिनों के बाद जो लौटा हूँ तो इतनी,
सज़ा ज़रूरी-सी लगती है...
निखिल आनंद गिरि
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ओह! भावों का मार्मिक चित्रण्।
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंkafi kuch hai ismein..
जवाब देंहटाएंअत्यंत भावपूर्ण
जवाब देंहटाएंso emotional..really heart touching
जवाब देंहटाएंitni sja to sach me jaroori hai
जवाब देंहटाएंmaa ki sja aur prem ki sda
kisi ek ko nahi chuna ja sakta
jindagi dono ke bin adhuri hai
itni sja to sach me jaroori hai
जवाब देंहटाएंmaa ki sja aur prem ki sda
kisi ek ko nahi chuna ja sakta
jindagi dono ke bin adhuri hai
itni sja to sach me jaroori hai
जवाब देंहटाएंmaa ki sja aur prem ki sda
kisi ek ko nahi chuna ja sakta
jindagi dono ke bin adhuri hai
im speechless......!!!
जवाब देंहटाएंsusperb!!!
जवाब देंहटाएंxcelent!!!